Monday, November 24, 2014

रूखे रूखे आखर


हस्ताक्षर की कही कहानी
चुपके
से  गलियारों  ने
मिर्च
  मसाला
, बनती  खबरे
छपी
सुबह अखबारों में
.

राजमहल में बसी रौशनी
भारी
भरकम खर्चा है
महँगाई
ने बाँह मरोड़ी
झोपड़ियों
की चर्चा है

रक्षक भक्षक बन बैठे है
खुले
आम दरबारों में

अपनेपन की नदियाँ सूखी,
सूखा  खून  शिराओं में
रूखे
रूखे आखर झरते    
कंकर फँसा निगाहों में

बनावटी
है मीठी वाणी
उदासीन
व्यवहारों में
 
किस पतंग की डोर कटी है
किसने
पेंच लडाये है
दांव
पेंच के बनते जाले
सभ्यता
पर घिर आये है

आँखे गड़ी हुई खिड़की पर 
होंठ नये आकारों. में.

------ शशि पुरवार


13 comments:

  1. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवार के - चर्चा मंच पर ।।

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  2. यथार्थ में प्रचलित परम्पराओं को बड़ी खूबसूरत अभिव्यक्ति दी है शशि जी ! बहुत ही सुन्दर रचना !

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  3. आपकी लिखी रचना बुधवार 26 नवम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  4. geet-navgeet kee dehari par saras sartah rachna.

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  5. वाह ... सामयिक रचना ... आज के हालात का जायजा लेती हुयी भावपूर्ण रचना ...

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  6. बहुत सार्थक और प्रवाहमयी रचना...लाज़वाब.

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  7. सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें

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  8. अपनेपन की नदियाँ सूखी,
    सूखा खून शिराओं में
    रूखे रूखे आखर झरते
    कंकर फँसा निगाहों में

    सुन्दर मनोहर

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