Sunday, January 18, 2015

कुण्डलियाँ - भाग रही है जिंदगी,


1
भाग रही है जिंदगी, कैसी जग में दौड़
चैन यहाँ मिलता नहीं, मिलते अंधे मोड़
मिलते अंधे मोड़, वित्त की होवे माया
थोथे थोथे बोल, पराया लगता साया
जलती कुंठा आग, गुणों को त्याग रही है
कर्मो का सब खेल, जिंदगी भाग रही है

 2
थोडा हँस लो जिंदगी , थोडा कर लो प्यार
समय चक्र थमता नहीं , दिन जीवन के चार
दिन जीवन के चार  ,भरी  काँटों  से  राहे
हिम्मत कभी न हार , मिलेगी सुख की बाहें
संयम मन में घोल , प्रेम से नाता जोड़ा
खुशिया चारो ओर , भरे घट  थोडा थोडा
-- शशि पुरवार

10 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (19-01-2015) को ""आसमान में यदि घर होता..." (चर्चा - 1863) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. हर पल ज़िंदगी कुछ न कुछ सीखती है ..... सुंदर अभिव्यक्ति

    कभी फुर्सत मिले तो ….शब्दों की मुस्कराहट पर आपका स्वागत है

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  3. आज के हालात पे सही टीका है ये कुण्डलियाँ ...
    बहुत लाजवाब ...

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  4. बहुत सटीक और सुन्दर कुण्डलियाँ...

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  5. .जिंदगी की अंधी दौड़ में कब जिंदगी गुजर जाय पता नहीं .इसलिए समय रहते चेत जाना जरुरी है .
    सुन्दर रचना

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  6. jindagi bhag rahi hai ...sach kaha ..
    रचना की कोमलता व सुवास ताउम्र उसके जीने का मकसद होती हैं.मेरे साथ मेरे सपनों की घाटियों में आपका स्वागत है...ye panktiyan bhi khoobsoorat lagin ...

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