Sunday, May 21, 2017

गंध फूलों की




फिर चलो इस जिंदगी को 

गुनगुनाएँ  हम 
बैठ कर बातें करें औ
मुस्कुराएँ हम 

लान कुर्सी पर मधुर 
संगीत को सुन लें  
चाय की चुस्की भरे हर 
स्वाद को गुन लें   

प्रीत के निर्झर पलों को 
गुदगुदाएं हम 
फिर चलो इस जिंदगी को 
गुनगुनाएँ  हम
अनकही बातें कहें जो  
शेष हैं मन में 
गंध फूलों की समेटे 
आज दामन में.

नेह की, नम दूब से 
शबनम चुराएँ हम
फिर चलो इस जिंदगी को 
गुनगुनाएँ  हम

इस समय की धार में 
कुछ ख्वाब हैं छूटे 
उम्र भी छलने लगी, पर 
साज ना टूटे 

साँझ के शीतल पलों को 
जगमगाएँ  हम 
फिर चलो इस जिंदगी को 
गुनगुनाएँ  हम

जिंदगी की धूप में 
बेकल हुई  कलियाँ 
साथ तुम चलते रहे, यूँ  
कट गयीं गलियाँ 

एक मुट्ठी चाँदनी  में  
फिर नहाएँ  हम 
फिर चलो इस जिंदगी को 
गुनगुनाएँ  हम
- शशि पुरवार 

Thursday, May 4, 2017

झूठ का पुलिंदा

 ३१
झूठ  का पुलिंदा   

        कभी कभी लगता है कलयुग का नामकरण करना ही उचित होगा।  जैसे सतयुग वैसे ही झूठ युग।  सतयुग में  भी सभी सत्य नहीं बोलते थे। लेकिन वर्तमान में तो लोग झूठ का पुलिंदा बगल में दबाये फिरते हैं।  जैसे ही कोई मिला उसे चिपका दो।  आजकल हमें रोज ही ऐसे पुलिंदों को जमा करने का मौका मिल रहा है।  क्या करें ज़माने के साथ चलना हमारी फितरत है।  हमें तो दादी माँ की कही बात याद है - झूठ बोले कौवा काटे।   तो डर के मारे कभी झूठ नहीं बोला। काले कौवे से भी चार हाथ दूर रहे।  वैसे भी कौवा काला ही होता है।  झूठ को जरूर सफ़ेद झूठ कहते सुना है। 
 आजतक उसे समझ नहीं सके कि झूठ  के भी रंगभेद हैं। अब समाज मे  झूठ इतना व्याप्त है  कि आखिर  कौवा भी  कितनों को काटेगा।  अब समझ में आया।  बेचारे  कौवे नजर क्यों  नहीं आतें हैं। वह आदमी को क्या काटेंगे ! आदमी ही उनकी डाल को काटकर सेंध लगाकर बैठा है।  

     आजकल झूठ सुन -सुन कर कान पक गए।  कल ही बात है हमने  नल सुधारने वाले को  फोन घुमा घुमा कर निमंत्रण दिया।  जबाब मिला - आज शाम को आता हूँ।  लेकिन वह शाम नहीं आयी।  घर का पानी जरूर ख़त्म हो गया।  काम के लिए बाई को बुलाया।  अभी आयी,  कहकर दो दिन निकाल दिए।  समझ नहीं आता शाम और अभी का वक़्त इतना लंबा हो गया है या घडी के कांटें ,  वक़्त के अनुसार बदल गएँ है। अब तो ऐसा लगता है बाजार वाद भी झूठ पर ही  टिका हुआ है।  हर जगह झूठे चमकीलें विज्ञापन।  खरीदने पर ग्यारण्टी की बात करो तो सफ़ेद झूठ कहतें है - एक नंबर का माल है।  आजकल माल भी द्विअर्थी हो गया है। अपना दिमाग लगाओ तो झट पलटवार।   क्या मियां - यहाँ जिंदगी का भरोसा नहीं है आप सामान की बातें करतें है।  अब  सत्य क्या है  समझ  नहीं आता है। 
                झूठ पानी में नमक की तरह घुलकर  खून में मिल गया है।  अब खून से कैसा बैर करना।  वह भी रंग में रंग गया।  पहले  झूठ पकडे जाने पर  लोगों के चेहरे फक्क सफ़ेद हो जाते थे। आजकल  पहले ही खूब सारे मेकअप से सफ़ेद रहतें है।   अब चमड़ी झूठ से मोटी हो गयी।  चोर नजरें  घूमती थी।  आज नजर भी नजर को घुमा देती है।  वाह !  चलचित्रों से बाहर असल जीवन में अब अभिनय बहुत होने लगा।   झूठ पकडने की मशीन पर  चोरों  ने  अपनी विजय  हासिल कर ली है।   जैसे मच्छरों ने  गुड नाईट  पर और कॉकरोचों  - चीटियों ने लक्ष्मण रेखा पर विजय हासिल की है। आखिर कार,  मेरा भी कौओं से डर समाप्त हो गया है।   

                     झूठ का क्या कहना ! कौवे की जगह झूठ उड़ने लगा है।  झट से उड़कर कहीं भी पहुँच जाता है। एक पल में तिगुना हो जाता है। हाल ही एक चर्चा हो रही थी साइकिल के साथ दुनियाँ भी दौड़ेगी।  लेकिन बाद में पता चला साईकिल के कलपुर्जे ही अलग हो गए।  हर जगह झूठ मुस्तैदी से तैनात है। जनता भी जानती है।  सफ़ेद कपड़ों में सफ़ेद झूठ बोला जाता है।  सफ़ेद झूठे  वादे किये जातें है। फिर भी हम उसी झूठ में सत्य युग को तलाशते हैं।  पार्टियों के अध्यक्ष  आरोप - प्रत्यारोप करतें है। फिर  बड़े आत्मविश्वास से कहतें है सभी आरोप झूठें  है।  अब कौन सच्चा कौन झूठा। सत्य तो बाहर नहीं आता  व  झूठ जलेबी की तरह खाकर पचा लेते हैं। बाथरूम में रेनकोट पहन कर नहाना नया मुहावरा बन गया है।   ऐसा भी कभी संभव कभी  है ? शायद  यही कलयुग है। इसे कहतें है सफ़ेद झूठ।  
                        मुझे तो वही दादी माँ के जमाने की बात याद है।  कोई झूठ अच्छे कार्य के लिए बोला जाये तो वह झूठ नहीं होता है।  आजकल हमें भी झूठ बोलने में बहुत आनंद आने लगा है।  इसका भी अपना मजा है।  हमारे एक संपादक मित्र है। हम दोनों अच्छी तरह जानते हैं कि हम एक दूजे से पहले झूठ बोलते हैं। 
 वह कहतें है-  रचना भेजो ! अंतिम तारीख है।  
हम भी बहुत प्यार से सफ़ेद झूठ बोलते हैं -  रचना भेज दी। बेचारी रचना घूम फिर कर दो - तीन दिन में पहुँचती हैं।  
                  यही झूठ  काम करने पर मजबूर करता है।   फिर हमने भी मान लिया अच्छे कार्य  बोला गया झूठ -  झूठ नहीं है।  हम सच्चे ही हैं।  प्रतीत होता है कि झूठ का भी अपना मजा है।  झूठ बोलते जाओ, जब पकड़ने का भय लगे तो  मुस्कुरा कर झूठ बोलो। शर्मा जी की पत्नी भी जानती है कि उनके पति ज्यादातर झूठ ही बोलते हैं।  फिर भी बेचारी पति के झूठ को सच मानकर जीती है।  गृह युद्ध नहीं चाहिए।  जलेबी - इमरती सब पचा लेती है।   इस बार उन्होंने आईने के सामने खुद को देखा तो सफेदी बगल से झाँक रही थी।  तब हमारे टीवी पर चमकते झूठे विज्ञापन ने उन्हें जवान होने का रास्ता दिखा दिया।  पतिदेव ने तो आजतक हुस्न की  तारीफ नहीं की। राह देखते देखते उम्र बीत गयी।  केश काले करने के चक्कर में और सफ़ेद हो गए।  क्रीम भी बेचारी कितना असर दिखाती।  सफेदी तो अपना असर दिखाएगी। आइना भी झूठ बोल गया। आईना हमें खूबसूरत कहता है तो हम खुश है।  मुझे लगता है कलमकार की सत्य बोलता है।  हमसे तो झूठ न बोला जाये। जहाँ कुछ गलत देखा तो झट से लिख दिया।  विसंगतियों के खिलाफ लिखना आदत है।  यदि इतने ही समझदार होते तो झूठ क्यों बोलते।  इसका आनंद तो गोता लगाकर ही महसूस कर सकतें है।  झूठ बाबा की जय हो।
         - शशि पुरवार   

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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