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Saturday, March 11, 2023

हाय, मानवी रही न नारी

 सुमित्रा नंदन पंत


हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंठित,

वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित!

युग युग की वंदिनी, देह की कारा में निज सीमित,

वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित!


सदाचार की सीमा उसके तन से है निर्धारित,

पूत योनि वह: मूल्य चर्म पर केवल उसका अंकित;

अंग अंग उसका नर के वासना चिह्न से मुद्रित,

वह नर की छाया, इंगित संचालित, चिर पद लुंठित!


वह समाज की नहीं इकाई,--शून्य समान अनिश्चित,

उसका जीवन मान मान पर नर के है अवलंबित।

मुक्त हृदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,

दृष्टि, स्पर्श संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित!


योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,

उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।

द्वन्द्व क्षुधित मानव समाज पशु जग से भी है गर्हित,

नर नारी के सहज स्नेह से सूक्ष्म वृत्ति हों विकसित।


आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित

नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित।

सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,

नर नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत।


Wednesday, March 8, 2023

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

नमस्कार दोस्तों 

आज आपके लिए सोहन लाल द्विवेदी जी का गीत प्रस्तुत कर रही हूँ ,   समय कैसा भी हो लेकिन कोशिशें जारी रहनी चाहिए।  

अब हाजिर हूँ नित नए रंग के साथ। .. आपकी मित्र शशि पुरवार  


सोहन लाल द्विवेदी 


लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है

चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है

मन का विश्वास रगों में साहस भरता है

चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है

आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है

जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो

क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो

जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम

संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम

कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


 सोहन लाल द्विवेदी 





Wednesday, June 8, 2022

तोड़ती पत्थर



तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर;

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।


कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बंधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार:-

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।


चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन,

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गई,

प्रायः हुई दुपहर :-

वह तोड़ती पत्थर।


देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।


एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

"मैं तोड़ती पत्थर।"




सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

Friday, March 4, 2022

छैल छबीली फागुनी - shashi purwar




छैल छबीली फागुनी, मन मयूर मकरंद
ढोल, मँजीरे, दादरा, बजे ह्रदय में छंद। 1

मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग। 2

फगुनाहट से भर गई, मस्ती भरी उमंग
रोला ठुमरी दादरा, लगे थिरकने अंग। 3

फागुन आयो री सखी, फूलों उडी सुगंध
बौराया मनवा हँसे, नेह सिक्त अनुबंध। 4

मौसम में केसर घुला, मदमाता अनुराग
मस्ती के दिन चार है, फागुन गाये फाग। 5

फागुन में ऐसा लगे, जैसे बरसी आग
अंग अंग शीतल करें, खुशबु वाला बाग़.6

फागुन लेकर आ गया, रंगो की सौगात
रंग बिरंगी वाटिका, भँवरों की बारात7

हरी भरी सी वाटिका, मन चातक हर्षाय
कोयल कूके पेड़ पर, आम सरस ललचाय। 8

सूरज भी चटका रहा, गुलमोहर में आग
भवरों को होने लगा, फूलों से अनुराग 1०

चटक नशीले मन भरे, गुलमोहर में रंग
घने वृक्ष की छाँव में, मनवा मस्त मलंग 1१

धरती भी तपने लगी, अम्बर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़ 1२
शशि पुरवार

Sunday, February 27, 2022

चलना हमारा काम है- शिवमंगल सिंह सुमन

 नमस्कार मित्रों

आज से एक नया खंड प्रारंभ कर रही हूं जिसमें हम हमारे हस्ताक्षरों की खूबसूरत रचनाओं का आनंद लेंगे.

इसी क्रम में आज शुरुआत करते हैं . शिवमंगल सिंह सुमन की रचना "चलना हमारा काम है ", जीवन को जोश ,  गति व हौसला प्रदान करती हुई एक रचना 

  



गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।


शिवमंगल सिंह सुमन


Tuesday, November 10, 2020

एक स्त्री ....

 

एक स्त्री 

अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती 

एक स्त्री पुरुष के बिना कहे 

उसकी हर छोटी ज़रूरतों 

का ध्यान रखती है 

वही स्त्री पुरुष द्वारा 

हिरणी सी कुचली भी जाती है 


एक स्त्री

माँ बनकर अपनी ममता लुटाती है 

वही स्त्री 

सभी रिश्तों की परिभाषा का 

किरदार जीवन में निभाती है 

पर वही स्त्री उस ममता का
कितना मोल 
पाती है ? 


एक स्त्री 

दो पल सुख की ख़ातिर 

स्वयं के दर्द सहलाती है 

एक स्त्री ही हर बंधन में 

जकड़ी जाती है 

एक स्त्री ही अपने घर में 

पराई कहलाती  है 


टूट कर जीती है वह अपनो के लिए 

क्या दो स्नेहिल शब्दों का  मोल भी 

कंठ लगाती है ?

हर पल  लड़ती है अपनो के लिए 

लेकिन क्या 

ख़ुद के लिए इक कोना सजाती है 


आवाज़ उठाए तो बग़ावत है 

आवाज़ दब जाए तो 

कुचली  जाने के लिए तैयार है 


जीवन के हर मोड़ पर 

क्यूँ स्त्री ही छली जाती है 

पुरुषों को जन्म देने वाली 

स्त्री स्वयं पुरुषों द्वारा ही 

कुचली जाती है 


बचपन , जवानी या हो बुढ़ापा 

स्त्री कभी निर्भया, कभी परितज्य 

कभी अवसादों में स्वयं को 

घिरा पाती  है 


एक स्त्री अपने ह्रदय के 

तहखानो में 

बंद अपने सपनो 

अपनी अभिलाषाओं 

अपने विचारों से 

पल पल लड़ती है 


लेकिन वही स्त्री 

जीवन के हर मोड़ पर 

चट्टानों से खड़ी 

हर तूफ़ानों से 

उन्ही अपनों के लिए 

लड़ती नज़र आती है 


स्त्री बिना कुछ कहे

अपने हर दर्द पर 

मलहम लगाती है लेकिन 

क्या स्त्री को मिलती है ? 

जीवन की तपती ज़मीन पर
शीतल 
वृक्ष की छाँव 

जहां वह निश्चल सी 

खिलखिलाती है 

गुनगुनाती है ? 

शशि पुरवार 

 

Wednesday, June 17, 2020

बाल कवितायेँ




1
जीवन में कुछ बनना है ,तो
लिखना पढना जरुरी है
रोज नियम से अभ्यास करो
मन लगाकर ही पढना
गर्मी की छुट्टी आये ,तब
खूब धमाल करना
न मेहनत से जी चुराओ
ज्ञान लेना भी जरुरी है .


झूठ कभी मत बोलना , तुम
सच्चाई का थामो हाथ
नेक राहों पर चलने से ,बड़ो
का मिलता है ,आशीर्वाद 
अच्छी अच्छी बाते सीखो
अच्छी संगति  जरुरी है .
वृक्षों को  तुम मत काटना
हरियाली भी बचानी है
पेड़ों से ही हमको मिलता
अन्न ,दाना -पानी है
प्रदूषण को मिलकर मिटाओ
पेड  लगाना  भी जरुरी है

देश के तुम हो भावी प्रणेता
राहों में आगे बढ़ना
मुश्किलें कितनी भी आयें
हिम्मत से डटे रहना
भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाना
चैनो -अमन भी जरुरी है
-------- शशि पुरवार
२८/ ९/ १३

------------------
१ 
चंदा मामा --
चंदा  मामा
तुम जल्दी से आ जाना
हाँ  प्यारे प्यारे सपने
मेरी इन आँखों में लाना
मामा  तुम जब आते हो
मन को  बहुत लुभाते हो
दीदी - भैया मुझे कहे  
सब मुझे , यही कहते है
हमें  कितना सताते हो।

चंदा मामा 
तुम जल्दी से आ जाना। .......... !

मामा जब तुम आते हो 
तो ,माँ भी आ जाती है 
प्यारी प्यारी कहानियाँ 
वह रात में सुनाती  है  


चंदा मामा ,
तुम जल्दी से आ जाना  ………।  

मामा जब तुम आते हो 
माँ लोरी भी सुनाती है 
खूब खेलती औ  हँसती
फिर धीरे से कहती है  
"लल्ला , अब तुम सो जाना "

चंदा मामा , 
तुम  जल्दी  से यहाँ आना 
फिर वापिस मत जाना।  
 --- शशि पुरवार

----------------------
२  नाना - नानी

नाना - नानी कितने प्यारे
हमें खूब लाड लड़ाते है
जब भी हमसे मिलने आते
वह खेल खिलौने लाते है

हमें  रोज शाम बगीचे में 
टहलाने  भी ले  जाते है
रोज हमारे साथ खेलते
जमकर  बातें करते है
मम्मी -पापा की डाँट से
हमें चुपके से बचाते है


लड्डू पेड़े और  रसगुल्ले
गब्ब्बारे भी दिलावाते है
हमसे गलती हो जाने पर
बड़े प्यार से समझाते है


नयी नयी बातें सिखलाते
कथा -कहानियाँ सुनाते है
नाना - नानी सबसे प्यारे
हमें खूब लाड लड़ाते है।

--- शशि पुरवार
१३  / 12 / 13 



सुबह सुबह -
कुकड़ू कु  कुकड़ू  कू

सुबह सुबह मुर्गा बोला

ढलती रात
, निकलता दिन
 मेरामन  भी है  डोला
जब भोर को ठंडी हवा
पत्तों से टकराती है
चिड़िया भी दाना चुगने
झट से नीचे आती है

सूरज को निकलते देख
कौवा काँव काँव बोला

सुबह सुहानी धूप खिली
  तो पंछी भी इतराये
बागों में कलियाँ झूमे
फिर
,भँवरे भी  मँडराये  

शुरू हुई चहल-पहल , फिर
तोता राम राम बोला।

 -- शशि पुरवार
१३/१२/१३

------------

४ 

चींटी रानी
चींटी रानी बहुत सयानी
नहीं श्रम से घबराती है
अपने कद से ऊँचा भोजन
बहुत जतन  से ले जाती  है


वह मिलजुल के काम करे
अनुसाशन सिखलाती  है
चीटियों के संग उनकी
ताकत भी  दिखलाती है
नहीं रूकती नहीं हारती 
सिर्फ कर्म करती जाती है
फल की चिंता छोड़कर ,बस
मंजिल के पथ पर जाती है


 -- शशि पुरवार

Thursday, November 14, 2019

नज्म के बहाने

१ नज्म के बहाने

याद की सिमटी हुई यह गठरियाँ
खोल कर हम दिवाने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

बंद पलकों में छुपाया अश्क को
सुर्ख अधरों पर थिरकती चांदनी
प्रीत ने भीगी दुशाला ओढ़कर
फिर जलाई बंद हिय में अल गनी

इश्क के ठहरे उजाले पाश में
धार से झंकृत तराने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।


गंध साँसों में महकती रात दिन
विगत में डूबा हुआ है मन मही
जुगनुओं सी टिमटिमाती रात में
लिख रहा मन बात दिल की अनकही

गीत गा दिल ने पुकारा आज फिर
जिंदगी के दिन सुहाने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

भाव कण लिपटे नशीली रात में
मौन मुखरित हो गई संवेदना
इत्र छिड़का आज सूखे फूल पर
फिर गुलाबों सी दहकती व्यंजना

डायरी के शब्द महके इस कदर
सोम रस सब मय पुराने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

याद की सिमटी हुई यह गठरियाँ
खोल कर हम दिवाने हो गए। ..!
--


शशि पुरवार 


Thursday, September 20, 2018

विकलांगता

विकलांगता ख्याल आते ही
 मन में सहानुभूति जन्म लेती है 
कहीं वितृष्णा, कहीं लापरवाही 
कहीं बेचारगी, कभी दुत्कार।
यह अपरिपक्व मन के विकार है  
शरीर या मन का विकृत अंग जिसे
काट नहीं सकतें, सहला सकतें है 
अपने नर्म हाथों से, प्रेम भरी बातों से।
जीवन की खूबसूरती पर
उनका भी हक है। 
विकलांगता,
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है। 
जो तन से परे मन को विक्षिप्त करता है।
जीवन लाचार नहीं, वरदान है। 
भीख मत मांगो जिंदगी से ,
लड़ो अपने मन  की अपंगता से।
बेचारगी तोड़ देगी सम्बल तुम्हारा 
पर मत लड़ो खुद से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से, 
गिर  पड़े गर अपनी नजर में तो 
 फिर कैसे उठोगे । 
 कुछ कर गुजरने की चाह गर  दिल में है 
तो छू लो आसमान को
पाँव तले होगी जमीं 
तुम्हारे मजबूत इरादों की, 
जीत लोगे जंग हालातों से 
विकलांगता अभिशाप नहीं है। अपितु
प्रेम की नरम छुअन बदल देगी
किसी एक का  जीवन

शशि पुरवार
 


Monday, February 23, 2015

अब कहाँ जाएँ।





बाहर की आवाजों का शोर,
सड़क रौंदती
गाड़ियों की चीख
जैसे मन की पटरी पर
धड़धड़ाती हुई रेलगाड़ी
और इन सब से बेचैन मन
शोर शराबे से दूर,
एक बंद कमरे में
छोड़ा मैंने बोझिल मन को ,
निढाल होते तन के साथ
नर्म बिस्तर की बाहों में
शांति से बात करने के लिए
पर अब पीछा कर रही थीं
श्वासोच्छवास की दीर्घ ध्वनि
धड़कनों की पदचाप
बंद पलकों में
चहलकदमी करने लगीं पुतलियाँ
उमड़ते हुए विचारों की भीड़
करने लगी कोलाहल
अंतर की हवा में ज्यादा प्रखर है प्रदुषण
खुद से भागते हुए
शांति की तलाश में अब कहाँ जाएँ।
- शशि पुरवार

Monday, November 17, 2014

नन्ही परी

मेरे मायके में नन्ही परी भतीजी बनकर आई है। स्नेह आशीष के साथ नामकरण करना था, तो नामकरण कविता के रूप में किया। बुआ की तरफ से नन्ही निर्वी  के लिए स्नेहाशीष -
`


बदल गया हैं घर का मौसम , ऋतु खुशियों की है आई
नन्ही नन्ही ,प्यारी निर्वी , घर - अँगना  रौनक लाई
दादा - दादी ,नाना -नानी , भूले दुख के सब अंधियारे
बचपन के संग  डूब  गए , फैले  हैं  सुख के उजियारे
ताऊ- ताई, मौसा - मौसी ,सब दूर देश के वासी
बुआ -फूफा, सौम्या -अवनि ,बोलें हम भी है अभिलाषी
नटखट गुड़ियाँ ने छेड़ी  हैं , बजी सबके मन झंकार
वाट्स आप बाबा के जरिये , सभी  मिलकर बाँटें प्यार
दादी पम्मो , घर के सारे, नाते - रिश्ते, जीता है  बचपन 
किलकारी से गूँज रहा है देखो, अब अपना  घर - आँगन
-- शशि पुरवार

Thursday, October 9, 2014

यादों के झरोखों से ---

पटना का वह घर जहाँ बचपन ने उड़ान भरी थी,पटना बाद में तो कभी नहीं जा ही सकी, जिनके साथ वो हसीन यादें जुड़ीं थी वो तो कब से तारे बन गए. आज ४० वर्षों बाद भी बाहर से यह घर वैसा ही खड़ा है कुछ परिवर्तन नहीं दिखा। २०- २५ कमरों का यह घर जहाँ चप्पे चप्पे पर बचपन की अनगिन यादें जुडी है। चुपके से तहखाने में छुप जाना, आँगन में खेलना ...... गंगा जी जो घर से ज्यादा दूर नहीं थी, नित गंगा जी में डुबकी लगाना ……… आज यादों की आंधी ने अतीत के पन्नों को पलटना शुरू कर दिया है. सोचा आपसे साझा करूँ। 

मन में ख्वाहिश थी उस जगह पर जाकर यादों को थोड़ा ताजा करूँ। आज अचानक दिवाली से पूर्व मेरे प्यारे कजिन भाई  उसने ख़ास मेरे लिए पटना जाकर यह तस्वीर ली और मुझे भेजी।
हम बचपन में साथ रहते थे बहुत सुखद अहसास था. आज यह घर तो हमारा नहीं रहा किन्तु यादें आज भी उतनी ही अपनी है. तब दिवाली बहुत ख़ास होती थी. रतजगा होता था.२ दिन तक मिठाईयां बाँटते थे अब यह सब यादें तस्वीरों में कैद होकर वक़्त में धूमिल हो गई है. कुछ पंक्तियाँ जहन में उभर रही है हालांकि  यादों की आंधी के यह  उड़ते तिनके भर है ----


छज्जों की पुरानी लकड़ी अपने दुर्भाग्य की
कहानी कह रही है
उस पर उग आई लावारिस घास
जैसे कब्ज़ा किये हुए बैठी है
पपड़ाती इन दीवारों से जुड़ा है
एक सुखद अहसास
कभी झरोखें से झाँकना
बालकनी पर लटकना
घूम घूम कर हर कमरों में
अपने होने के अहसास को
दर्ज कराना,
कभी शैतानियाँ, कभी नादानियां
वक़्त पंख लगाकर उड़ गया और
यह मकान आज भी उन्ही यादों को समेटे
बस इसी इन्तजार में खड़ा है कि
कभी तो जंग लग गए ताले टूटेंगे
कोई तो आएगा इन दीवारों पर पुनः
रंगरोगन कराने, जर्जर हो रहे छज्जों को
गिरने से बचाकर उसके अस्तित्व को मिटने से बचाने .........!
 -- शशि पुरवार

आज सोमवार से पहले ही पोस्ट लगा दी , मन चंचल आज नियम कायदे तोड़ देना चाहता है - मेरी यादों में आपको भी शामिल करने का मन हुआ।  

Monday, October 6, 2014

क्षणिकाएँ - माहिया - माँ



माँ तुम हो
शक्तिस्वरूपा
मेरी भक्ति का संसार
माँ से ही प्रारंभ
यह जीवन
माँ ही उर्जा का संचार
नीड बनाने में कितनी
खो  गयी थी  माँ
उड़ गए
पंछी घोसलों से
फिर तन्हा हो गयी है माँ
-- शशि पुरवार
-----------------------
१६ / ९ /१३

माहिया  --
 
न्यौछावर करती है
माँ घर में खुशियाँ
खुद चुन चुन भरती है


बच्चों की शैतानी
माँ बचपन जीती
नयनों झरता पानी


ममता की माँ धारा
पावन ज्योति जले
मिट जाए अँधियारा


माँ जैसी बन जाऊँ
छाया हूँ उनकी
कद तक न पहुँच पाऊँ


चंदन सा मन महके
ममता का आँचल
खिलता, बचपन चहके।


६ 

माँ  जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न  पहुंच पाऊं



-- शशि पुरवार
२९ सितंबर २०१४


 माँ  जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न  पहुंच पाऊं




Wednesday, August 20, 2014

विषैला हमराही

ताँका --

स्वार्थ में अंधे
नोच रहे बोटियाँ
धूर्त सियार
मुख से टपकती
छलिया निशानियाँ

स्वार्थ का चश्मा
सूट बूट पहने
आया है प्राणी
चाटुकार ललना
नित नयी कहानी।
भगवा वस्त्र
हाथों में कमंडल
शीश पे शिखा
अंधी श्रद्धा से लूटे
बिखरी काली निशा।

सेदोका -

१ 
धवल वस्त्र
पहन इठलाये
मन के कारे जीव
मुख में पान
खिसियानी हंसी
अनृत कहे जीभ।  
भोले चहरे
कातिलाना अंदाज
शब्द  गुड की डली
मौकापरस्त
डसते  है जीवन
इनसे दूरी भली।
३ 
साँचा   है साथी 
हर पल का साथ
कोई बूझ न सका
दिल के राज
विषैला हमराही 
आस्तीन का है साँप।
 -- शशि पुरवार

नमस्कार मित्रो कुछ व्यक्तिगत कारणों से नियमित पोस्ट नहीं कर सकी थी परन्तु अब से नियमित प्रति सोमवार सपने पर प्रकाशन होगा , आप अपना स्नेह और अमूल्य टिप्पणी से हमें कृतार्ध करें।  आप सबकी शिकायत भी अब हम दूर कर देंगे , आपसे मिलेंगे आपके ब्लॉग पर -- शुभ मंगलम - शशि पुरवार

Saturday, May 31, 2014

दो बाल कवितायेँ --

 
१ 
चंदा मामा --
चंदा  मामा
तुम जल्दी से आ जाना
हाँ  प्यारे प्यारे सपने
मेरी इन आँखों में लाना
मामा  तुम जब आते हो
मन को  बहुत लुभाते हो
सभी मुझे , यह कहते है
कितना हमें सताते हो।

चंदा मामा 
तुम जल्दी से आ जाना। .......... !

मामा जब तुम आते हो 
तो ,माँ भी आ जाती है 
प्यारी प्यारी नई  कथा
हमको रोज सुनाती  है  

चंदा मामा ,
तुम जल्दी से आ जाना  ………।  

मामा जब तुम आते हो 
माँ लोरी भी गाती  है 
हाथो से थपकी देकर 
मीठी नींद सुलाती है 
वह प्यार से सुलाती है 
चंदा मामा , 
तुम  जल्दी  से आ आ जाना   . 

 --- शशि पुरवार

----------------------
२  नाना - नानी

नाना - नानी सबसे प्यारे
हमको  लाड लड़ाते है
जब भी हमसे मिलने आते
खेल खिलौने लाते है
 
रोज पार्क में सुबह सवेरे  
हमको सैर करते है 
खूब खेलते साथ हमारे 
हँसकर मन बहलाते  है
मम्मी -पापा के गुस्से से
हमको रोज  बचाते है
 
लड्डू ,पेड़े, रसगुल्ले भी
ये हमको दिलावाते है
हमसे गलती हो जाती जब
खूब हमें समझाते है

नयी नयी बातें सिखलाते
कथा -कहानियाँ सुनाते है
नयी नयी बाते सिखलाकर 
मन सबका  बहलाते है. 

--- शशि पुरवार
 
उदंती पत्रिका मई २०१४ में प्रकाशित मेरी दोनों रचनाये , सम्पादकीय टीम का आभार।

Saturday, April 5, 2014

अंतर्मन






 अंतर्मन एक ऐसा बंद  घर
जिसके अन्दर रहती है 
संघर्ष करती हुई जिजीविषा,
कुछ ना कर पाने की कसक 
घुटन भरी साँसे 
कसमसाते विचार और
खुद से झुझते हुए सवाल ।
झरोखे की झिरी से आती हुई 
प्रफुल्लित रौशनी में नहाकर
आतंरिक पीड़ा तोड़ देना चाहती है 
इन दबी हुई सिसकती 
बेड़ियों  के बंधन को ,
 सुलगती हुई तड़प
 लावा बनकर फूटना चाहती है 
बदलना चाहती है,उस 
बंजर पीड़ा की धरती को,
जहाँ सिर्फ खारे पानी की 
सूखती नदी है 
वहाँ हर बार वह रोप देती है 
आशा के कुछ बिरबे ,
सिर्फ इसी आस में
कि कभी तो  बंद  दरवाजे के भीतर
ठंडी हवा का ऐसा झोखा आएगा
जो साँसों में ताजगी भरकर 
तड़प को खुले
आसमान में छोड़ आएगा 
और अंतर्मन के घर में होंगी 
झूमती मुस्कुराती हुई खुशियां 
नए शब्दों की महकती व्यंजना 
नए विचारो का आगमन
एवं कलुषित विकारो का प्रस्थान।
एक नए अंतर्मन की स्थापना 
यही तो है अंतर्मन की विडम्बना . 
शशि पुरवार 
२५ /मार्च २०१४

Thursday, November 7, 2013

बाल साहित्य

जीवन में कुछ बनना है ,तो
लिखना पढना जरुरी है

रोज नियम से अभ्यास करो
मन लगाकर ही पढना
गर्मी की छुट्टी आये ,तब
खूब धमाल करना
न मेहनत से जी चुराओ
ज्ञान लेना भी जरुरी है .


झूठ कभी मत बोलना , तुम
सच्चाई का थामो हाथ
नेक राहों पर चलने से ,बड़ो
का मिलता है ,आशीर्वाद 
अच्छी अच्छी बाते सीखो
अच्छी संगति  जरुरी है .

वृक्षों को  तुम मत काटना
हरियाली भी बचानी है
पेड़ों से ही हमको मिलता
अन्न ,दाना -पानी है
प्रदूषण को मिलकर मिटाओ
पेड  लगाना  भी जरुरी है

देश के तुम हो भावी प्रणेता
राहों में आगे बढ़ना
मुश्किलें कितनी भी आयें
हिम्मत से डटे रहना
भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाना
चैनो -अमन भी जरुरी है
-------- शशि पुरवार
२८/ ९/ १३

नवम्बर २०१३ के बाल  साहित्य विशेषांक  के अंक में प्रकाशित मेरी रचना  -- पाखी कविता के अंतर्गत   अभिनव इमरोज पत्रिका , पंजाब

Thursday, August 1, 2013

यूँ बदल गए मौसम।

 1
क्यूँ तुम खामोश रहे
पहले कौन कहे
दोनों ही तड़प सहें ।

2
आसान नहीं राहें
पग- पग पे  धोखा
थामी तेरी बाहें ।

3
सतरंगी यह जीवन
राही चलता जा
बहुरंगी तेरा मन ।

4
साँचे ही करम करो
छल करना छोड़ो
उजियारे रंग भरो ।

5
बीते कल की बतियाँ
महकाती यादें
है आँखों में रतियाँ ।

6
ये  पीर पुरानी है
यूँ बदले  मौसम 
खुशियाँ नूरानी है  ।


है खुशियों को जीना
हँसता चल राही
दुःख आज नहीं पीना ।


मन में सपने जागे
पैसे की खातिर
क्यूँ हर पल हम भागे?


है दिल में जोश भरा
मंजिल मिलती है
दो पल ठहर जरा ।

१०
झम झम बरसा पानी
मौसम बदल गए
क्यूँ रूठ गई रानी ?

११
क्यों मद में होते  हो
दो पल का जीवन
क्यों नाते खोते हो ।

१२
है क्या सुख की भाषा
हलचल है दिल में
क्यों  टूट रही आशा ।?

१३
दिन आज सुहाना है
कल की खातिर क्यों
फिर आज जलाना है ।

----शशि पुरवार

Sunday, July 21, 2013

उड़ गयी फिर नींदे ....!

1 
था दुःख को तो जलना
अब सुख की खातिर 
है राहो पर चलना ।
2
रिमझिम बदरा आए
पुलकित है धरती
हिय मचल मचल जाए । . 
3
है  मन जग का मैला 
बेटी को मारे 
पातक दर-दर फैला ।
4
इन कलियों का खिलना 
सतरंगी सपने 
मन पाखी- सा मिलना ।
5
थी जीने की आशा 
 थाम कलम मैंने
की है दूर निराशा ।
6
अब काहे का खोना
बीते ना रैना 
घर खुशियों का कोना 
7
भोर सुहानी  आई
आशा का सूरज
मन के अँगना लाई।
8
पाखी बन उड़ जाऊँ 
संग तुम्हारे मैं
गुलशन को महकाऊँ  

-------- शशि पुरवार









Thursday, July 18, 2013

बहता पानी ...!



बहता पानी
विचारो की रवानी
हसीं ये जिंदगानी
सांझ  बेला में
परिवार का साथ
संस्कारों की जीत .




बरसा पानी
सुख का आगमन
घर संसार तले
तप्त ममता
बजती शहनाई
बेटी हुई पराई .


हाथों  में खेनी
तिरते है विचार
बेजोड़  शिल्पकारी

गड़े आकार
आँखों में भर पानी
शिला पे चित्रकारी .



जग  कहता

है पत्थर के पिता
समेटे परिवार  
कुटुंब खास 
दिल में भरा पानी

पिता की है कहानी .
 --------- शशि पुरवार
 १३ ,७ .१ ३

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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