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Tuesday, August 4, 2020

नया आकाश - धारावाहिक कहानी भाग २



अकेलापन सताने लगा था। प्रणव से दो शब्द सुनने की आशा में उमंगो की कलियाँ मुरझा जाती थी। कभी कुछ पूछो तो जबाब भर ही मिलता था. यहाँ तक कि प्रेम के एकांत पलों मेेें भी जिंदगी रसविहीन थी। शब्द कोष खाली था। मेरे लिए परिस्थितियों को समझना बहुत कठिन होता जा था. आखिर हम कैसे बिना कहे किसी के मन की बात को पूर्णतः कैसे समझ सकतें है। एक वर्ष यूँ ही बीत गया। फिर थोडा बहुत प्रणव को समझी कि उनके लिए दिल की बात शब्दों में ढालना भी कठिन है। पलक अपने भावों को व्यक्त करना जानती थी किन्तु उसे भी सुनने वाला कोई नहीं था। प्रणव से प्रेम अभिव्यकति के दो शब्द या तारीफ सुनने के लिए भी वह तरस गयी. कई बार जतन किये, परंतु जबाब में सिर्फ मुस्कुराहट ही मिली। एक बार तो उसने प्रणव से पूछा -

’’ क्या तुम्हें मुझसे प्यार है या नही है’’. अब तो पलक ने हालात से समझौता कर लिया था. माॅ-पिताजी को कुछ भी कहकर दुखी नही करना चाहती थी. जिंदगी कशमकश में गुजर रही थी. मायके और ससुराल के वातावरण में जमीन आसमान सा अंतर था। मन की गाँठें मन में ही रह गयीं। उसे कभी भी किसी ने खोलने की कोशिश नहीं की. जीवन का प्याला भरा होने के बाद भी खाली था।

जिदंगी बस गुजर रही थी. अब कौन से सुख की चाहत करूँ यहाँ मानसिक सुख भी नहीं था। एक बार माँ को याद कर आँखों में आँसू भर आये तो सासू माँ ने ताना प्रेम से चिपका दिया कि पढ़े लिखे लोग रोते नहीं है। समझ नहीं आया क्या पढे लिखे लोगों के भीतर संवेदनाएं नहीं होती है। वक्त धीरे - धीरे तन्हाई में कटने लगा.

एक दिन उसका जी मिचलाने लगा, उल्टियां शुरू हो गई; डाॅक्टर को दिखाया तब ज्ञात हुआ माँ बनने वाली हूॅ. नए मेहमान के आगमन से ही मन प्रफुल्लित हो गया, कि अचानक प्रणव का ट्रांसफर दिल्ली हो गया. उन्हे वहां तुरंत ज्वाइन करने का पत्र मिला। सब कुछ बहुत जल्दी में हुआ और सैटल होने के बाद पलक को ले जाऊंगा कहकर प्रणव अकेले दिल्ली चले गए चले गये. जातें जाते दो शब्द कह गए - अपना ध्यान रखना; घर में सब दिल के अच्छे हैं। वह न तो खुश हो पा रही थी और न ही आँसुओं को रोक पा रही थी. कभी कभी प्रणव का यह सूखा व्यवहार खलता था. फिर भी पलक को प्रणव की कमी खलती थी. पति का पास होना भी बहुत मायने रखता है, भले ही बात- चीत न हो किंतु साथ तो रहता है. फिर यह जुदाई आठ महीने की थी. दिन का समय घर के काम और रात तन्हाई में कटने लगी. घर वालों के ताने मारने की आदत ऐसी स्थिति में भी कायम थी. मानसिक तनाव रहने लगा था। किन्तु बच्चों के आने की आहट से मन की बगियाँ जरूर हरी हो गयी थी।

माॅं जी ने दिन -रात पोते की कामना करते हुए हिदायते देना शुरू कर दिया. ऐसी स्थिति में शरीर ज्यादा थक रहा था। मेरी दुनियां नन्हे क़दमों की आहट सुनने के लिए बैचेन थी. कोख में उनकी हलचल दिल को आंनदित करती थी. मुझे तो जैसे अब आस - पास की खबर ही नही थी. नया सदस्य, जो मेरा अंश होगा, उसकी कल्पना में ही खोई रहती थी. फिर वह पल आया जब मेरी झोली में एक नही दो नन्हीं खुशियाॅ थी. जुडवा बच्चों का जन्म हुआ. एक लडकी व एक लडका. पोते की खुशी ज्यादा मनाई गई , पर माॅ के लिए लडका व लडकी में कोई फर्क नही होता, वे तो उसका अंश होते है. मेरी बेटी भी बहुत प्यारी थी.

बच्चों के आने से मन की बगिया खिल उठी. प्रणव ने कुछ नही कहा किंतु वे खुश नजर आ रहे थे. उनका फोन आया था. छुटट्ी न मिल पाने के कारण वे नही आ सके थे. मै अपने दोनो बच्चों मे रम गई . खुशी व्यक्त नही कर पा रही थी. जैसे तपते रेगिस्तान में ठंडी फुहार पडी हो. लगभग दो महीने बाद प्रणव हमें लेने आए. बच्चो को प्यार किया, मेरा हाल पूछा फिर सबके पास बैठकर वहाॅ की खबरे बताई. मुझे उनसे अंतरंग बात करने का भी मौका भी नही मिला, आने के बाद वह सारा समय घर वालो के बीच ही व्यतीत करते थे. बच्चों का नामकरण भी हुआ. विक्की और विनि. फिर उसके बाद दो दिन रूककर हम चले गये.

इस नये घर में आकर ऐसा लगा, जैसे पिंजरे से बाहर निकलकर लगता है. यहाॅ कोई रोक-टोक करने वाला नही था. प्रणव को यहाँ ज्यादा व्यस्तता थी, सुबह जाते तो रात को आते. इतना थक कर आते कि उनसे क्या बात करती, पर बच्चों के साथ वे थोडा समय जरूर व्यतीत करते . हमारा सानिध्य कम ही हो पाता. इतने दिनों की दूरी के बाद भी प्रणव के पास मुझे बताने के लिए कुछ नही था. यह बात दिल को पीडा देती थी. मेरे देानो बच्चे विक्की और विनि बहुत प्यारे थे. वक्त उनके साथ गुजरने लगा और मै भी अकेलेपन की पीडा से उबर गई. जब हमे कोई लक्ष्य मिल जाए तो बाकी बातें हमारें लिए गौण हो जाती है.क्योकि लक्ष्य के अलावा हमें कुछ याद नही रहता. बच्चो की अच्छी परवरिश ही मेरी प्रथम प्राथमिकता थी. बच्चे सही राह पर चले इसलिए मैने अपने सब शौक त्याग दिए. मेरा एक ही ध्येय था ’’ बच्चो की अच्छी परवरिश व उच्चशिक्षा’’

वक्त के साथ बच्चे भी लक्ष्य की तरफ बढने लगे. वे जब घर से जाते तो मै उनके लौटने की राह देखती. प्रणव बिल्कुल नही बदले थे . हमेशा की तरह शांत व चुप. कभी - कभी तो मुझे उन पर गुस्सा आता कि यह कैसे है, मुझे समझते भी है या नही. क्या कोई इंसान ऐसा कैसे रह सकता है जो प्यार भी नही जताए. दिल भर आता था, वो मेरे लिए क्या सोचते है आज तक मुझे पता नही चला. कभी कभी तो पीर आँखो से छलक उठती थी. ऐसा लगता था कि कही ये किसी और से शादी करना चाहते होगें, पर इसमे मेरी क्या गलती थी .मेरे पूछने पर हमेशा की तरह मुस्कुरा देते और स्पर्श द्वारा अपना प्यार जता कर कर्तव्य पूरा कर देते. पर बच्चो के साथ उनका व्यवहार एक अच्छे पिता के समान था. वो बच्चो को कुछ मना नही करते व उनके हर काम में उनका साथ देते थे. पर मेरे लिए उनके पास शब्द भी नही थे.शायद उनका पुरूष अंह आडे आता हो, खैर मै उन्हें समझने में असफल थी. अगर मै न बोलू तो शायद वार्तालाप ही न हो.

मुझे तो बच्चो के रूप में अनमोल दौलत मिली थी. मेहनत रंग लाई. बच्चे अच्छे संस्कारो के साथ, अच्छे पद पर भी पॅहुचे. विक्की इंजिनियर बनकर अमेरिका चला गया व विनि ने एम.बी.ए. में टाप किया. बच्चो की कामयाबी पर हम बहुत खुश थे. विक्की जब अमेरिका जा रहा था तो दिल उसे भेजने के लिए तैयार नही था. हर पल पलकें नम रहती थी तब एक दिन प्रणव बोले,

’’ पलक, बच्चों को आगे बढने से मत रोको, उन्हे रोक कर तुम स्वार्थी मत बनो, उनकी राहो को आसान करो व उनकी राहों में रोडे मत डालो.’’

उस एक पल वह चुप रह गई. क्या स्वार्थ होगा मेरा, आखिर बच्चों के लिए कोई माँ रोडा बन कैसे बन सकती है, प्रणव ने कैसे यह कहकर दिल दुखा दिया. उसने तो बच्चों की राहों में कभी अपने प्यार को भी आडें नही आने दिया था. बच्चों को अच्छे मुकाम पर पहुँचाना ही ध्येय था. पर जब बच्चे दूर जा रहे हो तो एक माँ को तकलीफ कैसे न होगी. दोनों की शादी की फिर भरे दिल से विक्की को भेजा व विनि की विदाई की. दोनों अपनी - अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए. सब कुछ पलक झपकते हो गया.

उनके जाने के बाद घर में सन्नाटा सांय-सांय करने लगा. घर की जैसे रौनक ही चली गई थी. शुरूआत मे विक्की के फोन बहुत आते थे, फिर धीरे - धीरे व्यस्तता बढने के कारण वह भी कम हो गए. तरक्की पाने के लिए मेहनत तो करनी पडेगी. बहू भी उच्च शिक्षित थी. उसे भी वहाँ काम मिल गया था.
विनि की ससुराल इसी शहर में थी. वह अपने पति के बिजनेस मे उनका हाथ बटांने लगी. व्यस्त होने पर भी वह अक्सर मिलने आ जाती थी. ऐसा लगा कि जैसे मैने सब कुछ पाकर भी खो दिया हो. दिल मे फिर से खालीपन व अधूरापन उरने लगा. अकेलापन अब मुझे खाने को दौडता था और जो तन्हाई मेरे बच्चों के आने से दब गई थी, उसने भी अपने फन फैलाना शुरू कर दिया. हर पल मन में निराशा के विचार आते थे. कभी- कभी तो ऐसा लगता कि सिर की नस ही फट जाएगी. घुटन सी होने लगी थी. कभी भी चिडचिडाने लगती. मै अपने आप को संभाल ही नही पाई और डिपे्रशन का शिकार हो गई. प्रणव अब थोडा समय मेरे साथ व्यतीत करने लगे. एक वक्त ऐसा आता है जब हमें अपने साथी की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है. जो एक दूसरे को भावनात्मक रूप से संभाले रखते है.

पर कहते है न कि चित्र बिना रंगो के अधूरा ही रहता है, उसी तरह प्रणव का साथ व प्यार कुछ शब्दों का मोहताज था. मै अपना दिल हल्का करना चाहती थी, पर मेरे लिए अब किसी के पास उतना वक्त नही था. दिल की तम्मनांए नागफनी के पेड की तरह बढने लगी. प्रणव अभी भी व्यस्त थे. सबकी अपनी - अपनी एक जिंदगी थी; सभी के पास अपना एक मुकाम था. पर मेरे पास अब कुछ भी नही था. मेरे दिल में यह कसक बन कर रह गई. अब तो कुछ करने की उम्र भी नही है. अपना समय व्यतीत करने व मन बहलाने के लिए मैने पुन: अपनी डायरी लिखना शुरू कर दिया, जो पहले कभी कभी लिखती थी. खाली दिमाग शैतान का घर बन जाता है. जो मै नही चाहती थी. मेरी डायरी अब मेरी हमराज बन गई थी. अपनी तन्हाई कम करने के लिए अपने विचारों को रूप प्रदान करने लगी. एक दिन रात को जब मै लिख रही थी तो अचानक प्रणव वहाँ आ गए और बोले-

’’ क्यों पलक; क्या लिख रही हो.’’

’’ कुछ भी तो नहीं, बस ऐसे ही.....’’

’’ कुछ तो लिख रही हो, फिर झूठ क्यों बोल रही हो?’’ कहकर प्रणव ने डायरी छीन ली.

’’ प्रणव, क्या हॅँ मैं? न कोई अस्तित्व, न ही कोई पहचान. मेरे लिए आपके पास भी कभी वक्त नही रहा.....’’ न जाने कैसे यह मुँह से निकल गया . यह कहते हुए पलक की आँखे भर आई.

’’ तुम कैसी बातें सोचती हो, पलक. तुम मेरी पत्नी हो, दो प्यारे बच्चों की माँ हो और ये घर तुम्हारे बिना कुछ भी नही है.’’ प्रणव ने पहली बार इतना कुछ कहा और उसे अपनी बाँहो में भर लिया. ’’

पर प्रणव, मै तो कुछ भी नही हूँ?’’ कहते हुए बडबडाने लगी ; पलक का गला भर आया; शब्द गले में अटक गए; दिल जोर से धडकने लगा, ऐसा लगा जैसे शरीर व जुबान अब उसके बस में नही है.

’’पलक, तुम क्या कह रही हो, कैसी बहकी बाते कर रही हो? मै तुमसे कुछ कह रहा हूॅ.’’

प्रणव ने पलक को पकड कर झकझोर दिया; तो पलक, प्रणव की मजबूत बाँहो का सहारा पाकर रो पडी. प्रणव हैरान रह गए. ’’ पलक, तुम्हें क्या हुआ है ?’’ कहते हुए प्रणव ने उसे सहारा दिया व प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरकर उसे शांत करने का प्रयास करने लगे.

’’ शांत हो जाओ पलक. रात बहुत हो गई है, चलो सो जाओ; बच्चों की याद आ रही है, कल उनसे बात करेंगे. अभी शांत होकर सो जाओ.’’ प्रणव समझाने का प्रयत्न कर रहे थे. यह सब इतना अचानक हो गया कि प्रणव भी घबरा गए.

मेरा दिल आज मेरे बस में नही था. इतना सहारा आज पाकर दिल उस छोटे बच्चे के समान हो गया; जिसे किसी की प्यार भरी गोद की जरूरत होती है. वह कब उस गोद मे सो गई, पता ही नही चला. प्रणव ने पता नही विनि से क्या कहा. सुबह दरवाजे की घंटी बजी. तो देखा विनि सामने खडी है.

’’ माँ तुम कैसी हो ’’ कहकर विनि गले से लिपट गई .

’’ मै तो ठीक हूँ , तू कैसे अचानक आ गई ,’’

’’ अरे भाई, मै तो तुम्हारे आँसूओ से घबरा गया था.’’ बीच मे बात काटकर प्रणव बोले.

’’ पापा, विनि बोली और दौडती हुई प्रणव के गले लग गई.

’’ अरे, अब छोटी बच्ची नही रही, चल, अब आ गई है तो सब साथ मे नाश्ता करेगें ’’ पलक ने विनि से कहा.

फिर वह नाशते की तैयारी करने लगी. विनि प्रणव के साथ बाहर चली गई. पलक आज खुद को हल्का महसूस कर रही थी. शायद रात के आँसूओं मे मन की वेदना बह गई थी. वह सोच रही थी कि प्रणव में पहले की अपेक्षा शायद कुछ परिवर्तन आ गया है. इतने में विनि आ गई व नाशता लगाने में उसकी मदद करने लगी. नाशते की टेबल पर सभी शांत बैठे थे कि अचानक विनि बोल पडी.

’’माँ, तुम कुछ अपने लिए करो ’’

’’ मै अब क्या करू ?’’ पलक ने कहा

’’ पलक, तुम्हें हमेशा से कुछ करने की ललक रही है; इक मुकाम हासिल करना चाहा था; अब शुरू करो.” प्रणव बोले.

’’अरे, अब तो उम्र बीत गई है .’’

’’नही माँ, किसी भी काम की शुरूआत के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होती है ’’ विनि ने कहा.

’’अब ऐसा कौन सा काम है? जो मै इस उम्र में शुरू करूं, घर संभाल लिया, तुम लोगों को बना दिया, मेरे लिए यही बहुत है ’’ पलक ने कहा

’’ नही माँ, तुम एक काम कर सकती हो.’’

’’क्या?’’

’’सृजन, हाँ माँ, तुम अपने विचारों का सृजन करो, तुम्हें पढने लिखने का शौक है; इससे बेहतर कुछ नही हो सकता है ’’ विनि.

’’नहीं, मुझसे अब कुछ नही होगा " कहकर पलक उठ गई और वार्तालाप वहीं समाप्त हो गया.

विनि शाम तक रूककर अपने घर चली गई. दिन भर उसने मुझसे बात नहीं करी. प्रणव एकदम शांत बैठे थे. रात को प्रणव ने मुझे विनि का पत्र दिया. विनि ने लिखा था.

’माँ, मैने आज तक आप से कुछ नही माॅंगा, आज माॅंग रही हूँ. मुझे आपकी एक अलग पहचान, एक अलग मुकाम चाहिए. क्या आप मेरी ये इच्छा पूरी करेगीं, यही मेरे जन्मदिन का तोहफा होगा. आप देगीं ना माँ - आपकी विनि.

पलक ने पत्र पढकर प्रणव को देखा, तो जबाब में प्रणव उसके हाथों को थाम कर बोले -
" पलक, मैने कभी भी तुम्हारी तरफ ध्यान नही दिया. तुम्हारे अंदर की प्रतिभा को भी नही पहचान पाया, ये मेरी गलती है, विनि सही कह रही है. मैने तुम्हारी डायरी पढी है तुम्हारा दर्द ...’’

’’अरे, आप कैसी बातें कर रहें है "’ पलक ने बात काटकर कहा

’’नही पलक, मुझे तो प्यार जताना भी नही आता, पर तुम तो अपना दर्द, अपनी खुशी, सभी कुछ तो शब्दो में ढाल देती हो. तुम बहुत अच्छा लिखती हो; कोशिश करो, अपनी प्रतिभा को उजागर करो ’’ कहकर प्रणव ने हौले से हाथ दबा लिया.

मेरे लिए ये नया अनुभव था, इतने सालों मे पहली बार प्रणव ने मेरे लिए कुछ कहा, सुनकर अच्छा भी लगा. विनि की इच्छा व प्रणव के शब्दो ने न जाने मन में कैसी स्फूर्ती भर दी जिसने मेरी सोई हुई लालसा को फिर से जगा दिया. मैने पुन: लिखना शुरू कर दिया.

जब पहली रचना पत्रिका में आई तो विक्की व विनि दोनो के फोन आए.
" माँ, तुम्हारे नए सफर का हम स्वागत करते है.’’ बच्चे भी मेरी हौसला अफजाई करते रहते. प्रणव, मेरी हर रचना पर मुझसे कहते -
’’ पलक, अच्छा है, कोशिश करती रहना ’’

अब वह अपने प्यार को बिना शब्दों के स्पर्श द्वारा महसूस कराते रहते व मैं उस प्यार को अपने शब्दों में ढालने लगी. प्रणव को अपनी खुशी व्यक्त करने में शब्दों की हमेशा कमी लगती है, पर मेरी हर कृती में अब मेरे अपने साथ होते. यह मेरे अपनों का ही विश्वास था व मुझे विनि को तोहफा भी तो देना था. दरवाजे पर बज रही तीव्र घ्ंटी की आवाज ने मेरी तंद्रा को भंग कर दिया व मेरे विचारो पर विराम लग गया.

दरवाजा खोला तो प्रणव मिठाई लिए खडे थे.

’’ कब से दरवाजा बजा रहा हूँ, कहाँ थी तुम?’’

मै कुछ कहती उसके पहले प्रणव ने मेरे मुँह मे मिठाई भर दी और प्यार से गले लगा लिया.

’’अरे, छोडो भी अब....’’ पलक इसके आगे कुछ कहती कि आवाज आई.

’’ अब उम्र हो गई है ’’ कहती हुई विनि अंदर आ गई.

उसकी इस बात पर सभी हँस पडे. दूसरे दिन रात 7 बजे हमें गांधी हाँल पहुँचना था. विनि रात को घर पर ही रूक गई थी. सुबह उठकर सब अपनी - अपनी तैयारी मे लग गए. सुबह से बधाई देने वालों का तांता लगा था. विनि के ससुराल वाले भी आए थे. विक्की का भी फोन आया था. उसे अफसोस था कि वह इस समय भी सबके साथ नही है . रात को डिनर का प्रोग्राम भी वहीं था. समारोह के लिए हम सभी नियत समय के निकल गए. हाल में प्रायोजकों ने हमारा स्वागत किया. प्रेस व मिडिया वाले भी वहाँ मौजूद थे. समारोह अपने नियत समय पर प्रारंभ हुआ. तभी संपादक ने मंच पर आने के लिए मेरा नाम पुकारा.

’’ पलक गुप्ता, जिनका ’’नीड’’ आज हाथों हाथ बिक रहा है. कितनी खूबसूरती से इन्होंने नीड का चित्रण किया है.’’

पलक उठकर खडी हुई. हाल में तालियों के साथ उसका स्वागत किया गया. माला पहनाकर व शाल उढाकर उसे सम्मानित किया गया. पलक ने झुककर सभी का अभिवादन किया तो आँखे नम हो गई. शब्दो को रूप देने वाली पलक के शब्द आज न जाने कहाँ चले गये थे. नीड, उसके ही जीवन का सपना था. वह बस इतना ही कह सकी.

’’नीड, मेरी बेटी विनि के नाम समर्पित है. यह इसके लिए मेरा एक तोहफा
है जो इसने मुझसे माॅंगा था. आप लोगो ने मुझे इतना प्यार दिया, इतना सम्मान किया, उसके लिए मै आप सबका तहे दिल से आभारी हूँ अपना स्नेह बनाये रखें.’’

’’माँ आखिर आपने अपना मुकाम पा ही लिया .एक और सृजन कर लिया, आय एम प्राउड आॅफ यू मोम ’’ कहकर विनि गले लग गई.

तभी किसी ने प्रणव से प्रश्न किया कि-

‘‘ आप कैसा महसूस कर रहेें है, आज आपकी पत्नी को सम्मानित किया गया है?.’’
‘‘ नारी का काम सृजन करना ही है, मन में आत्मविश्वास हो तो वह जो चाहे वह कर सकती है. हर नारी के अंदर कोई न कोई प्रतिभा होती है, जिसे बाहर लाना चाहिए. जिंदगी में अपने लिए कुछ करना; अपनी प्रतिभा को निखारना कोई गलत बात नही है. उन्हें भी अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है. मुझे अपनी पत्नी पर बहुत गर्व है.”
कभी न बोलने वाले प्रणव आज न जाने कैसे इतना बोल गए और मेरा हाथ थाम लिया. लोग सम्मान में खडे हो कर तालियाँ बजा रहे थे. मेरी आँखे खुशी से छलक उठी. एक नवयौवना की तरह मेरी आँखो में फिर से सतरगीं सपने रंग भरने लगे. आज मैं बहुत खुश थी कि, मुझे मेरा ‘‘नया आकाश‘‘ मिल गया.
शशि पुरवार 

शशि पुरवार 
shashipurwar@gmail.com



Saturday, August 1, 2020

नया आकाश - धारावाहिक कहानी भाग १



" नया आकाश ’’

दोपहर के 1 बजे फोन की घंटी बजी, पलक के हेल्लो के जबाब में दूसरी तरफ से प्रणव की आवाज थी.

’’ पलक, बधाई हो ! तुम्हें इस साल तुम्हारे उपन्यास ’’ नीड़ ’’ के लिए सम्मानित किया जा रहा है.

’’ क्या ’’ खुशी व सुखद आश्चर्य से पलक की आवाज में कम्पन आ गया, शब्द गले में ठहर गए, अचानक आँखें नम हो गयीं, हदृय अपने उदगार व्यक्त करने में असमर्थ थे. जीवन में जो इक प्यास शेष थी, आज जैसे उस प्यासे को पानी मिल गया था.
’’ क्यों, विश्वास नहीं हो रहा है ? अभी - अभी मुझे संस्था से फोन आया था! अच्छा, शाम को मिलता हूँ फिर बात होगी। .’’ कह कर प्रणव ने फोन रख दिया. 

पलक जैसे ही फ़ोन रखकर मुड़ने लगी, कि फिर घंटी बजी. ’ हेल्लो’ के जबाब मे उधर से अाती हुई मधुर आवाज कानों में रस घोल गयी.

माँ - बधाई हो, मैं घर आ रही हूं.’’

’’अरे विनि, कैसी है, कब आ रही है, तुझे कैसे पता चला ’’ पलक ने एक ही सांस में प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

’’ माँ, पापा का फोन आया था, अच्छा शाम को मिलतें हैं. अभी फोन रखती हॅू‘‘ कहकर विनि ने फोन रख दिया.

’’पता नही, सबको कितनी जल्दी रहती है’’ पलक धीरे से बडबडाई.

विनि से बात करके पलक की भीगी पलकें झरझर झरने लगीं। विनी उसके ह्रदय का टुकडा थी. जिसके बिना वह कोई कल्पना नहीं कर सकती थी. ऐसी ख़बरें आग की तरह फैल जाती है। उसके बाद बधाई का जो सिलसिला शुरू हुआ वह दोपहर 3 बजे तक चलता रहा.

आज जैसे पलक अपने अंदर ठहराव महसूस रही थी। स्वयं की पहचान हर इंसान के लिए मायने रखतीं है। वह पहचान ही जीवन में सम्पूर्णता का अहसास कराती है। वक़्त व नियति के चलते जो कुछ पीछे छूट गया था, आज ओस सी शीतलता बन हदृय को ठंडक प्रदान कर रहा था। ह्रदय के किसी कोने मे जो तम्मना दबी हुई थी,आज उसे एक गगन मिल गया. ह्रदय की धडकन व मन के तारों ने साज छेड रखा था. विनी ने ही अनजाने में उसके स्वप्नों को हवा दी थी। न चाहते हुए भी पलक अतीत की उन गलियों में विचरने लगी जहाँ सिर्फ दर्द और तन्हाई थी। मानसिक त्रासदी भी किसी यातना से कम नहीं होती है।

आज भी वह दिन याद है जब उसने शादी न करने के लिए जद्दोजहत की थी। आगे पढने व एक मुकाम हासिल करने का स्वप्न नैनों में तैर रहा था. पलक स्वभाव से शांत व संवेदनशील थी. वह दो बहनें थी. भाई नहीं था. पलक छोटी थी. माँ -पिताजी परंपरावादी न होकर बहुत सुलझे हुए इंसान थे. बेटियों को बेटे की तरह, बहुत जतन से पाला और जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। माँ का एक ही ध्येय था कि हम उच्च शिक्षित बने । हालाकिं माँ स्वयं शिक्षित होकर गृहणी ही थी। परंपरा के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए थे. लेकिन उनका पूर्ण साथ व विश्वास हमें मिला था.

मध्यमवर्गीय परिवार होने के कारण हम हर परिस्थिति से झूझने के आदी थे। माँ - पिताजी ने हमारी शिक्षा के लिए पूर्ण त्याग किया ,हमें कभी कुछ कमी महसूस नहीं होने दी थी। हमने भी उनके विश्वास पर खरे उतरने की पूरी कोशिश की थी. दीदी प्रोफेसर बन गई व उनकी शादी उनके साथी प्रोफेसर से हो गई. मैने भी एम.ए, बीएड व पी.एच.डी करके आगे नौकरी करनी चाही परंतु मुझे वक्त ने ऐसा कोई मौका नहीं दिया. प्रणव के घर वालों ने एक दिन मुझे देखा और रिश्ता सामने से आया। प्रणव सरकारी नौकरी में थे। मैने माँ - पिताजी से मना किया, भूखी रही, पर उनके आगे एक न चली, माँ बोली -

’’ अच्छे लडके मुशकिल से मिलते है, सुन्दर शिक्षित लड़का है और क्या चाहिए। जो भी करना शादी के बाद करना " और बात वही खत्म हो गई. लोग पहले शादी को ही जीवन का अंत मानते थे. यहाँ आकर उन्होंने भी साथ छोड़ दिया।

हर लडकी की तरह आँखों में सतरंगी सपने लिए ससुराल की दहलीज पर कदम रखा। ससुराल की परिस्थिति ठीक ही थी। नए सफर की उंमगो में परिवार का साथ व प्यार महत्वपूर्ण होता है। माँ - पिताजी ने पहले ही कह दिया था. अपने संस्कारों का ध्यान रखना, किसी को शिकायत का मौका मत देना। सोचा था कि सबका दुलार मिलेगा, तो घर के साथ-साथ वह नौकरी भी कर सकती हैं। वह सब अच्छा करने की कोशिश करेगी; परंतु सपने आँख खुलने पर टूटते ही है. धीरे धीरे प्रणव के घर वालों का व्यवहार और विचार सामने आ ही गए।

प्रणव के परिवार वाले रूढ़िवादी व सर्कीण विचारों के थे. घर की बहू बाहर जाकर काम करे, उन्हें पसंद नहीं था. घर की परिस्थिति ठीक ठाक थी. जेठ, पिताजी के साथ दुकान पर बैठते थे. उस घर में सिर्फ प्रणव और मैं उच्च शिक्षित थे, बाकी सदस्यों ने डिग्री भी पूर्ण नही की थी. प्रणव एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर की नौकरी करते थे. उन्हें काम से फुरसत नहीं थी . प्रणव का स्वभाव गंभीर व अंर्तमुखी था. परिवार में उनकी दखलअंदाजी नहीं थी. वह परिवार के खिलाफ कुछ सुनना पसंद नहीं करते थे। हाथ की मेंहदी भी नहीं छूटी कि दूसरे दिन से घर की जिम्मेदारीयाँ कांधे पर आ गयीं. नवविवाहिता के कोमल सपने रसोई घर में सिमट कर रह गए.

जिठानी झगड़ालू प्रवृति की थी। जेठानी व सास की निसदिन खिट-पिट होती रहती थी, जिसमें पलक गेहूँ के घुन की तरह पिसती थी। सभी लोग आए दिन उसे अपना स्वत्व व दबाने की कोशिश करते थे। घर में सास की ज्यादा चलती थी. कब किस बात का गलत मतलब निकल जाए कह नही सकते थे. उनकी नजर में ज्यादा पढी-लिखी लडकी तेज होती है. ऐसे में पलक ने हमउम्र दोनों ननद को अपनी सहेली बनाने का असफल प्रयास किया। कहतें है जहाँ मन मे कॉम्प्लेक्स हो वहां मिठास नहीं हो सकती है। ईर्ष्या मति भ्रष्ट करती है. दोनों का प्रेम तो दूर; भाभी शब्द का संबोधन भी कभी मुख से नहीं निकला। दिन रात बहुत ईमानदारी से परिवार की जिम्मेदारी निभाई। किन्तु उसका मोल न मिला. घर वाले स्नेह देने में भी बहुत गरीब थे. उनके लिए मैं सिर्फ दूसरे घर की लड़की ही बनी रही. घर में भय की मातमी छाई रहती थी। न ज्यादा बात और न ही हंसी मजाक, किन्तु जिसे देखो मुझे सताने का मौका जरूर ढूंढता था, लेकिन प्रणव के सामने सब बहुत सीधे बनते थे । ऐसा द्विचरित्र मुखौटा पहली बार देखा था. जिसे देखो वह उस पर हावी होने का प्रयास करता था, पलक की हालत ऐसी थी कि काटो तो खून नहीं, किसी से खुलकर हँसने बोलने में भी डर लगताथा। चुप रहकर ही प्रतिकार किया, मैंने काम के बोझ तले अपने सपनों बिखरते देखा था.

क्रशम: - अगला भाग ..

..शशि पुरवार 



Wednesday, February 5, 2020

करारी खुशबू

 अदद करारी खुशबू 

शर्मा जी अपने काम में मस्त  सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे ।  दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। अब खुशबु होती ही है ललचाने के लिए , फिर गरीब हो या अमीर खींचे चले आते है।   खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। खाने के शौक़ीन लोगों के मिजाज भी कुछ अलग ही होते हैं।   कुछ  गर्मागर्म पकवानों को खाते हैं कुछ करारे करारे नोटों को आजमाते हैं।  अब आप कहेंगे नोटों आजमाना यानि कि खाना। नोट आज की मौलिक जरुरत है।  प्रश्न उठा कि नोट  कौन खा सकता है। अजी बिलकुल खाते है , कोई ईमानदारी की सौंधी खुशबू का दीवाना होता है तो कोई भ्रष्टाचार की करारी खुशबू का।   हमने तो  बहुत लोगों को  इसके स्वाद का आनंद लेते हुए देखा है।  ऐसे लोगों को ढूंढने की जरुरत नहीं पड़ती अपितु ऐसे लोग आपके सामने स्वयं हाजिर हो जाते हैं। खाने वाला ही जानता है कि खुशबू  कहाँ से आ रही है। जरा सा  इर्द गिर्द नजर घुमाओ , नजरों को नजाकत से उठाओ कि  चलते फिरते पुर्जे नजर आ जायेंगे।  

   हमारे शर्मा जी के  दुकान के पकवान खूब प्रसिद्ध है।  बड़े प्रेम से लोगों  को प्रेम से खिलाकर अपने जलवे दिखाकर पकवान  परोसते हैं।  कोर्ट कचहरी के चक्कर उन्हें रास नहीं आते।  २-४ लोगों को हाथ में रखते है।  फ़ूड विभाग वालों का खुला हुआ मुँह भी रंग बिरंगे पकवानो से भर देते हैं।  आनंद ही आनंद व्याप्त है।  खाने वाले  भी जानते है कहाँ कितनी चाशनी मिलेगी। 

 फ़ूड विभाग के पनौती लाल को और क्या चाहिए।  गर्मागर्म पोहा जलेबी के साथ करारा स्वाद उनके पेट को गले तक भर देता है।  उन्हें  मालूम है  जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी।  पकवान की खुशबू  में मिली करारी खुशबू का स्वाद उनकी जीभ की तृषा  शांत करता है।  आजकल लोगों में  मातृ भक्त  ईमानदारी कण कण में बसी थी।  यह ईमानदारी करारी खुशबू के प्रति वायरल की तरह फैलती जा रही है।  आजकल के वायरस भी सशक्त है तेजी से संक्रमण करते है। संक्रमण की बीमारी ही ऐसी है जिससे कोई नहीं बच सकता है।  

   शर्मा जी के भाई  गुरु जी कॉलेज में प्रोफेसर है।  वैसे गुरु जी डाक्टर हैं किन्तु डाक्टरी अलग प्रकार से करते है।  उनकी डाक्टरी के किस्से कुछ अलग ही है।  अपने भाई पनौतीलाल से उन्होंने बहुत कुछ सीखा , उसमे सर्वप्रथम था करारी खुशबू का स्वाद लेना व स्वाद देना।  यह भी एक कला है जिसे करने के साधना करनी होगी।   

वह डाक्टरी जरूर बने पर मरीज की सेवा के अतिरिक्त सब काम करतें है।  कॉलेज में प्रोफेसर की कुर्सी हथिया ली।   किन्तु पढ़ाने के अतिरिक्त सब काम में महारत हासिल है  और बच्चे भी उनके कायल है।  मसलन एडमिशन करना , बच्चों को पास करना , कॉलेज के इंस्पेक्शन करवाना , कितनी सीटों से फायदा करवाना ...  जैसे अनगिनत काम दिनचर्या में शामिल है। जिसकी लिस्ट भी रजिस्टर में दर्ज न हो।   हर चीज के रेट फिक्स्ड है।  जब बाजार में इंस्टेंट  वस्तु उपलब्ध हो तो खुशबू कुछ ज्यादा  ही करारी हो जाती है।  ऐसे में बच्चे भी खुश हैं ;  वह भी नारे लगाते रहते है कि  हमारे प्रोफेसर साहब जिन्दावाद। गुरु ने ऐसा स्यापा फैलाया है कि कोई भी परेशानी उन तक नहीं पंहुच पाती।  विद्यार्थी का हुजूम उनके आगे - पीछे रहता है।  गुरु जी को नींद में करारे भोजन की आदत है। स्वप्न भी उन्हें सोने नहीं देते।  जिजीविषा कम नहीं होती।  नित नए तरीके ढूंढते रहते है। 

 उनका जलवा ऐसा कि नौकरी मांगने वाले मिठाई के डब्बे लेकर खड़े रहते है।  उनका डबल फायदा हो रहा था।  असली मिठाई पनौती लाल की दुकान में बेच कर मुनाफा कमाते व करारी मिठाई सीधे मर्तबान में चली जाती थी।  यानी पांचो उंगलिया घी में थी।  

 एक बार उन्होंने सोचा अपनी करीबी रिश्तेदार का भला कर दिया है।  रिश्तेदारी है तो कोई ज्यादा पूछेगा नहीं।  अपना भी फायदा उसका भी भला हो जायेगा।  भलाई की आग में चने सेंकना गुरु जी की फितरत थी। 

 अपनी  रिश्तेदार इमरती को काम दिलाने के लिए महान बने गुरु जी ने उसे अपने कॉलेज में स्थापित कर दिया। उसका  सिर्फ एक ही काम था कॉलेज में होने वाले इंस्पेक्शन व अन्य कार्यों के लिए  हस्ताक्षर करना और कुर्सी की शोभा बढ़ाना।  महीने की तय रकम की ५००० रूपए। 

  गुरु जी पान खाकर लाल जबान लिए घूमते थे।  बेचारी इमरती को देते थे ५००० रूपए और शेष २५००० अपनी जेब में।  यह गणित समझने वालों के लिए मुश्किल हो सकता है चलो हम आसान कर देते हैं।  गुरु जी अपने करारे कामों के लिए इतने मशहूर थे कि बच्चों से लेकर स्टाफ तक; उनकी जी हुजूरी करता है।  ऐसे में गुरु जी लोगों से ठेके की तरह काम लेते और  गऊ  बनकर सेवा धरम करते। रकम की बात दो दलों से करते स्वयं बिचौलिए बने रहते।   दूध की मलाई पूरी खाने के बाद ही दूध का वितरण करते थे ।  करारी खुशबू की अपनी एक अदा है।  जब वह आती है तो रोम रोम खिल उठता है जब जाती है तो जैसे बसंत रूठ गया हो। 

 दोनो भाई मिल जुलकर गर्मागर्म खाने के शौक़ीन  थे।  इधर कुछ दिनों से इमरती को मन के खटका होने लगा कि कम पगार के बाबजूद गुरु जी की  पांचो उँगलियाँ  घी में है और  वह स्वयं सूखी  रोटी खा रही है।  इंसान की फितरत होती है जब भी वह अपनी तुलना दूसरों से करता है उसका तीसरा नेत्र अपने आप खुल जाता है।  भगवान शिव के तीसरे नेत्रों में पूरी दुनिया समायी है , पर जब एक स्त्री अपना तीसरा नेत्र खोलती है तो  उससे कुछ  भी छुपाना नामुमकिन है। वह समझ गयी कि दाल में कुछ काला ही नहीं  पूरी दाल ही काली है।  खूब छानबीन करने के बाद गुरु जी क्रियाकर्म धीरे धीरे नजर आने लगे।  कैसे गुरु जी उसका फायदा उठाया है।  उसके नाम पर  लोगों से ४०००० लेते थे बदले में ५००० टिका देते है। शेष अपने मर्तबान में डालते थे। 

   इतने समय से काम करते हुए वह भी होशियार हो चली थी , रिश्तेदारी को अलग रखने का मन बनाकर अपना ब्रम्हास्त्र निकाला।  आने वाले परीक्षा के समय अपना बिगुल बजा दिया , काम के खिलाफ अपनी  संहिता लगा दी।  

" इमरती समझा करो , ऐसा मत करो "

" क्यों गुरु भाई आप तो हमें कुछ नहीं देते हैं फ़ोकट में काम करवा रहे हो  "

 " देता तो हूँ ज्यादा कहाँ मिलता है , बड़ी मुश्किल से पैसा निकलता है , चार चार महीने में बिल पास होता है "

" झूठ मत बोलो , मुझे सब पता चल गया है, आज से मै आपके लिए कोई काम नहीं करुँगी।  "

अब गुरु जी खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोच रहे थे।  सोचा था करीबी रिश्तेदार है।  कभी दिया कभी नहीं दिया तो भी फर्क नहीं पड़ेगा।  बहुत माल खाने में लगे हुए थे।  पर उन्हें क्या पता खुशबू सिर्फ उन्हें ही नहीं दूसरों तक भी पहुँचती है।  

इमरती की बगावत ने उनके होश उड़ा दिए , बात नौकरी पर आन पड़ी।  आला अफसर सिर्फ करारे काम ही देखना पसंद करते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि करारे व्यंजन में उपयोग होने वाली सामग्री कैसी है। यहाँ  हर किसी को अपनी दुकान चलानी है।   कहतें है जब मुंह को खून लग जाये तो उसकी प्यास बढ़ती रहती है। यही हाल जिब्हा का भी है।  तलब जाती ही नहीं। 

 इमरती के नेत्र क्या खुले गुरु जी की  जान निकलने  लगी।  गुरु जी इमरती को चूरन चटा रहे थे किन्तु यहाँ इमरती ने ही उन्हें चूरन चटा दिया।  कहते हैं न सात दिन सुनार के तो एक दिन लुहार का।  आज इमरती चैन की नींद सो रही थी।  कल का सूरज  नयी सुबह लेकर आने वाला था। सत्ता हमेशा एक सी नहीं चलती है। उसे एक दिन बदलना ही पड़ता है।      

  गुरु जी के होश उड़े हुए थे। उन्हें समझ में आ गया उनकी ही बिल्ली उन्ही से माउं कर रही है।  करारी खुशबू ने अब उनका जीना हराम कर रखा था।  खुशबू को कैद करना नामुमकिन है।  इमरती को आज गर्मागर्म करारी जलेबी का तोहफा दिया।  भाई होने की दुहाई दी।  रोजी रोटी का वास्ता दिया और चरणों में लोट गए।

  खुशबू जीत गयी थी।  अब मिल बांटकर खाने की आदत ने अपनी अपनी दुकान खोल ली  और अदद खुशबू का करारा साम्राज्य अपना विस्तार ईमानदारी से कर रहा था। जिससे बचना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। दो सौ मुल्कों की पुलिस भी उसे कैद करने असमर्थ है।  करारी खुशबू   का फलता फूलता हुआ साम्राज्य विकास व समाज को कौन सी  कौन दिशा में ले जायेगा।

    यह सब कांड देखकर शर्मा जी को हृदयाघात का ऐसा दौरा पड़ा कि  परलोक सिधार गए।  सुबह गाजे बाजे के साथ उनकी यात्रा निकाली गयी।  उनके करारे प्रेम को देखकर लोगों ने उन्हें नोटों की माला पहनाई।  नोटों से अर्थी सजाई। फूलों के साथ लोगों ने नोट चढ़ाये।  लेकिन आज यह नोट उनके किसी काम के नहीं थे।  उनकी अर्थी पर चढ़े हुए नोट जैसे आज मुँह चिढ़ा रहे थे। आज उनमे करारी खुशबू नदारत थी।  
   
शशि पुरवार 

Wednesday, July 3, 2019

सांठ गाँठ का चक्कर

 सांठ गाँठ का चक्कर 

आनंदी अपने काम में व्यस्त थी।  सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सामान सजा रही थी।  दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। आनंदी के दुकान की मिठाई व पकवान खूब प्रसिद्ध थे। जितने प्रेम से वह  ग्राहक को खिलाकर सम्मान देती थी। उतनी ही कुशलता  से वह दुकान का  कार्यभार संभालती थी।  उतनी ही गजब की निडर व  आत्मविश्वासी थी.  पति के निधन के बाद अपने मजबूत कंधो पर दुकान की जिम्मेदारी कम उम्र में संभाली थी।  वही अपने बच्चों अच्छे से पाल रही थी। अच्छे उतने ही सरल या कहे भोले भंडारी थे। अासपास के लोग उन्हे स्नेह व सम्मान से अम्मा जी कहकर बुलाते थे. उम्र ढलने लगी थी पर चेहरे का नूर कम नहीं हुआ था।  बेटे के साथ आज भी दुकान पर बैठना उसकी आदत थी। 

 खैर आज दुकान पर भीड़ कुछ ज्यादा ही थी कि फूड विभाग वाले जाँच के लिए आ टपके । वह कहते हैं न जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी।  जब दुकान इतनी मशहूर है तो खाने वालों की नजर से कैसे बचती। फ़ूड विभाग वाले आये दिन दुकान पर आ धमकते थे।  

"अम्मा जी प्रणाम , हमें भी चाय नाश्ता करवा दो। "

उन्हें देखते की अम्मा जी मन ही मन बुदबुदायी - आ गए मुये भिखारी।  जब देखो तब जीभ लपलपा जाती है।  लेकिन ऊपर से जबरन मुस्कान चिपका कर पोहा जलेबी की प्लेट के साथ मिठाई का डब्बा भी थमाकर बोली - आज के बाद आए  तो देख लूंगी।  आँखों में गुस्सा भरा था। लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकी. 

 अफसर हीरा लाल नीपे खिसोरते , खिसियानी हँसी हँसते  , उँगलियों को चाटते हुए बगल वाली दुकान में सरक लिए। 

   अम्मा जी अपने निडर व तेज स्वाभाव के कारण वहां के मोहल्ले में चर्चित थी। पति के निधन के बाद जब से दुकान संभाली मजाल  है कोई बिना पैसे के डकार भी ले।  फिर यह फ़ूड विभाग वालों का चक्कर क्या था, समझना जरुरी था। हुआ यो कि --

 शुरू शुरू में हीरालाल जब सामान की जाँच करने अपने मातहत कर्मियों के साथ आया।  सामान ख़राब होने का सवाल ही नहीं था।  अम्मा जी की देख रेख में उम्दा सामान का उपयोग किया जाता था।  लेकिन हीरालाल अभी अभी बदली होकर आया था जो  खाने - पीने का शौक़ीन था ।  आदतन बेफिक्री  से बोला - 

" सामान तो ठीक है , अम्मा जी कुछ मिठाई दे दो , फ़ूड का  प्रमाणपत्र कल मिल जायेगा।  " 

उसके ऐसा कहते ही साथ आया हुआ आदमी तेजी से बाहर निकल गया।  वह समझ गया कि आज साहब ने शेर के मुंह में हाथ डाल लिया है।  अब चमचो को क्या पड़ी है कि साहब को बचाएं। उन्हें अपनी लंगोट सँभालने की ही फिक्र होती है। 

   आनंदी ने अंदर मिठाई का डिब्बा पैक करके दिया और पैसे मांगे।  तो हीरालाल की आँखें बड़ी हो गयी बोला - 

अम्मा जी आप बड़ी भोली है, अभी तो बात हुई; कल फटाफट काम हो जायेगा  .... आगे कुछ बोल पाता  कि अम्मा माजरा समझ गयी।  तेजी से  दुकान के बाहर निकल जो गाली गलौज करके चिल्लाना शुरू किया कि हीरालाल की हवाईयां भी उड़ने लगी। 

" अरे जा रे हरामी ,पैसे माँगता है , तेरे बाप का माल है क्या।  हमरी गलती नहीं है तो किस बात के पैसे।  अच्छा सामान है ग्राहक भगवान है व आज गवाह भी  है। .... अम्मा जी का रौद्र होता रूप व जमा होती भीड़ देखकर उसने सफाई से बात पलट दी , बच्चों के लिए ले रहा था...  चलता हूँ। 

 जाते जाते खा जाने वाली निगाहों से आनंदी को देखा।  मन ही मन में बैर लिए हीरालाल के दिल में बदले की आग भभक रही थी। अब वह मौके की ताक में बैठा था।  जल्दी ही मौके की तलाश पूरी हुई।  आखिर वह दिन आ ही गया जब कार्य को अंजाम देना था। अम्मा जी अपने बड़े बेटे के साथ १५ दिन तीरथ करने चली गयी। भोले भंडारी को सब समझा कर गयी, शेष अपने भरोसे के कारीगर को बोल गयी सब संभाल ले।  

 हीरालाल को दुकान पर आया देखकर भोला मुस्कुरा कर बोला - नमस्ते साहब  आईये।  वह हमेशा देखता आ रहा था कि सामान देखकर नाश्ता करके जाते हैं  तो जल्दी से आवभगत कर दी। नाश्ता कराने के बाद गोदाम में ले गया।  

और भोला आज अकेले हो , 
हाँ साहब अम्मा कल ही गांव गयी है फिर तीरथ करने जाएगी।  कारीगर आज छुट्टी पर है। .. 
पर हीरालाल अपनी चौकन्नी निगाहों से सुराख़ ढूंढ रहा था। 
वहां एक कोने में शक्कर का बोरा रखा था जिसमे चींटी चल रही थी।  उसने जल्दी से अपने साथ आदमियों को समझाया व सब रवाना हो गए।  अगले दिन एक आदमी ने आकर रजिस्ट्री दी व भोला के हस्ताक्षर ले लिए।  दुकान भोला के नाम पर थी।  

दो  दिन बाद पुलिस वारंट के साथ हाजिर थी  और भोला को पकड़ कर ले गयी।  चलो दुकान बंद करो , खराब सामान का उपयोग करके जनता के साथ खिलवाड़ करते  हो।  लाइसेंस रद्द होता है चलो हवालात में ..!

सब अफरा तफरी थी, इज्जत जा बट्टा लग जायेगा। अम्मा जी को खबर लगी तो  उलटे पैर  लौट आयी , सारे तीरथ का फल का फल यहीं मिला था। आज बलि का बकरा तैयार था।  

" आओ अम्मा जी " - हीरालाल की आवाज में खनक थी। 

" यह तो नाइंसाफी है, साहब  " - अम्मा जी ने विरोध करना चाहा। 
" अम्मा जी आवाज नीचे रखो, हम क्या कर सकतें है , तुम्हारे बेटे ने कागज साइन करके  कोर्ट का सम्मन ले लिया था कार्यवाही तो होगी।  जिसने लिया है उसी पर होगी।  दुकान का मालिक भी है "

अम्मा जी ने सर पीट लिया।  सोचा था  बेटे के नाम दुकान करके  जिम्मेदारी से मुक्त होगी ।पर यह  एक बेटे का बाप  बन  गया पर अकक्ल दो कौड़ी की भी नहीं आयी। मन को शांत रखकर बोली - बाबू कुछ तो तोड़ होगा इस चक्रव्यूह से बाहर आने का। .. "

अब इतने दिनों से समझा रहे थे, पर  अब उसकी मुक्ति के सारे रास्ते बंद है। "
ऐसा न कहो बाबू किस बात का बदला ले रहे हो। .. 

नहीं अब मामला हमारे हाथ से निकल गया है पुलिस वाले मामला देख रहे है उनसे ही मिलो जाकर..

बेचारी रोती पीटती पुलिस थाने गयी।  वहां भोला देखकर रोने लगा - अम्मा देखो जबरजस्ती बंद कर दिया।  बेटे को जेल में कैसे रहने देती।  मामला कोर्ट तक चला जाता तो बचाना मुश्किल था।  

उसने सब बातें वहां के हवलदार को बताई।  लेकिन उसने भी हाथ खड़े कर दिए। -
"  अम्मा कोर्ट का मामला बन रहा है  कल कोर्ट में ले जायेंगे उससे पहले कुछ कर सकती हो तो कर लो "

एक समझदार  पुलिस वाला ही ऐसी सलाह दे सकता था कल सुबह तक का समय है।  अब अम्मा ने अपनी पहचान निकाली , बड़ा बेटा २-४ गुंडों व पहचान वालो  को लेकर थाने में आया। बड़े आदमी व वहां के नेता से  थानेदार पर दबाब बनाकर  मामला रफा दफा करवाया।  

हीरालाल और पुलिसवालों की सांठ सांठ थी , उन्होंने मिलकर योजना बनायीं थी , मामला निपटाने में अम्मा ने  खूब पापड़ बेले और किसी तरह भोला को बाहर लेकर आयी।  भोला तो बाहर आ गया था लेकिन थानेदार व हीरालाल अम्मा के स्थायी ग्राहक बन गए थे जिन्हें हर महीने मिठाई का डब्बा व नाश्ता पानी करवाना अम्मा की मज़बूरी बन गयी थी।  आग उगलने वाली जीभ शक्कर की चाशनी पड़ जाने से काली हो गयी थी। दबी जुबान में यही आशीष झरते थे - 

मुये कीड़े पड़ेंगे तेरे मुँह में....  ! 

शशि पुरवार 


Monday, May 27, 2019

एक अदद करारी खुशबू



शर्मा जी अपने काम में मस्त  सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे ।  दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। अब खुशबु होती ही है ललचाने के लिए , फिर गरीब हो या अमीर खींचे चले आते है।   खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। खाने के शौक़ीन लोगों के मिजाज भी कुछ अलग ही होते हैं।   कुछ  गर्मागर्म पकवानों को खाते हैं कुछ करारे करारे नोटों को आजमाते हैं।  अब आप कहेंगे नोटों आजमाना यानि कि खाना। नोट आज की मौलिक जरुरत है।  प्रश्न उठा कि नोट  कौन खा सकता है। अजी बिलकुल खाते है , कोई ईमानदारी की सौंधी खुशबू का दीवाना होता है तो कोई भ्रष्टाचार की करारी खुशबू का।   हमने तो  बहुत लोगों को  इसके स्वाद का आनंद लेते हुए देखा है।  ऐसे लोगों को ढूंढने की जरुरत नहीं पड़ती अपितु ऐसे लोग आपके सामने स्वयं हाजिर हो जाते हैं। खाने वाला ही जानता है कि खुशबू  कहाँ से आ रही है। जरा सा  इर्द गिर्द नजर घुमाओ , नजरों को नजाकत से उठाओ कि  चलते फिरते पुर्जे नजर आ जायेंगे।  

   
हमारे शर्मा जी के  दुकान के पकवान खूब प्रसिद्ध है।  बड़े प्रेम से लोगों  को प्रेम से खिलाकर अपने जलवे दिखाकर पकवान  परोसते हैं।  कोर्ट कचहरी के चक्कर उन्हें रास नहीं आते।  २-४ लोगों को हाथ में रखते है।  फ़ूड विभाग वालों का खुला हुआ मुँह भी रंग बिरंगे पकवानो से भर देते हैं।  आनंद ही आनंद व्याप्त है।  खाने वाले  भी जानते है कहाँ कितनी चाशनी मिलेगी। 

 फ़ूड विभाग के पनौती लाल को और क्या चाहिए।  गर्मागर्म पोहा जलेबी के साथ करारा स्वाद उनके पेट को गले तक भर देता है।  उन्हें  मालूम है  जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी।  पकवान की खुशबू  में मिली करारी खुशबू का स्वाद उनकी जीभ की तृषा  शांत करता है।  आजकल लोगों में  मातृ भक्त  ईमानदारी कण कण में बसी थी।  यह ईमानदारी करारी खुशबू के प्रति वायरल की तरह फैलती जा रही है।  आजकल के वायरस भी सशक्त है तेजी से संक्रमण करते है। संक्रमण की बीमारी ही ऐसी है जिससे कोई नहीं बच सकता है।  

   
शर्मा जी के भाई  गुरु जी कॉलेज में प्रोफेसर है।  वैसे गुरु जी डाक्टर हैं किन्तु डाक्टरी अलग प्रकार से करते है।  उनकी डाक्टरी के किस्से कुछ अलग ही है।  अपने भाई पनौतीलाल से उन्होंने बहुत कुछ सीखा , उसमे सर्वप्रथम था करारी खुशबू का स्वाद लेना व स्वाद देना।  यह भी एक कला है जिसे करने के लिए साधना करनी होगी।   

वह डाक्टरी जरूर बने पर मरीज की सेवा के अतिरिक्त सब काम करतें है।  कॉलेज में प्रोफेसर की कुर्सी हथिया ली।   किन्तु पढ़ाने के अतिरिक्त सब काम में महारत हासिल है  और बच्चे भी उनके कायल है।  मसलन एडमिशन करना , बच्चों को पास करना , कॉलेज के इंस्पेक्शन करवाना , कितनी सीटों से फायदा करवाना ...  जैसे अनगिनत काम दिनचर्या में शामिल है। जिसकी लिस्ट भी रजिस्टर में दर्ज न हो।   हर चीज के रेट फिक्स्ड है।  जब बाजार में इंस्टेंट  वस्तु उपलब्ध हो तो खुशबू कुछ ज्यादा  ही करारी हो जाती है।  ऐसे में बच्चे भी खुश हैं ;  वह भी नारे लगाते रहते है कि  हमारे प्रोफेसर साहब जिन्दावाद। गुरु ने ऐसा स्यापा फैलाया है कि कोई भी परेशानी उन तक नहीं पंहुच पाती।  विद्यार्थी का हुजूम उनके आगे पीछे रहता है।  गुरु जी को नींद में करारे भोजन की आदत है। स्वप्न भी उन्हें सोने नहीं देते।  जिजीविषा कम नहीं होती।  नित नए तरीके ढूंढते रहते है। 

 उनका जलवा ऐसा कि नौकरी मांगने वाले मिठाई के डब्बे लेकर खड़े रहते है।  उनका डबल फायदा हो रहा था।  असली मिठाई पनौती लाल की दुकान में बेच कर मुनाफा कमाते व करारी मिठाई सीधे मर्तबान में चली जाती थी।  यानी पांचो उंगलिया घी में थी।  

 एक बार उन्होंने सोचा अपनी करीबी रिश्तेदार का भला कर दिया है।  रिश्तेदारी है तो कोई ज्यादा पूछेगा नहीं।  अपना भी फायदा उसका भी भला हो जायेगा।  भलाई की आग में चने सेंकना गुरु जी की फितरत थी। 

 
अपनी  रिश्तेदार इमरती को काम दिलाने के लिए महान बने गुरु जी ने उसे अपने कॉलेज में स्थापित कर दिया। उसका  सिर्फ एक ही काम था कॉलेज में होने वाले इंस्पेक्शन व अन्य कार्यों के लिए  हस्ताक्षर करना और कुर्सी की शोभा बढ़ाना।  महीने की तय रकम की ५००० रूपए। 

 
गुरु जी पान खाकर लाल जबान लिए घूमते थे।  बेचारी इमरती को देते थे ५००० रूपए और शेष २५००० अपनी जेब में।  यह गणित समझने वालों के लिए मुश्किल हो सकता है चलो हम आसान कर देते हैं।  गुरु जी अपने करारे कामों के लिए इतने मशहूर थे कि बच्चों से लेकर स्टाफ तक; उनकी जी हुजूरी करता है।  ऐसे में गुरु जी लोगों से ठेके की तरह काम लेते और  गऊ  बनकर सेवा धरम करते। रकम की बात दो दलों से करते स्वयं बिचौलिए बने रहते।   दूध की मलाई पूरी खाने के बाद ही दूध का वितरण करते थे ।  करारी खुशबू की अपनी एक अदा है।  जब वह आती है तो रोम रोम खिल उठता है जब जाती है तो जैसे बसंत रूठ गया हो। 

 
दोनो भाई मिल जुलकर गर्मागर्म खाने के शौक़ीन  थे।  इधर कुछ दिनों से इमरती को मन के खटका होने लगा कि कम पगार के बाबजूद गुरु जी की  पांचो उँगलियाँ  घी में है और  वह स्वयं सूखी  रोटी खा रही है।  इंसान की फितरत होती है जब भी वह अपनी तुलना दूसरों से करता है उसका तीसरा नेत्र अपने आप खुल जाता है।  भगवान शिव के तीसरे नेत्रों में पूरी दुनिया समायी है , पर जब एक स्त्री अपना तीसरा नेत्र खोलती है तो  उससे कुछ  भी छुपाना नामुमकिन है। वह समझ गयी कि दाल में कुछ काला ही नहीं  पूरी दाल ही काली है।  खूब छानबीन करने के बाद गुरु जी क्रियाकर्म धीरे धीरे नजर आने लगे।  कैसे गुरु जी उसका फायदा उठाया है।  उसके नाम पर  लोगों से ४०००० लेते थे बदले में ५००० टिका देते है। शेष अपने मर्तबान में डालते थे। 

   
इतने समय से काम करते हुए वह भी होशियार हो चली थी , रिश्तेदारी को अलग रखने का मन बनाकर अपना ब्रम्हास्त्र निकाला।  आने वाले परीक्षा के समय अपना बिगुल बजा दिया , काम के खिलाफ अपनी  संहिता लगा दी।  

"
इमरती समझा करो , ऐसा मत करो "

"
क्यों गुरु भाई आप तो हमें कुछ नहीं देते हैं फ़ोकट में काम करवा रहे हो  "

 "
देता तो हूँ ज्यादा कहाँ मिलता है , बड़ी मुश्किल से पैसा निकलता है , चार चार महीने में बिल पास होता है "

"
झूठ मत बोलो , मुझे सब पता चल गया है, आज से मै आपके लिए कोई काम नहीं करुँगी।  "

अब गुरु जी खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोच रहे थे।  सोचा था करीबी रिश्तेदार है।  कभी दिया कभी नहीं दिया तो भी फर्क नहीं पड़ेगा।  बहुत माल खाने में लगे हुए थे।  पर उन्हें क्या पता खुशबू सिर्फ उन्हें ही नहीं दूसरों तक भी पहुँचती है।  

इमरती की बगावत ने उनके होश उड़ा दिए , बात नौकरी पर आन पड़ी।  आला अफसर सिर्फ करारे काम ही देखना पसंद करते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि करारे व्यंजन में उपयोग होने वाली सामग्री कैसी है। यहाँ  हर किसी को अपनी दुकान चलानी है।   कहतें है जब मुंह को खून लग जाये तो उसकी प्यास बढ़ती रहती है। यही हाल जिब्हा का भी है।  तलब जाती ही नहीं। 

 इमरती के नेत्र क्या खुले गुरु जी की  जान निकलने  लगी।  गुरु जी इमरती को चूरन चटा रहे थे किन्तु यहाँ इमरती ने ही उन्हें चूरन चटा दिया।  कहते हैं न सात दिन सुनार के तो एक दिन लुहार का।  आज इमरती चैन की नींद सो रही थी।  कल का सूरज  नयी सुबह लेकर आने वाला था। सत्ता हमेशा एक सी नहीं चलती है। उसे एक दिन बदलना ही पड़ता है।      

 
गुरु जी के होश उड़े हुए थे। उन्हें समझ में आ गया उनकी ही बिल्ली उन्ही से माउं कर रही है।  करारी खुशबू ने अब उनका जीना हराम कर रखा था।  खुशबू को कैद करना नामुमकिन है।  इमरती को आज गर्मागर्म करारी जलेबी का तोहफा दिया।  भाई होने की दुहाई दी।  रोजी रोटी का वास्ता दिया और चरणों में लोट गए।

  खुशबू जीत गयी थी।  अब मिल बांटकर खाने की आदत ने अपनी अपनी दुकान खोल ली  और अदद खुशबू का करारा साम्राज्य अपना विस्तार ईमानदारी से कर रहा था। जिससे बचना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। दो सौ मुल्कों की पुलिस भी उसे कैद करने असमर्थ है।  करारी खुशबू   का फलता फूलता हुआ साम्राज्य विकास व समाज को कौन सी  कौन दिशा में ले जायेगा।

    यह सब कांड देखकर शर्मा जी को हृदयाघात का ऐसा दौरा पड़ा कि  परलोक सिधार गए।  सुबह गाजे बाजे के साथ उनकी यात्रा निकाली गयी।  उनके करारे प्रेम को देखकर लोगों ने उन्हें नोटों की माला पहनाई।  नोटों से अर्थी सजाई। फूलों के साथ लोगों ने नोट चढ़ाये।  लेकिन आज यह नोट उनके किसी काम के नहीं थे।  उनकी अर्थी पर चढ़े हुए नोट जैसे आज मुँह चिढ़ा रहे थे। आज उनमे करारी खुशबू नदारत थी।  
   


शशि पुरवार 


Tuesday, August 15, 2017

नेता जी का भाषण





गाँव के नवोदित नेता ललिया प्रसाद अपनी जीत के जश्न में सराबोर कुर्सी का बहुत ही आनंद ले रहे थे। कभी सोचा न था सरकारी कुर्सी पर ऐसे बैठेंगे। पाँव पर पाँव धरे पचपन इंच सीना चौड़ा करके (छप्पन इंच कहने की हिम्मत कहाँ?), मुख पर ३२ इंच की जोशीली मुस्कान के साथ नेता जी कुर्सी में ऐसे धँसे हुए बैठे थे मानो उससे चिपक ही गए हों। साम दाम दंड भेद की नीति से कुर्सी मिल ही गयीभगवान् जाने फिर यह मौका मिले या न मिलेपूरा आनंद ले लो। कुर्सी मिलते ही चमचे बरसाती पानी जैसे जमा होने लगे। जैसे गुड़ पर मक्खी भिनभिनाती है वैसे ही हमारे नेताजी के चमचे जमा होकर भन भन कर रहे थे।

तभी नेताजी का खास चमचा रामखेलावन खबर लेकर आया कि १५ अगस्त पर उन्हें तहसील के प्रांगण में झंडा वंदन करना है। अब तो जोश जैसे और दुगना हो गयानेता जी दिन में जागते हुए स्वप्न देखने लगे। लोगों के हुजूमतालियों की गडगडाहट के बीच बड़े स्वाभिमान से झंडे की डोरी खींचकर झटपट झंडा लहरा दिया। तभी धडाम की आवाज के साथ नेता जी उछलकर कुर्सी से गिर पड़े। दिवास्वप्न टूट गयादेखा तो दरवाजे का पर्दा उनके ऊपर पड़ा था और वे जमीन की धूल चाट रहे थे। यह देख रामखेलावन समेत सारे चमचे जोर जोर से बत्तीसी दिखाने लगे। नेताजी खिसियानी बिल्ली की तरह बरामदे का खम्भा नोचने लगे और उनकी खतरनाक मुख मुद्रा देखकर सारे चमचे ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग।
नेता जी बड़बड़ाने लगेहम पर हँसते होकभी खुद ई सब किये होते तो पता चलता रस्सी खेंचना का होवत है। भक भक... अब तुम काहे दाँत दिखा रहे होकछु काम के न काज केचले आये परेशान करने... अब झंडावंदन करे का है तो सफ़ेद झक्क कुरता पायजामा और टोपी ख़रीदे की हैका है कि अब फोटो सोटो भी लिया जायेगा।

रामखेलावन-वह तो ठीक है प्रभुस्टैज पर कछु बोलना पड़ेगा। अब भाषन का देना है। वह भी तो सोचिये...

नेताजीअर्ररर... जे हम तो भूल ही गए। सारी ख़ुशी ऐसी हवा हुई कि नेताजी का मुँह एकदम पिचके हुए आम की तरह पोपला हो गया। चौड़ा सीना ऐसे पिचका जैसे गुब्बारे में छेद हो गया। पेशानी पर गुजली मुजली सलवटें ऐसे आयीं कि चिंता के मारे खुद के बाल ही नोचने लगे।
यह सब देख चमचा भी उसी रंग में रँगने लगा। इधर नेताजी की चहल कदमी बढती जा रही थी । उधर राम खेलावन पीछे पीछे टहलता हुआ अपनी वफ़ादारी दिखा रहा था।

नेताजी अब का होगाहमरी इज्जत का मलीदा बन जायेगाअब का भाषण देंगेकभी सुने ही नहीं। सकूल में भी सिर्फ लड्डू खाने जाते थेतीसरी कक्षा के बाद पढ़ने गए ही नहीं। दिन रात गैया को चारा खिलाते रहेगौ माता की किरपा से नेता बन गए। हे ससुरे भाषण वाशन काहे रखत हैं। २ चार लड्डू देई दो खाना खिलवइ दो... हो गया झण्डावंदन... आगे के शब्द खुद ही चबा कर नेताजी खा गए।
यह सब देखकर रामखिलावन समझ गया कि नेताजी की हालत पतली हो रही हैवह हिम्मत बढ़ाते हुए बोला -इसमें चिंता की कोनो बात नहीं है भाषण देखकर पढ़ लियो। अभी समय है थोडा प्रक्टिस कर लो। हमें गाना भी आवत है अभी परोग्राम को समय हैहम सिखा देंगे।
नेता जी-हाँ वही वही परोग्राम। तुम कौन से काले कोट वाले होजो हमरे खातिर भासन लिखोगेजे सब पढ़े लिखे का काम होवत हैवैसे जे बताओ इसे और का कहत हैं। स्वतंत्र दिवस या गणतंत्र दिवस या इन दपेंदंस डे... कहते हुए बाल खुजलाने लगे। गाना वाना तो हमसे होगा नहींटीवी पर देखत रहेसबरे धुरंदर सलूट मार के खड़े रहत हैंकोई गाना वाना नहीं गावत हैजे काम तो सकूली बच्च्वन का है।
चमचाहाँ फिर कहे चिंता करत होबस भाषण याद कर लोतैयार हो जावेगा। हम सिखा देंगे। एक एक गिलास गरम दूध पियोहलक में गरमागरम उतरेगी तो ससुरी जबान खुल जावेगी।
नेता जीपर हमरी तो हालत ख़राब है। इतने लोगन के सामने भासन... भासन कइसन कहेंपर बोलना तो पड़ेगा ही... नहीं हम अपना दिमाग लगाते हैं... अब हम याद कर लेंगे... "नमस्कार गाँव वालों..."
रामखिलावनहे महाराज ऐसे शोले की तरह नहीं कहते। कहिये मेरे प्रिय भाइयों और बहनों...
नेताजी -चल बेवह सबरी तुमरी बहन होगी... आजकल वक्त बदल गयो है।
रामखेलावनओ महाराज भाई बहनों को प्रणामनहीं कहे का हैतो बोलो भाई बंधू...
इधर चमचा कागज कलम के साथ टुन्न हो गयाउधर नेताजी को भी दूध जलेबी चढ़ गयी। दिन में सितारे नजर आने लगे। जोश में होश खो बैठे। स्वप्न में खुद को मंच पर खड़ा हुआ पाया। अपार जन समूह देखकर मुस्कुराने लगे और जैसे ही लोगों के हुजूम ने जयजयकार कीतो हाथ हिलाते हुए माइक तक आ गए। मेज को मंच समझ कर जोश के साथ ऊपर चढ़कर खूब दिमाग लगाया और भाषण शुरू किया --
भाइयों... भाइयों... और सबकी लुगइयों... आज हमरा बहुत बड़ा दिन हैहमरा सपना सच हो गयो है। कबहूँ सोचे न थे नेता बन सकत हैं। हे गाँधी जी कृपा रहीपहले लोग देश की खातिर जान दिए रहेदेश को गुलामी से बचाये रहे। गाँधी जी के वचनों पर चले... बुरा मत देखोबुरा मत कहोबुरा मत सुनो। आज स्थिति बदल गयी हैलोग बुरा ही देखत हैंबुरा ही करत हैं और बुरा ही सोचते हैं। पहले हाथ जोड़कर सबके आगे खड़े रहत थे। बात बात पर लात घूँसे मिलत रहेपर अब समय बदल गयो हैदो चार लात घूँसे मारोथोड़ा गोटी इधर का उधर करोथोड़ा डराओ धमकाओपैसे खिलाओ तो चुनाव का टिकिट भी मिल जावत है। पहले पढ़े लिखे लोग नेता बनत रहेतब भी देश बँटता थाआज कम पढ़े लिखे लोग नेता बने हैंतब भी देश छोटे छोटे राज्यों में बँट गवा है। सबरी पार्टी अपनी सत्ता चाहत है। शांति के सन्देश पहले से देत रहे सो आज भी देत हैं।



आज हर किसी को नेता बने का हैकुर्सी है तो सब कुछ हैआज हर कोई कुर्सी चाहत है। सबहुँ मिलकर घोटाले करोजितने भी पैसा आवत है उसे आपस में मिल बाँट कर खाई लोदेश की जनता बड़ी भोली है। ईमानदार टैक्स देता रहेकिसान मरता रहे। आज जेहि स्थिति बनी हुई है। एक बार कुर्सी मिल गयी फिर सब अपनी जेब में रहत हैं। काहे के संत्री मंत्रीदेश को पहले अंगरेज लूटट रहेअब देश के लोग ही लूटन मा लगे हैं। हर तरफ भ्रष्टाचार फैला हुआ है। कुछ भी हो जाये कुर्सी नहीं छोड़ेंगेघोटाले करके जेल गए तो पत्नी या बच्चों को कुर्सी दिलवा देंगे। जे बच्चे वा खातिर ही पैदा किये हैं। कब काम आवेंगे। प्राण जाए पर कुर्सी ना जाएपहले देश को गुलामी से बचायाअब खुदही देश के तोड़न में लगे हैं। हर किसी की अपनी पार्टी हैसत्ता के खातिर हर कोई अपनी चाल चल रिया हैइसको मारोउसको पीटोदो चार लात घूसे चलाने वाले पहलवान साथ में राख लियोमजाल कोई कुछ करे। सारे साम दाम दंड भेद अपनाई लो पर अपनी जय जयकार कमतर नहीं होनी चाहिए।\


अब नेता बन गए तो देश विदेश घूम लोऐसन मौका कबहू न मिले। हम भी अब वही करहियें। अभी बहुत कुछ करे का है। बस फंड चाहिएजो काम करे का है सब काम के लिए फंडफंड में खूब पैसा मिलत हैथोडा बहुत काम करत है बाकी मिल बाँट कर खाई लेंगे। आखिर चोर चोर मौसेरे भाई भाई जो हैं ।
तुम सबरे गॉंव के लोगन ने हमें नेता चुना और हमेशा अइसन ही प्रेम बनाये रखना। आगे भी ऐसे ही हमें वोट डालना। तुम सब यहाँ आये हो हमें बहुत अच्छा लगालो झंडा वंदन कर दिए हैं । बच्चों ने गाना भी गा दिया। आज हम लाडू बहुत बनवाएं हैखूब जी भर के खाओ। हमें याद रखना। हर बार वोट देना फिर ऐसे ही गाड़ियों में भर के शहर घुमाने ले जायेंगे और खाना पैसा भी दिहें...

 
अभी जोर से बोलो जय भारत मैया की

शशि पुरवार 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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