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Monday, March 20, 2017

उड़ान का आभाष

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सपने जीवन का अभिन्न अंग हैं, मैंने भी कई सपने देखे लेकिन जिंदगी में सभी सपने सच होते चले जायेंगे सोचा न था. सपने अच्छे भी देखे तो दुखद स्वप्न भी देखे, सत्य यह भी है कि जिंदगी ने बहुत दर्द से रूबरू कराया। मेरा मानना है कि दर्द को क्यों जाहिर किया जाये वह सिर्फ दुःख ही देता है। इसीलिए अच्छा स्वप्न ही साझा करना चाहूँगी. बचपन का एक स्वप्न अवचेतन मन में आकर जैसे बस गया था। १० -११ वर्ष की उम्र में चंचलता और स्वप्न का सुन्दर तालमेल था, ढेर सारे सपने मन के आँगन में रंगोली बना रहे थे। सादा जीवन उच्च विचार मन को आकर्षित करते थे। आँखों में तीन स्वप्न थे जिसमे से एक की राह चुननी थी। सफल डॉक्टर बनना, सफल बिज़निस टॉयकून बनना या नेवी की अफसर बनना। लेकिन एक बार ऐसा स्वप्न देखा जिसे भूल नहीं सकी. जीवन की कठिन राहों पर स्वयं को लेखिका बनकर लोगों के बीच जीवित देखा कि मैं इस दुनिया से चली जाऊं किन्तु मेरे शब्दों के माध्यम से सबके समीप जीवित रहूंगी। स्वयं को लेखिका धर्म निभाते हुए देखना असमंजस में डाल गया था। खैर इसे स्वप्न समझ कर छोड़ भी दिया। अंतर्मुखी संवेदनशील स्वभाव के कारण अनुभूति को शब्दों में ढालना सदैव पसंद था, लेकिन उसे कभी प्रोफेशन के रूप में नहीं देखा था। जिंदगी की राहें अलग अलग राहों पर चलकर आगे अपनी राह बना रही थीं. पढाई पूरी होते ही नौकरी ज्वाइन की, लेखन जीवन का अभिन्न अंग था डायरी के पन्नो से निकालकर कब वह भी उड़ान भरने लगा इसका आभाष नहीं हुआ। हालाँकि हिंदी से अध्यन भी नहीं किया किन्तु कलम की अभिव्यक्ति का मार्ग कभी न छूट सका, कलम निरंतर बिना किसी चाहत के चलती रही, पारिवारिक बंधन व जिम्मेदारी के तहत नौकरी छोड़ी लेकिन कुछ कर गुजरने की आशा न छूट सकी. जब भी किसी ने तंज कसा कि क्रांति वादी विचार थे कि महिला को कुछ करना चाहिए। अब क्या करोगी,तब लोगों को प्रतिउत्तर नहीं दिया, मौन ही उसका उत्तर था। जिंदगी में इसी बीच ऐसी मार दी जिससे उबरना मुश्किल था, नामुमकिन नहीं। तन की मार से अपाहिज महसूस करती लेकिन मन के उद्गार उड़ान का आभाष कराते थे . कलम की ताकत व कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति ने कब इसे मेरी जिंदगी बना दिया इसका एहसास बहुत बाद में हुआ। पाठकों ने अपने दिलों में स्थान देकर स्नेह वर्षा द्वारा जैसे मन के घावों को भर दिया। लेखन कब पन्नों से निकलकर दबे हुए स्वप्न को साकार कर गया, स्वयं ज्ञात न हुआ , आज सिर्फ इतना याद है कि ऐसा कोई स्वप्न देखा था, जिसे सोचकर मन ही मन मुस्कराहट आती थी। मैंने सिर्फ सतत कर्म किया, फल की चिन्ता कभी नहीं की, शायद नियति में यही तय था। स्वप्न साकार होते हैं, स्वप्न जरूर देखें। स्वप्न देखने व जीने की कोई उम्र नहीं होती है।
      -- शशि पुरवार 

Friday, April 10, 2015

आईना सत्य कहता है।



  लघुकथा

आज आईने में जब खुद का अक्स देखा तो ज्ञात हुआ  वक़्त कितना बदल गया है। जवां दमकते चहरे, काले बाल, दमकती त्वचा के स्थान पर श्वेत केश, अनुभव की उभरी लकीरें, उम्र की मार से कुछ ढीली होती त्वचा ने ले ली है, झुर्रियां अपने श्रम की  कहानी बयां कर रही हैं।  उम्र को धोखा देने वाली वस्तुओं पास मेज पर  बैठी कह रही थी मुझे आजमा लो किन्तु  मन  आश्वस्त था इसीलिए इन्हे आजमाने का मन  नहीं हुआ. चाहे लोग बूढ़ा बोले किन्तु आइना तो सत्य कहता है।  मुझे आज भी आईने के दोनों और आत्मविश्वास से भरा, सुकून से लबरेज मुस्कुराता चेहरा ही नजर आ रहा है। उम्र बीती कहाँ है, वह तो आगे चलने के संकेत दे रही है। होसला अनुभव , आत्मविश्वास आज भी कदम बढ़ाने के लिए  तैयार है। 
शशि  पुरवार

Thursday, March 19, 2015

पहचान


वाह अपना लंगोटिया यार कितना बड़ा आदमी हो गया है, जानी मानी हस्ती है, अपने को कैसे भूल सकता है, जब उसके बुरे दिन थे तब कितनी मदद की थी। महाशय दम्भ में भरे हुए बचपन के सखा से मिलने गए, साथ में एक दो चम्मच को भी ले गए , थोड़ा रॉब तो झाड़ दिया जाए ……… अपनी तो गाडी निकल पड़ेगी।

पर वहां तो चमचों की लाइन लगी पड़ी थी, अब गुड की ढेली आ गयी है तो मक्खियाँ तो भिनभिनायेंगी।
ऐसे में इन महाशय को कौन पूछता, पर महाशय आज मिलने का विचार का साफा पहनकर ही बैठे थे।

बड़े बड़े कद वाले दोस्त आये, सबसे मिले फिर महाशय से कहा - कहो भाई कैसे आना हुआ, क्या काम है।

महाशय बड़े खुश---- अपने यार ने पहचान लिया। पीठ पर धौल मालकर गले लग गए --- यार केशु कैसा है?

पर यह क्या --- अरे अरे कौन हो भाई -- ये क्या कर रहे हो --- जरा सा मीठा क्या बोल लिया -- सर पर बैठे जा रहे हो।
" तुम मुझे नहीं पहचान रहे ,कैसे भूल सकते हो " महाशय अचकचा गए.

तुम जैसे लोग बेफ़्कूफ होतें है, जब काम था, अब काम ख़त्म , हमसे फ़ायदा उठाने की सोचना भी मत --- तुमने काम किया तो हमने भी तुम्हारा काम किया हिसाब ख़त्म। …।

कड़कती आवाज ने निर्देश दिया ---चौकीदार आगे से ध्यान रखना ऐसे लोग अंदर नहीं आने चाहिए।
चढ़ते सूरज को हर कोई सलाम करता है।
-- शशि पुरवार

Tuesday, December 16, 2014

सम्मान


सम्मान --
आज जगह जगह अखबारों में भी चर्चा है फलां फलां को सम्मान मिलने वाला है और हमारें फलां महाशय भी बड़े खुश हैं. वे  अपने मुंह  मियां मिट्ठू बने जा रहें है ----  एक ही गाना   गाये जा रहें है  .......... हमें तो सम्मान मिल रहा है .........
भाई,  सम्मान मिल रहा है, तो क्या अब तक लोग आपका अपमान कर रहें थे, लो जी लो यह तो वही बात हो गयी, महाशय जी ने पैसे देकर सम्मान लिया है और बीबी गरमा गरम हुई जा रहीं है .
ये २ रूपए के कागज के लिए इतना पैसा खर्च किया, कुछ बिटवा को दे देते, हमें कछु दिला देते। …… पर जे तो होगा नहीं। …
हाय कवि से शादी करके जिंदगी बर्बाद हो गयी। ………। दिन भर कविता गाते रहतें है , लोग भी वाह वाह करे को बुला लेते हैं, कविता से घर थोड़ी चलता है. अब जे सम्मान का हम का करें, आचार डालें ……। हाय री किस्मत कविता सुन सुन पेट कइसन भरिये……।
             अब क्या किया जाए, कवि  महोदय अपने सम्मान को सीने से चिपकाए फिर रहें हैं, फिर  बीबी रोये , मुन्ना रोये  चाहे जग रोये या  हँसे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा क्यूंकि भाई कविता की जन्मभूमि यह संवेदनाएं ही तो हैं. संवेदना के बीज से उत्पन्न कविता वाह वाह की कमाई तो करती ही है।  प्रकाशक रचनाएँ मांगते हैं , प्रकाशित करतें है, कवि की रचनाएँ अमिट हो जाती है, कवि भी अमर हो जाता है, पर मेहनताना कोई नहीं देता …………। फिर एक कवि का दर्द कोई कैसे  समझ सकता। वाह रे कविता सम्मान।
-- शशि पुरवार

Sunday, July 20, 2014

एक प्रश्न

सोच - विचार इसके बारे में क्या कहूं . कुछ लोंगो  की सोच आजाद पंछी की तरह खुले आसमान में विचरण करती है तो वहीँ  कुछ लोगो की सोच उनके ही ताने बानो से बने हुए शिकंजो में कैद होकर रह जाती है है .कुछ दिन पहले कार्यालय में एक सज्जन और उनकी सहकर्मी  महिला से मुलाक़ात हुई. उन्होंने सहज प्रश्न किया आप क्या करती है ?
मैंने कहा - लेखिका हूँ। 
महिला  रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोली -  "हा हा क्या लिखती है ?" 

" सभी  तरह की रचनाएँ, सब कुछ कविताएँ ....!आगे कुछ कह पाती 
महिला ने बात काटकर हँसते हुए कहा - 

"  जी यह भी कोई काम है।  कविता सविता, लेखन  तो बेकार के लोग करते है , जिन्हें कोई काम नहीं होता है . कवि घर नहीं चला सकते,  वैसे भी दुखी लोग कवी बनते हैं !"

   अब मुस्कुराने की बारी मेरी थी। ऐसी विचारधारा में संगम करने से अच्छा है हम राह बदल लें।  मैने जबाब में मुस्कुरा कर कहा - अपनी अपनी सोच है , एक रचनाकार समाज का आईना होता है।  आप लोग जो पत्र पत्रिकाएं पढ़ते हैं उसमे लेखक की मेहनत की रचनाएँ होती है।आप लोग हर पत्रिका में कविता कहानी , लेखन का आनंद लेते है पर लेखक उनकी नजर में कुछ नहीं ?

  मै तो  यही कहूँगी कि लेखक ही  समाज का आइना होता है, जो हर  अनुभूति, परिस्थिति, और समय को शब्दों का जामा पहनाकर उसे स्वर्णिम अक्षरों में उकेरता है .और यह सभी कृतियाँ  अमिट  होती है . यह कोई आसान कार्य नहीं है जिसे हर कोई  कर सकता है.
 घंटो .......विचारों के मंथन के बाद ही कोई रचना जन्म लेकर आकार  में ढलकर जन जन के समक्ष प्रस्तुत होती है. बिना मेहनत ने कोई कार्य नहीं किया जाता है, इसलिए उस कार्य को  बेकार कहना कहाँ की समझदारी है, यह तो उसका अस्तिव ही नकारना है .
एक रचनाकार की पीड़ा सिर्फ एक रचनाकार ही समझ सकता है

                                          --- शशि पुरवार

Tuesday, October 29, 2013

1 लघुकथा ---- रोज दिवाली



रामू धन्नी सेठ के यहाँ  मजूरी के हिसाब से काम करता था , सेठ रामू के काम और ईमानदारी से खुश रहता था , परन्तु काम के हिसाब से वह  मजूरी कम देता था , रामू  को  जितना मिलता उसमें ही  संतुष्ट रहता था ,इस बार सेठ को त्यौहार के कारण  अनाज में तीन गुना मुनाफा हुआ , तो ख़ुशी उसके चेहरे से टपक पड़ी ,  घमंड भरे भाव में ,वह रामू से बोला --

" रामू इस बार मुनाफ  खूब हुआ है , सोच रहा  हूँ कि इस दिवाली  घर का फर्नीचर बदल दूं , घर वालो को खूब नए कपडे ,गहने और मिठाई इत्यादि  ले कर दे दूं , तो इस बार उनकी दिवाली  भी खास हो जाये .................! "

सेठ बोलता जा रहा था और रामू शांत भाव से अपने काम में लगा हुआ था , जब  धन्नी सेठ ने यह देखा तो  उसे बहुत गुस्सा आया , और रामू को नीचा दिखने के लिए उसने कहा ---

"  मै  कब से  तुमसे बात कर  रहा हूँ , सुर तुम  कुछ बोल नहीं रहे हो .... ठीक है  तुम्हे  भी 100 रूपए दे दूंगा , अब तो खुश हो  न ...? , यह बताओ  कि तुम  क्या क्या करोगे इस दिवाली  पर ...............? "
रामू शांत भाव से बोला ----
" सेठ हमारे यहाँ तो रोज ही  दिवाली होती है . "
" रोज दिवाली होती है ..........? क्या मतलब ? ......आश्चर्य का भाव सेठ के चेहरे  पर था ."
" जब रोज  शाम को पैसे लेकर घर जाता हूँ तो सब पेट भर के खाना खाते है  और जो  ख़ुशी होती है उनके चेहरे पर , यह हमारे लिए  किसी दिवाली से कम नहीं  है  ." कहकर रामू अपने काम में मगन हो गया .

------शशि पुरवार

बीते साल दैनिक भास्कर में  प्रकाशित  हमारी यह  लघुकथा ---


Monday, December 10, 2012

एक सवाल - विकृत दर्पण समाज का .......... ? बाल शोषण




1 -- लघुकथा ---                        ख्वाब

 रोज छोटू को सामने वाली दूकान पर काम करते हुए देखती थी , रोज ऑफिस में चाय देने आता था , हँसता , बोलता  पर आँखों में कुछ  ख्वाब से तैरते थे .एक दिन मैंने उससे कहा
" छोटू पढने नहीं जाते "
"नहीं दीदी समय नहीं मिलता "
"क्यूँ घर में कौन कौन है  "
"माँ ,बापू बड़ी बहन ,छोटी बहन "
"तो सब क्या करते है "
"सभी काम करते है "
"तुम्हे पढना नहीं अच्छा लगता ?"
वह चुप हो गया ,और नीहिर भाव आँखों में था  ,धीरे से बोला ---
" हाँ बहुत मन करता है पढूं , अच्छे अच्छे कपडे पहनू , स्कूल जाऊ  और मै भी एक दिन ऐसे ही नौकरी कर बड़ा इंसान बनू , पर इतने पैसे नहीं है ,जो मिलता है सब मिलकर उससे खाना ले कर आते है ,".........काश  में भी बड़े घर में जन्म लेता .......
             शब्द खामोश हो गए और नयन सजल ,यह सजा भगवान् ने नहीं दी , इंसानों ने ही तो अमीर गरीब बनाये है ,स्वप्न तो सभी की आँखों में एक जैसे ही आते है .
     

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2 लघुकथा --- दोहरा व्यक्तित्व

स्कूल की अध्यापिका ने बाल शोषण के खिलाफ बहुत कुछ भाषण में कहा , कि बाल श्रम अपराध है , बाल शोषण नहीं करना चाहिए , सबको इसके खिलाफ मिलकर आवाज उठानी चाहिए  .वगैरह ,....!
उनकी बातो से सभी बहुत प्रभावित हुए , सभी बच्चो  के माता पिता ने भी बहुत प्रसन्नता व्यक्त करी कि हमारे बच्चे कितने अच्छे स्कूल में पढ़ते है .मै  उन अध्यापिका से परिचित थी ,बहुत सौम्य स्वाभाव की थी ,हर कोई प्रभावित हो जाता था उनसे , एक दिन किसी कार्यवश एक परिचित के साथ उनके घर जाने का मौका मिला , वह अविवाहित थी और अकेले रहती थी , जब हम पहुचे कोई 10 वर्ष की लड़की ने दरवाजा खोला , ठीक ठाक  कपड़ो में थी वह लड़की , तो वह कोई सदस्य तो नहीं लग रही थी परिवार की ,हम बैठे तो तो उन महोदया ने आवाज  दी ---
"रानी पानी लेकर आओ  और काम हो गया हो तो घर चली जाओ "
" जी मैडम , हो गया "
हम आश्चर्य से देखते रह गए उन्हें , मुझसे रहा नहीं गया मैंने पूछ ही लिया
"क्या यह आपके यहाँ काम करती है ?"
 "अरे नहीं , वह तो मै इसे पढ़ा देती हूँ , स्कूल की फ़ीस भी भरती  हूँ इसकी , कपडे खाना सभी करती हूँ वक़्त आने पर , अब इतना कुछ करती हूँ , तो थोडा घर का काम करा लेने से क्या फर्क पड़ेगा ,आखिर पैसे देती हूँ . इसके माँ -बाप गरीब है , बर्तन का ही काम करते है , वह तो अच्छा है कि यह मेरे पास है तो इसका भला हो गया ,अब यही रहती है मेरे पास , ख़ुशी से ही करती है यह सब   ,वैसे भी तो काम क्या होता है हम दोनों का ....!

मै चकित थी इस दोहरे व्यक्तिव से , एक तरफ बाल श्रम के लिए उनके विचार एवं दूसरी तरफ ऐसा कार्य , क्या समझे इसे  ....दोहरा व्यक्तिव जो आम है आजकल ?

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3 लघु कथा ---  शोषण
 आज आरती के घर में बहुत चहल पहल थी ,9 साल की आरती और 11 प्रकाश  साल का कजिन दोनों अपने नाना के घर पर थे , आज मेहमान भी घर पर आये  थे  , माँ , नानी ,व परिवार के अन्य सदस्य  रिश्तेदारों में व्यस्त थे , बच्चे उधम मचा रहे थे , एक दूर का रिश्तेदार उम्र 24  होगी वह भी था और बीच बीच  में बच्चो  के साथ भी खेल लेता था . इतनी चहलपहल थी कि  ठहाको की आवाजे ही बाहर आती थी . एक दिन सभी आराम कर रहे थे ,बच्चे छत पर खेल रहे थे , आरती वैसे ही खेल रही थी और प्रकाश पतंग उड़ा रहा था ,अपने दोस्त के साथ . थोड़ी देर में  वह लड़का जिसे मामा कह रहे थे बच्चे  ,छत  पर आया और बच्चो के साथ खेलने लगा , फिर खेलते खेलते आरती से बोला ---
 "चलो हम थोड़ी देर बैठते है और चाकलेट खाते है इनको पतग उड़ाने  दो , "
" नहीं मामा यही पर खेलना है , मुझे नहीं बैठना "
" अब यह तो नहीं खेल रहे है फिर ....." बात काट कर आरती बोली --
" नहीं मुझे कहीं नहीं जाना , मै  यही खेलूंगी "
"ओह हो....... तो खेलना है तुम्हे ,चलो हम कुछ और खेलेंगे "
" सच्ची में ......"
"हाँ , चलो वहां छत  के कोने में ,अब प्रकाश  तुम्हे  पतंग नहीं दे रहा है  तो , हम भी उसे नहीं खिलाएंगे "
" ठीक है मामा ,हम क्या खेलेंगे ?
" आओ मै  बताता हूँ , पर किसी से कुछ नहीं कहना , नहीं तो सब मारेंगे  तुम्हे और मै फिर नहीं खेलूंगा ,
" जैसा मै कहता हूँ वैसा ही करो ....."
         और  छत  पर उस तथाकथित मामा ने  जो खेल खेला वह  आरती समझ ही नहीं सकी ,और दर्द ,डर से पीड़ित हो गयी , और मामा ने कहा --
"   अरे डरो मत सब ठीक हो जायेगा , पर किसी से कुछ कहना नहीं ." धीरे से धमकी .
 आज रिश्तो का खून हो चूका था , कैसे अपनों पर भी विश्वास किया जाये ,आज रिश्ते नाते भी कठघरे में है ,जो अपनी गन्दी  विकृत मानसिकता के चलते  मासूम बचपन के मन व जीवन और रिश्तो  पर काले  घाव  के निशाँ अंकित कर  देते है . 
-----       शशि पुरवार


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4 कथा ------  स्वाहा

रामू चाय की दुकान पर काम करता था  पढने का बहुत शोक था  दिन में काम करता  और रात के समय पढता था , पिता ने उसे काम करने के लिए कहा था ,वह कहते थे की पढने से पैसे नहीं मिलते ,पर झुग्गी छोपडी में एक स्कूल था जो मुफ्त शिक्षा देता था ,तो रामू की लगन से वहां उसे दाखिला मिल गया था ,सिर्फ परीक्षा के समय पैसे भरने होते थे फॉर्म के ,तो रामू के पिता ने उसे कह दिया
" ठीक है देखेंगे.......... "
हर महीने की पगार वह आजकर रामू के सेठ से ले जाते थे .आज कप धोते धोते रामू को याद आया कि कल स्कूल में कहा गया है कि  अगर आज रूपये नहीं भरे तो परीक्षा नहीं दे सकते  . उसने सेठ से कहा
 काका जल्दी से आता हूँ घर से .........वह घर की तरफ भागा ,और अपने पिता से बोला --
" बाबा फ़ीस भरनी है आज ,"
" पैसे नहीं है मेरे पास ............. पता नहीं  सा पहाड़ मिल जायेगा पढ़ कर .."कड़कती आवाज में जबाब आया ,फिर वह सड़क पर निकल गए .

रामू को कुछ समझ नहीं आया ,आँखों में आंसू आ गए , सोचा रात को अम्मा  से कहूँगा ,नहीं तो स्कूल वाले भगा देंगे स्कूल से ,
रात को जब  अम्मा घर आई वह  कुछ कह पाता उससे पहले पिता शराब की बोतल पीते  हुए लडखडाते ,गन्दी गलियां देते हुए घर में घुसे  , आज सन्नाटा सा छा गया झोपड़ी में .........आज खाने में लात घुसे ही मिले , निरीह  आँखे तक रही थी अँधेरे को , एक खामोश चीत्कार थी रामू के मन में .आशाएं , इक्छाएं  धू धू कर जल रही थी . शराब में सब कुछ स्वाहा  हो गया .

------- शशि पुरवार


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बाल शोषण ----- एक नजर


          बाल  शोषण यह एक ऐसी समस्या है जिसका निदान ही नहीं निकल रहा, अक्सर  इसके बारे में हम  समाचार पत्रों में पढ़ते रहते है, यह  शोषण  समाज में बुरी तरफ मकडजाल की तरह फैला  हुआ है. बाल  शोषण सिर्फ काम करवाने  से ही नहीं  होता अपितु शारीरिक , मानसिक शोषण भी जघन्य अपराध है एवं शोषण की  श्रेणी में  ही आता है।  इसे आप दबे रूप में कहीं न कहीं देख ही सकते है।  गरीब माँ बाप तो इस महंगाई की मार से परेशान होकर अपने बच्चो को काम पर लगा देते है. निम्न वर्ग  को सरकार जो रूपये देती है वह भी उन बच्चो पर खर्च न होकर उनकी जेबों में ही जाता है. निम्न वर्ग अपने बच्चो को भीख मांगने के लिए गलियों ,चौराहे  या मंदिर के बार खड़ा कर देते है.नहीं तो सर्कस या करतब दिखाकर पैसे का कमाने का कार्य सौंप देते है . एक बार जब मुझे कार्य वश होलसेल बाजार में जाने का काम पड़ा, चौराहे पर चाट का एक  ठेला खड़ा था और थोड़ी दूर पर  5, 6 -8 -10 साल के 6-7 बच्चे बैठे थे. करीब 22  साल  का  एक लड़का कुछ  दूरी पर बैठ  कर सब पर नजर रखे हुए था .  2 -2 बच्चे आगे एक गन्दी सी छोटी चादर पर बारी बारी आकर बैठते। एक बाजा बजाता तो दूसरा करतब दिखाता। जब 5-6 साल के बच्चो ने आँखों से सुई उठाई, बांस पर चले , शरीर को तोड़ मोड़ कर प्रस्तुत किया तो वहां ठेले पर खड़े कुछ लोगो ने  1 -1 रूपए डाल  दिए ,परन्तु किसी ने भी उन्हें यह कार्य करने से नहीं रोका , और धीरे धीरे वह पैसा बड़े लड़के की जेब में जाता रहा. इस अपराध के हिस्सेदार वह लोग भी है जो ऐसे खेल को देख आनंदित होते है और बढ़ावा देते है . जो इन बातों का विरोध करते है उन्हें स्वयं समाज का विरोध झेलना पड़ता है .
      
        बच्चो का शोषण सिर्फ श्रम से ही नहीं होता अपितु स्कूल में  शिक्षक द्वारा, एवं घर में  परिचित या रिश्तेदार भी उनका शोषण कर लेते है। सामान्यतः यह बात खुलकर बाहर नहीं आ पाती . बच्चो को चाकलेट या मिठाई के बहाने बुलाकर , फुसलाकर उनका शारीरिक शोषण किया जाता है . उन्हें जान से मरने की धमकी देकर डराया जाता है और  इसी बहाने बच्चे लगातार शोषित किये जातें है।  चाहे लड़का हो या लड़की सभी इसके शिकार होते है। कई बार सुनने में आया कि फलां टीचर ने विद्यार्थी के साथ अनुचित व्यवहार किया है. कई शिक्षक  ऐसे होते है जो बालउम्र  को  ध्यान  में न रखकर सजा के रूप में उनकी  इतनी पीटाई करते है कि कई बार बच्चो की हालत ख़राब हो जाती है और उन्हें अस्पताल तक ले जाना पडा . भय उनके मन में घर कर जाता है।

          कई बार ऐसी परिस्थिति भी सामने आई है जैसा कि आरती के साथ हुआ था। उसके घर में उसके दूर के मामा ने उसका शारीरिक शोषण किया और डरा कर चुप करा दिया।  वह डर के कारण  कुछ नहीं कह सकी . बाल्यावस्था में बच्चों के साथ हुई घटनाएं उनके बालमन पर सदा के लिए अंकित हो जाती है। आरती के साथ जो कुछ भी  हुआ उसके दुःख और  परेशानी की काली छाया उसके जीवन पर सदा के लिए अंकित हो गयी .इसके ठीक विपरीत साहसी  नीलम  की  दाद देनी पड़ेगी। वह कोचीन क्लास में पढने जाती थी।  विद्यार्थीयों को अपनी डिफिकल्टी के लिए कक्षा के बाद ही रुक कर पूछना पड़ता था।  एक दिन नीलम अपने प्रश्न के लिए वहां रुकी। उसके टीचर ने उसके साथ अकेले में अशोभनीय व्यवहार किया , पहले तो वह कुछ नहीं बोली, पर यह सिलसिला अक्सर होने लगा तो उसने विरोध किया। जबाब में उस शिक्षक ने  उसे धमकी दी यदि ज्यादा आवाज करोगी तो तुम्हे बदनाम कर दूंगा। पर नीलम की समझदारी उसे कोई बड़ा  कांड होने से बचा लिया। उसने माता -पिता को यह बात बताई और पुलिस की मदद से बालबाल बच गयी . हर बच्चे को बचपन से ही यह शिक्षा देनी  चाहिए कि डरो मत अपितु अपनों का सहारा लो. अनजान पर विश्वास मत करो .
                      अपराध तो ख़त्म नहीं होते।  आज समाज में जगह - जगह राक्षस फैले हुए हैं।  अक्सर समाचार पत्र दुष्कृत की काली ख़बरों से रंगे हुए होते हैं।  कुछ दुष्कर्मी युवको ने शराब  के नशे में न जाने कितनी मासूम  कन्याओ को अपना शिकार बनाया, सबसे ज्यादा खेद जनक स्थिति है  कि अपने मानसिक विकृत कृत्य में उन्होंने 3-- 6 महीने की  नवजात शिशु  को भी नहीं बख्शा। आज लोगों का मानवता से भरोसा उठ गया है।  शिशु आज अपने घर में भी सुरक्षित नहीं है।  विकृत मनोदशा वाले लोग सामान्य स्थिति में हमारे आसपास ही मौजूद होते हैं।  सोशल मीडिया पर मौजूद पोर्न विडिओ ने किशोरों को भी अपनी गिरफ्त में लेकर मानसिक रोगी बनाया है।  कई लोग पुलिस की गिरफ्त में भी आये और सजा भी हुई। पर अपराध का मकड़जाल इस तरह फैला हुआ है कि  इसकी सफाई करना मुश्किल है।  सभ्य कपड़ों में काले कुकर्मी घूमते हैं। 

        लोग समाज के डर से यह बात ही छुपा लेते है . खासकर जब कन्या हो,कहीं उसकी शादी में अड़चन न हो जाये। ऐसा विचार अपराधी को बढ़ावा देते हैं इंसानियत मरने लगी है। न्यायालयों में पोक सो के केसों की बढ़ती संख्या चिंतनीय है। मानसिक विकृति का खामियाजा नवजात बच्चों और बच्चियों का भुगतना पड़ता है। शिक्षिकों द्वारा किये गए कृत्य कितने गलत हैं, जब गुरु ही गलत होगा तो बच्चों को क्या शिक्षा मिलेगी!  शोषण सिर्फ शारीरिक ही नहीं मानसिक भी होता है, एक बार स्कूल में एक शिक्षिका ने 1-2 बच्चो को बहुत मारा , नंबर भी काट लेने की बात कही, क्रोध में बहुत ज्यादा होमेवोर्क दिया, सजा दी . एक बार  एक लड़की इस पीड़ा को न सह सकी और डर के कारण घर पर भी किसी को कुछ नहीं बताया व अंत में आत्महत्या कर ली. एक नोट छोड़ दिया और  जिंदगी हमेशा के लिए मिट गयी। . इस तरह के हालात समाज को अंदर से खोखला कर रहें हैं। नन्हे कदम जो हाथ थाम कर चलना सीख रहें हैं उन्हें दुनिया को अच्छी नज़रों से दिखाना चाहिए  न कि काली करतूतों से भरी दुनियां को। बालपन में हुए हादसे उनके जीवन पर विपरीत प्रभाव भी डालते हैं।  उनके साथ हुई घटनाओं का जिम्मेदार वह दुनिया को मानते है एवं बदला लेने के लिए भविष्य में वही कार्य दोहराते हैं। ऐसी कई  घटनाए हमारे समाज में हो रही है. बाल मजदूरी भी हमारे समाज का हिस्सा बन गयी है। समाज में फैली अपराधों के चलते कई लोग घर में  काम के लिए छोटे बच्चो को रख लेते हैं। क्यूंकि वह परेशान नहीं करते और सारा काम  चन्द  पैसे और खाने के लालच में  कर देते है .

   बचपन एक फूल के समान है जिसे प्यार भरे संरक्षण की आवश्यकता है , जब नींव अच्छी रखी  जाएगी तो वह  पौधा बन कर अच्छे फल- फूल देगा . आज बाल शोषण जैसी समस्या को जड़ से मिटाने के लिए सभी को साथ में मिलकर समाप्त करना होगा .  चंद पंक्तियाँ  कहना चाहूंगी--

बेटी हो या बेटा ,
बचपन एक समान
न मसलो नन्हें पौधों को 
दो अधरों पर मुस्कान
 --शशि पुरवार

Wednesday, December 5, 2012

एक भूल और .............................!




    रंगीन मिजाज 

अनिरुद्ध एक  सॉफ्टवेयर इंजीनयर था।  वह  अपनी पत्नी और दो बच्चों   के साथ हंसी ख़ुशी जीवन  कर रहा था।  वह अक्सर काम के सिलसिले में शहर से बाहर जाता था . इस बार जब वह वापिस आया तो देखा उसकी नेहा  की तबियत ठीक नहीं है। बुखार बार बार आ रहा था व वह  थोड़ी कमजोर दिख रही थी . अनिरुद्ध चिंतित हो गया और उसने  नेहा से पूछा --

"नेहा क्या हुआ, डाक्टर को दिखाया ...?"

" कुछ नहीं, ठीक हूँ , बुखार के कारण  कमजोरी आ गयी है , आजकल वायरल भी बहुत  फैला है "

" हाँ यह तो है , परन्तु अपना ध्यान रखो ....... "

  इधर आजकल कुछ दिनों से बेटे की तबियत भी बिगड़ने लगी।  चेहरे और शरीर पर दाने निकलने लगे और बुखार भी बार बार आ रहा था।  उधर  निशा का स्वास्थ भी धीरे -धीरे बिगड़ता जा रहा था।  एक दिन तो वह काम करते करते  गिर गयी, अनिरुद्ध दोनों को  अस्पताल  लेकर गया तो वहां नेहा एवं बेटे  को एडमिट कर लिया गया,  दवाईयां असर नहीं कर रही थी। फिर उनकी सभी प्रकार की जांच शुरू हो गयी.  शाम को डाक्टर ने अनिरुद्ध से कहा कि --

" आप धीरज रखें , आपको अपनी पत्नी को भी हिम्मत देना है। और एक बार आप अपना व अपनी बेटी का ब्लड टेस्ट करवा लें।  "

" क्यों डाक्टर ! मेरी नेहा को क्या हुआ है  और हम सभी की जाँच क्या कोई चिंता की बात है ?" अनिरुद्ध की आवाज में चिंता झलक रही थी। 

" मै एतिहात के तौर पर सभी की एच . आई  वी टेस्ट करवा रहा हूँ, आपकी पत्नी और बेटे की रिपोर्ट पॉजिटिव आई है और  hiv  संक्रमण आखिरी स्टेज पर पहुँच चुका है "

" यह सुनते ही अनिरुद्ध जड़  हो गया, उसके मन मस्तिष्क ने जैसे काम करना ही बंद कर दिया हो !"

        परिवार के सभी सदस्य की जांच हुई तो पता चला कि सभी इस बीमारी से ग्रसित  है, वह ग्लानी से भर गया कि उसके रंगीन मिजाज स्वाभाव व असंयम के कारण  आज पूरा परिवार काल के द्वार पर खड़ा था।  नेहा की निगाहे उससे खामोश  सवाल कर रही थी, जिससे वह नजर उठाने में असमर्थ था।  शादी से पहले से ही उसने इन रंगीन गलियों की आदत जो डाल रखी थी। 
-----शशि पुरवार .


२ असावधानी 

सुलोचना स्वयं को होशियार समझती थी. वह हमेशा पैसे बचाने  के चक्कर में रहती थी. एक बार उसकी तबीयत  नासाज थी.  वह पास में ही डाक्टर को दिखाने गई. डाक्टर ने उसे दवा दी और इंजेक्शन  लेने के लिए कहा।  साधारण दवाखाना था किन्तु  बहुत चलता था।  वह कम्पाउंडर  के पास इंजेक्शन के लिए गयी तो देखा वहां बहुत से लोग लाइन में बैठे है। कम्पाउंडर सभी को एक एक करके इंजेक्शन लगा रहा था. वहां एक बर्तन में गर्म पानी रखा था, हर बार सुई लगाने के बाद उसमे  डाल देता और दूसरी को निकालकर लोगों को इंजेक्शन लगाता .सुलोचना ने सोचा गर्म पानी में सभी कीटाणु  मर जाते है तो नयी डिस्पोजेबल सुई में के लिए फालतू में पैसे खर्च क्यों करूँ। 
जब  सुलोचना की बारी आई तो कम्पाउंडर ने कहा --

" आपका परचा ?"

" हाँ यह लीजिये। यह इंजेक्शन लगाना है "

" ठीक है "

फिर  वह  गर्वित भाव से यह सोचते सोचते घर आ गयी कि - "डिस्पोजल के पैसे तो बचे।कुछ नहीं होता है, आजकल मेडिकल वालों ने भी लोगों को ठगने का  धंधा बना लिया है. पहले भी तो लोग ऐसा करते थे। "

बीमारी तो ठीक हो गयी, परन्तु जो हुआ उसकी कल्पना से परे था।  2-3 महीने बाद जब सुलोचना थकी थकी सी रहने लगी तो घर वालो को चिंता हुई, 
 बाद में सभी जांच हुई तो पता चला  कि  खून संक्रमित हो गया है. एच . आई .वी . के कीटाणु खून में पाए गए।  यह जानकर सभी सदमे में आ गए. 

 सुलोचना  ने विचलित होकर डाक्टर ने कहा --यह कैसे संभव हो सकता है।

" आप चिंता मत करो शुरुआत है, आपका इलाज हो सकता है "

" पर डाक्टर यह कैसे हो गया।  हम कितनी सावधानी बरतते है "

" यह संक्रमण का रोग है, किसी भी असावधानी से यह रोग हो सकता है ,  इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति का  संक्रमित खून दिये जाने पर या संक्रमित व्यक्ति को लगाईं  हुई सुई का उपयोग करने पर भी यह बीमारी  हो जाती है।   अनेक ऐसी सावधानियां हमें बरतनी चाहिए।  कभी भी डिस्पोजेबल सुई का उपयोग करें , हर बात की बारीकी से बाजार रखें। आप ध्यान कीजिये ऐसा कुछ आपके साथ घटित हुआ है क्या ? "

डाक्टर की बातें सुनकर सुलोचना को अपनी गलती का अहसास हो गया, थोड़ी सी बचत करने के चक्कर में उसने अपनी ही जान जोखिम में डाल दी।  बुरा वक़्त कभी भी  कह कर नहीं आता , स्वयं सावधानी लेना आवश्यक है .

-----शशि पुरवार 

Thursday, October 18, 2012

लघुकथा --पतन , माँ का एक यह रूप भी .........

       लघुकथा --   पतन

      भोपाल जाने के लिए बस जल्दी पकड़ी और  आगे की सीट पर सामान रखा था कि  किसी के जोर जोर से  रोने की आवाज आई, मैंने देखा  एक भद्र महिला छाती पीट -पीट  कर जोर जोर से रो रही थी .

" मेरा बच्चा मर गया ...हाय क्या करू........ कफ़न के लिए भी पैसे नहीं है ..
मदद करो बाबूजी , कोई तो मेरी मदद करो , मेरा बच्चा ऐसे ही पड़ा है घर पर ......हाय मै  क्या करूं  ."
                   उसका करूण  रूदन सभी के  दिल को बैचेन कर रहा था , सभी यात्रियों  ने पैसे  जमा करके उसे दिए ,
 " बाई जो हो गया उसे नहीं बदल सकते ,धीरज रखो "
 "हाँ बाबू जी , भगवान आप सबका भला करे , आपने एक दुखियारी की मदद की ".....

ऐसा कहकर वह वहां से चली गयी , मुझसे रहा नहीं गया , मैंने सोचा  पूरे  पैसे देकर मदद कर  देती हूँ , ऐसे समय तो किसी के काम आना ही चाहिए .
  जल्दी से पर्स  लिया और  उस दिशा में भागी जहाँ वह महिला गयी थी . , पर जैसे ही बस के पीछे की दीवाल  के पास  पहुची  तो कदम वही रूक गए .
                     द्रश्य ऐसा था कि  एक मैली चादर पर एक 6-7 साल का बालक बैठा था और कुछ खा रहा था . उस  भद्र महिला ने पहले अपने आंसू पोछे ,  बच्चे को  प्यारी सी मुस्कान के साथ , बलैयां ली  , फिर सारे पैसे गिने और  अपनी पोटली को  कमर में खोसा  फिर  बच्चे से बोली -
  "अभी आती हूँ यहीं बैठना , कहीं नहीं जाना  "
और पुनः उसी  रूदन के साथ दूसरी बस में चढ़ गयी .
        मै अवाक सी देखती रह गयी व  थकित कदमो से पुनः अपनी सीट पर आकर  बैठ गयी . यह नजारा नजरो के सामने से गया ही नहीं  ,लोग  कैसे - कैसे हथकंडे अपनाते है भीख मांगने के लिए , कि  बच्चे की इतनी बड़ी  झूठी कसम भी खा लेते है , आजकल लोगो की मानसिकता में कितना पतन आ गया है .

          --------शशि पुरवार       
    

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मित्रो आप सभी को नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाये ...............स्वास्थ परेशानी के चलते ज्यादा समय नहीं दे पा रही हूँ ....पर जितना भी हो सकेगा आपके ब्लॉग पर पढने आती रहूंगी , तब तक के लिए क्षमाप्राथी हूँ , यह सत्य घटना आपके समक्ष .............लघुकथा के रूप में ..... अपना अमूल्य स्नेह बनाये रखें .-शशि 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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