Monday, September 29, 2014

याद बहुत बाबूजी आए



यह गीत मेरे पिता तुल्य  नानाजी को समर्पित  है , हम चाहें कितने भी बड़े क्यों ना हो जाएँ किन्तु कुछ स्मृतियाँ अमिट  होतीं है। उनके स्मरण में --

स्मृतियोँ के घन जब घिरकर,
मन के नभमण्डल पर छाए।
याद बहुत बाबूजी आए

बाबूजी से ही सीखा था
दो और दो होते हैं चार
जीवन की अनगढ़ राहों को
अच्छे काम करें गुलजार
नन्हें हाथ थामकर जिसने
गुर, जीने के सभी सिखाए
याद बहुत बाबूजी आए

होगा पथ में उजियारा भी
उनकी शिक्षा को अपनाया
सूने मन के गलियारे में
एक ज्ञान का दीप जलाया
कभी सहेली कभी सखा बन
हर नखरे चुपचाप उठाए
याद बहुत बाबूजी आए

चिंता चाहे लाख बड़ी हो
हँसी सदा मुख पर रहती थी
तुतलाती बतियाँ चुपके से
फिर काँधे पर ही सोती थी
बरगद की शीतल छाया में
जिसने सपने सुखद सजाए
याद बहुत बाबूजी आए

- शशि पुरवार

8/9/2014  

Monday, September 22, 2014

नन्हा कनहल




खिला बाग़ में ,
नन्हा  कनहल
प्यारा लगने लगा महीना
रोज बदलते है मौसम ,फिर
धूप -छाँव का परदा झीना।

आपाधापी में डूबे थे
रीते कितने, दिवस सुहाने
नीरसता की झंझा,जैसे
मुदिता के हो बंद मुहाने

फँसे मोह-माया में ऐसे
भूल गए थे,खुद ही जीना

खिले फूल की इस रंगत में
नई किरण आशा की फूटी
शैशव की तुतलाती बतियाँ
पीड़ा पीरी की है जीवन बूटी

विषम पलों में प्रीत बढ़ाता
पीतवर्ण, मखमली नगीना .
--- शशि पुरवार

Monday, September 15, 2014

हिंदी दिवस




हिंद की रोली
भारत की आवाज
हिंदी है बोली .

भाषा है  न्यारी
सर्व गुणो की  खान
हिंदी है प्यारी
३ 
गौरवशाली 
भाषाओ का सम्मान
है खुशहाली

है अभिमान
हिंदुस्तान की शान
हिंदी की  आन।

कवि को भाये
कविता का सोपान
हिन्दी बढ़ाये   

वेदों की गाथा
देवों  का वरदान
संस्कृति ,माथा।
सरल पान 
संस्कृति का सम्मान
हिंदी का  गान

सर्व भाषाएँ
हिंदी में समाहित
जन आशाएं
चन्दन रोली
आँगन की तुलसी
हिंदी रंगोली

१०

मन की भोली
सरल औ सुबोध
शब्दो की टोली
११

सुरीला गान
असीमित साहित्य 
हिंदी सज्ञान

१२
बहती धारा
वन्देमातरम है
हिन्द का नारा
१३
अतुलनीय 
राजभाषा सम्मान
है वन्दनीय।
१४
जोश उमंग
जन जन में बसी
राष्ट्र तरंग
१५
ये अभिलाषा
राष्ट्र की पहचान
विश्व की आशा .
१६
यही चाहत
सर्वमान्य हो हिंदी
विश्व की भाषा .

हम  तो रोज ही हिंदी दिवस मनाते है हिंदी  दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ -- -शशि पुरवार

Monday, September 8, 2014

जाम छलकाने के बाद






धूप सी मन में खिली है ,मंजिले पाने के बाद
इन हवाओं में नमी है फूल खिल जाने के बाद १

जिंदगी लेती रही हर रोज हमसे इम्तिहान
प्रीति ही ताकत बनी है गम के मयखाने के बाद २

छोड़िये अब दास्ताँ , ये प्यार की ताकीद है  
नज्म हमने भी कही फिर प्रेम गहराने के बाद ३

तुम वहीं थे ,मै वहीं थी और शिकवा क्या करें
मौन बातों की झड़ी थी , दिल को बहलाने के बाद ४  

प्यार का आलम यही था ,रश्क लोगों ने किया
मोम सी जलती रही मै इश्क  फरमाने के बाद ५

खुशनुमा  अहसास है यह बंद पृष्ठों में मिला
गंध सी उड़ती रही है फूल मुरझाने के बाद ६

वक़्त बदला ,लोग बदले ,अक्स बदला  प्रेम का
मीत बनकर लूटता है , जाम छलकाने के बाद ७

प्रेम अब जेहाद बनकर, आ गया है सामने
वो मसलता है कली को ,हर सितम ढाने के बाद ८

-- शशि पुरवार

Monday, September 1, 2014

हवा शहर की



हवा शहर की बदल गयी
पंछी मन ही मन घबराये

यूँ जाल बिछाये बैठें है
सब आखेटक मंतर मारे
आसमान के काले बादल
जैसे ,जमा हुए  है सारे.

छाई ऐसी  घनघोर   घटा
संकट,  दबे पाँव आ  जाये

कुकुरमुत्ते सा ,उगा  हुआ है
गली गली ,चौराहे  खतरा
लुका छुपी का ,खेल खेलते
वध जीवी ने ,पर  है कतरा

बेजान  तन पर नाचते है
विजय घोष करते, यह  साये .

हरे भरे वन ,देवालय पर
सुंदर सुंदर रैन बसेरा
यहाँ गूंजता मीठा कलरव
ना घर तेरा ना घर मेरा

पंछी  उड़ता नीलगगन में
किरणें नयी सुबह ले आये.
  ४ जुलाई , २०१४

Monday, August 25, 2014

आदमी की आज है दरकार क्या



जंग दौलत की छिड़ी है रार क्या
आदमी की आज है दरकार क्या १

जालसाजी के घनेरे मेघ है
हो गया जीवन सभी बेकार क्या२

लुट रही है राह में हर नार क्यों
झुक रहा है शर्म से संसार क्या ३

छल रहे है दोस्ती की आड़ में
अब भरोसे का नहीं किरदार क्या ४

गुम हुआ साया भी अपना छोड़कर
हो रहा जीना भी अब दुश्वार क्या ५

धुंध आँखों से छटी जब प्रेम की
घात अपनों का दिखा गद्दार क्या६

इन निगाहों में खलिस थी पल रही
आइना भी खोलता है सार क्या  ७

खिड़कियाँ तो बंद हिय की खोलिए
माफ़ अपनों को करो ,तकरार क्या८

धड़कने क्यों हो रही है अजनबी 
रंग जीवन के सभी उपहार  क्या ९

बाँट लो खुशियाँ  सभी जीवन है कम
ख्वाब अँखियों के करे साकार क्या १०

"शशि " कहे तुम रंज अपने भूलकर
बढ़ चलो राहों में अपनी ,वार क्या ११
----------- शशि पुरवार

Wednesday, August 20, 2014

विषैला हमराही

ताँका --

स्वार्थ में अंधे
नोच रहे बोटियाँ
धूर्त सियार
मुख से टपकती
छलिया निशानियाँ

स्वार्थ का चश्मा
सूट बूट पहने
आया है प्राणी
चाटुकार ललना
नित नयी कहानी।
भगवा वस्त्र
हाथों में कमंडल
शीश पे शिखा
अंधी श्रद्धा से लूटे
बिखरी काली निशा।

सेदोका -

१ 
धवल वस्त्र
पहन इठलाये
मन के कारे जीव
मुख में पान
खिसियानी हंसी
अनृत कहे जीभ।  
भोले चहरे
कातिलाना अंदाज
शब्द  गुड की डली
मौकापरस्त
डसते  है जीवन
इनसे दूरी भली।
३ 
साँचा   है साथी 
हर पल का साथ
कोई बूझ न सका
दिल के राज
विषैला हमराही 
आस्तीन का है साँप।
 -- शशि पुरवार

नमस्कार मित्रो कुछ व्यक्तिगत कारणों से नियमित पोस्ट नहीं कर सकी थी परन्तु अब से नियमित प्रति सोमवार सपने पर प्रकाशन होगा , आप अपना स्नेह और अमूल्य टिप्पणी से हमें कृतार्ध करें।  आप सबकी शिकायत भी अब हम दूर कर देंगे , आपसे मिलेंगे आपके ब्लॉग पर -- शुभ मंगलम - शशि पुरवार

Friday, August 15, 2014

उठो ऐ देश वासियों। . जय हिन्द जय भारत





उठो ऐ,देश वासियों
चमन नया बसाना है
दिलों में मातृभूमि की
अलख नयी जगाना है
 
सीमा पर चल रही है
नफरत की आधियाँ, यह
कतरा कतरा खून से
लिख रही कहानियाँ,
साँस साँस सख्त है
ये आया कैसा वक़्त है
अब जर्रा जर्रा द्वेष की
बँट रही है ,निशानियाँ

आओ साथ मिलकर
अब द्वेष को मिटाना है
दिलों में मातृभूमि की
अलख नयी  जगाना  है।
उठो ऐ देशवासियों ………… !

यहाँ, ईमान बिक रहा है
स्वार्थ का व्यापार है
चले, जिन भी  राहों पर
पतित, अभ्याचार  है
कदम कदम पर धोखा है 
दहशत  को, किसने रोका है
चप्पा चप्पा  मातृभूमि के 
 पुनः - पुनः  प्रहार है

आओ, स्वार्थ के घरों में
नयी सुरंग बनाना है
दिलों में मातृभूमि की
अलख नयी जगाना  है।
उठो ऐ देशवासियों ………………।

अब मुल्क की आन का
बड़ा अहम सवाल है
फिजूल की बतियों  पे 
फिर मचता, बबाल है  .
बदला बदला वक़्त है
ये तरुण अनासक्त है
देशभक्ति की  तरंगो  से
फिर करना,  इकबाल  है

नए राष्ट्र के गगन पर
नयी पतंग उड़ाना है
दिलों में मातृभूमी की
अलख नयी जगाना है
उठो ऐ देशवासियों ………!

-- शशि पुरवार

आप सभी ब्लोगर परिवार  स्वतंत्रा दिवस की  शुभकामनाएँ -- जय हिन्द जय भारत

Wednesday, August 13, 2014

माहिया -- देशभक्ति

1
आजादी की बातें
दिल में जोश भरे
बीती काली रातें .
भाई पर वार करे
घर का  ही भेदी
छलिया संहार करे .
है अलग अलग भाषा
मान तिरंगे का
जन जन की अभिलाषा .
पीर हुई गहरी सी
सैनिक घायल है
फिर सरहद ठहरी सी .
क्या नेता है जाने
सरहद की पीरा
सैनिक ही पहचाने .
वैरी की सौगातें
आँखों  में कटती  
हर सैनिक की   रातें .
भूलों बिसरी बातें
नव किरणें  लायी
शुभमंगल सौगाते

साँचे ही करम करो
देश हमारा है
उजियारे रंग भरो।
फैली शीतल किरनें
मौसम भी बदले
फिर छंद लगे झरने.
१०
स्वर सारे गुंजित हो
गूंजे जन -गण -मन
भारत सुख रंजित हो.
११
नव रंग सजाने है
खुशियों के बादल
घर आज बुलाने है
१२ 
चैन अमन से खेले
बागों   की कलियाँ
खुशियों के हो मेले .
१३
जब शयनरत ज़माना
अपनों की  खातिर
सैनिक फर्ज निभाना।


 ---- शशि पुरवार

Wednesday, July 23, 2014

नवगीत -- नए शहर में



नए शहर में, किसे सुनाएँ
अपने मन का हाल
कामकाज में उलझें हैं दिन
जीना हुआ सवाल

कभी धूप है, कभी छाँव है
कभी बरसता पानी
हर दिन नई समस्या लेकर,
जन्मी नयी कहानी

बदले हैं मौसम के तेवर
टेढ़ी मेढ़ी चाल

घर की दीवारों को सुंदर
रंगों से नहलाया
बारिश की, चंचल बूँदों ने
रेखा चित्र बनाया

सीलन आन बसी कमरों में
सूरज है ननिहाल

समयचक्र की, हर पाती का
स्वागत गान किया है
खट्टे, मीठे, कडवे, फल का
भी, रसपान किया है

हर माटी से रिश्ता जोड़ें
जीवन हो खुशहाल

- शशि पुरवार 

18/07/14 

Sunday, July 20, 2014

एक प्रश्न

सोच - विचार इसके बारे में क्या कहूं . कुछ लोंगो  की सोच आजाद पंछी की तरह खुले आसमान में विचरण करती है तो वहीँ  कुछ लोगो की सोच उनके ही ताने बानो से बने हुए शिकंजो में कैद होकर रह जाती है है .कुछ दिन पहले कार्यालय में एक सज्जन और उनकी सहकर्मी  महिला से मुलाक़ात हुई. उन्होंने सहज प्रश्न किया आप क्या करती है ?
मैंने कहा - लेखिका हूँ। 
महिला  रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोली -  "हा हा क्या लिखती है ?" 

" सभी  तरह की रचनाएँ, सब कुछ कविताएँ ....!आगे कुछ कह पाती 
महिला ने बात काटकर हँसते हुए कहा - 

"  जी यह भी कोई काम है।  कविता सविता, लेखन  तो बेकार के लोग करते है , जिन्हें कोई काम नहीं होता है . कवि घर नहीं चला सकते,  वैसे भी दुखी लोग कवी बनते हैं !"

   अब मुस्कुराने की बारी मेरी थी। ऐसी विचारधारा में संगम करने से अच्छा है हम राह बदल लें।  मैने जबाब में मुस्कुरा कर कहा - अपनी अपनी सोच है , एक रचनाकार समाज का आईना होता है।  आप लोग जो पत्र पत्रिकाएं पढ़ते हैं उसमे लेखक की मेहनत की रचनाएँ होती है।आप लोग हर पत्रिका में कविता कहानी , लेखन का आनंद लेते है पर लेखक उनकी नजर में कुछ नहीं ?

  मै तो  यही कहूँगी कि लेखक ही  समाज का आइना होता है, जो हर  अनुभूति, परिस्थिति, और समय को शब्दों का जामा पहनाकर उसे स्वर्णिम अक्षरों में उकेरता है .और यह सभी कृतियाँ  अमिट  होती है . यह कोई आसान कार्य नहीं है जिसे हर कोई  कर सकता है.
 घंटो .......विचारों के मंथन के बाद ही कोई रचना जन्म लेकर आकार  में ढलकर जन जन के समक्ष प्रस्तुत होती है. बिना मेहनत ने कोई कार्य नहीं किया जाता है, इसलिए उस कार्य को  बेकार कहना कहाँ की समझदारी है, यह तो उसका अस्तिव ही नकारना है .
एक रचनाकार की पीड़ा सिर्फ एक रचनाकार ही समझ सकता है

                                          --- शशि पुरवार

Sunday, July 13, 2014

कुण्डलियाँ-- थोडा हँस लो जिंदगी



१ 
थोडा हँस लो जिंदगी, थोडा कर लो प्यार
समय चक्र थमता नहीं, दिन जीवन के चार
दिन जीवन के चार, भरी  काँटों  से राहें
हिम्मत कभी न हार, मिलेंगी सुख की बाहें
संयम मन में घोल, प्रेम से नाता जोड़ा
खुशियाँ चारों ओर, भरे घट थोडा थोडा.

२ 
फैला है अब हर तरफ, धोखे का बाजार
अपनों ने भी खींच ली, नफरत की दीवार
नफरत की दीवार, झुके है बूढ़े काँधे
टेडी मेढ़ी चाल, दुःख की गठरी बांधे
अहंकार का बीज, करे मन को मटमैला
खोल ह्रदय के द्वार, प्रेम जीवन मे फैला .

         --- शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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