Friday, May 27, 2016

मज़बूरी कैसी कैसी --

Image result for मज़बूरी

मज़बूरी कैसी कैसी ----  
मज़बूरी शब्द कहतें ही किसी फ़िल्मी सीन की तरह, हालात के शिकार  मजबूर नायक –नायिका का दृश्य नज़रों के सम्मुख मन के चित्रपटल पर उभरता है, जिसमे हीरो ,हिरोइन को मज़बूरी में  सहारा देता है या खलनायक उसकी मज़बूरी का फ़ायदा उठाता है . ...पर जनाब अब इस दृश्य में बेहद परिवर्तन आ गएँ हैं. वह कहावत तो आप सभी ने सुनी होगी कि मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी .. सच आजकल की पीढ़ी ने इस कहावत को चरितार्थ कर दिया है. मकबूल साधो अब हम क्या कहें, आज हम आपको मज़बूरी के भिन्न भिन्न प्रकारों से अवगत करातें है. अब यह ना सोचे कि हमें मूर्ख बनाया जा रहा हैं, भई किसी और को क्या मूर्ख बनाएँ हम स्वयं इसी महान मज़बूरी का शिकार हो चले हैं, हाँ हाँ मज़बूरी का शिकार आपसे अपनी इस मज़बूरी को साझा करतें है, हमारी मज़बूरी यह है कि संपादक और पाठकों के स्नेहिल निवेदन से हम आइसक्रीम की तरह पिघले हुए है और आपको वह पिघली हुई क्रीमी आइसक्रीम शब्दों की चोकलेट से सजाकर पेश कर रहें हैं.. कलम घिसना भी किसी मज़बूरी से कम नहीं हैं. 
       
               समाज को आइना दिखाना हमारी मज़बूरी है, यही मज़बूरी कब कहाँ किसी के काम आकर कुछ भला करे दे, इसका किसी को अंदाजा नहीं होता हैं.यह हमारी जिम्मेदारी है जिसे हमें हर हाल में निभाना होता है , फिर वक़्त के अनुसार खुद को अपडेट भी रखना भी हमारी मजबूरी है .इसीलिए समाज के अपडेट लिखना आप मज़बूरी कहें या कार्य यह मुद्दा आपकी बहस के लिए छोड़ देतें हैं.. किन्तु हमें हर हाल में लिखना ही होगा , भाव आयें तो प्रसंन्नता की बात है किन्तु भाव  नहीं आएं तो दिमाग को हिला हिला कर निचोड़ कर भाव की स्याही से कलम को घिसना पड़ता है. शिष्टता के कारण लिखना अब हमारी मजबूरी हो गयी और हमें पढना आपकी, यानि एक अच्छे पाठक की मजबूरी है, हमारी मेहनत के बाद आपने नहीं पढ़ा तो किताब आपके सामने पड़ी पड़ी आपके गले की हड्डी बन जाएगी. वह आई और आपने उसके पन्नो पर नजर तक नहीं घुमाई .इस दुःख को निगलने से पहले हमारी इस पीढ़ा को जरुर समझेंगे. हमें पूर्ण विश्वास है कि आप हमें जरुर पढेंगे, चाहे  हमने कितनी भी बकबाद क्यूँ ना की हो.
              वैसे इस मुकम्मल जहाँ में हर इंसान मजबूर है.चाहे घर हो या बाहर. काहे कि हर काम मज़बूरी में ही किये जातें है, कैसे, तो सुनिए जैसे पति पत्नी को आपस में रिश्ता निभाना मजबूरी है, रोज रोज की खिटखिट – पिट –पिट, चाहे कितने नगाडे बजाये किन्तु वे सदैव एक दूजे के बने रहेंगे . पत्नी भोजन जला दे तो भी मुस्कुरा कर खाओ, प्रेम से अच्छा भोजन से दे तो खूब खाओ, किन्तु  खाओ, उसी प्रकार पति लाख झगडा करे तो उसे मनाओ और खिला खिला कर मनाओ, अजी मनाओ क्या बदला निकालो, भई कहतें हैं ना, मारो तो प्रेम से मारो, आजकल यही तकनीक हमारी युवा पीढ़ी ने भी प्रारंभ कर की है , आजके युवा रसोई घर में कंधे से कन्धा मिला रहें हैं. आज पुरुष कहने लगे हैं हम महिला के शिकार है तो महिलाएं अक्सर पुरुषों की शिकार होती है, अब यह सत्य तो ईश्वर ही जाने, भई दूसरों के मामले में टांग अडाने से वह भी घबरातें है. इस गृह युद्ध में तो श्रीकृष्ण का चक्र भी काम नहीं आता है.गृह हो या बाहर आप कहीं भी कार्य करें, मज़बूरी हर जगह विधमान है, कहीं वह बॉस बनकर हुकूमत करती है, कहीं दयनीय  जिन्दगी बनी हुई है. इसीलिए ईश्वर ने हर इंसान को कार्य करने के लिए मजबूर किया है. कार्य करो, पढो –लिखो ,कमाओ और परिवार चलाओ, वक़्त आये तो देश भी चलाओ.
                        अजी आज  देश के हालात भी कुछ इसी  तरह हो गएँ हैं. देश तरक्की चाहता है, बदलाव हर हाल में आवश्यक है किन्तु नेता कुर्सी के मद में डूबे हुए आपस में क्लेश करते रहतें है और बेचारी जनता उनके हाथों मजबूर है. नेताजी की मज़बूरी कुर्सी है . साम दाम दंड भेद  सभी नीतियाँ  यहाँ अपने जोहर का प्रदर्शन करतीं है .देश में मंहगाई, अजगर की भांति मुँह बाये खड़ी है, और जनता सिर्फ मन ही मन गालियाँ सुनाकर उसी मंहगाई में जीने के लिए मजबूर है. हाथ चाहे कितना भी तंग क्यूँ ना हो ? क्या खायेंगे नहीं, पियेंगे नहीं या फेसबुक नही चलाएंगे.  अहा यह तो सबसे महत्वपूर्ण जीने की वजह है .आज के ज़माने की तरह रहना भी हर वर्ग के लोगों की मजबूरी है. आजकल फेसबुक ने इतना रायता फैला रखा है कि पूछो मत. हर कोई उसी रायते में अपनी पांचो उँगलियाँ अजी उँगलियाँ क्यूँ पूरा ही डूबा रहना चाहता है .हाल  ही में एक किसान के बेटे से मिलना हुआ बेहद खुश, प्रसन्नता मुख से झमाझम बारिश की भाँति टपक रही थी,  मोबाइल के प्रभाव में लल्ला ने खेत वेत से ज्यादा फेसबुक दोस्तों को तहरीज प्रदान कर रखी है, एक दिन नेट पेक जैसे ही बंद हुआ बेचारे का पूरा हाजमा बिगड़ जाता है और उसे नेट पेक के चूरन की गोली देने से उसकी हालत में अतिशीघ्र सुधार हुआ . भाई आजकल डाक्टर फेसबुक के पास हर मर्ज की दवा है.. हर रिश्ता इससे प्रभावित हो गया है, सास बहु के रिश्ते भी अछूते नहीं रहे, बहु खाना दे तो ठीक नहीं तो अपना खाना स्वयं बनाओ और अपने साथ साथ मज़बूरी में उसके लिए भी खाना बनाओ.वैसे भी आजकल इस प्रथा में बदलाव आ गया है. 
                   अब तो सास बहु भी फेसबुक के जरिये अपनी वार्ता कर लेतीं है. लोग लड़का देखने जाते है तो पहला प्रश्न क्या खाना बना लेते हो ? भाई शादी करना है तो मिलबांट कर कार्य करना हर रिश्ते की मज़बूरी हो गयी है. आज दुनिया घाघ लोगों से अटी पड़ी है. यहाँ गिद्ध की नजरें हर इंसान के कार्य कर गडी रहती है जैसे ही किसी की कुछ कमजोरी हाथ आये उस पर मज़बूरी का तड़का जल्दी से लगाओ और स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर पेश करो. 
               मिडिया जिसके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचा वह आपको तवज्जों जरुर देगी. रोजी रोटी की खातिर कुछ भी प्रस्तुति देना उनकी मज़बूरी है. अभी हाल ही में टीवी पर फरहा खान का नया शो शुरू हुआ है, जिसमे नामचीन कलाकार आपको अपने पसंद के व्यंजन बनाते हुए नजर आयें. शो के प्रथम एपिसोड में अभिषेक बच्चन साजिद, समेट कई नामचीन कलाकार फरहा के शो पर नजर आये थे. फिल्मे ना सही जो काम मिले हथिया लो. कुछ नहीं तो खाना ही बना कर दिखा दो, कुछ काम तो मिला, बड़े परदे के कलाकारों ने मज़बूरी में छोटे परदे का रुख अपना लिया है, और बेचारी जनता खुश होने की बजाय छोटे परदे का बेस्वाद होता रायता खाने के लिए मजबूर है. 
           आप जब भी छोटा बुद्धू बक्सा खोलिए उब भरे फ़िल्मी ड्रामे मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहें हैं.जिसका उपयोग जनता भोजन करते समय जरुर करती है, एक वही समय है जब आदत से मजबूर बिना बुद्धू बक्से के, भोजन गले से नीचे नहीं उतरता है. किन्तु वह भी मनोरंजन के नाम पर ऊबाऊ, रसविहीन और अपचकारी हो गया है, बेसिरपैर के फ़िल्मी ड्रामे या अवार्ड समारोह के नाम पर उलफुजुल भोंडे भद्दे मजाक देखना दर्शक की मज़बूरी हो गयी है, ऐसे में अब यह फैलारा गले की हड्डी बनता जा रहा है. इसे कहते हैं मंजबूरी, जिसके हाथों सब कठपुतली की तरह नाच रहें है. परदे की हस्तियाँ आगे चलकर आपके बीच नजर आयें तो आश्चर्य ना कीजियेगा . 
                   भई मज़बूरी का नाम जिंदगानी है . हम आपका शुक्रिया अदा करना चाहेंगे  कि मज़बूरी में लिखे गए आलेख को आपने ह्रदय से पढ़ लिया. और स्नेह भी प्रदान किया . इसीलिए सब मिलकर बोले  -मज़बूरी देवी जी जय हो . आपकी हर मनोकामना इस मंत्र से जरुर पूर्ण होगी .
शशि पुरवार 

Wednesday, April 20, 2016

कुण्डलियाँ -- प्रेम से मिटती खाई



Image result for सत्य


अच्छाई की राह पर, नित करना तुम काज 
सच्चाई मिटटी नहीं, बनती है सरताज  
बनती है सरताज, झूठ की परतें खोले 
मिट  जाए संताप, मौन सी सरगम  डोले
कहती शशि यह सत्य, प्रेम से मिटती खाई
दंभ, झूठ का हास, चमकती है सच्चाई। 


दलदल ऐसा झूठ का, राही  धँसता जाय
एक बार जो फँस गया, निकल कभी ना पाय
निकल कभी ना पाय,  मृषा के रास्ते खोटे
मति पर परदा डाल, लोभ के चशमें मोटे
कहाँ साँच को आँच, चित्त को देता संबल
कर देता  बर्बाद, झूठ का ऐसा दलदल 
                --- शशि पुरवार 

Monday, April 18, 2016

कुण्डलियाँ -- दिन गरमी के आ गए


दिन गरमी के आ गए, लेकर भीषण ताप 
धरती से पानी उड़ा, नभ में बनकर भाप 
नभ में बनकर भाप, तपिश से दिन घबराये 
लाल लाल तरबूज, कूल, ऐसी मन भाये
 कहती शशि यह सत्य,  वृक्ष की शीतल नरमी  
रसवंती आहार, खिलखिलाते दिन गरमी .

          -- शशि पुरवार 

Tuesday, April 12, 2016

कुण्डलियाँ भरे कैसी यह सुविधा ?






सुविधा के साधन बहुत, पर गलियाँ हैं तंग 
भीड़ भरी सड़कें यहाँ, है शहरों के रंग 
है शहरों के रंग, नजर ना पंछी आवे 
तीस मंजिला फ्लैट, गगन को नित भरमावे 
बिन आँगन का नीड, हवा पानी की दुविधा 
यन्त्र चलित इंसान, भरे कैसी यह सुविधा। 

2
पीरा मन का क्षोभ है, सुख है संचित नीर
दबी हुई चिंगारियाँ,  ईर्ष्या बनती पीर
ईर्ष्या बनती पीर, चैन भी मन का खोते
कटु शब्दों के बीज, ह्रदय में अपने बोते
कहनी मन की बात, तोष है अनुपम हीरा
सहनशील धनवान , कभी न जाने पीरा।
---- शशि पुरवार 

Friday, April 8, 2016

कुण्डलियाँ




मँहगाई की मार से, खूँ खूँ जी बेहाल 
आटा गीला हो गया, नोंचे सर के बाल
नोचे सर के बाल, देख फिर खाली थाली 
महँगे चावल दाल, लाल पीली घरवाली 
शक्कर, पत्ती, दूध, न होती रोज कमाई  
टैक्स भरें धमाल, नृत्य करती महँगाई।
    ----- शशि पुरवार 
--- 

Monday, April 4, 2016

रात में जलता बदन अंगार हो जैसे।



जिंदगी जंगी हुई,
तलवार हो जैसे
पत्थरों पर  घिस रही,

वो धार हो जैसे। 

निज सड़क पर रात में
जब  देह कांपी थी 
काफिरो ने  हर जगह 
फिर राह नापी थी 
कातिलों से घिर गया 
संसार हो जैसे।


है द्रवित मंजर यहाँ 
छलती गरीबी है 
आबरू को लूटता 
वह भी करीबी है। 
आह भीनिकला हुआ 
इक वार हो जैसे.

आँख में पलता रहा है 
रोज इक सपना 
जून भर भोजन मिले 
घर,द्वार  हो अपना। 
रात में जलता बदन 
अंगार हो जैसे .
 --- शशि पुरवार 

Friday, April 1, 2016

मूर्खता का रिवाज




Image result for मुर्ख दिवस



मूर्ख दिवस मनाने का रिवाज काफी पुराना है, लोग पलकें  बिझाये १ अप्रैल की राह देखते हैं. वैसे तो हम लोग साल भर मूर्ख बनते रहतें है किन्तु फिर भी हमने अपने लिए एक दिन निर्धारित कर लिया है, भाई कहने के लिए हो जाता है कि १ अप्रैल  था। हम तो अच्छे वाले फूल हैं जो साल भर खुद को फूल  बनाते हैं। 

    अब आप सोचेंगे स्वयं को मूर्ख बनाना भी कोई  बहुत बड़ा कार्य है,नहीं कोई ऐसा क्यों करना चाहेगा। लेकिन कटु सत्य है भाई , आजकल तो अंतरजाल ने लोगों को मूर्ख बनाने का अच्छा जरिया  प्रस्तुत किया है. अलग अलग पोज की तस्वीरें, उन पर शब्दों की टूटी फूटी मार, हजारों के लाइक्स, वाह- वाह, अच्छों - अच्छों को चने के झाड़ पर चढ़ा देते हैं। व्यक्ति  फूल कर पूरा फूल बन जाता है।  न बाबा ना,हम किसी को मूर्ख नहीं बनाएंगे। 
              भाई अंग्रेज तो चले गए लेकिन अपने सारे खेल यहीं छोड़ गए और देशी लोगों ने उसे बड़ी शिद्दत से अपनाया है। खेल अपने अलग अलग रूपों में जारी है. आज देश की जनता छलावे में आकर रोज फूल बन रही है.  जनता तो रोज नित नए सपने दिखाए जाते हैं, रोज नयी खुशबु भरा अखबार आँखों में नयी चमक पैदा करता है।  राम राज्य आएगा  की तर्ज पर, राम राज्य तो नहीं किन्तु  रावण और अराजकता का  राज्य चलने लगा है।  नए नए सर्वेक्षण होते हैं।  हम तो पहले भी मूर्ख बनते थे आज भी बनते है।  अच्छे दिन आयंगे परन्तु अच्छे दिन आते ही नहीं है। हम हँसते हँसते मूर्ख बनते हैं,  मूर्खता और मुस्कुराने का सीधा साधा रामपेल है।   सपने दिखाने वाले अपने सफ़ेद पोश  कपड़ों में  नए चेहरे के साथ विराजमान हो जाते हैं।  साथ ही साथ आयाराम गयाराम का खेल अपने पूरे उन्माद पर होता  है। 
    आजकल व्यापारी भी बहुत सचेत हो गएँ है. बहती गंगा में हर कोई हाथ धोता है।  एक बार हम आँखों के डाक्टर के पास गए, उन्होंने परचा बना कर  आँखों का नया कवच धारण करने का आदेश दिया। हम कवच बनवाने दुकान पर गए , आँख का कवच यानि चश्मा, हमें लम्बा चौड़ा बिल थम दिया गया ।  २००० का बिल देखकर हम बहुचक्के रह गए। 
             अरे भाई ये क्या किया इतना मंहगा .......... आगे सब कुछ हलक में अटक गया. चश्मे का व्यापारी बोला - भाई साल भर में १०,००० के कपडे  लेते हो और फेंक देते हो,  किन्तु चश्मे के लिए काहे सोचते हो. वह तो सालभर वैसा ही चलता है , न रंग चोखा न फीका। भैया जान है तो जहान है। अब का कहे हर कोई  जैसे उस्तरा चलाने के लिए तैयार बैठा है । भेल खाओ भेल बन जाओ। 

 त्यौहार पर हर व्यापारी मँजे हुए रंग लगाता है,तो फल - फूल ,तरकारी कहाँ पीछे रहने  वाले है। आये दिन मौका देखकर व्यापारी चौका लगा देते हैं। जहाँ भी नजर घुमाओ हर हर दिन हँसते हँसते आप मूर्ख बनते है और बनते भी रहेंगे।  

          हमारी पड़ोसन खुद को बहुत होसियार समझती थी, सब्जी वाले से भिन्डी सब्जी खरीदी और ऊपर से २-४ भिन्डी पर हाथ साफ़ कर ऐसी प्रतिक्रिया दी जैसे किला फतह  कर लिया हो. काहे तरकारी वाले को बेवकूफ  समझा है का, वह तो पहले ही डंडी मार कर अपना काम कर लेता है , १ किलो में तीन पाँव देकर बाकी की रसभरी बातों में उलझा देता है। कहता है ---" अरे माई हम ईमानदार है कम नहीं देंगे, लो ऊपर से ले लो चार भिन्डी"। भिन्डी न हुई पर हालत टिंडी हो गयी। 

             हर तरफ हर रिश्ते में मूर्खता का साम्राज्य फैला हुआ है। पति - पत्नी, माँ -पिता, भाई -बहन  एक दूसरे को भी मूर्ख बनाते हैं. न बात न चीत, लो  युद्ध कायम है.  तरकश हमेशा तैयार होता है।  बिना वजह शक पैदा करना,आज की हवा का असर है।  मीडिया रोज सावधान इंडिया जैसे कार्यक्रम पूरी शिद्दत से प्रस्तुत करता है,  जनता भोली -भाली बेचारी, पूरी तन्मयता से  कार्यक्रम का सुखद आनंद लेती है। क्राइम जो न करे वह भी इसकी लपेट में दम तोड़ता है। कुछ  करने को  रहा नहीं तो आजकल भौंडे प्रोग्राम और ख़बरें हर तरफ सांस ले रही हैं। हर तरफ मूर्खो का बोलबाला है।  

           नए ज़माने की नयी हवा बहुत बुद्धिमान  है।  स्वयं को मूर्ख साबित करो, एक दो काम का बैंड बजा दो को बॉस की  आँख- कान से ऐसा धुँआ निकलेगा कि वह चार बार सोचेगा इस मूर्ख को काम देने से तो अच्छा है खुद मूर्ख बन जाओ। 
  अब देखिये हाल ही बात है बजट प्रस्तुत किया गया।  जनता पूरी आँखे बिछा कर बैठी थी, हमारे काबिल नेताओं की घमासान बातों का जनता रसपान कर रही थी। अंत में यही हुआ किसी को लाठी और किसी की भैंस। टैक्स के नाम पर एक कान पकडे तो दूसरे खींच लिए, इतने कर लगाये कि कुर्ते की एक जेब में पैसा डालो तो दूसरी जेब से बाहर आ जाये।  पीपीएफ को भी नहीं छोड़ा।  महँगाई के नाम पर रोजमर्रा की वस्तुएं और चमक गयी, बेजार चीजें नीचे लुढक गयी।  अब टीवी फ्रिज जैसी वस्तुएं भोजन में कैसे परोसें, क्या पता दिन बदलेंगे और हम यही भोजन करने लगेंगे।  
            एक बात अबहुँ समझ नहीं आई, गरीबों को मुफ्त में मोबाइल, गैस का कनेक्शन  सुविधा देंगे। किन्तु रिचार्ज कौन करेगा ? सिलेंडर हवा भरकर चलेगा ? भोजन कहाँ से उपलब्ध होगा ? भाई जहाँ चार दाने अनाज नहीं  है वहां इन वस्तुओं से कौन सा खेल खेलेंगे?  हमरी खुपड़िया में घुस ही नहीं रहा है।  वो का है कि हमने खुद को इतना मूर्ख बनाया कि  गधा आज  समझदार प्राणी हो गया है।   अंग्रेजो का भला हो अब हम मूर्ख नहीं है। फूल है फूल।  न गोभी का फूल, न गुलाब का फूल, पूरी दुनिया में प्राणी  सबसे अच्छे फूल. लोग तो उल्लू बनाते है आप ऊल्लू मत बनिए। ओह हो!  आज तो १ अप्रैल है।  मूर्ख दिवस पर न उल्लू , न गुल्लू , न फूल बनो भाई अप्रैल फूल बनो ! अप्रैल फूूूल ~!
-- शशि पुरवार 

Tuesday, March 22, 2016

फागुन के अरमान




छेड़ो कोई तान सखी री
फागुन का अरमान सखी री

कुसुमित डाली लचकी जाए
कूके कोयल आम्बा बौराये
गुंचों से मधुपान
सखी री

गोप गोपियाँ छैल छबीले
होठों पर है छंद  रसीले
प्रेम रंग का भान
सखी री

नीले  पीले रंग गुलाबी
बिखरे रिश्ते खून खराबी
गाउँ कैसे गान
सखी री


शीतल मंद पवन हमजोली
यादों में सजना  की हो ली
भीगा है मन प्रान
सखी री

पकवानों में भंग मिली है
द्वारे द्वारे धूम मची है
सतरंगी परिधान
सखी री
फागुन का अरमान सखी री
- शशि पुरवार
आप सभी मित्रों को सपरिवार होली की रंग भरी शुभकामनाएँ। 


Image result for होली कान्हा

Wednesday, March 16, 2016

धुआँ धुआँ होती व्याकुलता





धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ
सपनों की मनहर वादी है
पलक बंद कर ख्वाब सजाओ  

 लोगों की आदत होती है   
दुनियाँ  के परपंच बताना 
प्रेम त्याग अब बिसरी बातें 
बदल रहा  है नया जमाना।

घायल होते संवेदन को 
निजता का इक पाठ पढ़ाओ। 
धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ .


दूर देश में हुआ बसेरा 
अलग अलग डूबी थी रातें 
कहीं उजेराकहीं चाँदनी 
चुपके से करती है  बातें
जिजीविषाजलती पगडण्डी 
तपते  क़दमों को सहलाओ.
धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ.

ममताकरुणा और अहिंसा 
भूल गया जग मीठी वाणी 
आक्रोशों की  नदियाँ बहती 
 
हिंसा की  बंदूकें तानी
झुलस रहा है मन वैशाली 
भावों पर काबू पाओ  
धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ  
  ---  शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

https://sapne-shashi.blogspot.com/

linkwith

http://sapne-shashi.blogspot.com