Monday, January 23, 2017

उमंगो की डोर



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पर्व खुशियों के मनाने का बहाना है 
डोर उमंगो की बढाओ गीत गाना है १ 

घुल रही है फिर हवा में गंध सौंधी सी 
मौज मस्ती स्वाद का उत्सव मनाना है २

तिल के लाडू, गजक- चिक्की,बाजरा, खिचड़ी 
माँ के हाथों की रची खुशबु  खजाना है ३

संग बच्चों के सभी बूढ़े मिले छत पर 
उम्र पीछे छोड़कर बचपन बुलाना है। ४ 

देखना हैं जोर कितना आज बाजू में 
लहकती नभ में पतंगे  काट लाना है ५ 

संग चाचा के खड़ी चाची कहे हँसकर
पेंच हमसे भी लड़ाओ आजमाना है। ६ 

गॉँव में सजने लगें संक्रांत के मेले 
संस्कृति का हाट से रिशता पुराना है ७ 

उड़ रही नभ में पतंगे, धर्म ना देखें  
फिर कहे शशि प्रेम का बंधन निभाना है ८ 
              -- शशि पुरवार 

Saturday, January 14, 2017

सुधियाँ बैचेन - प्रेम के रंग



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१ 
प्रीत पुरानी
यादें हैं हरजाई
छलके पानी। 
२ 
नेह के गीत 
आँखों की चौपाल में 
मुस्काती प्रीत 
३ 
सुधि बैचेन 
रसभीनी बतियाँ 
महकी  रैन 
४ 
जोगनी गंध 
फूलों की घाटी में 
शोध प्रबंध 
५ 
धूप चिरैया 
पत्थरों पर बैठी 
सोनचिरैया। 
६  
छलके जाम 
हैं यादें  हरजाई  
अक्षर -धाम  
७  
छूटे संवाद 
दीवारों पे लटके 
वाद -विवाद। 
८ 
मौन पैगाम 
खनके बाजूबंद 
प्रिय का नाम। 
९ 
काँच से छंद 
पत्थरों पे मिलते 
 बिसरे बंद 
१० 
सूखें हैं फूल 
किताबों में मिलती 
प्रेम की धूल। 
११
मन संग्राम 
बतरस की खेती
सिंदूरी शाम  
१२ 
वफ़ा का मोल 
सहमे तटबंध 
तीखे से बोल 
१३ 
प्रेम भूगोल 
सम्मोहित साँसे 
दुनिया गोल 
१४ 
आँसू , मुस्कान 
सतरंगी जिंदगी 
नहीं आसान। 
१५ 
 लिक्खें तूफान 
तकदीरों की बस्ती 
अपने नाम 
- शशि पुरवार 

Monday, January 2, 2017

नववर्ष का दिनमान

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नव तरंगो से भरा, नव 
वर्ष का दिनमान आया
फिर विगत को भूलकर 
मन में नया अरमान आया.
  
खिड़कियों से झाँकती, नव 
भोर की पहली किरण है 
और अलसाये नयन में 
स्वप्न में चंचल हिरण है। 
गंध पत्रों से मिलाने 
दिन, नया जजमान आया।
खेत में, खलियान में, जब 
प्रीत चलती है अढाई 
शोख नज़रों ने लजाकर 
आँख धरती  पर गढ़ाई।
गीत मंगल, गान गाओ 
हर्ष का उपमान आया.
  
नित समय के साथ बिखरे 
एक मुट्ठी आस  कोंपल 
द्वार अंतर्घट खुले हों
कर्म से,सज्जित मधुर पल.
सुप्त सुधियों को जगाने  
खुशबु का पवमान आया

झर गए पत्ते समय के
बन गया इतिहास जाजम 
द्वार पर आगम खड़ा है  
मंत्र गुंजित, छंद आजम
हौसलों के बाँध घुँघरू 
नव बरस अधिमान आया।  
फिर विगत को भूलकर 
मन में नया अरमान आया.
             ---शशि पुरवार 

आप सभी मित्रों व ब्लॉगर मित्रों को सपरिवार नव वर्ष की मंगलमयी शुभकामनाएँ।  नववर्ष ख़ुशियों और सकारात्मकता से सराबोर हो यही कामना है।  

Friday, December 16, 2016

वृद्धावस्था --- जीने का नजरिया



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       आज  कलयुग में जहाँ युवा अपने जीवन में प्रगति कर रहे है वहीँ बुजुर्ग अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में अकेलेपन से झूझते नजर आते है . उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर निकले बच्चों की गृह वापसी कम ही होती है। नीड़ से उड़े पंछी अपना ठिकाना कहीं और ही बसाते हैं। शहर के  बाहर या विदेशों में जाकर वहीँ के जातें है।  फिर जैसा देश वैसा भेष  मंत्र सर्वोपरि होता है। एकल परिवार बनाकर रहना पसंद करतें हैं.यह  चौकानेँ वाले तथ्य है कि आज घर-घर  में  बुजुर्ग  चारदीवारी  में कैद अपने अकेलेपन की दीवारो से झूझते मिल जायेंगे। या फिर नाती पोतों व घर की चाकरी करना विवशता होती है।  पुरुष तो फिर भी रिटायर हो जाते है परन्तु महिलाएं  तो मरणोपरांत  ही पूर्णतः रिटायर होती है.  आज सयुंक्त परिवार के नाम  मुश्किल से उँगलियों पर गईं सकते हैं।  कितने परिवार ऐसे है जो सयुंक्त परिवार है जो खुशहाल हैं ?  

आज बुजुर्गों ने जीवन के अंतिम पड़ाव  जीना सीख  लिया है।  आजकल जीने का नया माध्यम उन्हें सोसल मीडिया के रूप में मिला है जहाँ २ शब्द में उन्हें वह आत्मीयता प्रदान करतें हैं जो वास्तविक जीवन में शायद ही मिले। 
                
     कुछ दिनों पहले बम्बई का एक किस्सा सुनने में आया कि एक लड़की ने अपनी सगाई इसलिए  तोड़ी कि वह परिवार में साथ नहीं रहना चाहती थी , उसने अपने होने वाले भावी पति से पूछा -- "  घर में खाली खोके या डस्टबिन कितने है " , पहले तो लड़का समझ नहीं सका, तब लड़की ने कहा कि तुम्हारे माँ बाप है या नहीं। .... !

        अब ऐसी सोच को क्या कहे, आजकल तो लड़की के माँ बाप भी यही देखते है कि लड़का अपने घर - परिवार से दूर नौकरी में हो, जिससे बिटिया को  पड़े. सास - ससुर का साथ उन्हें बोझ लगता है. परिवार का  अर्थ उनके लिए सिर्फ पति ही होता है और बेटे के लिए भी धीरे धीरे माँ - बाप उनकी स्वत्रन्त्र जिंदगी में बाधक। यही आजकल का कड़वा सत्य बन गया है।

              यही वजह है आज देश में जगह जगह  वृद्धाश्रम खुल  गएँ  है, मथुरा के  वृद्धाश्रम तो  बहुत चर्चित है वहाँ स्कान मंदिर की तरफ से बहुत से वृद्धाश्रम बने हुए है, कई ऐसे है जहाँ सिर्फ महिलाएं रहती है और कुछ जगह महिला पुरुष दोनों ही है, वहाँ के आश्रम में जाकर बुजुर्गो से मिलने का सौभाग्य भी मिला और यथास्थिति जानकार दुःख भी हुआ  कि कितने ही परिवार संपन्न  होते हुए भी  बुजुर्गो को  वहाँ जाकर छोड़ देते है। कमोवेश यही हाल देश के अन्य वृद्धा आश्रम का भी है।  जो चिंतनीय  व निंदनीय भी है।

                बुजुर्गो की वास्तविक स्थिति को और जानने के लिए मैंने जळगॉंव  स्थित वृद्धाश्रम में  भी कुछ पल बिताएं और वहाँ कुछ बुजुर्ग दम्पति की व्यथा सुनकर आँखों के कोर नम हो गए, वहाँ एक - दो बुजुर्ग दम्पति ऐसे भी थे जो अपने जीवन के अंतिम क्षणों  को जी रहे थे। जिनका शहर में बहुत बड़ा बंगला एवम करोडो का व्यवसाय था।  सिर्फ एक ही पुत्र जिसने करोडो की संपत्ति धोखे से अपने नाम करवा ली  फिर  उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ दिया,  अपनी कहानी सुनाते हुए  बिलख कर रोने लगे कि आज ५ साल हो गए है बेटा हमसे मिलने भी कोई नहीं आता, हमने जिस बच्चे की राहों में काँटा भी चुभने नहीं दिया  आज वह  बच्चे गलती से पलट कर भी नहीं  देखते हैं। हमें धन संपत्ति का मोह नहीं है वह खुश रहें तो अब हम यहाँ खुश है, सिर्फ साल भर के लिए २००० रूपए भेज देते है

          समय कभी एक जैसा नहीं होता हैं, पहिया घूमता रहता है।  वक़्त बदला , युवा बदले और अब बुजुर्गो का खुद के लिए बदलता नजरिया, यह सुखद सकारत्मक पहलू है , आज आश्रम में रह रहे बुजुर्गों  ने अपने लिए जीना सीख लिया है। बुजुर्ग अपनी ख़ुशी के लिए कार्य करते है सत्संग से लेकर अपने पसंद के सभी कार्य आपस में मिल जुलकर करते है.   आश्रम में जुड़ा हुआ उनका यह परिवार ही उनके दुःख सुख का साथी भी है। 
                       वृद्धाश्रम के अतिरिक्त भी कुछ बुजुर्ग महिलाओ  से भी  मैंने मुलाक़ात की और उनकी सोच एवं हौसलों के आगे मै भी नतमस्तक हो गयी, आज इस उम्र में उनका  हौसला किसी युवा से कम नहीं है,  अपने इस समय को उन्होंने अपने लिए  चुना जो साथ में उनकी जीविका का साधन भी बना। साथ ही समाजसेवा भी हो गयी।  

 कुछ और लोगों के मिले अनुभव भी आपसे साझा  करती हूँ। 
 ७० साल की एक बुजुर्ग महिला हमेशा मुझे  उपचार केंद्र के दिखती थी, चेहरे  पर आत्मसंतोष की झलक  और मोहक मुस्कान , हाथ पैर में सूजन के कारन रोज शाम नियम से सिकाई के लिए आती थी, उनसे पूछा आप रोज अकेले आती है, कोई आपके साथ नहीं आता - तो जबाब में उन्होंने कहा -

     हाँ मै अकेले आती हूँ , मेरे पति बीमार है बिस्तर से नहीं उठ सकते है, बेटे बहू बाहर रहते है , उनका अपना घर है , वह यहाँ नहीं आते और हम यहाँ अपने जीवन से खुश है.

"   आप क्यूँ नहीं जाती बच्चो के पास "
" क्या करूँ जाकर , इस उम्र में  हमसे आना जाना नहीं होता वे अपने जीवन में व्यस्त व खुश है. तो रहने दो, हम भी खुश है"

 एक स्निग्ध मुस्कान चैहरे पर आ गयी।

  वहीँ  एक और महिला थी जिनसे पति का वर्ष भर पहले स्वर्गवास हो चूका था।  उम्र ६५  साल परन्तु जैसे उन्होंने उम्र को मात दी हैं।  हंसमुख ,मधुर स्वभाव - कहने लगी पहले मै बहुत दुखी हुई रोती रहती थी, मुझसे बोलने वाला कोई भी नहीं था, इतनी अकेली हो गयी थी कि बीमार पड़ने लगी, बेटे - बहु अपने कार्य में व्यस्त रहते है , फिर मैंने खुद को समझाया कि जीना पड़ेगा इस तरह जीवन नहीं काट सकतें हैं।  तब मैंने विरोध सहकर भी पालना घर शुरू कर दिया, २ पैसे भी मिलने लगे और लोग भी जुड़ने लगे, आज स्वस्थ हूँ , खुश हूँ , ग्रुप बन गया है सत्संग करते है, बच्चों के साथ मिलकर हँस लेते है. आज एकाकी पन नहीं है।

               आज बुजुर्गो का अपने प्रति बदलता नजरिया उन्हें जीवन जीने  और खुश रहने के लिए सकारात्मक सन्देश व संतुष्टि प्रदान कर रहा है, ऐसे कई बुजुर्ग भी है जिन्होंने कभी कंप्यूटर या मोबाइल को हाथ भी लगाया होगा किन्तु आज वह अंतरजाल पर सफलता पूर्वक सक्रीय है, अंतरजाल पर युवाओं के साथ साथ बुजुर्गो की संख्या भी बढ़ती जा रही है , वहाँ वे अपना योगदान लेखन में भी कर रहे है और जीवन को नए नजरिये से देख रहें है। यह बदलाव  सकारात्मक सन्देश भी देता है उम्र जीने की कोई सीमा नहीं होती है।  परन्तु क्या बुजुर्गो का नजरिया बदलना ही सम्पूर्णता है ?  परिवार और समाज की क्या जिम्मेदारियाँ है ?   सिर्फ वृद्धाश्रम ही इसका विकल्प नहीं है. आज कानून ने भी बुजुर्गो के लिए कई प्रावधान बनायें है, जिनका हनन होने पर कार्यवाही की जा सकती है।  एक उम्र के बाद जब शरीर  थकने लगता है तब  सहारा जरुरी है।  लेकिन आज के बुजुर्गों ने इससे लड़ना सीख लिया है , उनके जज्बे को नमन।
  -- शशि पुरवार

Friday, December 2, 2016

बूझो तो जाने। ..

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१ 
सुबह सवेरे रोज जगाये 
नयी ताजगी लेकर आये 
दिन ढलते, ढलता रंग रूप 
क्या सखि साजन ?
नहीं सखि  धूप
२ 

साथ तुम्हारा सबसे प्यारा 
दिल चाहे फिर मिलूँ दुबारा 
हर पल बूझू , एक पहेली 
क्या सखि साजन ?
नहीं सहेली।
३ 

रोज,रात -दिन, साथ हमारा  
तुमको देखें दिल बेचारा  
पल जब ठहरा, मैं, रही खड़ी 
क्या सखि साजन ?
ना सखी घडी।
४ 

तुमसे ही संसार हमारा  
ना मिले तो दिल बेचारा
पाकर तुमको हुई धनवान  
क्या सखि साजन ?
नहीं सखि ज्ञान।

शशि पुरवार 

Monday, November 28, 2016

नोटबंदी

         आज देश लाइन में लगा है, वैसे भी लोगों को लाइन में लगने की आदत सी है, कोई नयी  फिल्म का पहला दिन हो तो टिकिट खिड़की पर लंबी लाइन ,जैसे पहले दिन ही किला फतह करना हैं. फ़िल्मी सितारों के दर्शन हों या लालबाग का राजा , स्कूल में एडमिशन हो या परीक्षा के फॉर्म,जिओ फ्री फ़ोन मिले या रिचार्ज , राशन - पानी या  पेट्रोल - या  चौकी धानी, हर जगह लाइन का अनुशासन बरक़रार है इसीलिए सरकार को हमारी दरकार है। फिर नोट बदलने  के लिए इस लंबी लाइन  पर  विपक्ष काहे भड़क रहा है, अब का करें मिडिया को भी रोज तमाशा देखने की आदत पड़ गयी है।  तमाशा करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हैं। हर तरफ मचा हुआ हाहाकार हैं। सालों पहले  ५ -१० पैसा, चवन्नी और रूपया न जाने कितने सिक्के गुमनाम हो चुके हैं ..  
             हमारी आम जनता पहले भूख से मरती थी आज लाइन से मर रही है.  गरीब बेचारा मरता  क्या न करता, पेट की दरकार है ,अव्यवस्था व्याप्त है। धन मिले तो धान्य मिले। इसी बात की तकरार है।  
      अब घर कैसे चले, आज हम भी उसी स्थिति में है. आठ दिन हो गए सब्जी का मुँह नहीं देखा,थाली से सब्जी गायब हो गयी। कभी दाल गायब तो कभी सब्जी गायब। क्या थाली को भी चैन नहीं मिलता है. जो धन था वह धन न रहा,  सरकार जीजान कोशिशों के बाबजूद आज  भी एटीम का पेट  खाली है,  पैसा बैंक में आ रहा है तो  कहाँ जा रहा है ? 
    हम जब बैंक गए तो वहां कोई बड़े धनवान सज्जन ने  मैनेजर से कहा डेढ़  लाख जमा करना है और निकालना भी है। मैनेजर गाय की तरह सिर हिलाकर बोला -  सर एक दिन रुकिए ,काम हो जायेगा, अभी बैंक खाली है।  भाई डेढ़ एक लाख एक दिन में खा लेंगे ? अब समझ में आया गरीब, किसान ,मध्यमवर्गीय की लाइन कम क्यों नहीं हो रही है।  
            बाजार में  लोग मक्खी मारने की कोशिश कर रहें हैं किन्तु मक्खियाँ भी होशियार निकली। कहीं नजर नहीं आ रही है। हमने एक आदमी से  पूछा फैसला गलत है क्या ? बेचारे ने  सिंह बनकर ऐसी नज़रों से हमें देखा जैसा अभी खा जायेगा।  ऑटो वाले साथ बैठकर समय गुजार रहें है.  सवारियाँ  नहीं है फिर भी संतोषजनक मुद्रा है।  इस कतार ने देश में भाईचारा  बढ़ा दिया है।जिसे पिंक रानी मिल गयी उसे मुस्कुरा कर ऐसे  ख़ुशी से विदा कर रहें है। जैसे कोई विजेता।  
        
        हमें भी बड़ी तकलीफों  के बाद एटीम से  एक गुलाबी नोट मिला सोचा रेजगारी ले आएं। कल हम एक सेन्डविच की दुकान पर गए दो सेन्डविच लेकर खाये तो उसने १०० की पत्ती ले ली. हमने कहा भैया इतना मँहगा क्यों?तो बोला छुट्टे पैसे नहीं है। सब्जी वाले के पास गए तो बोला - पूरा  १०० की ले लो छुट्टे पैसे नहीं है। एक पत्ती थी वह भी गयी , कोई गुलाबी नया धन लेने के लिए तैयार नहीं है। हे राम कैसे दिन आ गए. हर जगह मारामारी है, पर बाजार में रेजगारी नहीं  है, जो लोग खर्च कर रहें हैं वह पैसा कहाँ जा रहा है।  भाई हमें तो अब छुपाने से भी डर लगता है।  
      काला धन कहाँ है काले धन वाले कहाँ है, सोशल मीडिया में वोटिंग की जा रही है कि  फैसला सही है या गलत. दुनिया भर के अखबार इस फैसले  पर सकारात्मक मोहर लगा चुके हैं , हर जगह वाह वाही है ,भाई उन्हें तो शब्द खर्च करने हैं यहाँ आकर पैसा खर्च करें कतार  में लगे तो समझ आएगा। पैसा है फिर भी पेट खाली है।  
           हमें काला धन तो पता नहीं लेकिन गुलाबी नया धन हमारी नैया पार नहीं कर पा रहा है। हम  बेचारे ईमानदारी के मारे हैं. न पैसा है न वोट ,  हम तो  सबसे हारें हैं। फिर भी ससुरे कह रहें है अच्छे दिन आने वाले हैं.   अच्छे दिन का पता नहीं  लेकिन  नियम कायदे रोज भेष बदल कर जिंदगी में सेंध लगा रहें हैं.नित नए कायदे से हम जैसी आम पत्नियां घबरा सी गयी हैं। बेचारी पति से धन बचाकर सोना खरीदती थी आज वह भी टैक्स माँग रहा है, हाय री किस्मत पतिदेव का बस चले तो हमें काला पानी की सजा दे दें।  पहले गृहणी इस कला  के कारण सुघड़ मानी जाती थी लेकिन अब  हमारी सुघड़ता की कला ने हमारे धन को संदिग्धता  के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया था.  भले ही सरकार  ने इस राशि को मान्यता दी है किन्तु पतिदेव की प्रश्नवाचक निगाहों ने इसे अमान्य करार कर दिया।  हाय धन भी गया और भेखुल गया.  हाथ खाली के खाली।   बेचारा दिल कहता है -- जाने वाले हो सद के तो लौट के आना।  
             भाई नुक्स निकालना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.  देश हो या नियम कायदे हम तो नुक्स निकालेंगे। जल्दी ही चुनाव होंगे लेकिन उसके पहले ही लोगों के हाथों में स्याही लगी होगी, कहीं आग लगी होगी तो कहीं धुआँ उठेगा। अब फिर दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के  चार दिन।  
------ शशि पुरवार 
पुणे महाराष्ट्र 

Wednesday, November 16, 2016

प्रीत पुरानी

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१ 
प्रीत पुरानी
यादें हैं हरजाई 
छलके पानी। 
२ 
नेह के गीत 
आँखों की चौपाल में 
मुस्काती प्रीत 
३ 
सुधि बैचेन 
रसभीनी बतियाँ 
महकी  रैन 
४ 
जोगनी गंध 
फूलों की घाटी में 
शोध प्रबंध 
५ 
धूप चिरैया 
पत्थरों पर बैठी 
सोनचिरैया 
.-----शशि पुरवार  

Tuesday, November 8, 2016

जिओ जिंदगी -


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हाईटेक होती जिंदगी ने  दिमाग की बत्तियां जैसे गुल कर दी हैं, अँधेरे में जलता एक दीपक रौशनी का प्रतिक है  आज हाथों में  जलते मोबाइल की रौशनी से दुनियां  रौशन है, दशहरा हो या दिवाली बाजार में उपलब्ध नए संशाधन व्यापार को नयी ऊंचाई  प्रदान कर रहें हैं. जिओ और जीने दो की तर्ज पर जीने के मायने बदल गएँ हैं. पहले दिवाली पर मिठाई  बाँटी जाती थी आज फ्री नेट पैक का  तोहफा पाकर लोग खुद को भाग्यवान समझते हैं, चोर तो आखिर चोर ही होता है, एक अँगुली पकड़कर पूरा हाथ कब काट देगा, यह हाथ कटने के बाद ही पता चलता है. अब हाथ कटे या जेब बात एक ही हैं. आज बदल दो जिंदगी ने जिंदगी को सच में ही बदल दिया है। 
       अर्थव्यवस्था औंधे मुँह गिरकर भी ढोल बताशे बाँट  रही है. ह्रदय में धधकती आग गप्पे बाजी से ही संतुष्ट है. लोगों को जीने का माध्यम मिल गया है, पहले गॉँव में चौपाल लगती थी आज फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, हाइक , वाट्सअप की चौपाल लगती है. अलग बगल बैठे घर के दो लोग भी इस चौपाल का आनंद लेते है। बतकही आमने सामने कहीं कोसो दूर है.  पुराना नए रूप को धारण करके पुनर्जीवित हो गया है. महल हो या झोपडी थाली बिना मोबाइल -नेट के अधूरी है, आज भिखारी भी कहते है भैया कुछ न दो नेट पैक डलवा दो, जिंदगी तो जिओ के संग बन गयी। नया रंग अब जिओ के संग हाजिर है। 
सत्ता धारी  के मजबूत दाबे फुस्सी बम की तरह फट कर सत्ताहीन हो रहें हैं. इन्हें  किसी तिजोरी में ससम्मान बंद कर देना चाहिए।  आतंकवादी की जड़े मजबूत हो गयीं है , जैसे साक्षात् यमराज धरती पर उतर आएं हैं. देश में गाय -बैल की संख्या में वृद्धि हुई है, जहाँ बैल दिखा तो समझो  अपनी बारी आ गयी है, नगरनिगम पर केस दर्ज हैं  वह गाय बैलों की दादागिरी से परेशान होकर खुद ही दुबक कर बैठ गएँ है , आज सड़कों पर  गाय बैलों का राज्य फल फूल रहा है। गरीब चाय वाले को कुछ बोनस दे देते तो भला हो जाता।
        आतंकी रावणों ने इंसानों को उड़ाकर त्यौहार मनाना अपना धर्म समझ लिया है, जैसे सबकी साँठगाँठ हो गयी है, अस्पताल, पब्लिक, सरगना, अर्थव्यवस्था, सत्ता, सत्ताधारी कोई भी इससे अछूता नहीं रहा है. मँहगाई का बैल निरंतर अपनी सफलता की कहानी दर्ज कर रहा है. बादाम औंधे मुंह गिर गया है आलू ने सेंसेक्स की तरह अपनी ऊंचाई दर्ज की है, दिवाली में बम पटाखें की गूँज कैसी होगी ईश्वर जाने या सत्ता धारी जाने, अहंकार  के  रावण का कद बढ़ता जा रहा है , विनम्रता के राम को आज चिराग लेकर ढूँढना होगा।                
             हे राम का नया स्वरुप हाय राम हो गया है।  जिओ वाले बाबू अब सारे मंत्र सीखा देंगे।  हम तो दिवाली  पूजन की रस्म निभाकर  लक्ष्मी को खुश करने का प्रयास करेंगे, लक्ष्मी जी  के संग जिओ वाले बाबू की  किरपा बनी रहे।अब दिल मांगे मोर की तर्ज पर दिल कहता है जिओ वाले बाबू जरा गाना बजा दो, जिओ वाले बाबू जरा जीना सीखा दो। ...... हर दिन जिओ शुभकामनाएँ।    
शशि पुरवार 


     

Saturday, October 1, 2016

चोर की दाढ़ी में तिनका

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 चोर की दाढ़ी में तिनका

मुस्कुराईये कि आप फेसबुक पर हैं। गुनगुनाईये कि आप फेसबुक पर हैं। कुछ हसीन लम्हे कुछ चंचल शोखियाँ। कहीं नखरा। कहीं गुमानियाँ। एक सपना जो जीवन को हसीन बना रहा है। कहीं ख्वाब जगा रहा हैं। कहीं दिल सुलगता है. कहीं आग जलती है तो रोटियां भी सिकती हैं। जिंदगी तेरे बिना कुछ भी नहीं .... दुनियाँ इतनी हसीन होगी कभी सोचा न था। एक नशा जो नशा बनकर होश उडाता है तो कहीं होश जगाता है। देखा जाये तो यह चोर है दिल का चोर। जो आपका चैन लूटकर खुद चैन की साँस ले रहा है। एक ऐसा चोर जिसकी दाढ़ी में तिनका भी है। कहीं चोर की दाढ़ी में कहीं तिनका तो नहीं !

आज शर्मा जी आज सुबह से छत को नापने में लगे हुए थे। कदमों की मार से छत बेहाल थी। शर्मा जी के हाल - बेहाल होने के कारन का यों तो यो पता नहीं था। किन्तु शर्मा जी की पत्नी की जासूसी निगाहें कुछ ज्यादा की गोल घूम रही थी। दिमाग ताड़ गया था दिल में कहीं आग सुलग रही है। कहीं कुछ खिचड़ी पकी है। नहीं तो पूरी दाल ही काली है। आग में घी तो डाला तो स्वयं के हाथ जलने का भय था। किन्तु पत्नी जी ने शर्मा जी के पेट की आग बुझाकर उसे रबड़ी बनाने का मन जरूर बना लिया था। नहीं तो यह आग उन्हें भी झुलझा सकती थी। रसोई से भजिये तलने की खुशबु बड़ी बड़ी उड़ाने भर रही थी। पड़ोस के वर्मा जी की नाक कुत्ते की तरह उस खुशबु के पीछे लग गयी। आज सुबह से छत नापने की आवाज से सारे कमरों में जैसे तबले की थाप सरगम बजा रही थी। तिस पर रसोई से शर्मा जी की पत्नी की गुनगुनाहट अपना हाल खुशबु के संग भेजकर जैसे सीने पर नश्तर चला रही हो !
पड़ोस के वर्मा जी से रहा नहीं गया तो पूछ बैठे - क्या हुआ शर्मा जी। क्यों बेचारी छत पर मूंग दल रहे हो। भाभी जी कुछ खास तैयारी कर रही हैं। जाओ भाई , मजे करो। हो सके तो एक प्लेट हमें भी धीरे से सरका देना। ससुरी जबान से रहा नहीं जा रहा है।
शर्मा जी -- क्यों मन में कोई लड्डू फूट रहा है। लड्डू न हुआ जैसे कोई बम हुआ। यह आग तुम्हारी ही लगायी हुई थी। तुम्हारी लार टपक रही है। अरे भागवान की नज़रे किसी पुलिस वाले की दी हुई जागीर है। झट रपट लेने लगेगीं। 
वर्मा – काहे का हुआ? काहे लाल पीले हो रहे हो. आज किसी से बात नहीं हुई का? जाओ तनिक एक दो लाइन छाप दो. सब्र मूड अच्छा हो जायेगा। हमरा साथी फेसबुक है ना!

शर्मा जी --- बस करो नामाकुल! काहे इस बुढापे में तारे दिखा रहे हो। अरे तुमने भरी जवानी का फोटो लगाकर हमें अपने दिन याद दिला दिए। तो हमने भी दिल को जवान कर लिया।

वर्मा जी – तो क्या हुआ। जिंदगी अंतिम साँस तक जिओ। दिल जवान तो हम जवान।
शर्मा – अरे साँस वांस छोडो। हमारी तो साँस निकलना बाकी है। सुनने में है कि फेसबुक की सारी चाट और मसाला ओपन हो जायेगा। वैसे भी राज कब था? मसाले का आनंद लेने हेतु कई सिपाई मिसाइल के साथ तैयार है। कई कारावास में जाने के भय में गुम है। चोर की दाढ़ी में तिनका। अब क्या होगा कालिया। सबको चाट की प्लेट हाथ में थमा दी जाएगी तब खूब खाना। ससुरी चटोरी जबान।
वर्मा – हमें कालिया बोला भक .....हुन्न्न ! ऐसा क्या किया जो दुम दबाकर भाग रहे हो। जरुर कुछ घोटाला किया होगा। तुम्हरे साथ हमरी की नाक ख़राब हो जाएगी। किसने कहा था इधर उधर मुँह मारो। जीभ लपलपाओ !

शर्मा – बस भी करो। जाओ जाओ ........ बड़े आये ब्रेड पर मख्खन लगाकर खाने ! ऐसा कुछ नहीं कहा। दो शब्द प्रेम की जलेबी खा ली तो जुर्म हो गया।

वर्मा – तनिक उम्र का तो ख्याल रखा होता। दुनिया गोल है। अब भजिये खा लो। अच्छे से तल गए होंगे।

शर्मा जी -- जैसे ठन्डे पानी से नहाकर बाहर आयें हो। का करें पत्नी शेरनी की तरह खूंखार दहाड़ मारती है। दूर से बैठकर जलेबी खा ली, तो शुगर की बीमारी भी इस फेसबुकियो को लग गयी है।

किन्तु हम का करे फेसबुक ही तो कहत रहा – कि अँखियों से गोली मारो। जब भी खोलो ससुरा भक से कहता था –
अपने मन की कुछ बात लिखो। आपकी यादेँ है। कुछ कहो सो हमने कह दिया।
हमरे देश में यही होता है। कोई बार बार कहे कुछ लिखो। कुछ कहो। तो मान रखना पड़ता है. हमने भी उसका मान रखा। इसमें हमरी का गलती है। हमें बचपन से यही सिखाया गया है सबका मान करो। सो हमने कर दिया। अब दिल उमंगों से भर गया तो हम झूठ थोड़े ही बोलेंगे। झूठ बोलना पाप होता है। हमने पाप थोड़े ही किया है। मासूम से बच्चे का दिल है। अब चोर सिपाही का खेल खेलने लगा है। तौबा है जो आगे से जो इसके साथ पान खाया। फिलहाल चलो, अब भजिये खा ही लेते हैं।
देखे अब फेसबुक क्या नए गुल खिलाता है। हमने भी सोच लिया जो होगा सो होगा। जब कहेगा कुछ लिखो तो लिख देंगे – चोर की दाढ़ी में तिनका।
                  - शशि पुरवार 

Monday, September 5, 2016

क्रोध बनाम सौंदर्य -

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आज सरकारी आवास पर बड़े साहब रंग जमाए बैठे थे. वैसे तो साहब दिल के बड़े गरम मिजाज है, लेकिन आज बर्फ़ीला पानी पीकर, सर को ठंडा करने में लगे हुए है।  सौंदर्य बनाम क्रोध की जंग छिड़ी हुई है। आज महिला और पुरुष समान रूप से जागरूक है. यही एक बात है जिसपर मतभेद नहीं होते है।  कोई आरक्षण नहीं है ? कोई द्वन्द नहीं है, हर कोई  अपनी काया को सोने का पानी चढाने में लगा हुआ है। ऐसे में साहब कैसे पीछे रह सकते हैं.  हर कोई सपने में खुद को  ऐश्वर्या राय और अमिताभ बच्चन के रूप में देखता है।   साहब इस दौड़ में प्रथम आने के लिए बेक़रार है। बालों  में  बनावटी यौवन टपक रहा हैं,
किन्तु बेचारे पेट का क्या करे ? ऐसा लगता है जैसे शर्ट फाड़कर बाहर निकलने को तैयार बैठा हो. कुश्ती जोरदार है। चेहरेकी लकीरें घिस घिस कर चमकाने के प्रयास में चमड़ी दर्द से तिलमिला कर अपने रंग दिखा गयी है।
भाई इस उम्र में अगर अक्ल न झलके तो क्या करे।  अक्ल ने भी भेदभाव समाप्त करके घुटने में अपना साम्राज्य स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया है। बेचारा घुटना दर्द की अपनी दास्तां का राग गाता रहता है।
         अब क्या करे  साहब का गुस्सा तो बस बिन बुलाया मेहमान है, जब मर्जी नाक से उड़ कर मधुमक्खी की तरह अपना डंक मारकर  लहूलुहान करता है। शब्द भी इस डंक की भाँति अंत तक टीसते रहते है।  वैसे गुस्से में शब्द  कौन से कहाँ गिरे, ज्ञात ही नहीं होता है, बेचारे शब्दों को, बाद में दिमाग की बत्ती जलाकर ढूँढ़ना पड़ता है। अब शब्दों की जाँच नहीं हो सकती कि ज्ञात हो कौन से पितृ शब्द से जन्मा है।  भाषा क्रोध में अपना रंग रूप बदल लेती है।  क्रोध में कौन सा शब्द तीर निकलेगा,  योद्धा को भी पता नहीं होता।  आज के अखबार में सौंदर्य और क्रोध के तालमेल के बारे में सुन्दर लेख उपाय के संग दुखी हारी लोगों की प्रेरणा बना हुआ था।  ख़बरें पढ़ते पढ़ते शर्मा जी ने साहब को सारे टिप्स  चाशनी में लपेटकर सुना दिए.

 साहब -- जवां रहने का असली राज है गुस्से को वनवास भेजना, गुस्सा आदमी को खूँखार बना देता है। आदमी को ज्ञात नहीं होता वह वह कब पशु बन गया है।
 गुस्से में  उभरी हुई आकृति को यदि  बेचारा  खुद आईने में देख ले, तो डर जाये।  टेढ़ी भौहें, अग्नि उगलती से आँखे, शरीर का कम्पन के साथ  तांडव  नृत्य, ऐसी  भावभंगिमा कि जैसे ४२० का करंट पूरे शरीर में फैला देती हैं. सौम्य मधुरता मुखमण्डल को पहचानने से भी इंकार  कर देती है।

      क्रोध के  कम्पन से एक बात समझ आ गयी कोई दूसरा क्रोध करे या न करें हम उसके तेवर में आने से पहले ही काँपने लगते है।  अगले को काहे मौका दें कि वह हम पर अपना कोई तीर छोड़े।
           क्रोध की महिमा जानकार साहब  क्रोध को ऐसे गायब करने का प्रयास कर रहे हैं जैसे गधे से सिर से सींग. सारे सहकर्मी  पूरे शबाब पर थे।  एक दो पिछलग्गू भी लगा लिए और साहब की चम्पी कर डाली।भगवान् जाने  ऐसा मौका मिले न मिले।  अन्य  सहकर्मी -- साहब योग करो, . व्यायाम करो.........

साहब ने बीच में ही कैंची चला दी और थोड़ा शब्दों को गम्भीरता से  चबाते हुए बोले -- क्या व्यायाम करें।बस आड़े टेढ़े मुँह बनाओ, शरीर को रबर की तरह जैसा चाहो वैसा घुमा कर आकार बनो लो।  लो भाई क्या उससे हरियाली आ जाएगी।

          फिर  खिसियाते हुए जबरन हे हे हे करने लगे, अब क्रोध तो नहीं कर सकते तो उसे दबाने के लिए शब्दों को चबा लिया, जबरजस्ती होठों - गालो को तकलीफ देकर हास्य  मुद्रा बनाने का असफल प्रयास किया। बहते पानी को कब  तक बाँधा जा सकता है ऐसा ही कुछ साहब के साथ हो रहा था।  आँखों  में  बिजली ऐसी कड़की कि आसपास का वातावरण और पत्ते पल में साफ़ हो गए।

       क्रोध के  अलग अलग अंदाज  होते है , मौन धर्मी क्रोध जिसमे मुँह कुप्पे की फूला रहता है।  कभी आँखे अपनी कारगुजारी दिखाने हेतु तैयार रहती है , कभी कभी मुँह फूलने की जगह पिचक जाता है तो आँखों से दरिया अपने आप बहने लगता है.  कभी कभी क्रोध की आंधी ह्रदय की सुख धरनी को दुःख  धरनी बना देती है।  चहलकदमी की सम्भावनाएं बढ़ जाती है, सुख चैन लूटकर  पाँव गतिशील हो जाते हैं व कमरे या सड़क  की लम्बाई ऐसे नापते है कि मीटर भी क्या नापेगा। शरीर की चर्बी अपने आप गलनशील हो जाती है ,  तो क्रोध एक  रामवाण इलाज है, मोटापे को दूर करने का?  यह भी किसी योग से कम नहीं है । 
  एक ऐसी दवा जो बहुत असरकारक होती है , मितभाषी खूब बोलने लगते है और  अतिभशी मौन हो जाते है या अति विध्वंशकारी हो जाते है। कोई गला फाड़कर चिल्लाता है तो कोई चिल्लाते हुए गंगा जमुना बनाता है।  कोई शब्दों को पीता है तो उसे चबाकर नयी भाषा का जन्म देता है।

 आज साहब को क्रोध का महत्व समझ आया, सोचने लगे ---   वैसे गुस्से से बड़ा  कोई बम नहीं है। गुस्सा करके हम तर्कों से बच सकते है. विचारों को नजर  अंदाज कर सकते है। कुछ न आये तो क्रोध  की आंधी सारे अंग को हिलाकर गतिशील बना देती है।  सौंदर्य योग हेतु यह योग कोई बुरा नहीं है अभी इसका महत्व लोगों को समझ नहीं आया जल्दी शोध होने और नया क्रोध पत्र बनेगा।
सोच रहा हूँ मैं भी क्रोध बाबा के नाम से अपना पंडाल शुरू कर देता हूँ।  तब अपने दिन भी चल निकालेंगे, फिलहाल १०० करोड़ की माया को माटी में मिलने से बचाने के लिए संजीवनी ढूंढनी होगी , हास्य संजीवनी।  अब क्रोध का बखान आधा ही हुआ है  कहीं आपको तो गुस्सा नहीं आ रहा है ?
-- शशि पुरवार

Monday, August 22, 2016

सुख की मंगल कामना








बाबुल के अँगना खिला, भ्रात बहन का प्यार 
भैया तुमसे भी जुड़ा, है मेरा संसार। 

माँ आँगन की धूप है, पिता नेह की छाँव 
भैया बरगद से बने , यही प्रेम का गॉँव 

सुख की मंगलकामना, बहन करें हर बार 
पाक दिलों को जोड़ता, इक रेशम का तार 

चाहे कितने दूर हो, फिर भी दिल से पास 
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस 

प्रेम डोर अनमोल ये, जलें ख़ुशी के दीप 
माता के आँचल पली, बेटी बनकर सीप 
-- शशि पुरवार 


समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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