Monday, October 23, 2017

भूख की घंटी = पेट की कश्मकश


     
                       भूख शब्द का नाम लेते ही आँखों के सामने अनगिनत पकवान तैरने लगते हैं। मुँह में पानी का सैलाब उमड़ने  लगता है। भूख अच्छों - अच्छों को दिन में तारे  दिखा देती है। जब तक जठर अग्नि शांत ना हो दिमाग का दही जमने लगता है। अब भूखे पेट भी कहीं भजन होते हैं।   भूख और पेट  के सम्बन्ध की  गुत्थी सुलझाना, समझ से परे है। हम तो यहीं समझते हैं कि  यह पेट न होता तो जीवन में कितना सुकून होता।  न खाओ और न बनाओं।  इन सभी पत्नियों का दर्द हम बखूबी समझ सकतें है बेचारी दिन - रात यही सोचती हैं अब भोजन में क्या बनाया जाय । यह  पापी पेट, न जाने कितने जतन करवाता है।
               पिछले कई दिनों से एक नया रोग लग गया है।   अब यह बात किसी को भी बताने में शर्म आती है। न न दिमागी घोड़े न दौड़ाएं, यह पापी पेट ही है जिसने हमें बैचेन कर रखा है।  अजीब हाल है पेट की घंटी कभी भी बज उठती है, जी हाँ लोगों के पेट में चूहे दौड़ते हैं  और हम सीधे भोजन पर हमला करतें है। खा खाकर अनाज ख़त्म होने लगा,  लेकिन पर यह पापी भूख अपना विकराल रूप धारण करके तांडव नृत्य करवा रही है। यह कैसी भूख है जिसकी क्षुधा शांत  नहीं होती है। जिधर देखों भोजन नजर आता है, जीभ रसवास करने हेतु तत्पर रहती है। आखिर आँतों को भी आराम चाहिए कि नहीं, अजीब कश्मकश है. 

        डाक्टर को दिखाया तो बोले - सुबह सुबह हम ही मिले थे, जाओ, खाओ, हमें मत सताओ ...! 

               पतिदेव से कहा तो बोले - "हे नारी मै तुम्हारे आगे नतमस्तक हूँ , तुम्हीं  अन्नपूर्णा हो, तुम्हीं  काली हो तुम्हीं जग माता हो। जाओ अपनी क्षुधा शांत करो देवी, हमें आराम करने दो  " 

                       अब पंक्ति समझ से परे थी , पतिदेव ने उपहास किया या तंज कसा , समझ नहीं सके।  किन्तु पेट की घंटी बजना कम  नहीं हुई.  हमारी जबान आजकल भोजन पर फिसलने लगी उसमे  किसी को कष्ट क्यों हो ?  बनाने वाले भी हम खाने वाले भी हम.  कहतें हैं हींग लगे न फिटकरी फिर  भी रंग चौखा।  निखरे भी हम बिखरे भी हम,  तो क्यों न  भूख पर  अपनी कलम की क्षुधा शांत की जाए। संपादक हमें ललकारते रहते हैं -   रचना जल्दी लिख कर भेजों और हम अपनी संवेदनाओं की भूख को तराशने लगते हैं. देखा जाये तो दुनियाँ में सभी भूखे हैं। नजर घुमाओ भूख के अनगिनत प्रकार नजर आ जायेंगे ,  
      
  भूख और राजनीति का क्या मेल? 
   मै तो सिर्फ अपने पेट की भूख से परेशान हूँ  किन्तु पापी लोगों के पापी पेट भरने का नाम ही नहीं लेते हैं। किसी को तन की भूख है, किसी को धन की भूख है   किसी को  मोह - लोभ, सत्ता-  कुर्सी की भूख है जो अंतहीन है। किसी को नाम की भूख है किसी को आस्था की भूख।  यही भूख लोगों को विचलित कर चैन से सोने  भी नहीं देती हैं। तन की भूख इंसान को दुष्कर्मी बनाती है.  आस्था से अंधे लोग साधारण इंसान को भी मसीहा या देवी का दर्जा देकर उनकी पिपासा को शांत करतें है, सत्ताधारी सत्ता के मद में चूर  लोगों का उपयोग करतें है।  साम - दाम - दंड - भेद  कलयुग के तेज औजार बन गएँ है।  अच्छे दिन की  चाह में लोग जीवन काट देतें हैं लेकिन अच्छे दिन  नहीं आते।  गरीब दो जून रोटी की खातिर सारे अन्याय हँस कर सहता है, धर्म के द्वार से पाखंडियों को स्वर्ग सा सुख देतें  है।  भिन्न - भिन्न प्रजाति की भूख, न जाने कितने पाखंडियों को जन्म देती है, ऐसी भूख अंदर ही अंदर  समाज को खोखला कर रही है।   भगवा वस्त्रों का मुखोटा पहने  राक्षस रंगरलियां कर रहें है।  
 धूमिल की एक कविता याद आती है - 
क आदमी रोटी बेलता है

दूसरा आदमी रोटी खाता है
और एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है
न ही रोटी खाता है बल्कि
रोटियों से खेलता है.

मै पूछती हूँ वह आदमी कौन है ? मेरी देश की संसद मौन है ? यानि हर जगह भूख का राजनीतिकरण हो 

रहा है। गरीब के पेट पर हर कोई रोटी सेंकने की फ़िराक में है। क्या वे भरे पेट वाले होते हैं जिनको चांद 

रोटी जैसा दिखाई देता है. भूख पेट को गद्दार बना देती है इस वाक्य में देश भक्ति कम नही है पर गरीबी का 

दर्द कहीं ज्यादा है। ऐसा प्रतीत होता है भूख का विकराल दानव ईमानदारी, सभ्यता, संस्कारों को निगल 

गया है इंसान तत्वहीन होता जा रहा है। आस्तीन के साँप चहुँ ओर बिखरे पड़ें है।       मृगतृष्णा की  अंतहीन भूख,  पृथक आचार - विचार लिए हमें भ्रमित करती रहती है। देश दुनियां में आज हर तरफ गिरती लाशें,  न जाने कौन से धर्म - कर्म की प्यासी है यह कौन सी भूख है जो इंसानों को इंसानों के खून का प्यासा बना रही है।  प्रेम और सदभावना की हवा का अस्तिव जैसे मिट गया है।   इससे तो हमारी भूख अच्छी है , खाओ खाओ और टुनटुन बन जाओ। समाज, देश, समय में उपजी विकराल दूषित विचारों की भूख न जाने कौन से युग का निर्माण करेगी।
            - शशि पुरवार 

Thursday, September 7, 2017

व्यंग्य के तत्पुरुष

व्यंग्य के तत्पुरुष 
व्यंग्य के नीले आकाश में चमकते हुए सितारे संज्ञा, समास, संधि, विशेषण का विश्लेषण करते हुए नवरस की नयी व्याख्या लिख रहे हैं। परसाई जी के व्यंग्यों में विसंगतियों के तत्पुरुष थे।  वर्तमान में व्यंग्य की दशा कुछ पंगु सी होने लगी है।  हास्य और व्यंग्य की लकीर मिटाते - मिटाते व्यंग्य की दशा - दिशा दोनों ही नवगृह का निर्माण कर रहें हैं। व्यंग्य लिखते - लिखते हमारी क्या दशा हो गई है।  व्यंग्य को खाते - पीते , पहनते - ओढ़ते, व्यंग्य के नवरस डूबे हम जैसे स्वयं की परिभाषा को भूलने लगे है।  कई दिनों से  जहन में यह ख्याल आ रहा  है कि कई वरिष्ठ व आसमान पर चमकते सितारे व्यंग्य की रसधार में डूबे हुए व्यंग्य के तत्पुरुष बन गए है। उनकी हर अदा में व्यंग्य हैं।  चाहे वह शब्दों का झरना हो या मुख मुद्रा की भावभंगिमा, आकृतियां। 

              जैसा कि विदित है व्यंग्य को कोई नमक की संज्ञा देता है।  कोई शक्कर की उपमा प्रदान करता है।  लेकिन हर वक़्त हम नमक या इतनी मिठास का सेवन नहीं कर सकतें है। अगर शरबत बनाया जाए तो एक निश्चित अनुपात के बाद जल में शक्कर घुलना बंद हो जाती है। एक ऊब सी आने लगती है कमोवेश यही हाल व्यंग्य का भी है। क्या कोई हर वक़्त अपने पिता से - भाई से - पत्नी से व्यंगात्मक शैली में वार्तालाप कर सकता है?  पति /पत्नी या माता पिता से  जरा व्यंग्य वाणों का प्रयोग करें !दिन में ही तारे नजर आने लगेंगे।  धक्के मारकर नया रास्ता दिखाया जायेगा। 

    हमारे परमपूज्य मित्र क , , , घ चारों का गहन याराना था ।  सभी व्यंग्यकार धीरे धीरे व्यंग्य के तत्पुरुष बन गए। चारों ने अपने - अपने भक्तों को समेटना प्रारम्भ कर दिया है। जोड़ो तोड़ो की नीति चरम पर है। लोगों ने गुरु बनना व बनाना प्रारम्भ कर दिया है।  पहले सिद्ध व्यंग्यकार ढूंढकर गुरु  बनाये जाते थे।  लेकिन आज लोग व्यंग्य के मसीहा / भगवान् बनने पर आमादा हैं।  वयंग्य में भाई भतीजावाद होने लगा है।  क , , , घ अपने नए नामों से अपने झंडे फहरा रहें हैं।  कोई मामा / मामी, कोई काका - काकी, कोई  दादा बन गया।  कोई नया रिश्ता तलाश रहा है।  क , , , घ जैसे तत्पुरुष अपनी गद्दी छोड़ना नहीं चाहतें हैं। गुरु जैसे महान पद  पर आसीन यह  लोग नयी पीढ़ी को क्या दे रहें है ? आजकल ऐसे तत्पुरुषों ने नवपीढ़ी को जुगाड़ करने का तरीका दे दिया है।  अपने रिश्ते बनाओं।  दल बनाओं। और छपास करो। हर जगह राजनीति होने लगी है।  पहले कार्य करने हेतु सम्मान दिया जाता था।  आजकल सम्मान की भी जुगाड़ होने लगी है।  हर जगह  धोखधड़ी का व्यवसाय फलने फूलने लगा है। नयी पीढ़ी को सम्मान खरीदने का लालच देकर कौन सा नव निर्माण हो रहा है ? सम्मान देने हेतु वाकायदा संस्थाएं बन गयी हैं।  सबसे रूपए जमा करो और उसी से सम्मान का तमगा पहना दो।  भाषा संस्कार का क, ,  , घ न जानने वालों को भी सम्मान बाटें जा रहे हैं।  आजकल पुनः जातिवाद भी  अपना रंग दिखाने लगा है।  लोग अपनों को सम्मान दिलाकर ही गौरान्वित हो रहें है।


      रिश्ते तलाशते हुए सपाटवानी करना अच्छा नहीं है। व्यंग्य की अपनी एक गरिमा है।  रचनाकार का भी रचनाधर्म होता है।   आभाषी दुनियाँ में व्यंग्य की इतनी नदिया बह रही है जिसमे गोता लगाओ तो भी हम उसी रंगो में रंगते नजर आते हैं। चोर भी चोरी करके सीना ताने फिर रहें हैं। आत्मग्लानि शब्द जैसे इनके शब्दकोष में ही नहीं है।  सोशल मीडिया पर हर कोई रिश्ते बनाकर सीढ़ी चढ़ना चाहता है।  आज व्यंग्य व व्यंग्यकारों का मखौल बन गया है।  रस, लय और गति जहाँ नहीं है वहां रोचकता कैसे होगी। ऐसे लोगों को यदि मंच दे दिया जाये तो कौन कितनी देर ठहरेगा ज्ञात नहीं है।   
शशि पुरवार 

Friday, August 18, 2017

कुर्सी की आत्मकथा

कुर्सी की आत्मकथा --    
           कुर्सी की माया ही निराली हैकुर्सी से बड़ा कोई ओहदा नहीं है कुर्सी सिर्फ राजनीति की ही नहीं अपितु हर मालिक की शोभा बढाती है चाहे व कुर्सी सरकारी दफ्तर में हो या प्राइवेट दफ्तर में।  कुर्सी की अपनी पहचान है।   कुर्सी पर बैठने वालों की होड़ लगी रहती हैजो कुर्सी पर विराजावह राजा और जो  कुर्सी  के पास भटक भी न सके वह बेचारा बेचारा कुर्सी का मारा ,चुपचाप  उसे  तिरछी नजर से  देखा करता है दिल में धधकते शोलेआँखों से नूरहृदय की बेचैनी जीने ही नहीं देती है बेचारी कुर्सी किसी कन्या की भांति डरी -डरी अपने जीवन के दिन काटती है,  न जाने कब कौन सा साया उसके हाथ पैरों की मरम्मत कर देउसके जीवन में कब कोई शामत आये यह तो समय भी नहीं बता सकता हैकिन्तु  फिर भी कुर्सी की महिमा गजब की हैहर कोई कुर्सी के आगे नतमस्तक हैहर कोई  स्वप्न सुंदरी की तरह कुर्सी के सपने देखता रहता हैकिस्म किस्म के लोग कुर्सी पर अपनी तशरीफ़ रखने के लिए बेताब रहतें हैअलग अलग वजनदार लोग अपने वजन से कुर्सी का काया कल्प करते रहतें हैं और बेचारी कुर्सी  भार सहतेसहते बेदम होने लगती हैफिर भी  कुर्सी  चमक कम नहीं होती हैकुर्सी के दुश्मन कुर्सी पर बैठे लोगों कीभिन्न भिन्न अजीब सी  मुद्राओं व आकृतियों  को देखते रहतें हैकुर्सी पर बैठा व्यक्ति खुद को बादशाह समझ कर फरमान जाहिर करता रहता हैआखिर कौन है जो उस कुर्सी की व्यथा को समझेगाजिस कुर्सी ने ताज दिया हैवही कुर्सी अपने ताज की रक्षा करने में स्वयं असमर्थ है.
    हल्कादुबलापतला शरीर या भारीभरकम हाथी जैसा वजभार  तो बेचारी कुर्सी को ही सहना  पड़ता  हैजब भी कभी ऑफिस में कुर्सी के दिन फिरे हैं तो वह एसी की बंद दीवारी में कुछ पल ठंडी हवा का आनंद लेती है  और यदि दिन न फिरे तो  बॉस की लात  खाती हुई कुर्सीअपने बॉस  का फिर  भी दुलार करती हैअनेकों शरीर का भार ढोतेढोते,पसीने में नहाई हुई कुर्सी   जर्जर हो जाती हैपर मुँह से उफ्फ तक नहीं करती है .ऐसा कोई  महान व्यक्ति भी नहीं है जिसने कभी कुर्सी की व्यथा समझने का प्रयत्न किया हो.
    कुर्सी राजा होकर भी किसी चपरासी की चप्पल के समान  जीवन भर घिसती रहती हैकोई कभी  लात मारता है तो कोई हाथ तोड़ता हैकोई अपने दिल की सारी खुन्नस कुर्सी पर निकालता है तो  कहीं कोई जन सभा होती है तब सबसे ज्यादा खतरे में कुर्सी होती हैखाकी वर्दी वाले कुर्सी को छोड़ नेताओं की आवभगत व रक्षा में लगे रहतें हैंकब किसी के क्रोध की अग्नि में कुर्सी स्वाहा हो जायेयक्ष प्रश्न हैकोई  कुर्सी को उठाकर फेकता हैंकोई हाथपैर तोड़कर दिल की ज्वाला को शांत करता हैबदहाल में कुर्सी होती है और न्यूज़ चैनल की चर्चा में हमारे नायक रहतें हैऑफिसर,  नौकरी समाप्त करके  सेवानिवृत होतें हैकिन्तु कुर्सी की सेवा उसके मरणोपरांत ही समाप्त होती हैकभी कभी तो बेचारी कुर्सी इलाज के बिना ही दम तोड़ देती है  पुरानी जर्जर कुर्सी स्वामिभक्ति दिखाते हुए शहीद हो जाती है।  कुर्सी की वफादारी का इनाम उसे स्टोर रूम में फेककर दिया जाता हैआजकल रंग बिरंगी तितलियों की तरह कुर्सीयोँ  को भी अलग अलग रेक्जीन के रंगबिरंगे परिधान पहनाये जातें हैरंग रोगन करके किसी दुल्हन की तरह कुर्सी को सजाया जाता हैफिर भी कुर्सी का दुःख नहीं बदलता है।  बदले जमाने की तरह रंग बिरंगी तितलियाँ अपने दम तोड़ देती है और सरकारी स्थानों पर  लकड़ी व तार से बनी मजबूत कुर्सियां   जन्मों जन्मों तक वफादारी के वचन निभाती  हैंयही वह कुर्सी है जिसे सरकारी कर्मचारी बदलना नहीं चाहतें अपितु बदलने के नाम पर  जेब  गीली करतें हैं। 

                
कई  बार यह भी देखा गया है कि नोटों के हाथ लोग सेकतें  हैं और  बदनाम कुर्सी होती हैचाहे संसद की जमीं हो या न्याय की चौपालपुलिस चौकी हो या जेल की सलाखेंघर आँगन या दफ्तर हर जगह सजी हुई रंग बिरंगी कुर्सियां धीरे धीरे खोखली हो जाती हैफिर भी उनकी खस्ताहाली पर कोई ध्यान नहीं देता है।  यही कुर्सी जब अपने मालिक की कमर तोड़ती है तब अपने अंतिम पड़ाव में पल भर में पहुंच जाती है न्याय के लिए तरसती इन कुर्सियों की व्यथा को  न्याय कब  मिलेगा....?   बोझ तले मरती इन कुर्सियों का दर्द कौन समझेगा यह सभी प्रश्नयक्ष के समान हैकुर्सियों को आजादी,  बोझ मुक्त साँस लेने की प्रक्रिया  के लिए वैज्ञानिकों को कुछ योगदान देना चाहिएसाँस लेने का अधिकार बेजान वस्तुओं को भी होता हैआशा है भविष्य में  कोई तो होगा जो कुर्सी की रामकहानी किसी चैनल  के माध्यम से जन जन तक पहुचायेगाकभी तो बेचारी कुर्सी के दिन बदलेंगे ..... हम  इस जिजीविषा  कुर्सी के आगे  नतमस्तक  है.
 --शशि पुरवार


Tuesday, August 15, 2017

नेता जी का भाषण





गाँव के नवोदित नेता ललिया प्रसाद अपनी जीत के जश्न में सराबोर कुर्सी का बहुत ही आनंद ले रहे थे। कभी सोचा न था सरकारी कुर्सी पर ऐसे बैठेंगे। पाँव पर पाँव धरे पचपन इंच सीना चौड़ा करके (छप्पन इंच कहने की हिम्मत कहाँ?), मुख पर ३२ इंच की जोशीली मुस्कान के साथ नेता जी कुर्सी में ऐसे धँसे हुए बैठे थे मानो उससे चिपक ही गए हों। साम दाम दंड भेद की नीति से कुर्सी मिल ही गयीभगवान् जाने फिर यह मौका मिले या न मिलेपूरा आनंद ले लो। कुर्सी मिलते ही चमचे बरसाती पानी जैसे जमा होने लगे। जैसे गुड़ पर मक्खी भिनभिनाती है वैसे ही हमारे नेताजी के चमचे जमा होकर भन भन कर रहे थे।

तभी नेताजी का खास चमचा रामखेलावन खबर लेकर आया कि १५ अगस्त पर उन्हें तहसील के प्रांगण में झंडा वंदन करना है। अब तो जोश जैसे और दुगना हो गयानेता जी दिन में जागते हुए स्वप्न देखने लगे। लोगों के हुजूमतालियों की गडगडाहट के बीच बड़े स्वाभिमान से झंडे की डोरी खींचकर झटपट झंडा लहरा दिया। तभी धडाम की आवाज के साथ नेता जी उछलकर कुर्सी से गिर पड़े। दिवास्वप्न टूट गयादेखा तो दरवाजे का पर्दा उनके ऊपर पड़ा था और वे जमीन की धूल चाट रहे थे। यह देख रामखेलावन समेत सारे चमचे जोर जोर से बत्तीसी दिखाने लगे। नेताजी खिसियानी बिल्ली की तरह बरामदे का खम्भा नोचने लगे और उनकी खतरनाक मुख मुद्रा देखकर सारे चमचे ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग।
नेता जी बड़बड़ाने लगेहम पर हँसते होकभी खुद ई सब किये होते तो पता चलता रस्सी खेंचना का होवत है। भक भक... अब तुम काहे दाँत दिखा रहे होकछु काम के न काज केचले आये परेशान करने... अब झंडावंदन करे का है तो सफ़ेद झक्क कुरता पायजामा और टोपी ख़रीदे की हैका है कि अब फोटो सोटो भी लिया जायेगा।

रामखेलावन-वह तो ठीक है प्रभुस्टैज पर कछु बोलना पड़ेगा। अब भाषन का देना है। वह भी तो सोचिये...

नेताजीअर्ररर... जे हम तो भूल ही गए। सारी ख़ुशी ऐसी हवा हुई कि नेताजी का मुँह एकदम पिचके हुए आम की तरह पोपला हो गया। चौड़ा सीना ऐसे पिचका जैसे गुब्बारे में छेद हो गया। पेशानी पर गुजली मुजली सलवटें ऐसे आयीं कि चिंता के मारे खुद के बाल ही नोचने लगे।
यह सब देख चमचा भी उसी रंग में रँगने लगा। इधर नेताजी की चहल कदमी बढती जा रही थी । उधर राम खेलावन पीछे पीछे टहलता हुआ अपनी वफ़ादारी दिखा रहा था।

नेताजी अब का होगाहमरी इज्जत का मलीदा बन जायेगाअब का भाषण देंगेकभी सुने ही नहीं। सकूल में भी सिर्फ लड्डू खाने जाते थेतीसरी कक्षा के बाद पढ़ने गए ही नहीं। दिन रात गैया को चारा खिलाते रहेगौ माता की किरपा से नेता बन गए। हे ससुरे भाषण वाशन काहे रखत हैं। २ चार लड्डू देई दो खाना खिलवइ दो... हो गया झण्डावंदन... आगे के शब्द खुद ही चबा कर नेताजी खा गए।
यह सब देखकर रामखिलावन समझ गया कि नेताजी की हालत पतली हो रही हैवह हिम्मत बढ़ाते हुए बोला -इसमें चिंता की कोनो बात नहीं है भाषण देखकर पढ़ लियो। अभी समय है थोडा प्रक्टिस कर लो। हमें गाना भी आवत है अभी परोग्राम को समय हैहम सिखा देंगे।
नेता जी-हाँ वही वही परोग्राम। तुम कौन से काले कोट वाले होजो हमरे खातिर भासन लिखोगेजे सब पढ़े लिखे का काम होवत हैवैसे जे बताओ इसे और का कहत हैं। स्वतंत्र दिवस या गणतंत्र दिवस या इन दपेंदंस डे... कहते हुए बाल खुजलाने लगे। गाना वाना तो हमसे होगा नहींटीवी पर देखत रहेसबरे धुरंदर सलूट मार के खड़े रहत हैंकोई गाना वाना नहीं गावत हैजे काम तो सकूली बच्च्वन का है।
चमचाहाँ फिर कहे चिंता करत होबस भाषण याद कर लोतैयार हो जावेगा। हम सिखा देंगे। एक एक गिलास गरम दूध पियोहलक में गरमागरम उतरेगी तो ससुरी जबान खुल जावेगी।
नेता जीपर हमरी तो हालत ख़राब है। इतने लोगन के सामने भासन... भासन कइसन कहेंपर बोलना तो पड़ेगा ही... नहीं हम अपना दिमाग लगाते हैं... अब हम याद कर लेंगे... "नमस्कार गाँव वालों..."
रामखिलावनहे महाराज ऐसे शोले की तरह नहीं कहते। कहिये मेरे प्रिय भाइयों और बहनों...
नेताजी -चल बेवह सबरी तुमरी बहन होगी... आजकल वक्त बदल गयो है।
रामखेलावनओ महाराज भाई बहनों को प्रणामनहीं कहे का हैतो बोलो भाई बंधू...
इधर चमचा कागज कलम के साथ टुन्न हो गयाउधर नेताजी को भी दूध जलेबी चढ़ गयी। दिन में सितारे नजर आने लगे। जोश में होश खो बैठे। स्वप्न में खुद को मंच पर खड़ा हुआ पाया। अपार जन समूह देखकर मुस्कुराने लगे और जैसे ही लोगों के हुजूम ने जयजयकार कीतो हाथ हिलाते हुए माइक तक आ गए। मेज को मंच समझ कर जोश के साथ ऊपर चढ़कर खूब दिमाग लगाया और भाषण शुरू किया --
भाइयों... भाइयों... और सबकी लुगइयों... आज हमरा बहुत बड़ा दिन हैहमरा सपना सच हो गयो है। कबहूँ सोचे न थे नेता बन सकत हैं। हे गाँधी जी कृपा रहीपहले लोग देश की खातिर जान दिए रहेदेश को गुलामी से बचाये रहे। गाँधी जी के वचनों पर चले... बुरा मत देखोबुरा मत कहोबुरा मत सुनो। आज स्थिति बदल गयी हैलोग बुरा ही देखत हैंबुरा ही करत हैं और बुरा ही सोचते हैं। पहले हाथ जोड़कर सबके आगे खड़े रहत थे। बात बात पर लात घूँसे मिलत रहेपर अब समय बदल गयो हैदो चार लात घूँसे मारोथोड़ा गोटी इधर का उधर करोथोड़ा डराओ धमकाओपैसे खिलाओ तो चुनाव का टिकिट भी मिल जावत है। पहले पढ़े लिखे लोग नेता बनत रहेतब भी देश बँटता थाआज कम पढ़े लिखे लोग नेता बने हैंतब भी देश छोटे छोटे राज्यों में बँट गवा है। सबरी पार्टी अपनी सत्ता चाहत है। शांति के सन्देश पहले से देत रहे सो आज भी देत हैं।



आज हर किसी को नेता बने का हैकुर्सी है तो सब कुछ हैआज हर कोई कुर्सी चाहत है। सबहुँ मिलकर घोटाले करोजितने भी पैसा आवत है उसे आपस में मिल बाँट कर खाई लोदेश की जनता बड़ी भोली है। ईमानदार टैक्स देता रहेकिसान मरता रहे। आज जेहि स्थिति बनी हुई है। एक बार कुर्सी मिल गयी फिर सब अपनी जेब में रहत हैं। काहे के संत्री मंत्रीदेश को पहले अंगरेज लूटट रहेअब देश के लोग ही लूटन मा लगे हैं। हर तरफ भ्रष्टाचार फैला हुआ है। कुछ भी हो जाये कुर्सी नहीं छोड़ेंगेघोटाले करके जेल गए तो पत्नी या बच्चों को कुर्सी दिलवा देंगे। जे बच्चे वा खातिर ही पैदा किये हैं। कब काम आवेंगे। प्राण जाए पर कुर्सी ना जाएपहले देश को गुलामी से बचायाअब खुदही देश के तोड़न में लगे हैं। हर किसी की अपनी पार्टी हैसत्ता के खातिर हर कोई अपनी चाल चल रिया हैइसको मारोउसको पीटोदो चार लात घूसे चलाने वाले पहलवान साथ में राख लियोमजाल कोई कुछ करे। सारे साम दाम दंड भेद अपनाई लो पर अपनी जय जयकार कमतर नहीं होनी चाहिए।\


अब नेता बन गए तो देश विदेश घूम लोऐसन मौका कबहू न मिले। हम भी अब वही करहियें। अभी बहुत कुछ करे का है। बस फंड चाहिएजो काम करे का है सब काम के लिए फंडफंड में खूब पैसा मिलत हैथोडा बहुत काम करत है बाकी मिल बाँट कर खाई लेंगे। आखिर चोर चोर मौसेरे भाई भाई जो हैं ।
तुम सबरे गॉंव के लोगन ने हमें नेता चुना और हमेशा अइसन ही प्रेम बनाये रखना। आगे भी ऐसे ही हमें वोट डालना। तुम सब यहाँ आये हो हमें बहुत अच्छा लगालो झंडा वंदन कर दिए हैं । बच्चों ने गाना भी गा दिया। आज हम लाडू बहुत बनवाएं हैखूब जी भर के खाओ। हमें याद रखना। हर बार वोट देना फिर ऐसे ही गाड़ियों में भर के शहर घुमाने ले जायेंगे और खाना पैसा भी दिहें...

 
अभी जोर से बोलो जय भारत मैया की

शशि पुरवार 

Thursday, August 10, 2017

विकल हृदय


घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा
मनभावन, बनी तसवीर.

घन घन घन, घनघोर घटाएँ
गाएँ मेघ - राग मल्हार
झूमे पादप, सर्द हवाएँ
खुशियों का करें इजहार।

चंचल बूँदों में भीगा, सुधियों  
से खेले मन - अबीर
घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा ..!

अटे-पटे  से वृक्ष घनेरे
पात-पात  ढुलके पानी
दबी आग फिर लगी सुलगने
ज्यूँ  महकीं याद पुरानी  

शतदल के फूलों से गिरतें 
जल- कण, दिखतें हैं अधीर.
घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा ..!

विकल ह्रदय से, प्रिय दिन बीता
याद तुम्हारी गरमाई
दादुर, झींगुर गान सुनाएँ
रात अँधेरी  गहराई.

मंद रौशनी में इक साया
गुने शब्द-शब्द तहरीर.
घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा ..!
------- शशि पुरवार 
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Monday, July 31, 2017

नेह की संयोजना

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हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
घेर लेती हैं हजारों 
अनछुई संवेदनाएँ। 

ज्वार सा हिय में उठा, जब 
शब्द उथले हो गए थे 
रेत पर उभरे हुए शब्द 
संग लहर के खो गए थे 

मैं किनारे पर खड़ी थी 
छेड़ती नटखट हवाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चलकर मिल न पाएँ 

स्वप्न भी सोने न देते 
प्रश्न भी हैं कुछ अनुत्तर  
आँख में तिरता रहा जल 
पर नदी सी प्यास भीतर।

रास्ते कंटक बहुत हैं 
बाँचते पत्थर कथाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 

हिमशिखर, सागर, नदी सी 
नेह की संयोजना है 
देह गंधो से परे, मन, 
आत्मा को खोजना है.

बंद पलकों से झरी, उस   
हर गजल को गुनगुनाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
    -- शशि पुरवार 

Thursday, July 27, 2017

गुलाबी खत

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दिल, अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी

संग सखियों के पुराने   
दिन सुहाने याद करना। 
और छत पर बैठकर  
चाँद से संवाद करना। 

डाकिया आता नहीं अब, 
ना महकतें खत जबाबी।
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी। 

सुर्ख मुखड़े पर ख़ुशी की   
चाँदनी जब झिलमिलाई।
गंध गीली याद की, हिय  
प्राण, अंतस में समाई। 

सुबह, दुपहर, साँझ, साँसे 
गीत गाती हैं खिताबी। 
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी। 

मौसमी नव रंग सारे  
प्रकृति में कुछ यूँ समाये  
नेह के आँचल तले, हर 
एक दीपक मुस्कुराये। 

छाँव बरगद की नहीं, माँ 
बात लगती हैं किताबी। 
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी।
   -- शशि पुरवार 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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