Friday, December 16, 2016

वृद्धावस्था --- जीने का नजरिया



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       आज  कलयुग में जहाँ युवा अपने जीवन में प्रगति कर रहे है वहीँ बुजुर्ग अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में अकेलेपन से झूझते नजर आते है . उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर निकले बच्चों की गृह वापसी कम ही होती है। नीड़ से उड़े पंछी अपना ठिकाना कहीं और ही बसाते हैं। शहर के  बाहर या विदेशों में जाकर वहीँ के जातें है।  फिर जैसा देश वैसा भेष  मंत्र सर्वोपरि होता है। एकल परिवार बनाकर रहना पसंद करतें हैं.यह  चौकानेँ वाले तथ्य है कि आज घर-घर  में  बुजुर्ग  चारदीवारी  में कैद अपने अकेलेपन की दीवारो से झूझते मिल जायेंगे। या फिर नाती पोतों व घर की चाकरी करना विवशता होती है।  पुरुष तो फिर भी रिटायर हो जाते है परन्तु महिलाएं  तो मरणोपरांत  ही पूर्णतः रिटायर होती है.  आज सयुंक्त परिवार के नाम  मुश्किल से उँगलियों पर गईं सकते हैं।  कितने परिवार ऐसे है जो सयुंक्त परिवार है जो खुशहाल हैं ?  

आज बुजुर्गों ने जीवन के अंतिम पड़ाव  जीना सीख  लिया है।  आजकल जीने का नया माध्यम उन्हें सोसल मीडिया के रूप में मिला है जहाँ २ शब्द में उन्हें वह आत्मीयता प्रदान करतें हैं जो वास्तविक जीवन में शायद ही मिले। 
                
     कुछ दिनों पहले बम्बई का एक किस्सा सुनने में आया कि एक लड़की ने अपनी सगाई इसलिए  तोड़ी कि वह परिवार में साथ नहीं रहना चाहती थी , उसने अपने होने वाले भावी पति से पूछा -- "  घर में खाली खोके या डस्टबिन कितने है " , पहले तो लड़का समझ नहीं सका, तब लड़की ने कहा कि तुम्हारे माँ बाप है या नहीं। .... !

        अब ऐसी सोच को क्या कहे, आजकल तो लड़की के माँ बाप भी यही देखते है कि लड़का अपने घर - परिवार से दूर नौकरी में हो, जिससे बिटिया को  पड़े. सास - ससुर का साथ उन्हें बोझ लगता है. परिवार का  अर्थ उनके लिए सिर्फ पति ही होता है और बेटे के लिए भी धीरे धीरे माँ - बाप उनकी स्वत्रन्त्र जिंदगी में बाधक। यही आजकल का कड़वा सत्य बन गया है।

              यही वजह है आज देश में जगह जगह  वृद्धाश्रम खुल  गएँ  है, मथुरा के  वृद्धाश्रम तो  बहुत चर्चित है वहाँ स्कान मंदिर की तरफ से बहुत से वृद्धाश्रम बने हुए है, कई ऐसे है जहाँ सिर्फ महिलाएं रहती है और कुछ जगह महिला पुरुष दोनों ही है, वहाँ के आश्रम में जाकर बुजुर्गो से मिलने का सौभाग्य भी मिला और यथास्थिति जानकार दुःख भी हुआ  कि कितने ही परिवार संपन्न  होते हुए भी  बुजुर्गो को  वहाँ जाकर छोड़ देते है। कमोवेश यही हाल देश के अन्य वृद्धा आश्रम का भी है।  जो चिंतनीय  व निंदनीय भी है।

                बुजुर्गो की वास्तविक स्थिति को और जानने के लिए मैंने जळगॉंव  स्थित वृद्धाश्रम में  भी कुछ पल बिताएं और वहाँ कुछ बुजुर्ग दम्पति की व्यथा सुनकर आँखों के कोर नम हो गए, वहाँ एक - दो बुजुर्ग दम्पति ऐसे भी थे जो अपने जीवन के अंतिम क्षणों  को जी रहे थे। जिनका शहर में बहुत बड़ा बंगला एवम करोडो का व्यवसाय था।  सिर्फ एक ही पुत्र जिसने करोडो की संपत्ति धोखे से अपने नाम करवा ली  फिर  उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ दिया,  अपनी कहानी सुनाते हुए  बिलख कर रोने लगे कि आज ५ साल हो गए है बेटा हमसे मिलने भी कोई नहीं आता, हमने जिस बच्चे की राहों में काँटा भी चुभने नहीं दिया  आज वह  बच्चे गलती से पलट कर भी नहीं  देखते हैं। हमें धन संपत्ति का मोह नहीं है वह खुश रहें तो अब हम यहाँ खुश है, सिर्फ साल भर के लिए २००० रूपए भेज देते है

          समय कभी एक जैसा नहीं होता हैं, पहिया घूमता रहता है।  वक़्त बदला , युवा बदले और अब बुजुर्गो का खुद के लिए बदलता नजरिया, यह सुखद सकारत्मक पहलू है , आज आश्रम में रह रहे बुजुर्गों  ने अपने लिए जीना सीख लिया है। बुजुर्ग अपनी ख़ुशी के लिए कार्य करते है सत्संग से लेकर अपने पसंद के सभी कार्य आपस में मिल जुलकर करते है.   आश्रम में जुड़ा हुआ उनका यह परिवार ही उनके दुःख सुख का साथी भी है। 
                       वृद्धाश्रम के अतिरिक्त भी कुछ बुजुर्ग महिलाओ  से भी  मैंने मुलाक़ात की और उनकी सोच एवं हौसलों के आगे मै भी नतमस्तक हो गयी, आज इस उम्र में उनका  हौसला किसी युवा से कम नहीं है,  अपने इस समय को उन्होंने अपने लिए  चुना जो साथ में उनकी जीविका का साधन भी बना। साथ ही समाजसेवा भी हो गयी।  

 कुछ और लोगों के मिले अनुभव भी आपसे साझा  करती हूँ। 
 ७० साल की एक बुजुर्ग महिला हमेशा मुझे  उपचार केंद्र के दिखती थी, चेहरे  पर आत्मसंतोष की झलक  और मोहक मुस्कान , हाथ पैर में सूजन के कारन रोज शाम नियम से सिकाई के लिए आती थी, उनसे पूछा आप रोज अकेले आती है, कोई आपके साथ नहीं आता - तो जबाब में उन्होंने कहा -

     हाँ मै अकेले आती हूँ , मेरे पति बीमार है बिस्तर से नहीं उठ सकते है, बेटे बहू बाहर रहते है , उनका अपना घर है , वह यहाँ नहीं आते और हम यहाँ अपने जीवन से खुश है.

"   आप क्यूँ नहीं जाती बच्चो के पास "
" क्या करूँ जाकर , इस उम्र में  हमसे आना जाना नहीं होता वे अपने जीवन में व्यस्त व खुश है. तो रहने दो, हम भी खुश है"

 एक स्निग्ध मुस्कान चैहरे पर आ गयी।

  वहीँ  एक और महिला थी जिनसे पति का वर्ष भर पहले स्वर्गवास हो चूका था।  उम्र ६५  साल परन्तु जैसे उन्होंने उम्र को मात दी हैं।  हंसमुख ,मधुर स्वभाव - कहने लगी पहले मै बहुत दुखी हुई रोती रहती थी, मुझसे बोलने वाला कोई भी नहीं था, इतनी अकेली हो गयी थी कि बीमार पड़ने लगी, बेटे - बहु अपने कार्य में व्यस्त रहते है , फिर मैंने खुद को समझाया कि जीना पड़ेगा इस तरह जीवन नहीं काट सकतें हैं।  तब मैंने विरोध सहकर भी पालना घर शुरू कर दिया, २ पैसे भी मिलने लगे और लोग भी जुड़ने लगे, आज स्वस्थ हूँ , खुश हूँ , ग्रुप बन गया है सत्संग करते है, बच्चों के साथ मिलकर हँस लेते है. आज एकाकी पन नहीं है।

               आज बुजुर्गो का अपने प्रति बदलता नजरिया उन्हें जीवन जीने  और खुश रहने के लिए सकारात्मक सन्देश व संतुष्टि प्रदान कर रहा है, ऐसे कई बुजुर्ग भी है जिन्होंने कभी कंप्यूटर या मोबाइल को हाथ भी लगाया होगा किन्तु आज वह अंतरजाल पर सफलता पूर्वक सक्रीय है, अंतरजाल पर युवाओं के साथ साथ बुजुर्गो की संख्या भी बढ़ती जा रही है , वहाँ वे अपना योगदान लेखन में भी कर रहे है और जीवन को नए नजरिये से देख रहें है। यह बदलाव  सकारात्मक सन्देश भी देता है उम्र जीने की कोई सीमा नहीं होती है।  परन्तु क्या बुजुर्गो का नजरिया बदलना ही सम्पूर्णता है ?  परिवार और समाज की क्या जिम्मेदारियाँ है ?   सिर्फ वृद्धाश्रम ही इसका विकल्प नहीं है. आज कानून ने भी बुजुर्गो के लिए कई प्रावधान बनायें है, जिनका हनन होने पर कार्यवाही की जा सकती है।  एक उम्र के बाद जब शरीर  थकने लगता है तब  सहारा जरुरी है।  लेकिन आज के बुजुर्गों ने इससे लड़ना सीख लिया है , उनके जज्बे को नमन।
  -- शशि पुरवार

Friday, December 2, 2016

बूझो तो जाने। ..

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१ 
सुबह सवेरे रोज जगाये 
नयी ताजगी लेकर आये 
दिन ढलते, ढलता रंग रूप 
क्या सखि साजन ?
नहीं सखि  धूप
२ 

साथ तुम्हारा सबसे प्यारा 
दिल चाहे फिर मिलूँ दुबारा 
हर पल बूझू , एक पहेली 
क्या सखि साजन ?
नहीं सहेली।
३ 

रोज,रात -दिन, साथ हमारा  
तुमको देखें दिल बेचारा  
पल जब ठहरा, मैं, रही खड़ी 
क्या सखि साजन ?
ना सखी घडी।
४ 

तुमसे ही संसार हमारा  
ना मिले तो दिल बेचारा
पाकर तुमको हुई धनवान  
क्या सखि साजन ?
नहीं सखि ज्ञान।

शशि पुरवार 

Monday, November 28, 2016

नोटबंदी

         आज देश लाइन में लगा है, वैसे भी लोगों को लाइन में लगने की आदत सी है, कोई नयी  फिल्म का पहला दिन हो तो टिकिट खिड़की पर लंबी लाइन ,जैसे पहले दिन ही किला फतह करना हैं. फ़िल्मी सितारों के दर्शन हों या लालबाग का राजा , स्कूल में एडमिशन हो या परीक्षा के फॉर्म,जिओ फ्री फ़ोन मिले या रिचार्ज , राशन - पानी या  पेट्रोल - या  चौकी धानी, हर जगह लाइन का अनुशासन बरक़रार है इसीलिए सरकार को हमारी दरकार है। फिर नोट बदलने  के लिए इस लंबी लाइन  पर  विपक्ष काहे भड़क रहा है, अब का करें मिडिया को भी रोज तमाशा देखने की आदत पड़ गयी है।  तमाशा करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हैं। हर तरफ मचा हुआ हाहाकार हैं। सालों पहले  ५ -१० पैसा, चवन्नी और रूपया न जाने कितने सिक्के गुमनाम हो चुके हैं ..  
             हमारी आम जनता पहले भूख से मरती थी आज लाइन से मर रही है.  गरीब बेचारा मरता  क्या न करता, पेट की दरकार है ,अव्यवस्था व्याप्त है। धन मिले तो धान्य मिले। इसी बात की तकरार है।  
      अब घर कैसे चले, आज हम भी उसी स्थिति में है. आठ दिन हो गए सब्जी का मुँह नहीं देखा,थाली से सब्जी गायब हो गयी। कभी दाल गायब तो कभी सब्जी गायब। क्या थाली को भी चैन नहीं मिलता है. जो धन था वह धन न रहा,  सरकार जीजान कोशिशों के बाबजूद आज  भी एटीम का पेट  खाली है,  पैसा बैंक में आ रहा है तो  कहाँ जा रहा है ? 
    हम जब बैंक गए तो वहां कोई बड़े धनवान सज्जन ने  मैनेजर से कहा डेढ़  लाख जमा करना है और निकालना भी है। मैनेजर गाय की तरह सिर हिलाकर बोला -  सर एक दिन रुकिए ,काम हो जायेगा, अभी बैंक खाली है।  भाई डेढ़ एक लाख एक दिन में खा लेंगे ? अब समझ में आया गरीब, किसान ,मध्यमवर्गीय की लाइन कम क्यों नहीं हो रही है।  
            बाजार में  लोग मक्खी मारने की कोशिश कर रहें हैं किन्तु मक्खियाँ भी होशियार निकली। कहीं नजर नहीं आ रही है। हमने एक आदमी से  पूछा फैसला गलत है क्या ? बेचारे ने  सिंह बनकर ऐसी नज़रों से हमें देखा जैसा अभी खा जायेगा।  ऑटो वाले साथ बैठकर समय गुजार रहें है.  सवारियाँ  नहीं है फिर भी संतोषजनक मुद्रा है।  इस कतार ने देश में भाईचारा  बढ़ा दिया है।जिसे पिंक रानी मिल गयी उसे मुस्कुरा कर ऐसे  ख़ुशी से विदा कर रहें है। जैसे कोई विजेता।  
        
        हमें भी बड़ी तकलीफों  के बाद एटीम से  एक गुलाबी नोट मिला सोचा रेजगारी ले आएं। कल हम एक सेन्डविच की दुकान पर गए दो सेन्डविच लेकर खाये तो उसने १०० की पत्ती ले ली. हमने कहा भैया इतना मँहगा क्यों?तो बोला छुट्टे पैसे नहीं है। सब्जी वाले के पास गए तो बोला - पूरा  १०० की ले लो छुट्टे पैसे नहीं है। एक पत्ती थी वह भी गयी , कोई गुलाबी नया धन लेने के लिए तैयार नहीं है। हे राम कैसे दिन आ गए. हर जगह मारामारी है, पर बाजार में रेजगारी नहीं  है, जो लोग खर्च कर रहें हैं वह पैसा कहाँ जा रहा है।  भाई हमें तो अब छुपाने से भी डर लगता है।  
      काला धन कहाँ है काले धन वाले कहाँ है, सोशल मीडिया में वोटिंग की जा रही है कि  फैसला सही है या गलत. दुनिया भर के अखबार इस फैसले  पर सकारात्मक मोहर लगा चुके हैं , हर जगह वाह वाही है ,भाई उन्हें तो शब्द खर्च करने हैं यहाँ आकर पैसा खर्च करें कतार  में लगे तो समझ आएगा। पैसा है फिर भी पेट खाली है।  
           हमें काला धन तो पता नहीं लेकिन गुलाबी नया धन हमारी नैया पार नहीं कर पा रहा है। हम  बेचारे ईमानदारी के मारे हैं. न पैसा है न वोट ,  हम तो  सबसे हारें हैं। फिर भी ससुरे कह रहें है अच्छे दिन आने वाले हैं.   अच्छे दिन का पता नहीं  लेकिन  नियम कायदे रोज भेष बदल कर जिंदगी में सेंध लगा रहें हैं.नित नए कायदे से हम जैसी आम पत्नियां घबरा सी गयी हैं। बेचारी पति से धन बचाकर सोना खरीदती थी आज वह भी टैक्स माँग रहा है, हाय री किस्मत पतिदेव का बस चले तो हमें काला पानी की सजा दे दें।  पहले गृहणी इस कला  के कारण सुघड़ मानी जाती थी लेकिन अब  हमारी सुघड़ता की कला ने हमारे धन को संदिग्धता  के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया था.  भले ही सरकार  ने इस राशि को मान्यता दी है किन्तु पतिदेव की प्रश्नवाचक निगाहों ने इसे अमान्य करार कर दिया।  हाय धन भी गया और भेखुल गया.  हाथ खाली के खाली।   बेचारा दिल कहता है -- जाने वाले हो सद के तो लौट के आना।  
             भाई नुक्स निकालना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.  देश हो या नियम कायदे हम तो नुक्स निकालेंगे। जल्दी ही चुनाव होंगे लेकिन उसके पहले ही लोगों के हाथों में स्याही लगी होगी, कहीं आग लगी होगी तो कहीं धुआँ उठेगा। अब फिर दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के  चार दिन।  
------ शशि पुरवार 
पुणे महाराष्ट्र 

Wednesday, November 16, 2016

प्रीत पुरानी

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१ 
प्रीत पुरानी
यादें हैं हरजाई 
छलके पानी। 
२ 
नेह के गीत 
आँखों की चौपाल में 
मुस्काती प्रीत 
३ 
सुधि बैचेन 
रसभीनी बतियाँ 
महकी  रैन 
४ 
जोगनी गंध 
फूलों की घाटी में 
शोध प्रबंध 
५ 
धूप चिरैया 
पत्थरों पर बैठी 
सोनचिरैया 
.-----शशि पुरवार  

Tuesday, November 8, 2016

जिओ जिंदगी -


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हाईटेक होती जिंदगी ने  दिमाग की बत्तियां जैसे गुल कर दी हैं, अँधेरे में जलता एक दीपक रौशनी का प्रतिक है  आज हाथों में  जलते मोबाइल की रौशनी से दुनियां  रौशन है, दशहरा हो या दिवाली बाजार में उपलब्ध नए संशाधन व्यापार को नयी ऊंचाई  प्रदान कर रहें हैं. जिओ और जीने दो की तर्ज पर जीने के मायने बदल गएँ हैं. पहले दिवाली पर मिठाई  बाँटी जाती थी आज फ्री नेट पैक का  तोहफा पाकर लोग खुद को भाग्यवान समझते हैं, चोर तो आखिर चोर ही होता है, एक अँगुली पकड़कर पूरा हाथ कब काट देगा, यह हाथ कटने के बाद ही पता चलता है. अब हाथ कटे या जेब बात एक ही हैं. आज बदल दो जिंदगी ने जिंदगी को सच में ही बदल दिया है। 
       अर्थव्यवस्था औंधे मुँह गिरकर भी ढोल बताशे बाँट  रही है. ह्रदय में धधकती आग गप्पे बाजी से ही संतुष्ट है. लोगों को जीने का माध्यम मिल गया है, पहले गॉँव में चौपाल लगती थी आज फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, हाइक , वाट्सअप की चौपाल लगती है. अलग बगल बैठे घर के दो लोग भी इस चौपाल का आनंद लेते है। बतकही आमने सामने कहीं कोसो दूर है.  पुराना नए रूप को धारण करके पुनर्जीवित हो गया है. महल हो या झोपडी थाली बिना मोबाइल -नेट के अधूरी है, आज भिखारी भी कहते है भैया कुछ न दो नेट पैक डलवा दो, जिंदगी तो जिओ के संग बन गयी। नया रंग अब जिओ के संग हाजिर है। 
सत्ता धारी  के मजबूत दाबे फुस्सी बम की तरह फट कर सत्ताहीन हो रहें हैं. इन्हें  किसी तिजोरी में ससम्मान बंद कर देना चाहिए।  आतंकवादी की जड़े मजबूत हो गयीं है , जैसे साक्षात् यमराज धरती पर उतर आएं हैं. देश में गाय -बैल की संख्या में वृद्धि हुई है, जहाँ बैल दिखा तो समझो  अपनी बारी आ गयी है, नगरनिगम पर केस दर्ज हैं  वह गाय बैलों की दादागिरी से परेशान होकर खुद ही दुबक कर बैठ गएँ है , आज सड़कों पर  गाय बैलों का राज्य फल फूल रहा है। गरीब चाय वाले को कुछ बोनस दे देते तो भला हो जाता।
        आतंकी रावणों ने इंसानों को उड़ाकर त्यौहार मनाना अपना धर्म समझ लिया है, जैसे सबकी साँठगाँठ हो गयी है, अस्पताल, पब्लिक, सरगना, अर्थव्यवस्था, सत्ता, सत्ताधारी कोई भी इससे अछूता नहीं रहा है. मँहगाई का बैल निरंतर अपनी सफलता की कहानी दर्ज कर रहा है. बादाम औंधे मुंह गिर गया है आलू ने सेंसेक्स की तरह अपनी ऊंचाई दर्ज की है, दिवाली में बम पटाखें की गूँज कैसी होगी ईश्वर जाने या सत्ता धारी जाने, अहंकार  के  रावण का कद बढ़ता जा रहा है , विनम्रता के राम को आज चिराग लेकर ढूँढना होगा।                
             हे राम का नया स्वरुप हाय राम हो गया है।  जिओ वाले बाबू अब सारे मंत्र सीखा देंगे।  हम तो दिवाली  पूजन की रस्म निभाकर  लक्ष्मी को खुश करने का प्रयास करेंगे, लक्ष्मी जी  के संग जिओ वाले बाबू की  किरपा बनी रहे।अब दिल मांगे मोर की तर्ज पर दिल कहता है जिओ वाले बाबू जरा गाना बजा दो, जिओ वाले बाबू जरा जीना सीखा दो। ...... हर दिन जिओ शुभकामनाएँ।    
शशि पुरवार 


     

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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