Thursday, October 22, 2015

रामभरोसे राम के भरोसे

इस साल दशहरा मैदान पर रावण जलाने की तैयारियां बड़े जोर शोर से की जा रहीं थी. पहले तो कई दिनों तक रामलीला होती थी फिर रावण दहन किया जाता था. अब काहे की राम लीला काहे का रावण, अब तो बस जगंल में मंगल है. राम भरोसे के भरोसे सारा रावण दहन हो जाता है. राम भरोसे नाम की ही नहीं काम का भी राम भरोसे है. पंडाल का काम हो या जनता की सेवा राम भरोसे के बिना पत्ता नहीं हिलता है. हर बार जेबें गर्म, मुख में पान का बीड़ा रहता था किन्तु इस बार जैसे उसके माई बाप आपस में गुथम गुथम कर रहें हैं.  बड़े बेमन  से वह रावण दहन के कार्य में हिस्सा ले रहे थे. मित्र सेवक राम से रहा नहीं गया बोले – भाई इतने ठन्डे क्यूँ हो क्या हुआ है .
अब का कहे देश में रावण राज्य ही चल रहा है. जिसे देखों, जब देखो हर पल गुटर गूं करते रहते हैं.
क्यूँ, भाई क्या हुआ.
अब पहले जैस बात कहाँ है, यह दशहरा पर मैदान बड़ा गुलजार रहता था, रामायण के पात्र समाज को अच्छा सन्देश देते थे. राम हजारो में थे तो रावण एक, कलयुग में राम ढूँढने से भी नहीं मिलते हैं. सबरे के सबरे रावण है. कल तक रामभरोसे थे अब सारा दूध पी लिया और रामभरोसे को राम के भरोसे ही छोड़ दिया.
हाँ भाई सच कहत हो, देखो राम जी तो चले गए लेकिन आज के रावण राम मंदिर के नाम पर आज भी अयोध्या जलाते हैं.
और नहीं तो का, जनता की कौन सोचत है  सभी अपना अपना चूल्हा जलाते है और अपनी अपनी रोटी सेकतें हैं. धुआं तो जनता की आँखों में धोका जात है.
इतने वर्ष हो गए हमने कोई जात पात नहीं मानी, सभी  धर्म के लिए ईमानदारी से काम किया, किन्तु अब कोई हमें पानी भी नहीं पिलाता है. आजकल काहे का रावण काहे की माफ़ी, प्रदुषण पर बैन है, तो जाने दो मन का रावण जला दे वही बहुत है.  ऐसे कलयुगी रावण का क्या किया जाये, गॉंव में काँव काँव शुरू रहती है..... शहर में धम्म धम्मा धम्म, ऐसी मौज मस्ती जैसे अपने घर के बगीचे में टहल रहें है और घर के बर्तन बाहर जाकर नगाड़ा बजाते है. ई दशहरा भी कोई राजनीती होगी. सब धर्म के नाम फरमान जारी होंगे, कुछ लाला अपना कन्धा सकेंगे. थोड़े बर्तन बजायेंगे और डाक्टर नयी फ़ौज को जमा करने  के लिए तैयार रहेंगे, लो जी हो गया दशहरा. फिर से राम ही रावण बनकर आपस में लड़ रहे हैं. तो जीतने वाला भी रावण ही होगा. बस हाल होगा तो बेचारे राम भरोसे का, जो राम के भरोसे ही पेट की आग शांत करने का प्रयास करता है और अब वह न घर का रहा है न घाट का. अब कलयुग है तो कलयुग के राम सूट बूट वाले है. वह अपनी सेना को नहीं खुद को ही ज्यादा देखते हैं. त्रेता युग में जो हो गया सो हो गया, आज वह के राम बने रावण वनवास जाते नही है, विभीषण को भेज देते हैं. आखिर वही ततो आया था उनके पास भोजन मांगने.

      अब कोई त्यौहार पहले जैसा नहीं रहा, घर में बैठकर दो चार घंटे टीवी देख लो. अभाशी दुनिया घूम लो, ट्विटर से जबाब तलब कर लो, हो गया दशहरा. फिर काहे इतना पैसा एक रावण को जलाने में लगायें, लाखो लोगों के पेट भर खाना खिला दे तो पुन्य तो मिलेगा, इस देश में न जाने कितने विभीषण अभी भी है जो त्रेता युग के राम भरोसे ही अपना धर्म निभा रहें हैं.
  शशि पुरवार



Monday, October 19, 2015

फेसबुकी फ़ेसलीला


फेसबूकी फेसलीला  

पुनः चलते है फेसबुक की हसीन वादियों में, मैंने आपसे वादा किया था, आपको फेसबुक की गलियों में जरुर घुमाएंगे. हर रंग की तरह यहाँ भी अनेक रंग बिखरे हुए हैं, अजी तीज त्यौहार तो निकल गए यहाँ के त्यौहार समाप्त ही नहीं होते है,  जैसे जैसे  दशहरा पास आ रहा है यहाँ की गलियां राम नाम से सरोवर है. भारी- भरकम शब्दों के साथ राम का गुणगान, शबरी के बेर, रावण का दहन हमें त्रेतायुग के दर्शन करा देता है, सारी रामलीला इस आभाषी दुनिया में सिमट जाती है, किन्तु यहाँ की रामलीला जैसी रामलीला कहीं नहीं होती है.
       कौन कहता है त्रेता युग मिट गया, किन्तु वह तो भारी भरकम शब्दों का श्रृंगार करके यहाँ  जीवित है.  लोग अपना ज्ञान भरी भरी शब्दों को ढूंढकर, सजाकर वजन में प्रस्तुत कर रहें हैं. किन्तु फिर भी यह कलयुग है जहाँ सब कुछ संभव है, एक तरफ राम नाम दूसरी तरफ राम के भेष में रावण.  चित्रपट के बदलते रंगों की तरह यहाँ हर पल रंग बदलती मृगतृष्णा है.
        रामलीला का अर्थ भी यहाँ बदल कर कलयुगी फेसलीला हो गया है. हाल ही समाचार पत्रों में पढ़ा कि कई महिलाये इस आभाषी दुनिया के रावण के झांसे में आकर घर छोड़कर चली गयीं. और जल्दी ही सुबुद्धि खाकर,  सुबह का भूला शाम को भटक कर घर  वापिस आ गया.  यह नयी रामलीला के तोते समझ से परे हैं. कलयुग में राम कहाँ रावण से भरी रामलीला है. यहाँ न सीता का अपहरण किया जाता है अपितु कई सीता खुद बा खुद काल का ग्रास बनने को तैयार है. अब कौन समझाए यह त्रेता युग नहीं कलयुग है भाई, यहाँ तो रोज रावण जन्म लेते हैं रोज ब्लोक किये होते है, चुनावी हार हो या राजनीती हार, इसके बाद का  वनवास निश्चित होता है. किन्तु फिर नयी सुबह  नयी नयी राजनीती को गरमाने के लिए तैयार रहती है. यहाँ कौन राजा है कौन रैंक ज्ञात ही नहीं होता है, सिर्फ नयी चमक, नयी कहानी रोज गरमाती है, कहीं सुबकियाँ कहीं आजादी अपने रंग दिखाती है. संवाद के तीर हो या त्योहारों की आवाजाही, चार कमरे की दीवारों से खुली छोटी सी खिड़की के बाहर दुनियाँ की रंगीनियाँ छिपी हुई है. इस कलयुग में इस रंग के बिना जीवन बेरंग हैं.छद्म भेष में यहाँ रोज रावण मिलेंगे, हमारे एक महान कहे जाने वाले सीधे साधे इंसान ऐसे राम बनते हैं, कि बिना उनकी सीता के वह कुछ नहीं वहीँ दूसरी तरफ छिछोरी हरकतें, इसे क्या कहेंगे. बेहतर है यहाँ शब्द वाणों से किसी और को आहत करने की जगह खुद के भीतर का रावण दहन किया जाये.. जय श्री राम .
 ---- शशि पुरवार

Friday, October 9, 2015

फेसबुक बनाम जिंदगी



ओह सुबह हो गयी...  जल्दी से गुड मोर्निंग कह दूं, .... ओह हो अभी अभी  मंजन किया है  ... जरा कोलगेट स्माइल दिखा दूँ .... आज तो बाहर डिनर है ... आज मैंने क्या खाया पहले जल्दी से जरा शेयर तो कर दूं .. दो चार पंक्ति भी लिख दूं ... वाह वाह लाइक पर लाइक और इतने सारे कमेंट्स ..... आनंद आ गया ... मै तो छा गया ... अपना छाया चित्र भी बदल लेता हूँ ......फेसबुक ने तो जिंदगी के मायने बदल दिए हैं, कौन कहता है कि  मै परवाह नहीं करता ..... माँ के साथ चित्र .. दादी के जन्मदिन की तस्वीर ...... भेले ही दादी – माँ  को ज्ञात ही ना हो कि आज उनका जन्मदिन इतनी धूम  धाम से मनाया गया है ... तस्वीरे क्या बयाँ कर रही है और हकीकत क्या है.....  यह तो अल्लाह ही जाने .... पर एक बात तो साफ़ हो गयी है  दादी आज फेमस हो गयी .है ....... बेटा वाह वाही लूट  रहा है ... दादी इसी बात से खुश है चलो उसके साथ किसी ने एक तस्वीर तो खीचीं है  ....! भले घर में किसी को गुड मोर्निंग या गुड नाईट नहीं कहेंगे किन्तु फेसबुक को  कहना नहीं भूलते ... अब तो दिन  रात बस माला जपते रहो और कहो ---फेसबुक बाबा की जय .

                  कौन कहता है दुनिया सिमट  गयी है  लोग बदल  गए हैं ,भाई अब तो जिंदगी एक खुली किताब हो गयी है.
परियों की कथाओं की तरह एक नयी दुनियाँ ने जन्म लिया और सबको अपने मोहपाश मे ऐसा  बाँधा की कोई भी इससे बच नहीं पाया  जिंदगी के मायने बदल गए हैं जीवन बंद कमरों से निकलकर बाहरी दुनिया से जुड़ गया है. हाँ जी हम बात कर रहे है सोशल मिडिया फेसबुक की. जो आजकल घुसपैठ की तरह हमारे जीवन में घुस गया है .
हाँ जी यह वही  फेसबुक है .... जिसने आम आदमी को भी आज खास बना दिया है, या यों कहे  कि सुपरस्टार बना दिया है . शुरू शुरू में चर्चा थी फेसबुक आया है, अमीरों के चोचले ......कब आम जीवन की जरुरत बन गए किसी को भनक नहीं नहीं पड़ी . अकेले घर में बैठे बैठे लोग जहाँ अपने अड़ोसी पडोसी से कट गए वहीँ फेसबुक के जरिये पूरी दुनियाँ से जुड़ गए हैं, कितना सच है कितना झूठ कोई नहीं जानता किन्तु झूठ का बड़ा सा मायाजाल ऐसा  फैला हुआ है जिसकी  चमक में सब धुंधला पड़ गया है. एक ऐसा नशा जो सर चढ़ कर बोलता है .

                        ऐसी बात नहीं है कि यहाँ सिर्फ धोखा ही है ..... फेसबुक भी अनेक रंगों से सजा मायाजाल है अच्छाई है तो  बुराई भी ... फेसबुक हर भाषा में मौजूद है ..लोगों की जरुरत के अनुसार इसे किसी भी भाषा में लिख सकतें है . और लोग इसकी उँगलियों पर नाच रहे हैं .लोग हिंदी भी सीख रहें है , हिंदी लिख रहें हैं ... एक बात की बहुत हैरानी होती है .... हिंदी में खुद को महान दिखाना भी नहीं भूलते हैं  , भेड़ चाल  की तरह भारी भारी  शब्दों का प्रयोग  ..क्लिष्ट भाषा ... भले ही पूर्णतः समझ में नहीं आये ... पन्ने पर पन्ने भरते चले जायेंगे,  उफ़ पढ़ कर कई बार ऐसा लगने लगता है कि जो भाषा आम आदमी की है  ... वह तो उसकी समझ से भी बाहर हो गयी. खैर .... कलयुग सच में कलयुग ही है. किन्तु डिक्सनरी से भारी शब्दों को ढूंढकर लिखना कोई मजाक नहीं है बड़ी मेहनत लगती है . हर त्यौहार पर फेसबुक के पन्ने भारी भरकम शब्दों से सजे अपनी ठसक दिखाते रहतें है .
              आज बंद कमरों में बैठे जोड़े आपस में तो बात नहीं करते  है, किन्तु फेसबुक पर विचारों का आदान प्रदान  जरुर शुरू रहता है .... जहाँ कई बुराईया व धोखा धडी बढ़ी है वहीँ कुछ  अच्छा पक्ष भी है।  अच्छे लोगों से मिलना जुड़ना   विचारों का आदान प्रदान  हर क्षेत्र की उपलब्धि की कहानी कहता है .

                     लिखने पढने और अन्य क्षेत्र में रूचि रखने वालों के लिए यह खुला मंच है जहाँ उसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है .... और कुछ अच्छे लोगो का सानिध्य  भी प्राप्त होता है . जब अच्छाई है तो बुराई भी दो  कदम आगे चल रही है .कई धूर्त लोग तो यहाँ गुरु बनकर ज्ञान बाँटते नजर आते है .भले उतना ज्ञान ही ना हो , यहाँ हर कोई महान है   चमकता सितारा है .सब कुछ आभासी है. आभासी दुनिया का  ऐसा दलदल में जहाँ कोई सितारा अंधेरों में खो जाता है तो कोई नयी रौशनी ग्रहण करके आसमान में चमकता रहता है ...जो भी है जैसा भी है यह फेसबुक हमारा है जिसके बिना लोगों की साँसे थमने लगती  हैं . धीरे धीरे ग्रसित कर रहा यह रोग अंततः किस स्थिति में ले जायेगा कहना असंभव है ...विद्यार्थी और छोटे बच्चों को भी इस रोग  ने अपनी चपेट में ले लिया है एक तरह से बच्चों का भविष्य दौंव पर लगा हुआ है पढाई से विमुख होते यह बच्चे सोसल मिडिया की चपेट में बुरी तरह फँस रहे हैं उन्हें भविष्य की चिंता ही नहीं है मिडिया का आकर्षण उन्हें चोरी चुपके कई गलत  मार्ग दिखा रहा है .....इससे आज महिलाएं भी दूर नहीं है ..अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिए यह मिडिया जितना कारगर है उतना ही गलत कृत्य को अंजाम .देने का जिम्मेदार भी है ....... इस आभासी दुनिया के मायाजाल में फिलहाल पूरी दुनियाँ रम  गयी है . हर कोई भोले शंकर को भूलकर  दिन रात भजन  गा रहा है –
वाह वाह  अब आप जरा फेसबुक पर हर त्यौहार कमाल भी  तो देखिये,
लो जी भइया  अब तो होली भी आ गयी, जे बात...  अब तो हर तरफ आनंद ही  आनंद है, नजरें  तस्वीरों में गड़ी रहेंगी, और  अपनी आँखे  सेकेंगी, बिना पानी और बिना रंग के शब्दों की होली कहीं देखि है भइया , नहीं देखि हो तो फेसबुक पर आ जाओ, शब्दों की मार, रंगबिरंगी  तस्वीरों की बौझार, आभाषी दुनियां का जमकर प्यार , आय  हाय, ऐसी होली के क्या कहने, घर बैठे पूरी दुनियां के संग होली खेल रहें है, और दुनियां आपको होली खेलते हुए देख भी रही हैं, जिन्होंने बाहर होली नहीं खेली वह तो घर बैठकर जो होली खेल रहें है उसका  होली का असीम सुख चारदीवारी के अंदर ले रहें है. घर वालों को तो नहीं  किन्तु दुनियां को तो होली का आनंद लोगों ने दिखा. ही दिया है  फेसबुक बाबा की जय .
                 

फेसबुक सिर्फ सामान्य लोगों के लिए ही नहीं अपितु कलाकार , राजनीतिज्ञ , मिडिया सभी  को एक सूत्र में  पिरोने का कार्य कर रहा है. सभी यहाँ  अपना  अपना साम्राज्य स्थापित करने में  लगे हुए हैं।  दोस्ती के नाम पर स्वार्थ की अंधी दौड़ जारी है।  कहतें  है स्वतंत्र देश में सभी को वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है, किन्तु यह भी  देखा गया है कि अपने विचार को अबगत करना कुछ लोगों को बहुत भारी पड़ा है जिसका फायदा राजनीतीक दल ने भली भांति उठाया है.उदारहण के लिए कुछ नेताओ ने अपनी अपनी पार्टी का यहाँ प्रचार शुरू किया और कुछ को लपेटे में लिया , भाई केजरीवाल को ही ले लीजिये , यहाँ तो अण्णा हजारे का भी पन्ना बना था जिसे पब्लिक ने सर माथे पर बैठायाखूब राजनीती खेली गयी दोस्ती और दुशमनी यहाँ भी अपने पांव पसार चुकी हैं, भाई फेसबुक नया है  इंसान की फितरत तो वहीँ हैं ना,   जिसे   ब्रम्हा भी आ जाएँ तो नहीं बदल सकतें हैं
--शशि पुरवार 

Tuesday, October 6, 2015

रंग जमाया - छोटी बहर

मन को जिसने
फिर भरमाया

जादू ऐसा
दिल पिघलाया

लगता हमको
प्यारा साया

सखी सहेली
पास बुलाया

महफ़िल में अब
रंग जमाया

हर कोई फिर
दौड़ा आया
-शशि पुरवार
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Monday, September 28, 2015

डिजिटल इंडिया



हमारे सपनों का शहर, हमारे सपनों का देश,  आज जैसे सारे स्वप्न साकार होने की ड्योढ़ी पर खड़े हैं. यह सोच कर ही सुखद प्रतीत होता है कि भारत को डिजिटल रूप देने के कयास और फिर प्रयास शुरू हो गयें हैं. प्रधानमंत्री योजना के अनुसार पेपर लेस कार्य करना कितना अच्छा होगा, देश में कागजों की रद्दी कम हो जाएगी। यहाँ वहां फ़ाइल के ढेर फिर नजर नहीं आयेंगे, हमारे इर्द गिर्द की दुनियाँ,  जादुई  दुनियाँ  बन जाएगी. सरकारी टेबलों पर एक कागज नहीं होगा, फाइलों के पीछे काम के बोझ का मारा बाबू भी नजर नहीं आयेगा. अप टू डेट सरकारी अफसर डिजिटल कार्य में आँखे गडाए नजर आयेंगे. इधर फॉर्म भरो उधर  दो  मिनिट में फॉर्म जमा हो जायेगा, दुनिया किसी फेंटेसी से कम नहीं होगी.   दो मिनिट वाली मैगी  तो आउट हो गयी है किन्तु  दो मिनिट वाला यह कार्य सिर चढ़ कर बोलेगा.

   योजना अति सुन्दर है, किन्तु करोड़ो की आबादी वाले देश में यह सपना सार्थक कैसे होगा, भारत का गॉँव  हो या शहर बिजली की असीम कृपा बनी रहती है.  तीन चार  घंटे की लोड शेडिंग कम नहीं होती है, कभी तेज बरसात हुई या तेज हवाएँ चली, सबसे पहले बिजली के  तार ही  टूटते हैं.  सिर्फ मेट्रो शहर को छोड़ दीजिये बाकी देश का कमोवेश यही हाल चाल है. हाय हाय के नारे लगाने के बाद भी बिजली की समस्या कायम हैं, उस पर डिजिटल कार्य, अब ईश्वर ही जाने, कैसे संभव होगा, बढती आबादी, कम सुविधायें, हमारे देश में रेंग रेंग कर आगे बढ़ने की प्रवृति आज भी कायम है. अजी बिजली छोडिये, गॉँव  में शोचालय भी नहीं है, करीब  पिचयान्वे  करोड़ की आबादी वाले देश में मोबाइल उपभोक्ता करीब इक्कीस  करोड़ के आस पास हैं, आज जनता मोबाइल नेट वर्क के नाम से परेशान है, गॉँव  में चले जाओ तो नेटवर्क मिलना दूभर हो जाता है पर  बेचारे मोबाइल धारक की भाग दौड़ उसे वजन घटाने में जरुर सहायक होती है, भले नेटवर्क नहीं मिला किन्तु  कुछ वजन तो कम हुआ. पहले लोग घर की चार दीवारी में बैठकर दूरभाष से वार्ता किया करते थे और आज छोटा सा मोबाइल हाथों में लेकर, घर क्या सड़कों पर भी जोर जोर से बोलते नजर आ जातें है, कभी कभी समझ ही नहीं आता कि सामने वाला कानों में स्पीकर लगाकर बात कर रहा है या पागल है, जो अकेले अकेले  बड़बड़ाते  हुए चल रहा है. सामने वाले तक भले ही बात न पहुँची हो किन्तु अडोस पड़ोस की चलती फिरती काया व दीवारें  जरुर सब सुन लेती हैं. फेसबुक और ट्विटर पर न बैठ पाने के दुःख में कई लोगों की सांसे जैसे रुक जाती है, लोग पूनम के चाँद की तरह नेटवर्क के जुड़ने के लिए साँसे रोककर  उसके तार जुड़ने की राह देखतें है, जैसे बिना नेटवर्क के उनका  खाना- पीना बहाल हो गया था, ऐसे में डिजिटल तकनीक कैसे कार्य करेगी हमारे छोटे से दिमाग में जैसे दही जमना प्रारंभ हो गया है.

       पेपर लेस वर्क की बातें करने के साथ ही सरकारी मजमों को फरमान सुनाया गया कि अब से सारा कार्य कंप्यूटर पर होगा, अब सरकारी नौकरशाही का आदेश तो सरकारी दफ्तरों  में लागू होना लाजमी था, एक किस्सा याद आ रहा है, कचहरी में  भी क़ानूनी दस्तावेज कंप्यूटर की निधि बन चुके हैं, एक महत्वपूर्ण केस पर जज साहब फैसला सुना रहे थे, जजमेंट कंप्यूटर पर अपनी तेज गति के साथ टाइप किया जा रहा था कि अचानक बिजली विभाग की मेहरबानी हुई और बत्ती गुल, अजी गुल हुई तो हुई, सारा जजमेंट भी गायब हो गया, हमारे यहाँ तकनिकी सामान की कोई गारंटी नहीं होती है और ऊपर से सरकारी,सामान, तौबा तौबा... अब जज साहब को काटो तो खून नहीं, एक तरफ कार्य की भरमार, दूसरी तरफ तकनीकी  मार, अगर कमोवेश यही हाल रहा तो काहे का डिजिटल इंडिया, डिजिट ही गायब हो जायेंगे.  
   
               वक़्त की बर्बादी  से देश तरक्की करेगा या पिछ्डेगा यह तो वक़्त की बताएगा।  देश में स्पेक्ट्रम की भी कमी है, बेरोजगारी भी है, जो लोग अंतरजाल और डिजिटल तकनीक से दूर हैं उन्हें कैसे जोड़ेंगे,  भारत आधी से ज्यादा आबादी पीली रेखा के नीचे आती है, जहाँ दो जून खाना सुलभ नहीं है वहां यह तकनीक कैसे कार्य करेगी, डिजिटल तकनीक के माध्यम से चोरी, कालाबाजारी बढ़ने की सम्भावना है, गरीब तबका बैंक में अपना पैसा जमा कराता है, जब सभी कार्य डिजिटल होंगे तो बैंक में भी शुरू ओ जायेगा. हाल ही में एक वायका हुआ, एटीएम से पैसा निकालना सभी को नहीं आता है, गॉंव के एक व्यक्ति ने एटीएम से पैसा निकालने में वहीँ के गार्ड्स से मदद ली, हर बार उसी की सहायता से पैसा निकालता था, बाद में उसी गार्ड ने उसका एटीएम खाली कर दिया, जिन लोगों के पास नेट या डिजिटल सुविधाएँ नहीं है उन्हें दूसरों को पैसा देकर यह कार्य करवाना पड़ता है. हमारे यहाँ कम उपभोक्ता नेट का इस्तेमाल करतें है जो उपभोक्त्ता  नेट उपयोग करतें है वह स्पीड की समस्या से ग्रस्त हैं. परेशानियां काल के मुँह की तरह मुह बाये खड़ी है, निदान क्या होगा  यह नीति तय करेगी।  पूरे भारत को पहले साक्षर होना  आवश्यक है , तीसरी दुनियां की तरह धनवान भी होना जरुरी है, घर के पैसे को घर में रखना और तरक्की करना किसी बनिया से सीखा जाये तो सफलता के पैमाने बढ़  जायेंगे। खैर हम अड़ंगा नहीं लगा रहे है , डिजिटल इंडिया बन गया तो आधी समस्या कम हो जाये यही कामना हृदय में है 
   जय भारत। --  
 शशि पुरवार 

Monday, September 21, 2015

मन खो रहा संयम


आस्था के नाम पर,
बिकने  लगे हैं भ्रम
कथ्य को विस्तार दो ,
यह आसमां है कम .

लाल तागे में बंधी
विश्वास की कौड़ी
अक्ल पर जमने लगी, ज्यों
धूल भी थोड़ी
नून राई, मिर्ची निम्बू
द्वार पर कायम

द्वेष, संशय, भय हृदय में
जीत कर हारे
पत्थरों को पूजतें, बस
वह हमें तारे
तन भटकता, दर -बदर
मन खो रहा संयम.

मोक्ष दाता को मिली है
दान में शैया
पेंट ढीली कर रहे, कुछ
भाट के भैया
वस्त्र भगवा बाँटतें,
गृह, काल. घटनाक्रम .
- शशि  पुरवार

Saturday, September 19, 2015

तिलिस्मी दुनियाँ



काटकर इन जंगलो को
तिलिस्मी दुनियाँ बसी है 
वो फ़ना जीवन हुआ, फिर
पंछियों की बेकसी है.

चिलचिलाती धूप में, ये
पाँव जलते है हमारे
और आँखें देखती है
खेत के उजड़े नज़ारे
ठूँठ की इन बस्तियों में
पंख जलना बेबसी है

वृक्ष  गमलों में लगे जो
आज बौने हो गए है
आम पीपल और बरगद 
गॉंव भी कुछ खो गए है
ईंट गारे के  महल  में
खोखली रहती हँसी है

तीर सूखे  है नदी के
रेत का फिर आशियाँ है
जीव - जंतु लुप्त हुए जो
अब नहीं नामो- निशाँ है
चाँद पर जाने लगे हम
गर्द में धरती फँसी है
-- शशि पुरवार



Monday, September 14, 2015

विश्व फलक पर चमक रही है हिंदी



1४ सितम्बर हिंदी दिवस है लेकिन हिंदी दिवस एक दिन या एक महीने के लिए नहीं अपितु हिंदी दिवस रोज मनाएँ। हिंदी सिर्फ भाषा नहीं मातृभाषा है, हिंदी का विकास हमारा विकास है। शान से कहें हिंदी है हम। हिंदी दिवस पर विशेष शुभकामनाएँ।


विश्व फलक पर चमक रही है
हिंदी  मधुरम भाषा
कोटि कोटि जन के नैनों की
सुफल हुई अभिलाषा.

बागिया में वह खिलती

सखी- सहेली के संग -संग
गले सभी के मिलती
पुष्पित होती, हँसते गाते
मन की कोमल आशा ।

यह सूफी  मुस्काई

तुलसी के अँगना में उतरी
बन दोहा -चौपाई
झूल प्रकृति के पलने में
प्रतिदिन, गढ़ती परिभाषा।

गागर में सागर भरती

हिंदी  का रस पान करें
निज भाषा अपनी है, हम
हिंदी का सम्मान करें
एक सूत्र में सबको बाँधे
हिंदी  देशज भाषा।


                                       - शशि पुरवार 
 

Wednesday, September 9, 2015

हर पल रोना धोना क्या



हँस कर जीना सीख लिया 
हर पल रोना धोना क्या

धीरे धीरे कदम बढ़ा
डर कर पीछे होना क्या

जीवन की इस बगियाँ में
काँटों को भी ढोना क्या

दुःख सुख तो है एक नदी
क्या पाना फिर खोना क्या

मिल जाये खुशियाँ सारी
थककर केवल  सोना क्या.

सखी सहेली  जब मिल बैठें
मस्ती का यह कोना क्या

दुनियादारी भूल गए
मीठे का फिर दोना क्या 
 --  शशि पुरवार 

Sunday, September 6, 2015

हे प्रिय हस्ताक्षर





नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर,
बिखरें, जग के हर कोने में
उसके स्वर्णाक्षर

सरस-सुगम, उन्नत ये भाषा
संस्कृति की बानी है
अंग्रेजी की सर्द धरा पर
ये, अनुसंधानी है

ज्ञान ज्योति की अलख जगाते
हिंदी अंत्याक्षर
नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर

गरिमामयी, हिन्द की रोली
रंगो को अपनाएँ
मनमोहक शब्दों के मोती
मिल प्रतिबिम्ब बनाएँ

गीत-गजल औ छंद-विधाएँ
हिंदी अमृताक्षर
नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर

हिंदी का सत्कार करें, हो
जन जन की अभिलाषा
गाँव-शहर हर आँगन के
सँग, बने राष्ट्र की भाषा

सीना तान, गर्व से बोलें
हम हिंदी साक्षर

नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर

-- शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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