Thursday, January 28, 2016

हाइकु क्या है.

हाइकु –  गागर में सागर के समान 
हाइकु क्या है
हाइकु मूलतः जापान की लोकप्रिय विधा है. जापानी  संतो द्वारा लिखी जाने वाली लोकप्रिय काव्य  विधा, जिसे जापानी संत बाशो द्वारा विश्व में प्रतिष्ठित किया गया था. हाइकु विश्व की सबसे छोटी लघु कविता कही जाती है. एक  ऐसा  लघु पुष्प जिसकी महकअन्तःस वातावरण को सुगंधित करती है. हाइकु अपने आप में सम्पूर्ण है. हाइकु कविता  ५ + ७ + ५ = १७ वर्ण के ढाँचे  में लिखी जाती है. कवि बाशो के कथनानुसार – जिसने ५ हाइकु लिखें है वह कवि, जिसने १० हाइकु लिखें है वह महाकवि है
  ५ -७-५ यह तीन पक्तियों में लम्बी कविता का निचोड़ होता है, सहजता, सरलता, ग्राहिता, संस्कार हाइकु के सौन्दर्य, उसकी आत्मा है. सपाट बयानी हाइकु में हरगिज मान्य नहीं है. गद्य की एक पंक्ति को तीन पंक्तियों में तोड़ कर लिख देने से हाइकु कविता नहीं बनती है, हाइकु देखने में जितने सरल प्रतीत होतें है वास्तव में उतने सरल नहीं है, किन्तु मुश्किल भी नहीं है, हाइकु का सृजन एक काव्य साधना है . सच्चा हाइकुकार वह है जो हाइकु के माध्यम से गहन कथ्य को बिम्ब और नवीनता द्वारा सफलता पूर्वक संप्रेषित करता है. काव्य साधना के बिना हाइकु लिखना असंभव है. हाइकु जितने बार भी पढ़े जायें विचारों की गहन परतों को खोलते है, हाइकु में फूलों सी सुगंध व  नाजुकता होती है. हाइकु का मूल आधार प्रकृति है, इसीलिए कुछ विद्वान इसे प्रकृति काव्य भी कहतें हैं. साहित्य ग्रहण करने के गुणधर्म के कारण स्वयं को परिवेश ढाल लेता है. साहित्य काव्य में समयानुसार परिवर्तन होते रहतें है. हाइकु ने भी यह बदलाव देखे गयें है. अब हाइकु सिर्फ प्रकृति परक नहीं है अपितु सामाजिक विसंगतियां, संवेदनाओंके मध्य सेतु बनकर जुड़ें हैं.
   हाइकु विश्व की सभी समृद्ध भाषा में रचे जाने लगे हैं . भारत में सर्वप्रथम गुरु रविन्द्रनाथ टैगोर ने १९१६ में अपनी जापानी यात्रा के बाद लिखे  जापानी जात्री नमक सफरनामे में बंगाली भाषा में  हाइकु की जानकारी प्रदान की थी . भारत में हाइकु काव्य को हिंदी साहित्य ने बाहें फैला कर स्वीकार किया है.आज हाइकु विधा बहुत समृद्ध हो चुकी है, हिंदी के पांचवे दशक में हाइकु रचना के कुछ सन्दर्भ मौजूद हैं किन्तु अज्ञेय  द्वारा रचित  अरी ओ करुणा प्रभाकर “ ( प्र. प्र. १९५९  को विधिवत मान्यता मिली है जिसमे जापानी हाइकु के कुछ भावानुवाद / छायावाद एवं कुछ लघु कविताएँ शामिल है.
   हिंदी हाइकु का महत्वपूर्ण  अध्याय डा. सत्यभूषण वर्मा के हाइकु अभियान के बाद प्रारंभ हुआ है. डा. वर्मा जे. एन यू . दिल्ली में जापानी भाषा के विभागाध्यक्ष थे. जापानी हाइकु और हिंदी कविता विषय पर शोध के साथ साथ आपने १९७८ में  भारतीय हाइकु क्लब की स्थापना की और अक अंतर्देशीय लघु  हाइकु पत्र  का प्रकाशन भी किया . आज हाइकु विधा बेहद लोकप्रिय हो चुकी है.
शिल्प की दृष्टी से हाइकु सिर्फ ५- ७ – ५ खांचे में लिखे हुए सिर्फ वर्ण नहीं है. कथ्य में कसावट, गहनता, अर्थ, बिम्ब सम्पूर्णता स्पष्ट होना आवश्यक है. वस्तु और शिल्प द्वारा हाइकु की गरिमा और शालीनता बनाये रखना हाइकुकार का प्रथम धर्म है. हाइकु के नाम पर फूहड़ता प्रस्तुत नहीं होनी चाहिए.
हाइकु तीनों पंक्तियाँ पृथक होकर भी सम्पूर्ण कविता का सार संप्रेषित करती हैं. हाइकु काव्य की सामयिकता स्वयं सिद्ध है. अब हाइकु हिंदी में स्थायी रूप से स्थापित होने की ओर अग्रसर है, कई हाइकुकारों के हाइकु काव्य संकलन सराहे गए हैं, हाइकु अतुकांत और तुकांत दोनों की प्रकार से लिखे जा रहें हैं. किन्तु कथ्य में कसावट और काव्य की गरिमा भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं. कई  हाइकुकार कभी पहली २ पंक्ति या अंतिम दो पंक्ति यह तो कभी पहली या अंतिम पंक्ति में तुकांत हाइकु का निर्माण करतें है.हाइकु गागर में सागर के समान है.हाइकु प्रकृति की अंतर अनुभूतियों को संप्रेषित करने में सक्षम है. काव्यात्मकता और लयात्मकता हाइकु के श्रृंगार हैं.
 हाइकु में प्रकृति के सौन्दर्य  के विविध रंग हाइकुकारों द्वारा उकेरे गयें है, कहीं पलाश दूल्हा बना है, कहीं धूप  कापी जांचती है, कहीं घाटियाँ हँसी है, हाइकु के नन्हे नन्हे  चमकीले तारें  मन के अम्बर पर सदैव टिमटिमाते रहतें हैं . प्रकृति की गोद में इतनी सुन्दरता है कि अपलक उसके सौन्दर्य को  निराहते रहो, लिखते रहो, फिर भी अंत नहीं होगा. कवियों द्वारा प्रकृति के सौदर्य अनुपम छटा उनकी कल्पना शक्ति के द्वारा ही संभव है.
प्रकृति के अलग अलग  रंगों की कुछ बानगी देखिये ---
  नभ गुंजाती/ नीड़ – गिरे शिशु पे /मंडराती माँ --- डा. भगवती शरण अग्रवाल
रजनी गंधा / झाड़ में समेटे हैं / हजारों तारे – डा. सुधा गुप्ता
घाटियाँ हँसी / अल्हड किशोरी – सी / चुनर रंगी – रामेश्वर काम्बोज  हिमांशु 
सौम्य सजीले / दुल्हे का रूप धरे / आये पलाश – शशि पुरवार
ले अंगडाई / बीजों से निकलते / नवपत्रक – शशि पुरवार
धूप जांचती / र्रुतुओं की शाला में / जाड़े की काँपी – पूर्णिमा वर्मन
सूर्य के पांव / चूमकर सो गए / गॉंव के गॉंव –   जगदीश व्योम
 हाइकु में प्रकृति के रंग के अलावा हाइकुकारों ने फूल- पत्ते , पेड़ – पौधे , पशु –पक्षी ,भ्रमर, अम्बर – पृथ्वी, मानवीय संवेदना, प्रेम , पीर, रिश्ते – नाते, राग – रंग, सपर्श  और भी न जाने कितने विषयों पर हाइकु का जन्म हुआ है. वेदना- वियोग की पीड़ा के भी प्रकार होतें हैं, कभी पीड़ा असहनीय होती है तो कभी उस पीड़ा में पुनर्मिलन की आशा भी सुकून प्रदान करती है. प्रेम करने वाले कई अनुभूतियों से दो चार होतें हैं. विचारों के मंथन के बाद ही हाइकु अमृत बनकर बाहर निकलता है.  वियोग पुरुष हो या पकृति दोनों के लिए पीड़ादायक होता है. इस सन्दर्भ में कुछ हाइकु के कुछ उदारहण प्रासंगिक होंगे --
पीर जो जन्मी / बबूल सी चुभती / स्वयं की साँसे – शशि पुरवार
सुबक पड़ी / कैसी थो वो निष्ठुर / विदा की घडी – भावना कुँवर
ठहरी नहीं / बरसती रही थी / आँखें रेत में – डा. मिथिलेश दीक्षित
आज भी ताजा / यौवन के फुलों में / यादों की गंध – डा. भगवतशरण अग्रवाल
ठूंठ बनकर/ सन्नाटे भी कहतें/ पास न आओ – शशि पुरवार

इक्कीसवी सदी के अंत में हाइकुकारों की  ऐसी जमात भी आई थी जिसने बाशो के कथन कोई भी विषय हाइकु के लिए उपयुक्त है “ की गंभीरता को न समझकर .. मनमाने ढंग अर्थ निकालकर हाइकु लिखने आरंभ कर दिए थे , अर्थ का अनर्थ हो रहा था, हाइकु काव्य सौन्दर्य से दूर जाकर जनचेतना के नाम पर गध्य से जुड़ने लगा था. किन्तु इस दशक में हाइकुकारों द्वारा साधना करके उम्दा हाइकु रचे गयें हैं.
नए नए बिम्ब, गेयता, तुकांतता गहन कथ्य के साथ उम्दा हाइकु कहीं कहीं आशा की मशाल भी बना है, कठिनाई में भी आशा की किरण फूटती है हाइकुकारों का नया दल भविष्य के लिए आश्वस्त करता है . वर्तमान में अनेक पत्र पत्रिकाएं हाइकु के महत्व को स्वीकार कर चुकीं है. कई पत्रिकाएं हाइकु विशेषांक निकाल चुकी है, कई पत्रिकाएं हाइकु को नियमित स्थान भी प्रदान करती हैं . हिंदी चेतना ( अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ) ,वीणा (  इंदौर, म.प्र.), उदंती ( रायपुर, छ.ग.), अविराम साहित्यिकी( ट्रे.
कड़ी धूप में / मशाल लिए खड़ा / तनहा पलाषा.  
                                                                     

सन्दर्भ - सरस्वती सुमन पत्रिका - अन्य पत्रिकाएं 

Wednesday, January 27, 2016

भारत की १०० महिला अचीवर्स -- अविस्मरणीय पल










  
 यह बेहद गौरान्वित पल थे जब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा सभी महिलाओं को विशेष सम्मान प्राप्त हुआ है।  बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की पहली वर्षगांठ पर राष्ट्रपति भवन में विशेष भोज का आयोजन था।  आ  मेनका गांधी ने सभी  महिलाओं से भेंट की।   मेनका गांधी ने हमें unsung hero  कहा है.     
यह पल बहुत गौरान्वित थे।  स्वर्णिम पलों को हमने राष्ट्रपति भवन में कैद किया है। विशेष भोज का अनुपम स्वाद लिया।   देश की हर कोने से २० कैटेगरी  की सभी विशेष  महिलाओं से  रूबरू हुए। 
     मै तहे दिल से अपने सभी मित्रों, पाठक और शुभचिंतको  का आभार व्यक्त करना चाहती हूँ। इन  अविस्मरणीय गौरान्वित पलों ने हमें कर्म की ऊर्जा से ओतप्रोत कर दिया है।  मै यह सम्मान पत्र  आप सभी को समर्पित  करती हूँ , इस मुकाम पर आपने ही हमें पहुँचाया है। आप सभी का स्नेह और दुआ इसी तरह मिलती रहें , यही 

कामना है। आप सभी को नमन। हृदय से धन्यवाद।

 मै यही कहना चाहती हूँ बेटियाँ भी किसी से कम नहीं होती है।  
एक सकारात्मक नजरिया समाज में बदलाव ला  सकता है. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ , एक नयी दिशा में कदम बढ़ाओ।  








Thursday, January 14, 2016

समीक्षा - सदी को सुन रहा हूँ मै

जयकृष्ण राय तुषार के नवगीत संग्रह "सदी को सुन रहा हूँ मैं" की सहज अभिव्यक्ति और सरल शैली विशेष रसानुभूति का आभास कराती है।  पाठकों से संवाद स्थापित करते हुए गीत तरलता से दिलों में अपनी गेयता की पदचाप छोड़ते हैं।  और जन जन की मुखर वाणी बन नए उपमान प्रस्तुत करते हैं।  अनेक समसामयिक गीत जनमानस की समस्याओं को इंगित करते हुए अपना पाठक के साथ सीधा तादात्मय स्थापित करते हैं। 

आज के बोझिल व्यस्त वातावरण में जब मधुर संवाद धूमिल होने लगे हैं।  अपराधिक गतिविधियाँ बढ़ रही हैं, लोग दहशत के साये में जीने के लिए बाध्य हैं, संसार गरीबी और बेकारी से त्रस्त है और देश में फैली अराजकता और उथल पुथल हर किसी को व्याकुल कर रही है, गीतकार की संवेदना से निकली वाणी,  संवेदना के धरातल पर पाठक के अंतःस्थल को छूती है।  कवि का हृदय, संगम की पावन भूमि पर पड़ने वाले कदमों को शांति का सन्देश भी देता है और उनके सुख की कामना भी करता है।  संकलन  का प्रथम गीत ओ मेरे दिनमान एक ऐसा ही गीत है।

नए साल में नयी सुबह ले 
ओ मेरे दिनमान निकलना   
संगम पर आने से पहले  
मेलजोल की धारा पढना 
अनगढ़ पत्थर 
छेनी लेकर 
अकबर पन्त निराला गढ़ना 
सबकी किस्मत रहे दही गुड 
नहीं किसी की खोटी लाना 
बस्ती गाँव 
शहर के सारे 
मजलूमों को रोटी लाना 
फिर फिर राहू ग्रहण लायेगा 
साथ लिए किरपान निकलना 

गीतकार ने त्योहारों और ऋतुओं को अपनी कविता का प्रमुख विषय बनाया है। बसंती मौसम का केवल सौंदर्य-वर्णन ही नहीं किया है बल्कि उसके कल्याणकारी स्वरूप से त्रासदी झेल रहे लोगों के जीवन में सुख की याचना भी की है, गीत में मुखरित हुई इन मोहक पंक्तियों को देखिये-

अब की शाखों पर बसंत तुम 
फूल नहीं रोटियाँ लाना 
युगों युगों से प्यासे होठों को 
अपना मकरंद पिलाना  
साँझ ढले स्लम की देहरी पर  
उम्मीदों के दिए जलाना 

माँ का रिश्ता हर रिश्तों से पृथक और अनमोल रिश्ता होता है।  माँ की ममता का आकलन नहीं किया जा सकता है।  माँ खुद के अस्तिव को मिटाकर, बिना स्वार्थ, के सिर्फ स्नेह लुटाना जानती है। यहाँ माँ के पावन रूप को गीतकार ने गंगा नदी की उपमा प्रदान की है।  गंगा नदी और माँ निस्वार्थ बच्चों को अपने अंक में समेट कर रखती है, फिर भी मानव जाति उसकी क़द्र नहीं कर सकी है।  कवि के ह्रदय से निकली हुई इन सटीक  पंक्तियोँ को देखें जिनमें, माँ के प्रति असीम प्रेम भाव उमड़ पड़ा है-

मेरी ही यादों में खोयी
अक्सर तुम पागल होती हो 
माँ तुम गंगाजल होती हो

हम तो नहीं भागीरथ जैसे 
कैसे सर से कर्ज उतारें 
तुम तो खुद ही गंगाजल हो 
तुमको हम किस जल से तारें  

थककर बैठी हुई 
उम्र की इस ढलान पर 
कभी बहा करती थी
यह  गंगा उफान पर

प्रेम एक शास्वत काव्यात्मक अनुभूति है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है, इसमें कोमल अनुभूतियों के पनपने के लिए उपजाऊ भूमि आसानी से तैयार नहीं होती है।  विरोधी, चुभन भरी हवा अपना रंग जमाने के लिए लालायित रहती है।  इस संग्रह में प्रेम की लोकरंजक  अनुभूति  को नवगीत में सुन्दरता और कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।  बेटी, प्रेयसी, पत्नी रोजमर्रा के कार्यो में उलझी नारी के विविध रूपों, उनकी पीड़ा, समर्पण, सौन्दर्य  का गीतकार ने कलात्मक वर्णन किया है।  प्रेम के ये  बसंती रंग, जीवन की  परंपरा को आलोकित कर उसे जीवन के धरातल से जोड़तें हैं।   भिन्न भिन्न भावों की पृथक पृथक अभिव्यति की  बानगी देखें जो नयी ताजगी का अहसास कराते हुए सीधे दिल में उतरती है। 

साँझ चूल्हे के धुएँ में 
लग रहा चेहरा  तुम्हारा 
ज्यों घिरा हो बादलों में 
एक टुकड़ा चाँद प्यारा
रोटियों के शिल्प में है 
हीर राँझा की कहानी 
शाम हो या दोपहर हो 
हँसी, पीढ़ा और पानी 
याद रहता है तुम्हें सब 
कि कहाँ किसने पुकारा 

रंग- गुलालों वाला मौसम 
कोई मेरा गाल छू गया 
खुली चोंच से जैसे कोई
पंछी मीठा ताल छू गया 
जाने क्या हो गया चैत में 
लगी देह परछाई बोने 
पीले हाथ लजाती आँखें 
भरे दही-गुड, पत्तल-दोने 

सागर खोया था लहरों में 
एक अपरिचित पाल छू गया 

प्रेम गीत है, चिडिया है और सुगंध भी है, जयशंकर तुषार के नवगीतों में प्रेम के ये सहज बिम्बात्मक स्वर प्रकृति को अपने में समेटे हुए पाठक के मन को गुदगुदाते हैं। 

अक्षरों में खिले फूलों सी 
रोज साँसों में महकती है 
ख्वाब में आकर मुंडेरों पर 
एक चिड़िया सी चहकती है 

फिर गुलाबी धूप तीखे 
मोड़ पर मिलने लगी है 
यह  जरा सी बात पूरे 
शहर को खलने लगी है 
रेशमी जुड़े बिखरकर 
गाल पर सोने लगे हैं  
गुनगुने जल एडियों को 
रगड़कर धोने लगे हैं 

बिना माचिस के प्रणय की 
आग फिर जलने लगी है 
सुबह उठकर हलद चन्दन 
देह पर मलने लगी है 

तुषार जी के गीतों में राजनितिक और सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करते हुए यथार्थ में पाँव भी जले हैं।  इन गीतों की अभिव्यक्ति, लय, गेयता और शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है।  तुषार जी के लंबे गीत (जो कम से कम ४ अंतरे के हैं) भी अपनी बात ठीक से प्रेषित करते दिखाई देते हैं।  वे लम्बे होते हुए भी नीरस और उबाऊ होने से बचे रहे हैं।  राजनितिक और सामाजिक विसंगतियों के कठिन समय में गीतकार की कलम पलायनवादी, निराशावादी बनकर नहीं चली है अपितु विसंगतियों की परतें खोल रहीं है 
१ 
चुप्पी ओढ़ परिंदे सोये 
सारा जंगल राख हुआ 
वन-राजों का जुर्म हमेशा ही
जंगल में माफ़ हुआ 
२ 
तानाशाही झुक जाती जब 
जनता आगे आती है 
हथकड़ियों जेलों से कोई
क्रांति कहाँ रुक जाती है 
कहाँ अहिंसा से लड़ने की 
हिम्मत है तलवारों में 
३ 
रातें होतीं कोसोवी सी
दिन लगते हैं वियतनाम से 
सर लगता है अब प्रणाम से 
हवा बह रही अंगारे सी 
दैत्य सरीखे हँसते टापू
नंगी पीठ गठरियाँ उन पर 
नोनिहाल हो रहे कबाड़ी 
आप चलाते गाँव-गाँव में 
उम्मीदों की आँगनबाड़ी 
४ 
सोई है यह राज्यव्यवस्था 
मुँह पर पानी डालो 
खून हमारा बर्फ हो रहा 
कोई इसे उबालो 
५ 
कालिख पुते हुए हाथों में 
दिए दिवाली के 
कापालिक की कैद सभी 
मंतर खुशहाली के 
फूलों की घाटी में मौसम की 
हथेलियाँ रँगी खून से 

इस संग्रह के गीतो की भाषा मुहावरेदार हिंदी है।  बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अतिरिक्त आंचलिक शब्दों का प्रयोग पाठक को उसकी माटी से जोड़ता है।  दैनिक जीवन के प्रचलित कई शब्दों से गीत पाठक के आसपास ही घूमते मालूम होते हैं।  मकई पान, रोटी, किरपान, बौर आम, सरसों, गेहूँ, रथ, पल्लू, केसर, परदे, संवस्तर, मादल ,गंगाजल, लॉन कुर्सी, पुलोवर, शावर, डाकिया, रिसालों, चूड़ियाँ, मजदूर, गाझ, चिंगारी, तितली, हरियाली, गुलदस्ता, स्लम, दिया, तिथियाँ, गिरगिट, तालमखाना, पोखर, जूडे, चाय, दर्पण, अजनबी, मेंहंदी, निठल्ले, मोरपंख, स्कूल, कलम, गुस्ताख, कॉफ़ी, दालान, यज्ञ, अर्ध्य, भगवान् , कमीना, सफीना, वालमार्ट, जोंक, तिजोरी, मंहगी गैस, डीजल, टिफिन, कांजीवरम सिल्क, ब्रत ,आरती, पूजा, निर्जला, गोदरेज, टू जी, थ्री जी, दलाल, टोल टैक्स, लाल किला, शापिंग माल, नाख़ून, कैनवास, रिबन, रंगोली, राजमिस्त्री, अनशन, टापू, चाकू, गुर्दा, धमनी, कठपुतली, दफ्तर, कंकड़, यजमान, गारंटी, खनखनाती, फोन टॉस, पंडे, वेद, तुलसी ,सागरमाथा, गेंदा, गुडहल, लैम्पपोस्ट, न्याय सदन, दियासलाई, कालिख, बेताल, लैपटॉप, केलेंडर इत्यादि शब्दों का सहजता से उपयोग हुआ है।  यह शब्द कहीं भी जबरन ठूँसे हुए प्रतीत नहीं हुए हैं, न ही इन शब्दों से गीत की गेयता, शिल्प और लय पर कोई प्रभाव पड़ा है।  
   
युग्म शब्दों का भी नवगीत में बेहद सहजता से सुन्दर प्रयोग हुआ है । दही-गुड, मघई-पान, छेनी-पत्थर, हल्दी-उबटन, नीले-पीले, फूल- टहनियाँ, सुग्गा-दाना, कुशल-क्षेम, लय-गति, वंशी-मादल, घूसर मिटटी, लू-लपट, रिश्ते-नाते, घुटन-बेबसी, हँसते-गाते, बाप-मतारी, बीबी-बच्चे, गंध-कस्तूरी,  पल-छिन, खून-पसीना, भौंरे- फूल, काशी-मदीना, सिताब-दियारा, राग-दरबारी,  साँझ-चूल्हा, हीर-राँझा, राजा-रानी, आँधी-पानी, कूड़ा-कचरा, कोर्ट-कचहरी, सत्य-अहिंसा, दाना-पानी, मुखिया-परधानो, चिरई-चुनमुन, अपने-अपने, जंतर-मंतर,  भाग्य-विधाता, ओझा-सोखा, घर-आँगन, ढोल-मँजीरे, आँख-मिचोनी , पूजित पूजित, आन-बान, साँझ-सुबहो, दफ्तर-थकान, घर-गिरस्ती ,सौ-सौ, पूजा-हवन, कण कण, सँवरा-निखरा, चंपा-चंपा, चम्पई-उँगलियों, धुआँ- धुंध, चिहुंक-चिहुंक, यमुना-गंगा, जन-गन मन, दूध-मलाई, पान-सुपारी, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, चढ़ते-उतरते, साधू-सन्यासी, पल-भर, पक्ष-विपक्ष, सत्य-अहिंसा, लूट-डकैती, दया-धर्म, भूख-बेगारी, जाती-धरम कौवे-चील, हार-जीत, अनेक शब्द सामान्य परिवेश के आसपास घूमते हुए पाठक की बोली का अहसास कराते हैं।  सामान्य जन के आसपास घूमते हुए गीतों में बोल चाल के शब्दों का भरपूर प्रयोग हुआ है।  कुछ कुछ शब्दों  के बिम्ब बहुत सुन्दर प्रतीत हुए हैं । 
  
तुषार जी का यह संकलन एक बार पढ़कर रख देने वाला नहीं है अपितु गीतों की ताजगी का अहसास पाठक को बारम्बार महसूस होता है।  जहाँ गीतों में कसावट और गेयता पाठक को बाँधे रखने में सक्षम है। वहीं सहज रसानुभूति इन्हें स्मृतियों में सहेजती है।  इन्हें पढना सुखद अनुभूति है।  ताजगी से भरपूर इस संकलन हेतु तुषार जी को  हार्दिक बधाई।
--------------------------------------------------------------------------------------
गीत- नवगीत संग्रह - सदी को सुन रहा हूँ मैं, रचनाकार- जयकृष्ण राय तुषार, प्रकाशक- साहित्य भण्डार ५० , चाहचन्द , इलाहबाद - २०११०३२, प्रथम संस्करण-२०१४, मूल्य- रूपये ५०, पृष्ठ १२६, ISBN- ९७८-८१-७७७९-३४३-७, परिचय- शशि पुरवार

Monday, January 11, 2016

दफ्तरों से पल




दफ्तरों से बन गए है,
जिंदगी के पल
शाम से मिलते, थके दिन
रात का आँचल।

अब समय के साथ चलते,
दौड़ते साये
चाँद - तारों सी तमन्ना
हाथ में लाये
नींद आँखों में नहीं है
प्रश्न का जंगल।

अक्स अपना देखते, जब 
रोज दरपन में
भार से काँधे झुके है
रोष है मन में
बस नजर आती नहीं है
इक हँसी निश्छल।

धूप बैठी हाशिये पर
ढल गया यौवन
भीड़ में कुछ ढूँढता है
यह प्रवासी मन
रात गहराने लगा है
आँख का काजल।
      ---- शशि पुरवार

Friday, January 1, 2016

हौसलों के गीत गाओ


साल नूतन  आ गया है कुछ नया करके दिखाओ
स्वप्न आँखों में सजाकर हौसलों के गीत गाओ.

द्वेष, कुंठा, खूँ - खराबा रात्रि गहराने लगी है
लाख गहराये अँधेरा एक दीपक तुम जलाओ.

तोड़ दो खामोशियों को जुल्म को सहना नहीं है
जुल्म के हर वार रोको भीत नफरत की हटाओ.

खिड़कियों से झाँकती जो एक टुकड़ा धूप छनकर
आस की वैसी किरण बन, हर तिमिर जग से मिटाओ.

दुर्गुणों का अंत हो, हो  अंतरात्मा की सफाई
देश में चैनो अमन हो, राग  मिलकर गुनगुनाओ.

नव सुबह का खुश नजारा ,हर पनीली आँख देखे
वेदना के स्वर मिटाकर इक हँसी बन खिलखिलाओ.

चिलचिलाती धूप जब पाँवों में डाले बेड़ियां, तब
फिर कहे शशि छंद रचकर जय  को गुनगुनाओ.  
   --- शशि पुरवार

Tuesday, December 22, 2015

चैन लूटकर ले गया। .......


  
Image result for smiley
                  फेसबुकी दुनिया के तिलिस्मी रिश्ते !   जी हाँ  यह प्यार भरी  यह प्यारी दुनियां - नैनों का तारा बन चुकी हैइसके पहले हम बात कर रहे थे दर्शन से प्रदर्शन तक।  इस बहती गंगा में न जाने कितने  संपादकों  का  क्या क्या गरम  हो रहा है।  किसी का माथा, किसी का बिस्तर , किसी की जेब। और भी न जाने क्या क्या !  यह अपने आप में स्वतंत्र शोध का विषय है। फेसबुकी रचनाकारों की फेसबुकी किताबें छप रही हैं।  जीवन की किताब अब डिजिटल किताब बन चुकी है। अब थूक लगाकर पन्ने नहीं पलटने पड़ते हैं  माउस से काम हो जाता है।  वर्षों पुराने रिश्ते जी उठे हैं।  आदमी आदमी का हो गया है।  फेंटेसी  सच्चाई बन गयी है।  पहले परिवार  का दायरा सिमित  थाअब अपरिमित है। फेसबुक पर ही जन्मदिन मन रहा है और वहीँ श्रद्धांजलि भी दे दी जा रही है।  परिवार का कौन सदस्य क्या कर रहा है, उसकी रूचि कुरुचि क्या है,  इसकी जानकारी भी अब फेसबुक से  मिलती है, कौन कहाँ जा रहा है कौन किसके साथ पार्टी मना रहा है, कौन घर आ रहा हैं,  कौन किसके फोटो लाइक कर रहा है, किसके टाँके किससे भिड़े है, यह फेसबुक पर  जासूसी हो रही है।  मगर अब कौन डरता है, जो जहाँ मरता है वह कहीं और भी मरता है - ये वाला जमाना आ गया है। 
                 
        कोई  बहती गंगा में हाथ धो रहा है कोई आँखों के समंदर में डूब रहा है। ये फेसबुक जो न कराये।  अजी आजकल कार्टून कौन देखता हैलोग स्वयं इसका हिस्सा बने हुए हैंइस चैनल की जगह फेसबुकी दुनियां ने ले ली है. फेसबुक पर एक से एक कार्टून भरे पड़े हैं. चाहे जिससे दिल लगाओ। 
                  
              कभी कभी मन में विचार आतें है कि  यदि यह  फेसबुक न होगा तो लोगों का क्या होगा?  यह फेसबुक किसी दिन नहीं रहेगा तो क्या होगा ? सारे लोग पगला जायेंगे।  पता नहीं कौन सा कदम उठा जायेंगे। कहाँ करेंगे लोग टाइम पास।  कहाँ लिखेगी भड़ास बहु, जब दुखी होगी सास ! कहाँ लेंगे कवि लोग चांस ! फेसबुक नहीं होगा तो सेल्फ़ी कहाँ लगाएंगे ? यह सेल्फ़ी का युग है।  हर आदमी सेल्फ़ी है।  दफ्तर से लेकर घर तक की सेल्फ़ी - सेल्फ़ी। सड़क से लेकर संसद तक।  कई लोग सेल्फ़ी खींचने के लिए ही कहीं आते -जाते हैं।  यह नया दौर है, नया नशा है। 

                 यह दुनियां अब शराब की ऐसी बोतल के समान है जिसका नशा उतरने का नाम  ही नहीं लेता हैऔर यह शराब नसों में घुलकर उन्माद की परिकाष्ठा तक पहुँचा रही हैहाय जब यह न होगा तो मजा कैसे आएगा।  किसे अपने किचन से बैडरूम तक की तस्वीरें दिखाएंगे ? क्या लाइक करेंगे ? कहाँ कमेंट्स करेंगे। यह लाइकबाजी और कमेंट्सबाजी का दौर है।  
               यहाँ हर रिश्ता जायज  है, रिश्ते को नाम न दो।  लोग खुलकर बोल रहे हैं।  खुलकर अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे हैं।  भावनाओं की चाँदी है और कामनाओं की भी।  प्रीत के तार ऐसे जुड़ें हैं कि टूटने का नाम ही नहीं लेते हैंनैन मटक्का अब चैन मटक्का बनता जा रहा हैकुछ नए रिश्ते गुदगुदा रहें है, कुछ प्रीत की डोर से बँधने के लिए तैयार बैठें हैं।  कुछ रिश्तें सेलिब्रिटी बनकर अपने जलवे दिखा रहें है.  चैन लूटकर ले गया बैचेन कर गया  ........ यहाँ हर आदमी बैचेन हैं।  कोई कुछ पाने के लिए कोई कुछ खोने को।  
                                                 .-- शशि पुरवार 

Friday, December 11, 2015

जिंदगी के इस सफर में भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ।


Image result for nature images

जिंदगी के
इस सफर में
भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ
गीत हूँ मै,
इस सदी का
व्यंग का किस्सा नहीं हूँ.

शाख पर
बैठे परिंदे
प्यार से जब बोलतें है
गीत भी
अपने समय की
हर परत  को खोलतें हैं
भाव का
खिलता कँवल हूँ
मौन का भिस्सा नहीं हूँ।

शब्द उपमा
और रूपक
वेदना के स्वर बनें हैं
ये अमिट
धनवान हैं जो
छंद बन झर झर झरे हैं
प्रीति का मधुमास हूँ
खलियान का मिस्सा नहीं हूँ

अर्थ
बिम्बों में समेटे
राग रंजित मंत्र प्यारे
कंठ से
निकले हुए स्वर
कर्ण प्रिय
मधुरस नियारे
मील का
पत्थर बना हूँ
दरकता
सीसा नहीं हूँ।
-- शशि पुरवार 




Saturday, December 5, 2015

थका थका सा दिन




थका थका सा
दिन है बीता
दौड़ -भाग में बनी रसोई
थकन  रात
सिरहाने लेटी
नींद नहीं आँखों में सोई

रोज पकाऊ
दिनचर्या की
घिसी पिटी सी परिपाटी
नेह भरे
झरनों से वंचित
सम्बन्धो  की सूखी घाटी

कजरारी
बदली ने आकर
नर्म धूप की लटें भिगोई

साँस साँस पर
चढ़ी  उधारी
रहने का भी नहीं ठिकाना
संध्या के
होठों पर ठहरा
ठंडे संवादों का बाना

उमर निगोड़ी
नदी किनारे
जाने किन सपनों में खोई

नहीं आजकल
दिखते कागा
पाहुन का सन्देश सुनाते
स्वारथ के
इस अंधे युग में
कातिल धोखे मिलने आते

गन्ने की
बदली है सीरत
फाँखे भी है छोई छोई।
--- शशि पुरवार

Wednesday, December 2, 2015

समय छिछोरा












खाली खाली मन से रहते,
तन है जैसे टूटा लस्तक
जर्जर होती अलमारी में,
धूल फाँकती, बैठी पुस्तक।

समय छिछोरा,
कूटनीति की
कुंठित भाषा बोल रहा है
महापुरुषों की
अमृत वाणी
रद्दी में तौल रहा है
अर्थहीन, कटु कोलाहल
सुन सुन
घूम रहा है मस्तक।

शरम- लाज,
आँखों का पानी
सूख गयी है आँख नदी
गिरगिट जैसा
रंग बदलती
धुआं उड़ाती नयी सदी
अर्धनग्न कपड़ें को पहने
द्वार पश्चिमी गाये मुक्तक.

खून पसीना,
छद्म चाँदनी
निगल रही है  अर्थव्यवस्था
आदमखोर
हुई महंगाई
बोझ तले मरती हर इक्छा
यन्त्र चलित
हो गयी जिंदगी
यदा कदा खुशियों की दस्तक.
    -- शशि पुरवार

अंतर्राष्ट्रीय नवगीत महोत्सव की काव्य संध्या में प्रस्तुत किया गया यह नवगीत। 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

https://sapne-shashi.blogspot.com/

linkwith

http://sapne-shashi.blogspot.com