Friday, April 21, 2017

पॉँव जलते हैं हमारे "




शाख के पत्ते हरे कुछ
हो गए पीले किनारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।

मिट रहे इन जंगलों में
ठूँठ जैसी बस्तियाँ हैं
ईंट पत्थर और गारा
भेदती खामोशियाँ है

होंठ पपड़ाये  धरा के
और पंछी बेसहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।


चमचमाती डामरों की
बिछ गयी चादर शहर में
लपलपाती सी हवा भी
मारती  सोंटे  पहर में

पेड़ बौने से घरों में,
धूप के ढूंढें सहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।

गॉँव उजड़े, शहर रचते

महक सौंधी खो गयी है
पंछियों के गीत मधुरम
धार जैसे सो गयी है.

रेत से खिरने लगे है

आज तिनके भी हमारे
नित पिघलती धूप में,ये
 पॉँव जलते है हमारे

    ------ शशि पुरवार

पर्यावरण संरक्षण हेतु चयनित हुआ नवगीत।  पर्यावरण संगठन का आभार। 


Monday, April 17, 2017

फेसबुकी मूर्खता -



दर वर्ष दर  हम मूर्ख दिवस मनाते हैं, वैसे सोचने वाली बात है, आदमी खुद को  ही मूर्ख  बनाकर खुद ही आनंद लेना चाहता है, यह भी परमानंद है। हमारे संपादक साहब  मीडिया इतना पसंद है कि वह हमें इससे भागने का कोई मौका नहीं देना चाहतें हैं। आजकल सोशल मीडिया  हमारी दिन दुनियाँ बन गया है. 
    आदमी मूर्खता  न करे तो क्या करे।  मूर्ख बनना और बनाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।  सोशल मीडिया पर इतने  रंग बिखरे पड़ें  है कि मूर्ख सम्मलेन आसानी से हो सकता है, पूरी दुनियाँ आपस जुडी हुई है। लोगों को मूर्ख बनाना जितना सरल है  उतना ही खुद को मूर्ख बनने देना अति सरल है। उम्मीद पर दुनिया कायम है, हम सोचतें है सामने वाला कितना सीधा है हम उसे मूर्ख बना रहे हैं , लेकिन जनाब हमें क्या पता हम उसी का निशाना बने हुए हैं।   कहते हैं न रंग लगे न फिटकरी रंग चौखा चौखा। ....  वैसे मजेदार है, ना जान, ना पहचान फिर भी मैँ तेरा मेहमान।  खुद भी मूर्ख बनो औरों को भी मूर्ख बनाओ। झाँक तांक करने की कला कारी दुनियाँ को दिखाओ। यह कला यहाँ बहुत काम आती है, चाहो या ना चाहो जिंदगी का हर पन्ना आपके सामने मुस्कुराता हुआ खुल जाता है। मजेदार चटपटे किस्से नित दिन चाट बनाकर परोसे जातें है। 
  यहाँ हर चीज बिकाऊ है, इंसान यहाँ खुद का विज्ञापन करके खुद को बेचने में लगा हुआ है।  जितना मोहक विज्ञापन आप रटने बड़े सरताज। असल जिंदगी के कोई देखने ही नहीं आएगा कौन राजा कौन रंक. कुछ शब्द - विचार लिखो और खुद ही मसीहा  बनो,  एक तस्वीर  लगाओ  व  किसी की स्वप्न सुंदरी या स्वप्न राजकुमार बनो.  मुखड़े में कुछ  ऐब हो तो ऐप से दूर करो, कलयुग है सब संभव है।              मित्रों  मूर्खो का खुला साम्राज्य आपका स्वागत करता है। आनंद ही आनंद व्याप्त है,  आजकल  सोशल मीडिया बड़ी खूबसूरती से लोगों का रोजगार फैलाने में बिचोलिया बना हुआ है जो चाहे वह बेचों, दुकान आपकी, सामान आपका, मुनाफा नफा उसका। भाई यहाँ सब बिकता है।  
    मस्त तीखा - मीखा  रायता फैला हुआ है.  खाने का मन नहीं हो तब भी खुशबु आपको बुला ही लेती है.  कौन किसको कितना मूर्ख बनाता है.  प्रतियोगिता बिना परिणाम के चलती रहती है. छुपकर मुस्कान का आनंद कोई अकेले बैठकर लेता है,  एक मजेदार वाक्या हुआ , किसी महिला ने पुरुष मित्र के आत्मीयता से बातचीत क्या कर ली कि वह तो उसे अपनी पूंजी समझने लगा, यानी बात कुछ व उसका अर्थ कुछ और पहुँचा है. दोनों को लगता है दोनों एक - दूजे को चला रहें है वास्तव में दोनों ही मूर्ख बन रहें हैं। 

                    एक किस्सा याद आया, हमारे  शर्मा जी  के यहाँ का  चपरासी बहुत बन ठन कर रहता था, मजाल है कमीज को एक भी  सिलवट भी  आये. सोशल मीडिया में सरकारी ऑफिसर से अपनी प्रोफाइल बना रखी है।  शानदार  रौबदार तस्वीर, इतनी शान कि अच्छे अच्छे शरमा जाएँ।  शर्मा जी दूसरे शहर से अभी अभी तबादला लेकर आये थे। दोनों सोशल मित्र थे, बातचीत भी अच्छी होती थी.  निमंत्रण दिया, मित्र सपिरवार आएं, लेकिन जब खुद के ऑफिस में  एक दूसरे को देखा,  तब जाकर सातों खून माफ़ किये, लो जी कर लो तौबा और खाओ पानी - बताशे( फुलकी ), भाई मिर्ची न हो तो खाने का स्वाद कैसा।उसमे जरा लहसुन मिर्ची और मिलाओ तभी पानी - बताशे खाने में असली आनंद आएगा। जी हाँ यही जीवन का परम सत्यानंद है। पहले ज़माने में लोग सोचा करते थे, कैसे व किसे मूर्ख बनाये, वास्तव में  आज सोचने की जरुरत ही नहीं है।  अब कौन तो कौन कितना मूर्ख बनता है यह मूर्ख बनने वाला ही समझता है।  जब तक जलेबी न खाओ और न खिलाओ जीवन में आनंद रस नहीं फैलने वाला है। वैसे सोचने वाली बात हैं सोशल मीडिया के दुष्परिणाम बहुत हैं लेकिन जीवन को आमरस की महकाने में यही कारगर सिद्ध हुआ है, कहीं किसी घर में किसी महिला -  पुरुष की लाख अनबन हो वह यहाँ एक दूजे के बने हुए है।  घर में रोज झगड़ते होंगे लेकिन सोशल हम तेरे बिन कहीं रह नही  पाते। .... गाते हुए नजर आतें हैं।   कोई कितनी भी साधारण शक्ल - सूरत का क्यों न हो यहाँ मिस / मिसेस / मिस्टर वर्ल्ड का ख़िताब जरूर पाता है।  तो बेहतर है हम नित दिन खुद को भी मूर्ख बनाये और ख़ुशी से खून बढ़ाएं।   खुद पर हँसे,  खुद पर मुस्कुराएँ, तनाव को दूर भगायें, जिंदगी को सोशल बनायें आओ  हम मिलकर मूर्ख दिवस  बनाएं।  

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Monday, March 27, 2017

कातर नजरें

भीड़ भरे शहरों में जीना  
मुश्किल लगता है 
धूल धुआँ भी खुली हवा में 
शामिल लगता है 

कोलाहल की इस बस्ती में 
झूठी सब  कसमें 
अस्त व्यस्त जीवन जीने की 
निभा रहे रसमें
सपनों की अंधी नगरी में   
धूमिल लगता है 

सुबह दोपहर, साँझ, ढले तक 
कलरव गीत नहीं 
कहने को सब संगी साथी 
पर मनमीत नहीं
एकाकीपन ही जीवन में   
हासिल  लगता है

हर चौखट से बाहर आती  
राम कहानी है 
कातर नज़रों से बहता, क्या  
गंदा पानी है 
मदिरा में डूबे रहना ही
महफ़िल लगता है 
 शशि पुरवार  

Wednesday, March 22, 2017

शूल वाले दिन

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अब नहीं मिलते डगर में
फूल वाले दिन 
आज खूँटी पर टंगे हैं 
शूल वाले दिन 

परिचयों की तितलियों ने 
पंख जब खोले 
साँस को चुभने लगे फिर  
दंश के शोले 
समय की रस धार में 
तूल वाले दिन 

मधुर रिश्तों में बिखरती 
गंध नरफत की 
रसविहीन होने लगी  
बातें इबादत की 
प्रीत का उपहास करते 
भूल वाले दिन। 

आँख से बहता नहीं 
पिघला हुआ लावा 
चरमराती कुर्सियों  का 
खोखला  दावा 
श्वेत वस्त्रों पर उभरते 
धूल वाले दिन। 
 - शशि पुरवार 

Monday, March 20, 2017

उड़ान का आभाष

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सपने जीवन का अभिन्न अंग हैं, मैंने भी कई सपने देखे लेकिन जिंदगी में सभी सपने सच होते चले जायेंगे सोचा न था. सपने अच्छे भी देखे तो दुखद स्वप्न भी देखे, सत्य यह भी है कि जिंदगी ने बहुत दर्द से रूबरू कराया। मेरा मानना है कि दर्द को क्यों जाहिर किया जाये वह सिर्फ दुःख ही देता है। इसीलिए अच्छा स्वप्न ही साझा करना चाहूँगी. बचपन का एक स्वप्न अवचेतन मन में आकर जैसे बस गया था। १० -११ वर्ष की उम्र में चंचलता और स्वप्न का सुन्दर तालमेल था, ढेर सारे सपने मन के आँगन में रंगोली बना रहे थे। सादा जीवन उच्च विचार मन को आकर्षित करते थे। आँखों में तीन स्वप्न थे जिसमे से एक की राह चुननी थी। सफल डॉक्टर बनना, सफल बिज़निस टॉयकून बनना या नेवी की अफसर बनना। लेकिन एक बार ऐसा स्वप्न देखा जिसे भूल नहीं सकी. जीवन की कठिन राहों पर स्वयं को लेखिका बनकर लोगों के बीच जीवित देखा कि मैं इस दुनिया से चली जाऊं किन्तु मेरे शब्दों के माध्यम से सबके समीप जीवित रहूंगी। स्वयं को लेखिका धर्म निभाते हुए देखना असमंजस में डाल गया था। खैर इसे स्वप्न समझ कर छोड़ भी दिया। अंतर्मुखी संवेदनशील स्वभाव के कारण अनुभूति को शब्दों में ढालना सदैव पसंद था, लेकिन उसे कभी प्रोफेशन के रूप में नहीं देखा था। जिंदगी की राहें अलग अलग राहों पर चलकर आगे अपनी राह बना रही थीं. पढाई पूरी होते ही नौकरी ज्वाइन की, लेखन जीवन का अभिन्न अंग था डायरी के पन्नो से निकालकर कब वह भी उड़ान भरने लगा इसका आभाष नहीं हुआ। हालाँकि हिंदी से अध्यन भी नहीं किया किन्तु कलम की अभिव्यक्ति का मार्ग कभी न छूट सका, कलम निरंतर बिना किसी चाहत के चलती रही, पारिवारिक बंधन व जिम्मेदारी के तहत नौकरी छोड़ी लेकिन कुछ कर गुजरने की आशा न छूट सकी. जब भी किसी ने तंज कसा कि क्रांति वादी विचार थे कि महिला को कुछ करना चाहिए। अब क्या करोगी,तब लोगों को प्रतिउत्तर नहीं दिया, मौन ही उसका उत्तर था। जिंदगी में इसी बीच ऐसी मार दी जिससे उबरना मुश्किल था, नामुमकिन नहीं। तन की मार से अपाहिज महसूस करती लेकिन मन के उद्गार उड़ान का आभाष कराते थे . कलम की ताकत व कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति ने कब इसे मेरी जिंदगी बना दिया इसका एहसास बहुत बाद में हुआ। पाठकों ने अपने दिलों में स्थान देकर स्नेह वर्षा द्वारा जैसे मन के घावों को भर दिया। लेखन कब पन्नों से निकलकर दबे हुए स्वप्न को साकार कर गया, स्वयं ज्ञात न हुआ , आज सिर्फ इतना याद है कि ऐसा कोई स्वप्न देखा था, जिसे सोचकर मन ही मन मुस्कराहट आती थी। मैंने सिर्फ सतत कर्म किया, फल की चिन्ता कभी नहीं की, शायद नियति में यही तय था। स्वप्न साकार होते हैं, स्वप्न जरूर देखें। स्वप्न देखने व जीने की कोई उम्र नहीं होती है।
      -- शशि पुरवार 

Saturday, March 11, 2017

स्नेह रंग



गली गली में घूम रही है 
मस्तानों की टोली 
नीले, पीले, रंग हठीले 
आओ खेलें होली 

दरवाजे पर आँख  गड़ी है 
हाथों में गुब्बारे
सबरे खेलें आँख मिचौली 
मस्ती के फ़ब्बारे 

भेद भाव सब भूल गए 
बिखरी हँसी ठिठोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली।

सखा -सहेली मिलकर बैठे 
गीत फाग के गाएं 
देवर- भाभी, जीजा - साली
स्नेह रंग बरसाएं 

सजन उड़ाए, रंग गुलाबी 
रंगी प्रिय की चोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली।

भाँति भाँति के पकवानों की 
खुशबु ने भरमाया 
बिना बात की किलकारी ने 
भंग का रंग, बरसाया  

फागुन के रंगों में डूबे 
भीग रहे हमजोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली
शशि पुरवार 

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ 




Tuesday, March 7, 2017

फागुनी दोहे - उत्सव वाले चंग



१ 

छैल छबीली फागुनी, मन मयूर मकरंद 
ढोल, मँजीरे, दादरा, बजे ह्रदय में छंद।  
 २ 
मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग 
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग। 
 ३ 
फगुनाहट से भर गई, मस्ती भरी उमंग
रोला ठुमरी दादरा, लगे थिरकने अंग। 
 ४ 
फागुन आयो री सखी, फूलों उडी सुगंध 
बौराया मनवा हँसे, नेह सिक्त अनुबंध। 
 ५ 
मौसम में केसर घुला, मदमाता अनुराग 
मस्ती के दिन चार है, फागुन गाये फाग। 
६ 
फागुन में ऐसा लगे, जैसे बरसी आग 
अंग अंग शीतल करें, खुशबु वाला बाग़.
७ 
हरी भरी सी वाटिका, मन चातक हर्षाय
कोयल कूके पेड़ पर, आम सरस ललचाय। 
८ 
सुबह सबेरे वाटिका, गंधो भरी सराय 
गर्म गर्म चुस्की भरी, पियें मसाला चाय।
 ९ 
होली की अठखेलियाँ, मस्ती भरी उमंग 
पकवानों में चुपके से, चढ़ा भंग का रंग 
 १०  
सरसों फूली खेत में, हल्दी भरा प्रसंग
पुरवाई से संग उडी, दिल की प्रीत पतंग 
 ११
हल्दी के थापे लगे, मन की उडी पतंग। 
सखी सहेली कर रहीं, कनबतियाँ रसवंत।

  -- शशि पुरवार 

मधुरिमा दैनिक भास्कर में प्रकाशित दोहे - 


Thursday, March 2, 2017

कहीं प्रेम कहीं शब्दो की होली



फेक का अंग्रेजी अर्थ है धोखा व फेस याने चेहरादुनिया में आभाषी दुनिया का चमकता यह चेहरा एक मृगतृष्णा के समान है जो आज सभी को प्यारा मोहित कर चुका हैनित्य समाचार की तरह सुपरफास्ट खबरे यहाँ मिलती रहती है.कहीं हँसी के ठहाकेकहीं आत्ममुग्ध तस्वीरेंकहीं प्रेमकहीं शब्दों की बंदूकेंबड़े पन का एहसासजैसे आज दुनियाँ हमारे पास है,जैसे दुनियाँ बस एक मुट्ठी में समां गयी है



  होली का त्यौहार भी बहुत रंगीन होने लगा है फेसबुक ने हमारी दुनिया में ऐसा कदम रखा है कि भूत भविष्य व वर्तमान साथ चलने लगे हैं, जी हाँ आप इस वर्ष होली खेलेंगे किन्तु  पुरानी यादों के साथ, फेसबुक आपकी  पुरानी यादें आपको पग पग पग पर तस्वीर या वीडियो बनाकर तोहफे में देता है, लो भाई हो गयी होली रंगीन।इसके रंग भी उतने ही खूबसूरत हैं. जहाँ महकती यादें गुदगुदाती हैं वहीँ बेरंगी यादें जिन्हें हम याद करना भी नहीं चाहतें है, वह आभाषी दुनिया हमें भूलने नहीं देती है.


  जी हाँ, जनाब हमें शर्मा जी को देखकर तरस खाने को जी चाहता है।हमारे शर्मा जी फेसबुक पर जवान होकर नयन मटक्का कर रहे थे और होली के दिन यही मटक्का उन पर भारी पड़ गया, आदतन फेसबुक ने अपने जोहर दिखाए और सारी बातचीत रिश्तें अचानक बिन मौसम बरसात की तरह होली के दिन सबके समक्ष हाजिर होकर अपना रंग बरसा रहे थे। उनकी बीबी को काटो  तो खून नहीं वाले हालात थे, बमुश्किल गृहस्थी की नैया संभली, तिस पर फिर होली के दिन फेसबुक फिर यही तोहफा देने पर आमादा है, होली के दिन भांग का अपना महत्व है लेकिन अब सोशल मीडिया की भांग का नशा सबके सर पर चढ़ कर बोलने लगा है।जहाँ एक तरफ रंगीन दुनियां है वहीँ उसके ऐसे रंग जो कभी मिटाये नहीं मिटेंगे। शायद हम मिट जाये, पर यह रंग अमर हो जायेंगे और इन रंगों में डूबे हुए आसमान से खुद को देखेंगे। हम वर्ष में एक दिन होली खेलते हैं, फेसबुक हर दिन, हर पल, नैनों से, शब्दों - बातों की, सुलगती पींगों से होली खेलता है. कहीं दिल सुलगते हैं कहीं घर जलते हैं, लेकिन होली के रंग जीवन में यूँ ही मुस्कुरातें गुदगुदाते बरसते हैं। होली में छेड़खानी न हो, शर्म से पानी- पानी ना हो तो होली कैसी।सोशल मीडिया में तस्वीरें पोस्ट करने के लिए लोग होली न खेलें किन्तु रंग लगाकर अपनी तस्वीरें जरूर पोस्ट करेंगे, सत्य कौन देखता है आज तस्वीरें बोलती है. छाया चित्रों का जमाना है तो छाया वादी होली हो क्यों संभव नहीं। 


                आज सुबह से श्रीमती जी हमें भी अपने शब्द वाणों से रंग लगा रही थी, हमारे नैना सोशल मीडिया से चार होने के लिए बेताब थे. दिल की हसरतें बाहर बरसना चाहती थी किन्तु घर का रंग, बदरंग न हो जाये हमने चुप चाप गुलाबी रंग लगाकर घर का माहौल भी गुलाबी करने का मन बना लिया। आखिर जाएँ भी तो कहाँ जाएँ ? चाय पकोड़े का नशा उतरने को तैयार नहीं था, हमने हाथों में  मोबाइल से नैना चार करके गुपचुप अपनी होली को  अंजाम दे दिया। क्या करें और किसी को छेड़ना मना है। 


                     आज किसी  व्यंग्यकार को रंग लगाना जैसे आ बैल मुझे मार वाली बात करना है , बैल तो फिर भी मार कर जख्मी करेंगे जिसका इलाज कोई वैध कर देगा, घाव भर जायेगा लेकिन व्यंगकार के रंग इतने पक्के होते है कि उनके गुब्बारे की मार के निशान कई वर्षो तक  देख सकतें है. रंग भी ऐसा  कि साबुन की टिकिया ख़त्म हो जाएगी पर रंग न निकलेगा, पक्का रंग उन्ही की झोली में छुपा होता है. कहतें हैं न हींग लगी न फिटकरी फिर भी रंग चोखा चोखा।  मिठाई भी इतनी चोखी रखें कि खाये बिन मजा न आये,  हसगुल्ले हभी ऐसे खिलावें कि न निगलते बने न खाते बने. इनके रंग  तीर के ऐसे लगे होते हैं कि लगते ही  पूरे शरीर को रंग देते हैं।  एक तीर छोड़ा तो रंगने वाला खुद आकर पानी में डुबकी लगा लेता है।  हाय ऐसे रंग सीधे दिल से निकालकर दिल को भेद रहे थे। होली है तो बिना गुझिया के काम  चलेगा, आज सोच रहें है बाजार से गुझिया खरीद लें , और गत वर्ष कुल्फी खायी थी वही जाकर खा लेंगे, उसका नशा कुछ अलग ही होता है 
 होली की रंग भरी मस्ती भरी शुभकामनाएँ - शशि पुरवार 

Thursday, February 16, 2017

बेनकाब हो जाये - गजल

शहर में इंकलाब हो जाए 
गॉँव भी आबताब हो जाए  १ 

लोग जब बंदगी करे दिल  से 
हर नियत मेहराब हो जाए  २ 

हौसले गर बुलंद हो दिल में 
रास्ते कामयाब हो जाए ३  

ज्ञान का दीप भी धरूँ मन में 
जिंदगी फिर गुलाब हो  जाए ४ 

दो कदम साथ तुम चलो मेरे 
हर ख़ुशी बेनकाब हो जाए५ 

कौन रक्षा करे असूलों की 
बद नियत जब जनाब हो जाए ६ 

जुस्तजू है, सृजन करूँ  कैसे
हाल ए दिल शराब हो  जाए ७ 

इक तड़पती गजल लिखूं कोई 
हर पहेली जबाब हो जाए.८ 

पास आये कभी चिलक दिल में 
फिर कहे शशि किताब हो जाए ९ 
शशि पुरवार 
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Friday, February 10, 2017

समर्पण भाव







अनवरत चलते रहें हम 
भूल बैठे मुस्कुराना 
है यही अनुरोध तुमसे  
बस ख़ुशी के गीत गाना।

फर्ज की चादर तले, कुछ 
मर गए अहसास कोमल 
पवन के ही संग झरते 
शाख के सूखे हुए दल 

रच गया बरबस दिलों में 
औपचारिकता निभाना 
है यही अनुरोध तुमसे  
बस ख़ुशी के गीत गाना
  
नित सुबह से शाम ढलती 
दंभ,दरवाजे खड़ा है  
रस  विहिन इस जिंदगी में 
शून्य सा बिखरा पड़ा है। 

क्षुब्ध मन की पीर हरता 
प्रीति का कोमल खजाना 
है यही अनुरोध तुमसे  
बस ख़ुशी के गीत गाना।

साँस का यह सिलसिला ही 
वक़्त पीछे छोड़ता है 
हर समर्पण भाव लेकिन 
तार मन के जोड़ता है.
मैं कभी रूठूँ जरा सा, 
तुम तनिक मुझको मनाना। 
है यही अनुरोध तुमसे 
बस ख़ुशी के गीत गाना। 
     ---- शशि पुरवार 
  

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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