Monday, June 4, 2018

टेढी हुई जुबान


भोर हुई मन बावरा, सुन पंछी का गान
गंध पत्र बाँटे पवन, धूप रचे प्रतिमान 
 

पानी जैसा हो गया, संबंधो में खून
धड़कन पर लिखने लगे, स्वारथ का कानून 
 

आशा सुख की रागिनी, जीवन की शमशीर
गम की चादर तान कर, फिर सोती है पीर


सोने जैसी जिंदगी, हीरे सी मुस्कान
तपकर ही मिलता यहाँ, खुशियों का बागान
 

जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास 
 

सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज


सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज


उपकरणों का ढेर है, सुविधा का सामान
धरती बंजर हो रही, मिटे खेत खलियान


फिसल गई ज्यों शब्द से, टेढी हुई जुबान
अपना ही घर फूंकते,विवादित से बयान


मन भी गुलमोहर हुआ, प्रेम रंग गुलजार
ह्रदय वसंती मद भरा ,गीत झरे कचनार 
 

समय लिख रहा माथ पर,उमर फेंटती ताश
तन धरती पर रम रहा, मन चाहे आकाश


संवादों में हो रहा, शब्दों से आघात
हरा रंग वह प्रेम का, झरते पीले पात

शशि पुरवार  

Monday, May 14, 2018

विचारों में मिलावट

वक़्त बदल गया है। विचारों में भी मिलावट हो रही है।  साहित्य व व्यंग्य भी खालिस नहीं रहा। हर तरफ मिलावट ही मिलावट है।  मिलावट कहाँ नहीं है ... विचार, साहित्य,व्यंग्य, राजनीति विज्ञान ,संचार माध्यम  ..... ऐसा कोई क्षेत्र शेष नहीं है जो मिलावट से ग्रस्त न हो। अब आप सोचेंगे इनमे  मिलावट कैसे हो सकती है।  दूषित विचार अपना प्रभाव दिखातें ही है।  हर कोई अपनी काली कामना पूर्ति में लगा हुआ है। यौन पिपासा, कामुक विचार हमारे तथाकथित खुलेपन और पोर्न तस्वीरों की देन हैं। भोजन अशुद्ध होगा तो विचार भी अशुद्ध आएंगे। शाकाहारी छोड़ माँसाहार का सेवन आखिर पशु के हार्मोन आप अपने शरीर में डाल रहें है। दिमाग भी पशु की तरह इधर उधर मुँह मारेगा ही। पशु व इंसान में फर्क ही कहाँ बचा।  प्रकृति में जो है उसे नष्ट करना मानव ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार बना लिया है। मानवी अंग भी कृतिम बनाकर लगाए जाते है।  वास्तविकता कहाँ शेष है।
  
             मिलावट का दायरा बढ़ने लगा है।  दुष्कर्म, क्राइम, चालबाजी इतनी बढ़ गयी है कि किसी सच्चे इंसान को भी हम अपनी मिलावटी नजर से देखने लगे हैं। वैसे आज के समय सच्चा इंसान भी दूरबीन लेकर खोजना होगा।  घर के बड़े बुजुर्ग हो या अपना - पराया।  हर कोई आँखों में खटक रहा है।  मीडिया भी वही परोस रही है, जो न सीखें हो वह भी देखकर सीख जाएँ। समाज को दिमागी फितूर की आदत इस मिलावटी दुनियां ने डाली है.  मिलावट ने इतना प्रचंड रूप  धारण किया है कि हमें हर व्यक्ति मिलावटी लगने लगा है। दुष्कर्मी कृत्य करके उसे धर्म का जामा पहनाने का प्रयत्न करता है।  अब महिला और पुरुष  धर्मानुसार शारीरिक बनावट पृथक कैसे हुई, यह गुत्थी समझ नहीं आयी। धर्मानुसार नाक कान अलग अलग होते हैं ?  यह उनकी जगह बदल जाती है। यह सुनने के बाद मन में विचार आया कि धर्म के अनुसार शरीर का अध्यन भी किया जाये।  
        
         आज मन में ख्याल आया कि कभी एक समय था जब हम विशुद्ध खाद्य सामग्री का उपयोग करते थे। हर तरफ खुशहाली थी।  लहलहाती फसलों  के साथ लहलहाते रिश्ते भी थे। सुविधा के साधन कम थे किन्तु मन को सुकून ज्यादा था।  पुरानी पीढ़ी ने हमें विश्वास, सुरक्षा और  अपनत्व प्रदान किया किन्तु न जाने कहाँ चूक हो गयी।  इंसान ज्यादा चतुर हो गया। अनाज व धान्यों में कंकर मिलाना शौक बन गया। दूध में पानी मिलाने लगे. धीरे धीरे कमोवेश सभी खाद्य सामग्री मिलावट के घेरे में आ गयी।  आज पानी में  दूध मिलातें हैं।  हद तो तब हो गयी जब पानी में रंग शक्कर मिला कर दूध ही बना लिया। दूध में झाग बनाने के लिए रासायिनक पाउडर मिलाने लगे।  किसी की जान जाये फर्क नहीं, माल हाथ आये की तर्ज शुरू हो गयी।  

        सामग्री में मिलावट की बात विचारों में जन्मी थी तो सौ प्रतिशत सारा झोल विचारों में ही था। फल सब्जियों में रसायन - रंग की मिलावट तो गाय - भैंस को इंजेक्शन लगाकर उनका ही जीवन रस निचोड़ रहें है। लालच ने अँधा कर दिया था।  

शर्मनाक है कि आज  रिश्तों को भय व असुरक्षा की भावना से ग्रसित करके तार तार कर दिया है। दूषित मानसिकता के कारण  भय के बादल मँडराते रहतें है। बच्चे बचपना भूल गए हैं।  कभी माटी में खेलने वाले बच्चे आज  पैदा होते ही मोबाइल से खेलते हैं।  माटी की खुशबु की जगह तरंगो की मिलावटी  खुशबु दिमाग में रस बस जाती है। बचपन सलोनापन छोड़कर जल्दी युवा बन जाता है।  दिमागी रसायन में परिवर्तन हमारी मिलावटी वस्तुओं का ही असर है।  दिमाग में भी रसायन मिलावटी कर रहे हैं। पल में खुश व पल में खूंखार।  जाने कैसे कैसे फितूर दिमाग को व्यस्त करके तरक्की का जामा पहनाने में लगे हुए हैं। 

               हर कोई चारो तरफ से चादर खींचने में लगा हुआ है। चादर तो किसी के हाथ आती नहीं  है अपितु फट जरूर जाती है।  कमोवेश यही हाल व्यंग्य व साहित्य जगत को भी अपनी लाग लपेट में ले चुका है।  साहित्य में मिलावट सुनने में बहुत अजीब लगता है।  किन्तु सत्य है जब से सोशल मीडिया आया है विचारों का मिलावटी रायता फैलने लगा है। हर कोई उस रायते को चटकारे लेकर खा रहा है।  बची कुछ नमक मिर्च डालकर उसे चटपटा बनाने का कार्य दिमागी फितूर कर ही देते हैं। 

जहाँ मिलावट के कई नमूने गुणधर्म के साथ मौजूद है। यदि कोई व्यक्ति चाहे तो यहाँ दिमागी फितरतों की पी एच डी कर सकता है। कई विशुद्ध साहित्यकारों की रचनाएँ  चोरी करके, चोर भी अशुद्ध  साहित्यकार बनकर वाह वाही  लूट रहें हैं।  विचारों को चुराकर मिलावट के साथ परोस दिया जाता है।  असली नकली का भेद करना मुश्किल हो गया है। गीत - नवगीत - नयी कविता वाले अपनी अपनी चादर खींचने में लगे है।  मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है।  छंद में गद्य घुसने लगा है। व्यंग्य में सपाटबयानी आने लगी है।  संगीत में भी मिलावटी  हो रही है। सभी मिलावट को मॉर्डन कपड़ों का जामा पहनकर हाथों को सेका जा रहा है।  संगीत की मधुरता में भौंडेपन व कर्कश शोरों का मिश्रण हो गया है।  आज इन चोरो 
की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि पहचानना मुश्किल है सच्चा कौन।  इसका रायता फैलाने में सोशल मीडिया  महामहिम बनकर उभरी है।  जो लोगों को एडा बनाकर पेड़ा खा रही है। वित्त करेंसी  भी मिलावट से परहेज नहीं कर सकी. जब नए नोट चलन में आये तो वह  हाथों को रँगने लगे। सोना - हीरा भी मिलावट हो गया है।  आज नकली  चमक ही असली लगती है। 
     
           एक बार की बात है हम बस में सफर कर रहें है।  एक भद्र महिला सोने के आभूषण पहने थी। चलती बस में एक गुंडा हाथ में चाकू लेकर खड़ा हो गया।  उस भद्र महिला से बोला -  गहने दे वर्ना मार दूँगा।  ऐसा कहकर गहने छीनने का प्रयत्न करने लगा।  यह सब कांड देखकर मन में भय उत्पन्न हुआ।  हम हमारी सोने की चेन सँभालने का प्रयत्न करने लगे।  तभी उस महिला ने कहा  अरे भाई रुको -- ४० रूपए की चीज के लिए क्यों मेरे प्राण ले रहे हो।  सब गहने उतारकर दे दिए।  बेचारा गुंडा पोपट जैसा हो गया।  मिलावट किसी की जान भी बचा सकती है देखकर तसल्ली हुई। बाद में महिला से ज्ञात हुआ २ नकली था एक असली किन्तु सब वापिस मिल गया। नकली में भी दम हैं। असल नक़ल को पहचाना मुश्किल होता है। पहले राजशाही लोग सोना हीरा पहनते थे , आज सोना हीरा भी मिलावट बन गया है।  जिसे हर कोई पहनता है. अब अंतर करना मुश्किल है कौन अमीर कौन गरीब। इस मिलावट ने ऊँच - नीच का भेद जरूर  समाप्त कर दिया है। 

        गहनों तक तो ठीक था।  कुछ भी पहनों चोरी का डर नहीं।  वैसे भी कारोबारी कौन सा असली बेच रहें है। हम भी खुद हो बेबकूफ बनाते हैं। मापदंड बदलने लगे हैं।  धर्म - जाति प्रदेश - राष्ट्र हर जगह कुर्सी भी मिलावट का कारोबार करने लगी है।नेता अपनी कुर्सी देखकर कुर्सी धर्म ऐसे बदलते हैं जैसे कपडे बदल रहें हों। अब तो हमें भी लगने लगा कि  हमारे विचारों में भी मिलावट होने लगी है।गीत लिखने  बैठो  गजल बन जाती है। गद्य लिखने बैठो पद्य बनने लगा।  व्यंग्य 
लिखों तो व्यंग्य में मिश्रण के कारन चरमोत्कर्ष नहीं होता है। विचारों में ताजगी लाने के लिए अब हमने घर में ही खेती शुरू कर दी है , विशुद्ध भोजन करके हार्मोन की मिलवाट का प्रभाव कुछ कम हो सकेरायता बनाने वाले बैठे थे किन्तु खिचड़ी बन गयी। देश समाज में फैले हुए कंकर आँखों में चुभने लगे हैं। कलम की स्याही में मिलावट  के कारण कलम भी अवरुद्ध हो जाती है। भाई आज जैसा भी कलम का स्यापा भोजन है खाकर हमें माफ़ जरूर करना।  कल एक दुकान दिखी हैसच कहूं उसके सपने भी अब सोने नहीं देतेदबंद मिलावट।  गली नंबर चोरखेचरी बाजारयहाँ सर्वप्रकार का विशुद्ध मिलावटी सामान मौजूद हैपन्नू काका पंसारी वाले। वाकई दुनिया  तरक्की पर है।  
शशि पुरवार 

 
 जनसंदेश टाइम्स लखनऊ समाचार पत्र के प्रकाशित व्यंग्य - दिनांक - १३ /०५ /२०१८ 


Friday, May 11, 2018

दोहे - बेबस हुआ सुकून

जंगल कटते ही रहे, सूख गए तालाब 
बंजर होते खेत में, ठूँठ खड़े सैलाब 

जीवन यह अनमोल है, भरो प्रेम का रंग
छोटे छोटे पल यहाँ, बिखरे मोती चंग 

हरी भरी सी वाटिका, है जीवन की शान 
बंद हथेली खुल गई, पल में ढहा मकान 

कतरा कतरा बह रहा, इन आँखों से खून 
नफरत की इस आग में, बेबस हुआ सुकून 

बेगैरत होने लगे, कलयुग के इंसान 
लालच का व्यापार है, स्वाहा होती जान 

रात रात भर झर रहे, कोमल हरसिंगार 
मदमाती सी चाँदनी, धरती का श्रृंगार 

आकुलता उर में हुई, मन में फिर कुहराम 
ताना बाना बुन दिया, दुर्बलता के नाम 

राहों  में मिलते रहे, अभिलाषा के वृक्ष 
डाली से कटकर मिला अवसादों का कक्ष 

सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज 
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज 

शशि पुरवार 





Monday, May 7, 2018

आँगन की धूप

धूप आंगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
हो रही नींव जर्जर
धूर में लिपटी हवेली

शहर की तीखी चुभन में 
नेह का आँगन नहीं है
गूँजती किलकारियों का
फूल सा बचपन नहीं है

शुष्क होते पात सारे
बन रहें है इक पहेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली

छोड़ आये गॉँव में हम
कहकहों के दिन सुहाने
गर्म शामें तप रही हैं
बंद कमरों के मुहाने

रेशमी अहसास सारे
झर गए चंपा चमेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली

गर्मियों में ढूँढ़ते हैं
वृक्ष की परछाईयों को
पत्थरों पर लिख गयी, उन
प्रेम की रुबाइयों को

मौन क्यों संवाद सारे
सिर्फ माँ है इक सहेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
शशि पुरवार









Wednesday, April 18, 2018

मन का हो उपचार


गंगा के तट पर सभी, मानव करते काम
धोना कपडा व पूजा, धरम करम के नाम
धरम करम के नाम, करें तर्पण  चीजों का
पाप पुण्य संग्राम, विषैला मन बीजों का
कहती शशि यह सत्य, न करो नदी से पंगा    
अतुल गुणों की खान, विषैली होती  गंगा  


२ 
माता तेरे द्वार का, खुला हुआ  दरबार 
भक्त सभी आतें यहाँ, मन का हो उपचार   
मन का हो उपचार, न कोई संकट आये 
भ्रम का मायाजाल, मन को ही भरमाये 
कहती शशि यह सत्य, खुला यहीं बही खाता 
मत करना बदनाम, जगत जननी है माता

3


बौराया सा दिन गया, अलसायी सी शाम
रात चिट्ठियाँ लिख रही, चंदा तेरे नाम
चंदा तेरे नाम, लिखी प्रेम भरी पाती
सपनों का संग्राम, नींद ना रातों आती
शशि कहती यह सत्य, प्रीत  में डूबी काया
दिन हो चाहे रात, मुदित तन मन बौराया। 

शशि पुरवार

Sunday, April 1, 2018

मूर्ख दिवस



 मूर्ख दिवस 
आज सुबह से मन उतावला हो रहा था।  बच्चों की ऊधम पट्टी से यह समझ आ गया कि कल  १ अप्रैल हैं।  भला हो बच्चों का, नहीं तो अपनी बैंड बजना तय थी। बच्चे ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देतें हैं।  घर वाले घर में भी टोपी पहनाना नहीं भूलतें हैं।  आज शर्मा जी बड़े जोर शोर से टहल कदमी कर रहे थे।  भाई बचपन में खूब अप्रैल फूल बनाया और बने भी, पर कहतें  हैं  कि इंसान कितना भी बड़ा हो जाये बच्चों वाली हरकतें करना कभी नहीं छोड़ता, पहले हाफ निक्कर पहनकर  मूर्ख बनाते थे ,अब फुल पेंट पहनकर मूर्ख बनाएंगे, यह बात अलग है मुख में पान गिल्लोरी दबाए मियां कैसे नजर आतें है।  

         बच्चे तो बच्चे, बाप रे बाप बड़ो को भी चस्का लगा हुआ है।  शर्मा जी यही सोचन रहे का करें कछु तो करन ही पड़े, इस बार मोबाइल से अंतरजाल पर बेबकूफ बनाएंगे, कौन  ससुरा हमें जानत है जो हमरे घर कदम ताल करके  आवेगा। वइसन भी आजकल सबरे त्यौहार सिमट कर कमरे में बंद हो गएँ हैं बस उँगलियाँ,   मोबाइल और लैपटॉप पर चलते - चलते  सभी त्यौहार मना लेती हैं। 

            मूर्ख  दिवस मनाना भला किसे पसंद  नहीं होगा। व्यस्त जिंदगी में रस घोलती अनुभूतियाँ लोगों की प्यारी - दुलारी बन जातीं हैं।  यह किसी त्यौहार से कम नहीं  है।

 अहा !१ अप्रैल जैसे अपने अरमान पूरे करने का दिन। इस दिन का इन्तजार हर छोटे-बड़ों को रहता है। एक ही तो दिन होता है जब जो चाहे वह करो।  यानि किसी को भी मूर्ख बनाओ कोई कुछ नहीं कहेगा। यह मूर्ख बनाने का लाइसेंस जो प्राप्त हो गया है।  हाँ मूर्ख बनने वाला जरुर  झेंप जाता है कि लोगों को ज्ञात हो गया वह भी बेवकूफ है। इसके एवज में कोई क्रोध में लाल पीला होता है।  तो कोई खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोचते नजर आता है।   हंसने-हँसाने यह दिन यानि १ अप्रैल।  जिसे दुनियाँ मूर्ख दिवस के नाम से जानती है। 

                एक अप्रैल का दिन सभी के लिए खासम खास है। भाई दिमाग की कितनी मस्सकत करनी पड़ती है।  मजाल है एक दॉंव छूटा  तो दूसरा तैयार !  किसे कैसे बेवकूफ बनाया जाये कहीं यह ना हो कि दॉंव ही उल्टा पड़ जाये और हम खुद ही अपने खोदे हुए गड्ढे में गिर जायें। 
         कैसे कहें कि  यदि  लोगों को मूर्ख नहीं बनाया तो खुद के पेट में दर्द होने लगेगा।  आखिर मूर्ख बनना और बनाना  हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मूर्ख  बनाने का लाइसेंस, यह बात पल्ले नहीं पड़ी कि मूर्ख दिवस मनाने की ऐसी क्या जरुरत आन पड़ी है।  क्या मूर्खो को देश में कोई स्थान दिलाना है या उनका आरक्षण करवाना है। कोई कानून पास करना है या मूर्खो की सरकार बनाना है। वैसे भी सभी, कहीं ना कहीं मूर्खता पूर्ण कार्य जरुर करतें हैं। तो यह कहना उचित होगा कि सभी के अन्दर एक मूर्ख  विद्यमान होता है। किसी के मन में भी यह ख्याल क्यूँ नहीं आया  कि मूर्खो को भी आरक्षण दिलाना चाहिए।  आखिर वह भी इसके हकदार है। 
             
मन का उत्साह हिलोरे मार मार कर तन को रोमांचित कर रहा  था। हम भी सोच रहें है इस बार कुछ अलग किया जाये।  क्यों ना मिडिया के बादशाह फेसबुक या ट्विटर पर कुछ लिखकर लोगों में हल्ला बोल कराया जाए।  मोदी राज है।  सभी को पूरी आजादी है। जनता भी हाईटेक बनने वाली है।  गॉंव गॉंव में इंटरनेट  और मोबाइल हर आदमी को शहर से जोड़ देंगे।  फिर कहाँ  गॉंव,  कहाँ शहर। सब एक ही डोर से बंधे हुए रस्सी खीचेंगे। कभी कभी ख्याल आता है कि एक मूर्ख सम्मलेन की तैयारी की जाय।   मूर्खों का यह सम्मलेन  रोमंचकारी अनुभव होगा। यह सम्मलेन पहले दूरदर्शन पर और हर शहर में मनाया जाता था।  हमरे गॉंव में भी होता है जो विजेता बना उसे जूते - चप्पल की माला पहना कर सम्मानित किया।  शहरी हाईटेक संस्कृति को यह सब नहीं भायेगा। आखिर वक़्त बदल गया है। इसीलिए कुछ अलग करना चाहिए। दिमाग के घोड़े दौड़ाकर तय किया।  कुछ मिर्च मसाला लिखकर दुनिया को ही मूर्ख बनायें।  जितने ज्यादा लाइक और कमेंट्स आएंगे उतना ही हमारा खून  बढ़ जायेगा और हम मूर्खों के बादशाह कहलायेंगे।
 
मुर्ख दिवस हमारी संस्कृति की देन नहीं है।  इस दिवस को लेकर कई अवधारणाएं प्रचलित हैं।  रोम के लोग १ अप्रैल को नव वर्ष के रूप में मनाते थे। किसी ने उस दिन का केलेंडर स्वीकार किया तो किसी ने उस केलेंडर को अस्वीकार कर दिया।  कहा जाता है कि लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए  राजा – रानी ने अपनी शादी की तारीख ३२ मार्च करने की घोषणा की थी।  तभी से इस दिन को मूर्ख दिवस के रूप में मनाया जाता है। 
 
 यह भी मजेदार है  किसी मूर्ख को कह दो कि तुम मूर्ख हो।  तो बेचारा आँखे फाड़ फाड़ कर ऐसे देखेगा जैंसे हमरे दिमाग का स्क्रू ही ढीला  हो गया हो। वैसे ही जैसे, किसी  कुत्ते को कुत्ता कहना कुत्ते अपमान है।  ऐसा महसूस होता है  जैसे हम गाली दे रहें है।  भले ही बेचारे कुत्ते को भी पता नहीं होगा कि कुत्ता कहना  गाली होती है।   बेचारा कुत्ता भी ना जाने किस बात की सजा भुगत रहा है।  अच्छा भले  आदमी की वफादारी  करता है और इनाम स्वरुप बेचारे कुत्ते  का नाम ख़राब कर दिया। 
   मसखरी करने का यह दिन सभी खुले मन से स्वीकारतें हैं। १ अप्रैल है तो बुरा भी नहीं लगेगा। जैसे बुरा ना मानो होली है।  वैसे ही बुरा न मानो  मूर्ख दिवस है। हँसी - ठिठोली, मौज मस्ती का भरपूर आनंद।  किसी की शर्ट पर लिखा है।  हिट मी – तो बेचारे को जाकर मार दिया। 

चॉकलेट के रेपर में पत्थर रख दिया तो अप्रैल फूल। आनंद उठाने के लिए रसगुल्ले और मिठाई में लाल मिर्ची भर दी। फिर लाल पीले होने का आनंद । रात हमने सड़क पर १०० रूपए के नोट को  काले धागे से  बांधकर सड़क पर रख दिया। जो बेचारा लालच का मारा  नोट उठाने का प्रयत्न करता,  तो  धागा खींचकर  बेचारे के सामने प्रगट होकर  हँसी का फव्वारा छोड़ दिया। बेचारा मिस्टर एक्स ने खुद की नजर बचाकर  दुम  दबा ली। थोडा झूठ बोला।  थोड़ा  परेशान किया और कह दिया अप्रैल फूल. ! चलो कोई तो फूल खिला है।  लाल- पीले- नीले - गुलाब  नहीं गोभी के फूल नहीं यह तो अप्रैल के फूल है जो भरी जेठ में भी गुदगुदाने का आनंद प्रदान करतें हैं।
शशि  पुरवार

Monday, March 26, 2018

प्रेम नगर अपवाद



तन इक  मायाजाल है, जीवन का परिधान
मन सुन्दर अमृत कलशा,तन माटी प्रतिमान1

ढोंगी ने चोला पहन, खूब करे पाखंड
भगवा वस्त्रों को मिला, कलुषित मन का दंड2

 

सरपट दौड़ी रेलगाड़ी , छोड़ समय की डोर 

मन ने भरी उड़ान फिर , शब्द हुए सिरमौर 3


 
कर्म ज्योति बनकर जले, फल का नहीं प्रसंग
राहों में मिलने लगे, सुरभित कोमल रंग4


मन में बैचेनी बढ़ी, साँस हुई हलकान
दिल भी बैठा जा रहा, फीकी सी मुस्कान5


मौलिकता खोने लगी , स्वार्थ हुआ आबाद
पत्थर दिल में ढूँढ़ते, प्रेम नगर अपवाद 6


दो पल की है जिंदगी, आगा पीछा छोड़
हँसकर जी ले तू जरा, मन के बंधन तोड़7 

शशि पुरवार 

Tuesday, March 20, 2018

मूर्खता की परछाई

समय के साथ सब बदल जाता है।  यह परम सत्य है। आदमी पहले दूसरों को मूर्ख बनाता था।  आज खुद को  मूर्ख बनाता है। आज मेरी मुलाकात अपनी ही परछाई से हो गयी।  अब आप कहेंगे मूर्ख है। कोई  परछाई से भी मिलता है। लेकिन हम मिले और जी भर कर मिले। जाने दीजिये आप सोचेंगे। आज सच में एक मूर्ख से पाला पड़ गया है। हमें क्या आप सोचते रहें। इंसान मूर्ख ही तो है।  आज स्वयं को मूर्ख कहने में हमें कोई कोताही नहीं। आभाषी दुनियां के मूर्खता पूर्ण व्यवहार ने हमें होशियारी सीखा दी है।हम कितने सीधे हैं।  लोग लल्लू भी है होसियार भी है।जब लम्बे समय से जुड़े  हुए लोग पूछते है। आप कौन है। क्या करतें है। सच पूछों दिल में छुरियां चल जाती है।क्या  कभी पढ़ते नहीं है। बस आजकल गप्पा बाजी करना ही शौक बन गया है।  खुद को उच्च कोटि का साबित करने के लिए बार बार बिना सिर पैर  की बात के बात करतें है। खैर जाने दीजिये।  आज मेरी परछाई ने मुझे ही मूर्ख कह दिया। हुआ यूँ -

 मेरी परछाई कैसी हो?
 प्रश्न अजीब था।  किन्तु तीर तरकश से निकल चुका था। वैसे भी हम जाने माने साहित्यकार है तो परछाई भी वही हुई। किन्तु उसने हमीं पर पलटवार किया।

 कितना स्यापा फैला रखा है। काम के न काज के।  बस दिन भर उजुल फुजूल लिखकर लोगों को बरगलाते हो।  कोई काम धाम नहीं है क्या ? किसे मूर्ख बनाते हो। खुद को।

जबाब सीधे दिल को भेद गया। घर में कोई बकर बकर नहीं सुनता तो हमने भी दुनिया को सुनाकर खुद को महान बना लिया। ससुरा आज तक किसी ने तारीफ नहीं की है। घर में पत्नी बच्चे, माँ - बाप के लिए  हम नकारा थे। कहतें हैं घर की मुर्गी दाल बराबर। सो थाली में कभी दाल  भी नहीं मिलती थी। हमने सोचा उल्लू क्या जाने अदरक का स्वाद। आज इंसान ने मूर्खता के पैमाने छलका दिए हैं। इस विचार ने हमें असीम शांति प्रदान की। किन्तु हमारी परछाई थी तो सत्य कैसे ना जानती। आज हमारे मूर्खता पूर्ण प्रश्न ने हमें मूर्ख सिद्ध कर दिया। 

 वैसे मूर्खता के कई प्रकार होते हैं। एक परिभाषा में मूर्खता को कैसे परिभाषित करें।  खुशफहमी मूर्खता को सर्वोपरि बनाती है। खुद का प्रचार करो, विज्ञापन करो और खुद को महान समझो।  हमारे इर्द गिर्द नजर  घुमाये ऐसे मूर्खो की भरमार है।  शर्मा जी जब देखो ऊँट की गर्दन ताने घूमते रहतें है।  सुना है बहुत बड़ा काम किए है।  किन्तु अडोसी पडोसी को पता भी नहीं है।  सो ससुरे उनके बुद्धिजीवी दिमाग को क्या जाने।  वो ऐसे तने रहतें है जैसे दुनियाँ भर का बोझ उन्हीं के सर पर है।  एक बार  सिंह अंकल हमें  बगीचे में मिल गए थे।  और बोले लल्ला क्या करतें हो
हमने लगे हाथो कह दिया - कवी है

कवी क्या होता है।  बेचारी दुखियारी आत्मा।

हमारा चौड़ा सीना सिकुड़ कर पिचके गुब्बारे सा हो गया।समाज का यही दोष है दूसरों की पतंग काटो और आनंद लो। सभी  रिश्ते  आभासी होने लगे।  खुद को महान समझने वाले मूर्ख अहंकार में एक दूसरे से कन्नी काटतें हैं। खुद की चार दीवारी में कैद अकेलेपन के साथी ऊँट की गर्दन ताने फिरते हैं।  किसी से बात करने के लिए गर्दन नीचे करनी होती है। जो कोई करेगा नहीं। हम आजतक इस दुनियादारी को समझ नहीं सके कि गर्दन ऊँची क्यों है।

   कल एक गोष्ठी में देखा शर्मा जी तन कर बैठे हुए थे।  अडोसी - पडोसी उनके कर्मो के बारे में नहीं जानते थे।  वे विशुद्ध लेखक थे। उजुल फिजूल लिखते लिखते खुद को महान लेखक बना लिया। बड़ी अदा से घूमते थे। जैसे वही अक्ल दराज बाकी मूर्खो की बारात। खुशफहमी  इंसान को जिंदादिल बना देती है।  कम से कम सर में शंका का चूरन रखने से खुशफहमी का तेल लगाना ज्यादा अच्छा  है। हम शर्मा जी को देखते ही  रह गए। कितनी  बड़ी हस्ती बन गए।  लोग एक फोटो चिपकाने के लिए तरसने है। एक तो चिपका ही दो। शर्मा जी खुश है। किन्तु उन्हें क्या पता लोग उनका उपयोग किये जा रहे हैं।फोटो शर्मा जी की चिपका कर अपना प्रचार कर रहें है।  जे हमरे खास मित्र  है तो हम भी खास बन गए।लोग एक दूसरे के कंधे पर पैर रखकर चढ़ने लगे है।  बेहद खुश है  कि हमने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। 

   आजकल हमारे एक मित्र जिन्हें  हमसे बेहद मोहब्बत है।  जब देखो हमारी  भाषा - विचारों को चुराते रहते हैं।खुद को महान सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहतें है। चोरी करके महान बन गए। उन्हें  आभासी दुनिया में  कह दिया मेरी रचना है तो झट से ब्लॉक  कर दिया।  एक दूसरे को उल्लू बनाने से अच्छा है खुद को उल्लू बना लो।हमने सोचा रचना चोरी की है गुण नहीं। खुद को खुश कर लिया।  

 अब ज्यादा क्या कहें। यही कहेंगे  खुद को मूर्ख  बनाना अपने स्वास्थ के लिए लाभदायक होता है।  हम तो यही कहेंगे खुद को खूब मूर्ख बनाओ। इसमें परमानन्द है। आप कहेंगे कैसे तो सुने -

 खुद को महान समझने से आप कुछ महान कार्य करने का प्रयास  करेंगे।इससे  आप व्यस्त रहेंगे।  कुछ अच्छा कार्य करेंगे। 
 खुद को देखने - समझने के आदी हो जायेंगे तो दूसरों की बातों पर ध्यान नहीं जायेगा।  बिन सिरपैर की बातों को नजरअंदाज करेंगे तो बीपी शुगर जैसी बिमारी कोसो दूर होगी।
  किसी बात की चिंता नहीं होगी क्यूँगी आप खास है , दूसरो को मूर्ख जरूर समझे। यह खुशफहमी आपको खुश रखेगी।  
  एक दूसरे को मूर्ख समझने की प्रथा से कुंठा, द्वेष, जलन से मुक्ति मिलेगी। और आप खुश फ़हम रहेंगे। 
 आपको अकेले में भी आनंद आने लगेगा।  घर वाले आपके कोप का भाजन नहीं होंगे।
 दोस्त, यार,  हमजोली  आपके मूर्खता को बुद्धिजीवी सा  मान देंगे।
 कोई सुने य ना सुने आप खुद को जरूर सुनेंगे।
 हर तरफ परमानन्द होगा। लोगों की छींटाकसी पर आप मुस्कुरायेंगे और अपनी मूर्खता का ख़िताब उन्हें दे देंगे कि मूर्ख है।  समझता नहीं है।
  तो खुशफहमी को पहनते रहें।  खुद को मूर्ख बनाते रहें।  जिंदादिली दिखाते रहें।
खुद को लोगों को झेलने का सुख देते रहें।खुद भी हम मित्रों को झेलते रहे।  

सभी हार्मोन कुशलता से कार्य करेंगे।  खुश फहमी बीमारी से मुक्ति दिलाएगी।  आप मुस्कुरायेंगे तो हम भी मुस्कुरायेंगे।  शुक्रिया आपने हमारी मूर्खता को तवज्जो दी।  मुर्खानंद की जय हो। 
शशि पुरवार 

जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में प्रकाशित व्यंग्य 



Sunday, March 18, 2018

माँ हृदय की झंकार में -


माँ बसी हो, तुम हृदय की

साज में, झंकार में 
चेतना जागृत करो माँ
इस पतित संसार में.

आस्था का एक दीपक
द्वार तेरे रख दिया
ज्योति अंतर्मन जली
उल्लास, मन ने चख लिया
शक्ति का आव्हान करके
पा लिया ओंकार में. 
माँ बसी हो, तुम हृदय की
साज में, झंकार में

पाप फैला है जगत में
अंत पापी का करो
शौर्य का पर्याय हो, माँ
रूप काली का धरो
जन्म देती, जगत जननी
बीज को आकार में.
माँ बसी हो, तुम हृदय की 
साज में, झंकार में

छंद वैदिक, मंत्र गूँजे
भावना रंजित हुई
सजग होती आज नारी,
जीत अभिव्यंजित हुई
माँ नहीं, तुमसा जहाँ में,
 

नेह के उद्गार में.
माँ बसी हो, तुम हृदय की
साज में, झंकार में
शशि पुरवार 

आप सभी को चैत्र नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ 

Friday, March 9, 2018

मन की उड़ान


दो पल की है जिंदगी, आगा पीछा छोड़
हँसकर जी ले तू जरा, मन के बंधन तोड़

सरपट दौड़ी रेलगाड़ी , छोड़ समय की डोर 
मन ने भरी उड़ान फिर , शब्द हुए सिरमौर 

लेखक बनते ही गए, जन जन की आवाज
पाठक ही सरताज है, रचना के दमसाज

बर्फ हुई संवेदना, बर्फ हुए संवाद
खुरच खुरच कर भर रहे, तनहाई अवसाद


प्रिय तुम्हारे प्रेम की, है विरहन को आस
दो शब्दों में सिमट गया, जीवन का विन्यास
 ५
मन में बैचेनी बढ़ी, साँस हुई हलकान
दिल भी बैठा जा रहा, फीकी सी मुस्कान

कर्म ज्योति बनकर जले, फल का नहीं प्रसंग
राहों में मिलने लगे, सुरभित कोमल रंग

शशि पुरवार



समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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