Saturday, November 17, 2018

बूढ़ा हुआ अशोक

बरसों से जो खड़ा हुआ था 
बूढ़ा हुआ अशोक 

हरी भरी शाखों पर इसकी 
खिले हुए थे फूल 
लेकिन मन के हर पत्ते पर 
जमी हुई थी धूल
आँख समय की धुँधली हो गई 
फिर भी ना कोई शोक 

मौसम की हर तपिश सही है 
फिर भी शीतल छाँव  
जो भी द्वारे उसके आया 
लुटा नेह का गॉँव 
बारिश आंधी लाख सताए 
पर झरता आलोक 

आज शिराओं में बहता है 
पानी जैसा खून 
अब शाखों को नोच  रहें हैं 
अपनों के नाखून 
बूढ़े बाबा की धड़कन में 
ये ही अपना लोक 

बरसों से जो खड़ा हुआ था
बूढ़ा हुआ अशोक

शशि पुरवार 


Saturday, October 20, 2018

दर्द तीखे हँस रहे

खेल है यह जिंदगी के 
टूटना मुझको नहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे  
हौसला भी कुछ वहीं है 

क्यों परीक्षा ले रहा रब 
हर कदम पर इम्तिहां है 
तोड़ती निष्ठुर हवाएं 
पास साहिल भी कहाँ है 

दूर तक जाना मुझे, पर 
रास्ता दुर्गम मही है 
बंद हों जब द्वार सारे 
हौसला भी कुछ वहीं है 

बेबसी मुझको सताती 
नाँव पथ में डगमगाती 
पंख मेरे कट रहें हैं 
जिंदगी भी लड़खड़ाती 

शूल पाँवों में चुभें, फिर 
नित संभलना भी यहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे 
हौसला भी कुछ वहीं है 

शब्द मन में उड़ रहें है 
भाव हिय में फँस रहें है 
तन शिथिल कैसे चलूँ मै 
दर्द तीखे हँस रहें है 

क्या खता मेरी बता दे 
बात दिल की अनकहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे 
हौसला भी कुछ वहीं है

खेल है यह जिंदगी के 
टूटना मुझको नहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे  

हौसला भी कुछ वहीं है

शशि पुरवार 
२० / ११/ २१०८ 



Thursday, September 20, 2018

विकलांगता

विकलांगता ख्याल आते ही
 मन में सहानुभूति जन्म लेती है 
कहीं वितृष्णा, कहीं लापरवाही 
कहीं बेचारगी, कभी दुत्कार।
यह अपरिपक्व मन के विकार है  
शरीर या मन का विकृत अंग जिसे
काट नहीं सकतें, सहला सकतें है 
अपने नर्म हाथों से, प्रेम भरी बातों से।
जीवन की खूबसूरती पर
उनका भी हक है। 
विकलांगता,
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है। 
जो तन से परे मन को विक्षिप्त करता है।
जीवन लाचार नहीं, वरदान है। 
भीख मत मांगो जिंदगी से ,
लड़ो अपने मन  की अपंगता से।
बेचारगी तोड़ देगी सम्बल तुम्हारा 
पर मत लड़ो खुद से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से, 
गिर  पड़े गर अपनी नजर में तो 
 फिर कैसे उठोगे । 
 कुछ कर गुजरने की चाह गर  दिल में है 
तो छू लो आसमान को
पाँव तले होगी जमीं 
तुम्हारे मजबूत इरादों की, 
जीत लोगे जंग हालातों से 
विकलांगता अभिशाप नहीं है। अपितु
प्रेम की नरम छुअन बदल देगी
किसी एक का  जीवन

शशि पुरवार
 


Monday, September 17, 2018

हौसलों के गीत - गजल

जिंदगी अनमोल है नित, हौसलों के गीत गाना
हर कमी तन की भुलाकर, साथ जग के मुस्कुराना

जिस्म गर विकलांग है तो, तुम बदलना सोच अपनी
लिख सकोगे नव इबारत, भाग्य हाथों से बनाना

तन अपाहिज है नहीं मन, मर्ज को ताकत बनाओ
जग हँसे या मीत रूठे, पीर को मत गुनगुनाना

दर्द की मीठी लहर, जब,  देह मन को चीर देगी
टूटना मत, नित सँभलना, ख्वाब आँखों में सजाना 

राह पथरीली बहुत ही, हर कदम पर इंतिहाँ है 
समय के निष्ठुर पहर पर, दीप आशा के जलाना 

हर कमी तन की नहीं, मन की हमेशा सोच होती
नजरिया जग का बदलना, और खुल कर मुस्कुराना।

शशि पुरवार






Friday, September 7, 2018

जंगल में मंगल

इस साल दशहरा मैदान पर रावण जलाने की तैयारियां बड़े जोर शोर से की जा रहीं थी. पहले तो कई दिनों तक रामलीला होती थी फिर रावण दहन किया जाता था. अब काहे की राम लीला काहे का रावण, अब तो बस जगंल में मंगल है. राम भरोसे के भरोसे सारा रावण दहन हो जाता है. राम भरोसे नाम की ही नहीं काम का भी राम भरोसे है. पंडाल का काम हो या जनता की सेवा राम भरोसे के बिना पत्ता नहीं हिलता है. हर बार जेबें गर्म, मुख में पान का बीड़ा रहता था किन्तु इस बार जैसे उसके माई बाप आपस में गुथम गुथम कर रहें हैं.  बड़े बेमन  से वह रावण दहन के कार्य में हिस्सा ले रहे थे. मित्र सेवक राम से रहा नहीं गया बोले – भाई इतने ठन्डे क्यूँ हो क्या हुआ है .

अब का कहे देश में रावण राज्य ही चल रहा है. जिसे देखों, जब देखो हर पल गुटर गूं करते रहते हैं.

क्यूँ, भाई क्या हुआ.

अब पहले जैस बात कहाँ है, यह दशहरा पर मैदान बड़ा गुलजार रहता था, रामायण के पात्र समाज को अच्छा सन्देश देते थे. राम हजारो में थे तो रावण एक, कलयुग में राम ढूँढने से भी नहीं मिलते हैं. सबरे के सबरे रावण है. कल तक रामभरोसे थे अब सारा दूध पी लिया और रामभरोसे को राम के भरोसे ही छोड़ दिया.

हाँ भाई सच कहत हो, देखो राम जी तो चले गए लेकिन आज के रावण राम मंदिर के नाम पर आज भी अयोध्या जलाते हैं.
और नहीं तो का, जनता की कौन सोचत है  सभी अपना अपना चूल्हा जलाते है और अपनी अपनी रोटी सेकतें हैं. धुआं तो जनता की आँखों में धोका जात है.

इतने वर्ष हो गए हमने कोई जात पात नहीं मानी, सभी  धर्म के लिए ईमानदारी से काम किया, किन्तु अब कोई हमें पानी भी नहीं पिलाता है. आजकल काहे का रावण काहे की माफ़ी, प्रदुषण पर बैन है, तो जाने दो मन का रावण जला दे वही बहुत है.  ऐसे कलयुगी रावण का क्या किया जाये, गॉंव में काँव काँव शुरू रहती है..... शहर में धम्म धम्मा धम्म, ऐसी मौज मस्ती जैसे अपने घर के बगीचे में टहल रहें है और घर के बर्तन बाहर जाकर नगाड़ा बजाते है. ई दशहरा भी कोई राजनीती होगी. सब धर्म के नाम फरमान जारी होंगे, कुछ लाला अपना कन्धा सकेंगे. थोड़े बर्तन बजायेंगे और डाक्टर नयी फ़ौज को जमा करने  के लिए तैयार रहेंगे, लो जी हो गया दशहरा. फिर से राम ही रावण बनकर आपस में लड़ रहे हैं. तो जीतने वाला भी रावण ही होगा. बस हाल होगा तो बेचारे राम भरोसे का, जो राम के भरोसे ही पेट की आग शांत करने का प्रयास करता है और अब वह न घर का रहा है न घाट का. अब कलयुग है तो कलयुग के राम सूट बूट वाले है. वह अपनी सेना को नहीं खुद को ही ज्यादा देखते हैं. त्रेता युग में जो हो गया सो हो गया, आज वह के राम बने रावण वनवास जाते नही है, विभीषण को भेज देते हैं. आखिर वही ततो आया था उनके पास भोजन मांगने.

      अब कोई त्यौहार पहले जैसा नहीं रहा, घर में बैठकर दो चार घंटे टीवी देख लो. अभाशी दुनिया घूम लो, ट्विटर से जबाब तलब कर लो, हो गया दशहरा. फिर काहे इतना पैसा एक रावण को जलाने में लगायें, लाखो लोगों के पेट भर खाना खिला दे तो पुन्य तो मिलेगा, इस देश में न जाने कितने विभीषण अभी भी है जो त्रेता युग के राम भरोसे ही अपना धर्म निभा रहें हैं.
  शशि पुरवार


Tuesday, August 28, 2018

एक पहेली

१ 
सुबह सवेरे रोज जगाये
नयी ताजगी लेकर आये
दिन ढलते, शीतल रंग रूप
क्या सखि साजन ?
ना सखी  धूप 

साथ तुम्हारा सबसे प्यारा
दिल चाहे फिर मिलूँ दुबारा
हर पल बुझे  एक पहेली
क्या सखि साजन ?
नहीं सहेली। 
रोज,रात -दिन, साथ हमारा  
चाहे तुमको दिल बेचारा  
समय भगाता, मैं  वहीँ खड़ी 
क्या सखि साजन ?
ना सखी घडी। 
तुमसे ही संसार हमारा  
मिले नहीं तो दिल बेचारा
तुमको पाकर हुई धनवान  
क्या सखि साजन ?
ना सखी ज्ञान।
 ५

रोज सुबह चुपके से आना
हौले से फिर नींद उड़ाना
देख न पाती तुमको जी भर
क्या सखि साजन?
न सखी, दिनकर। 

बहुत दिनों में मिलने आया
जब आया तब मन हर्षाया
तन मन बरसा, पवित्र नेह
क्या सखि साजन ?
ना सखी मेह। 
दिनभर आँखें वह दिखलाए
तन मन उससे निज घबराए
रूप बिगाड़े, क्यों अचरज ?
क्या सखि साजन ?
न सखी सूरज। 

रातों को वह मिलने आए 
सोने ना दे, नींद उड़ाए 
बातें करते, बढे उन्माद
क्या सखि साजन 
ना सखी याद 
९ 
हर पल का है साथ हमारा 
बिना तुम्हारे नहीं गुजारा 
प्रिय दूर करे वह तन्हाई 
क्या सखि साजन ?
ना परछाई 
१० 
उजला प्यारा रूप तुम्हारा 
तुमको देखा दिल भी हारा 
पहना है उलफत का फंदा 
क्या सखि साजन ?
न सखी चंदा 
शशि पुरवार 



Friday, August 24, 2018

जीवन अनमोल

पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल
लेकिन राहों में बिखरें है
खट्टे मीठे बोल 

पथरीली पगडंडी का, ना 
कोई  ठौर ठिकाना
मंजिल दूर भले हो लेकिन
सफर नया अनजाना
श्रम करने का एक दिन, हमको 
मिल जायेगा मोल
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल 

सावन भादों बीत गए, फिर
पतझड़ इक दिन आया
मन के पीले पत्तों ने, नित   
पथ में भी भरमाया
नहीं हारना, चलते रहना
रचना नव भूगोल
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल

दीपक की बाती सा जलकर 
निश्चित इक दिन  जाना 
लेकिन जाने  से पहले
जीवन बना सुहाना
हँसकर तूफानों से लड़ना
सुख- दुख मन के झोल 
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल 

शशि पुरवार 

चित्र गूगल से साभार

Friday, August 10, 2018

अधरों पर मुस्कान

बरखा रानी दे रही, अधरों पर मुस्कान
धान बुआई  कर रहे, हर्षित भये किसान
हर्षित भये किसान, जगी मन में फिर आशा
पनपता हरित स्वर्ण, पलायन करे निराशा
कहती शशि यह सत्य, हुआ मौसम नूरानी 
खिले खेत  खलियान, बरसती बरखा रानी  

बीड़ी,गुटका,तमाखू ,गांजा, मदिरापान 
नष्ट हो गयी जिंदगी, पहुँच गयी शमशान 
पहुँच गयी शमशान, फना जीवन की लीला 
करा ना कोई काम, नशीला द्रव्य ही लीला 
कहती शशि यह सत्य, कर्म में तन मन अटका
पाया तभी मुकाम, नशा है बीड़ी, गुटका   

शशि पुरवार 

 


Thursday, August 9, 2018

व्यंग्य की घुड़दौड़ संग्रह




व्यंग्य की घुड़दौड़’ सीधे शब्दों में ज़िन्दगी की घुड़दौड़ है। ठीक उसी तरह, जैसे बेतरतीब सड़कों पर थमे बिना चलते रहना, कड़कते तेल के छौंक की खुशबू का चिमनी में सिमटना, प्रेम की सौंधी खुशबू का जीवन से प्रस्थान करना, जिंदगी की आसमान को छूने की दौड़ या इक दूजे से आगे निकलने की होड़ में ख़ुद को भूल जाना, उड़ने की ख़्वाहिश में गुदगुदाते पलों का बिखरना, जीवन से कहकहों का रूठ कर सिमटना, एक अंतहीन प्यास की चाहत में ख़ुद से बेरुखी करना या समय के इस चक्र में खुद को मूर्ख बनाना, खुशफहमी का जामा पहनना, जिसका अहसास हमें ही स्वयं भी नहीं होता है, खुद को धोखा देकर आभासी पलों को जीना, ज़िन्दगी के हर, पल समय को हराने के लिए भागना। कहीं कुछ छूट रहा है कहीं दिल टूट रहा है। समय के पलटते पन्नों ने वर्तमान में जीवन की तस्वीर को बदल दिया है। सोशल मीडिया ने जहाँ दुनिया को आपस में जोड़ा है, वहीं जिंदादिली को मार कर अकेलेपन को भी जोड़ा है। कहीं हम अवसाद के घेरे में न आ जाएँ, आओ चलो कहकहों को चुराएँ। परिवेश से बिखरी हुई संवेदनाओं को समेटकर उसमें व्यंग्य का हल्का सा छौंक लगा दें। संजीदगी को फिर से ज़िन्दगी की घुड़दौड़ बना दें। आपके प्यार को हम अपना सिरमौर बना लें। व्यंग्य की घुड़दौड़ को अपने दिल से लगा लें।
शशि पुरवार 

Wednesday, July 11, 2018

सुख की क्यारी


भारी सिर पर बोझ है, ना उखड़ी है श्वास
राहें पथरीली मगर, जीने में विश्वास 
जीने में विश्वास, सधे क़दमों से चलना 
अधरों पर मुस्कान, न मुख पर दुर्दिन मलना 
कहती शशि यह सत्य, तोष है सुख की क्यारी 
नहीं सालता रोग, काम हो कितने भारी 


जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास
ठहर गया मधुमास, गजब का दिल सौदागर
बूँद बूँद भरने लगाप्रेम अमरत्व की गागर
कहती शशि यह सत्य, उधेड़ों मन की सीवन
भरो सुहाने रंग, मिला है सुन्दर जीवन

शशि पुरवार 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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