Thursday, November 28, 2019

गाअो खुशहाली का गाना




चला बटोही कौन दिशा में
पथ है यह अनजाना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना

तारीखों पर लिखा गया है
कर्मों का सब लेखा
पैरों के छालों को रिसते
कब किसने देखा

भूल भुलैया की नगरी में
डूब गया मस्ताना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना

मृगतृष्णा के गहरे बादल
हर पथ पर छितराए
संयम का पानी ही मन की
रीती प्यास बुझाए

प्रतिबंधो के तट पर गाअो
खुशहाली का गाना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना

सपनों का विस्तार हुआ, तब
बाँधो मन में आशा
पतझर का मौसम भी लिखता
किरणों की परिभाषा

भाव उंमगों के सागर में
गोते खूब लगाना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना


शशि पुरवार 

Thursday, November 14, 2019

नज्म के बहाने

१ नज्म के बहाने

याद की सिमटी हुई यह गठरियाँ
खोल कर हम दिवाने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

बंद पलकों में छुपाया अश्क को
सुर्ख अधरों पर थिरकती चांदनी
प्रीत ने भीगी दुशाला ओढ़कर
फिर जलाई बंद हिय में अल गनी

इश्क के ठहरे उजाले पाश में
धार से झंकृत तराने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।


गंध साँसों में महकती रात दिन
विगत में डूबा हुआ है मन मही
जुगनुओं सी टिमटिमाती रात में
लिख रहा मन बात दिल की अनकही

गीत गा दिल ने पुकारा आज फिर
जिंदगी के दिन सुहाने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

भाव कण लिपटे नशीली रात में
मौन मुखरित हो गई संवेदना
इत्र छिड़का आज सूखे फूल पर
फिर गुलाबों सी दहकती व्यंजना

डायरी के शब्द महके इस कदर
सोम रस सब मय पुराने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

याद की सिमटी हुई यह गठरियाँ
खोल कर हम दिवाने हो गए। ..!
--


शशि पुरवार 


Tuesday, November 12, 2019

जोगनी गंध - संवेदनाओं की अनुभूति - पुस्तक समीक्षा

😊😊
जोगनी गंध पर दूसरी समीक्षा आ धरणीधर मणि त्रिपाठी जी ने  की है ,आपका हृदय से धन्यवाद ,आपके स्नेह से अभिभूत हूँ
🙏🙏😊
समीक्षा
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("जोगनी गंध")
अभिव्यक्ति के प्रशस्त धरातल पर खडा़ विवेकशील व्यक्ति मानवीय सराकारों, संवेदनाओं एवं अनुभूतियों को जब अपने विशिष्ट अंदाज़ में कलमबद्ध करता है तो प्रस्तुति का एक आलीशान महल सा खडा़ प्रतीत होता है जिसके स्तम्भ, गलियारे, बुर्ज़, दीवारें एवं दालान अपनी-अपनी पहचान और महत्व रेखांकित करते प्रतीत होते हैं। साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट स्थान बनाने वाली प्रसिद्ध कवयित्री आदरणीया शशि पुरवार का हाइकु संग्रह "जोगनी गंध"इसका एक उदाहरण है।जो कि न केवल सारगर्भित संदेश अपितु प्रेरणा का संवाहक भी बना प्रतीत होता है।


काँच से छंद
पत्थरों पर मिलते
बिसरे बंद
कितनी गूढ बात कह डाली है मानवीय रिश्ते पर खूबसूरत बिम्बों के द्वारा बेबाक रंग उकेर कर रख दिया है शशि जी ने.


संग्रह के प्रत्येक गुम्फित हाइकु रचना पुष्प विद्या वैषि्ध्य के मनोगाही 5-7-5 पंक्तियों में रची बसी सुगंध से वातावरण को सुवासित प्रबल आकर्षण संजोए हुए है।मानव जीवन प्रकृति पर ही आधारित है संग्रह में प्रकृति का जाज्वल्य रक्तिम रंग बिखरे पडे़ हैं।


अभिव्यक्ति का लक्ष्य जब व्यक्ति के अंतस में जन्म लेता है तो उसके पीछे एक गन्तव्य निहित होता है एक भाव एक उत्कृष्टता निहित होती है, शशि जी के संग्रह में ये बातें स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।यही भाव जब पाठक और श्रोतागण तक पहुँचते हैं तो वे अपने आपको एक-एक पंक्ति के साथ बँधा हुआ पाते हैं।इन हाइकु को देखें:-


सूखे हैं फूल
किताबों में मिलती
प्रेम की धूल
खा़मोश साथ
अवनि अंबर का
प्रेम मिलन
क्षितिज को किस तरह परिभाषित कर दिया कल्पनाशीलता और बिम्ब के द्वारा।


जोगनी बंध
फूलों की घाटी में
शोध प्रबंध


आज सामाजिक ढाँचा इस क़दर बिखरा हुआ है कि अपनों के लिए भी समय नहीं सब व्यर्थ की भागदौड़, उत्कट मीमांसा, लोभ, स्वार्थ के वशीभूत मानव दिनभर प्रयासरत रहता है और क्रमश: जब अपने नीड में वापस आता है तो नितांत नीरवता का सामना करता है, प्रस्तुत हाइकु देखें:-


एकाकीपन
धुँआ धुँआ जलता
दीवानापन


शशि जी का यह संग्रह तमाम विषयों को छूता हुआ पाठक को वाह कर देने पर विवश कर देता है।अल्प शब्दों में काव्य रचना और उसमें भाव बिम्ब डाल पाना निश्चित रूप से दुरूह कार्य है, परंतु आप पूरी पुस्तक पढने के बाद पाएंगे वे इस प्रयास में पूर्णरूपेण सफल हुई हैं।यह पुस्तक न सिर्फ़ हाइकु के विज्ञ लोगों को पसंद आएगी अपितु नवांकुर कवियों को हाइकु सीखने में भी सहायक होगी।आदरणीया शशि जी के लिए मेरी तरफ़ से पुस्तक की अपार सफलता के लिए अनंत शुभकामनाएं ।


धरणीधर मणि त्रिपाठी
कवि, एवं भू पू सैन्याधिकारी

Saturday, September 14, 2019

बंसी जैसा गान



1
हिंदी भाषा ने रचा, बंसी जैसा गान 
सरल सुगम भव आरती, जीवन का वरदान 
जीवन का वरदान,   गूँजता मन, चौबारा 
शब्द शब्द धनवान, छंद की बहती धारा 
अनुपम यह सौगात, सजी माथे पर बिंदी 
तजो विदेशी पाल, बसी प्राणों में हिंदी 
 2 

भारत की  धड़कन यही, वीणा की झंकार 
सुरसंगम हिंदी चली, भवसागर के पार 
भवसागर के पार, हृदय मोहित कर दीना 
भावों का संसार,  इसी ने समृद्ध कीना 
अक्षर अक्षर गान, सजा हिंदी से मधुवन 
भाषा करती राज, यही भारत की धड़कन 
शशि पुरवार 

Friday, August 16, 2019

और एक अरण्यकाल



-- मुहावरों का मुक्तांगन एक अरण्य काल
(एक अध्ययन)


मुहावरे और नवगीत का उदगम स्थल  एक ही है - वह है जन चेतना।  नवगीत में जनचेतना का जो पैनापन है उसे मुहावरों के द्वारा ही सघनता से व्यक्त किया जा सकता है।
आदरणीय निर्मल शुक्ल जी का संग्रह एक और अरण्य काल, लगभग सभी गीतों में, मुहावरों के सटीक प्रयोग के लिये आकर्षित करता है। ये मुहावरे उनके गीतों के साथ जुड़कर गीत के कथ्य को विलक्षण अर्थ प्रदान करते हैं। संग्रह के कुछ मुहावरे पूर्व प्रचलित हैं- जैसे कान पकना,  हाथ पाँव फूलना और गले तक  पानी पहुँचना आदि,  और कुछ उनके द्वारा स्वंयं भी रचे गए हैं जैसे - लपटों में सनी बुझी,  स्वरों के नक्कारे भरना आदि।
संग्रह के पहले अनुभाग प्रथा के अंतर्गत बाँह रखकर कान पर सोया शहर  सामाजिक विसंगतियों, संवादहीनता, निष्क्रियता, संवेदनहीनता और पारंपरिक बंधनों पर करारा प्रहार है.  परंपराओं के नाम पर एक ही ढर्रे पर चल रही जिंदगी की जटिलता को व्यक्त करता हुआ यह गीत शोषित वर्ग की व्यथाओं को व्यक्त करता है। व्यथाएँ भी इतनी कि जिनका लेखा जोखा  करते उँगलियाँ घिस जाती हैं.  संघर्ष करते करते कमर टूट कर दोहरी हो जाती है, सारी उम्मीदें टूट जाती हैं और बदलाव की कोई सूरत नजर नहीं आती।
इस गीत में ऊँगलियाँ घिसना, हाथ पाँव फूलना, कान पर हाथ रखकर सोना, कमर का टूटना और कमर का दोहरा हो जाना इन पाँच मुहावरों का प्रयोग कथ्य को सघनते से संप्रेषित करने में सफल रहा है।
परंपरा के नाम पर पुरानी प्रथाओं को ढोते रहने का दर्द उँगलियाँ घिसने जैसे मुहावरे में बड़ी ही कुशलता से किया है -
सिलसिले स्वीकार अस्वीकार के गिनते हुए ही
उँगलियाँ घिसती रही हैं उम्र भर
इतना हुआ बस
बदलाव की कोई सूरत नजर न आने पर उम्मीद के हाथ पाँव फूलना निराशा और थकान की पराकाष्ठा को व्यक्त करता है। इसी प्रकार प्रगति और विकास के किसी भी विचार को न सुनने और न गुनने वाले शहर को बाँह रखकर कान पर सोया शहर कहना बहुत ही कुशल प्रयोग है।
कुछ थोड़े से लोग जो लोग समाज में सुधार और उसके विकास के लिये विशेष रूप से काम करते हैं समाज द्वारा उनकी उपेक्षा और अवमानना के कारण विकास और सुधार दिखाई नहीं देता। दिखाई देती है तो केवल उनकी थकान - कुछ पंक्तियाँ देखें-
उद्धरण हैं आज भी जो रंग की संयोजना के
टूटकर दोहरा गई उनकी कमर
इतना हुआ बस
प्रथा खंड का ही अन्य गीत हैं आंधियाँ आने को हैं- में काठ होते स्वर और ढोल ताशे बजना मुहावरों का प्रयोग है। आज लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संघर्ष की खुरदुरी जमीं पर झूझते हुए निम्न वर्ग की आवाज कहीं दब सी जाती है.  कागजी कार्यवाही, चर्चा, मंत्रणा औपचारिक वार्ता के साथ संपन्न हो जाती है. पन्नो में दबी हुई आवाज व आक्रोश की आँधी को कब तक रोका जा सकता हैं. प्रतिरोध की बानगी को यहाँ मुहावरे बेहद खूबसूरती से बयां कर रहे है. यथास्थिति से जूझते हुए मन के सहने की पराकाष्ठा जब समाप्त होने लगती है, तब स्वरों में जड़ता का संकेत प्रतिरोध का ताना बाना पहनने लगता है.  और  तूफ़ान के  आने से पूर्व, तूफ़ान का संकेत मिलने लगता है. इतने व्यापक मनोभावों को मुहावरों की सहायता से दो पंक्तियों में कह दिया गया है
" काठ होते स्वर"  अचानक
खीजकर कुछ बड़बड़ाये
आँधियाँ आने को हैं.
सुनो पत्ते खड़खड़ाए
आँधियाँ आने को हैं

इसी खंड के तीसरे गीत तलुवो के घाव में हमारा परिचय फिर कुछ मुहावरों से होता है जैसे – कंधे पर अलसाना, पंजों का अनमना स्वभाव कसना, तलवे घिसना ये मुहावरे  संघर्षशील व्यक्ति के संवेदनशील मन की मार्मिक व्यथा को तो व्यक्त करते हैं -
कुछ पंक्तियाँ देखें-
शाम हुई दिन भर की धूप झड़ी कोट से
तकदीरें महँगी हैं जेब भरे नोट से
घिसे हुए तलवों से दिखते हैं घाव

इसी कड़ी  में अगला गीत है गर्म हवा का दंगल। इस छोटे से गीत में हमें कुछ और सटीक मुहावरे मिलते हैं। सन्नाटे से पटना, बंदर-बाँट करना और थाल बजाना ये मुहावरे न केवल कथ्य को प्रभावशाली बनाते हैं बल्कि, हमारे सांस्कृतिक रीति रिवाजों की भी झलते देते हैं

बौनों की हिकमत तो देखो चूम रहे मेघों के गाल
कागज की शहतीरें थामे बजा रहे सबके सब थाल

अगले गीत ''ऋतुओं के तार'' में रेत होना, ऋतुओं के तार उतरना, चिकनी चुपड़ी बातें करना आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है।
सुर्ख हो गई धवल चाँदनी लेकिन चीख पुकार नहीं है
.....
स्थिति अब इन चिकनी चुपड़ी बातों को तैयार नहीं है

मेंहदी कब परवान चढ़ेगी शीर्षक अगले गीत में परवान चढ़ना और दम भरना मुहावरों का रोचक प्रयोग है।

अन्नपूर्णा की किरपा  नामक अगले गीत के मुहावरे राह निहारना, बातों बात, ताड़ होना, हाथ पीले होना और तीत होना गीत के कथ्य को विशेष रूप से संप्रेषित करते हैं. अभिशप्त और अभावग्रस्त जीवन की त्रासदी को उजागर करते हुए इस नवगीत में  किस्मत की मार झेल रहे लोगों के कुछ अनछुए पहलुओं को वाणी मिली है.  ऐसे पहलू जहाँ केवल दो जून भोजन की ही आस रहते है और जहाँ हर पल  भय से भरा हुआ रहता है
कुछ पंक्तियाँ देखें-
बचपन छूटा ताड़ हो गई नन्हकी बातों बात
रही सही जीने की इच्छा ले गए पीले हाथ
बोल बतकही दाना पानी सारा तीत हुआ
अगले गीत  बहुत साक्षर हुई हवाएँ मे रचनाकार कहता है- शिक्षित होना विकास के लिये आवश्यक है, किन्तु साक्षरता के साथ दिखावे और कुटिलता का भी विकास होता है जिसे हम चुपचाप देखते हैं लेकिन कुछ कर नहीं सकते। इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करते हुए किस्से हीर फ़क़ीर के , शतरंगी चालें, मुँह माँगा दाम गढ़ना आदि मुहावरे, बदलते समय की विभिन्न स्थियों को व्यक्त करने में सफल रहे हैं।  इसी प्रकार एक अन्य गीत है -  बड़ा गर्म बाजार में साँसों का बचाखुछा होना, औने पौने दाम, साँठ-गाँठ करना, का पकना, जबान का खाली जाना और फटी आँखों से देखना आदि मुहावरों के द्वारा बरगद के रूप में पुरानी पीढ़ी की आशा निराशा और अकेलेपन को सहज और स्वाभाविक रूप से चित्रित किया गया है।
खट खट सुनते सुनते “पक गए दरवाजों के कान”
आहट सगुनाहट सब कोरी /खाली गयी जबान
रही ताकती दालानों को / “आँखें फटी फटी” .  
लकड़ी वाला घोड़ा शीर्षक से अगले नवगीत में गिनी चुनी साँसें, ऊँचे मुँह बातें बचकानी और गले तक पानी पहुँचना मुहावरे मिलते कथ्य को सम्प्रेषणीय बनाने में सहायक होते हैं।
ऊँचे मुँह बातें बचकानी , गले गले तक पहुँचा पानी,  इतनी एक कहानी
.गले गले तक पहुँचा पानी इतनी एक कहानी
अगले तीन गीतों धड़ से चिपके पाँव, हर तरफ शीशे चढ़े हैं तथा तलुवों में अटकी जमीन में कंधे पर सलीब रखना, परछाईं द्वारा लीना जाना, धड़ से पाँव चिपकना, सिर विहीन होना इसके बाद वाले गीत हर तरफ शीशे चढ़े हैं में आँख में नमी होना, रक्त भीगे मुखौटे, तलुवों में जमीन अटकना आदि अनेक प्रचलित एवं नवीन मुहावरों का रोचक प्रयोग मिलता है।
  अगले अनुभाग कथा के सात गीतों में पहले अनुभाग प्रथा की अपेक्षा मुहावरों की सघनता कुछ कम है। रेत से जलसन्धि नमक गीत में फेरा पड़ना / दृष्टि न टिकना / क्षितिज के पार और डूबना उतराना द्वारा यह कहने की सफल चेष्टा हुई है कि संघर्ष की खुरदुरी जमीन पर चाहे आँखे कितनी भी थकी हो किन्तु  कल्पना, अभिलाषाओं का आकाश बहुत बड़ा है, सपने आँखों में फिर भी पलते हैं. लहरों का नाद चाहे जितना बड़ा हो किन्तु मन की कोमल आशा छुपती नहीं है. कहकहों के बीच शीर्षक से एक अन्य गीत में मन साथ रखना, रात भरना आदि मुहावरों का प्रयोग मिलता है।
दर्द दे जाता किसी का /अनमने मन साथ रखना
 अब नहीं भाता सुलगते /दिन निकलना, रात भरना।
यह समय की विडम्वना है कि दर्द सहने कि शक्ति एक समय के बाद क्षीण हो जाती है. मासूमियत जब जब चोट खा जाती है तब मनुष्य उस बोझिल त्रासदी के बाद सुख- सुकून की कामना करता है,  जब कि आधुनिक जीवन में चैन और सुकून के पल कहीं ओझल हो गए हैं। इन्हीं भावों को मुहावरों के माध्यम से गीत में सुंदर अभिव्यक्ति मिली है।
 संग्रह के तीसरे और अंतिम खंड के तीन गीतों में से पहले और अंतिम गीत में मुहावरों का भरपूर प्रयोग है। पहले गीत दूषित हुआ विधान में आग पीकर धुआँ उगलना, उड़ान थकना, हाथ खींचना, पाँव पड़ना, हल्कान होना आदि मुहावरों का प्रयोग मिलता है।
पर्यावरण के प्रति सचेत करते हुए दूषित हुआ विधान शीर्षक गीत में ये पंक्तियाँ देखें-
धुआँ मंत्र सा उगल रही है चिमनी पीकर आग
भटक गया है चौराहे पर प्राणवायु का राग
रहे खाँसते ऋतुएँ मौसम दमा करे हलकान
इस खंड और संग्रह के अंतिम गीत गणित नहीं सुधरी में धूल फाँकना, गाज गिरना, ताल ठोंकना, धरी रह जाना, दाँव गढ़ना, कंकरीट होना, हरा भरा होना, खरी खरी सुनना, भेंट चढ़ जाना आदि अनेक मुहावरों का सफल प्रयोग हुआ है।
घर आँगन माफिया हवाएँ गहरे दाँव गढ़ें
माटी के छरहरे बदन पर कोड़े बहुत पड़े
कंकरीट हो गई व्यवस्था पल में हरी भरी
एक अन्य पंक्ति में पंचतत्व में ढला मसीहा सुनता खरी खरी कहर कर वे सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करते हुए कहते हैं कि आज जैसे ईश्वकर भी निर्विकार हो गए हैं.   वे भी पंचतत्व में ढल चुके है।
संग्रह में सबसे अधिक मुहावरों का प्रयोग पहले खंड प्रथा में किया गया है। केवल दो एक गीत ही ऐसे हैं जिनमें मुहावरों का प्रयोग नहीं हुआ है। केवल दो तीन स्थानों पर ही मुहावरों को दोहराया गया है। कुछ प्रचलित मुहावरों को ज्यों का त्यों अपनाया गया है तो कुछ में नया पन लाने की कोशिश भी दिखाई देती है- उदाहरण के लिये छोटा मुँह बड़ी बात के स्थान पर ऊँचा मुँह बचकानी बात। अनेक नये मुहावरों का प्रयोग भी किया गया है जिनमें से कुछ का प्रयोग आगे चलकर प्रचलित हो सकता है।

कुल मिलाकर मुहावरे इस संग्रह की जान हैं और एक अरण्यकाल मुहावरों का ऐसा मुक्तांगन है जिसमें अनेक अर्थ, भावना, कथ्य और संवेदना के पंछी दाना चुग रहे हैं और स्वयं को समृद्ध कर रहे हैं।



शशि पुरवार



Friday, August 9, 2019

किताब पेड लगाअो


हिंदी साहित्य के वरिष्ठ साहित्यकार राजकुमार जैन राजन से मेरा व्यक्तिगत परिचय नही हैं.   उनकी किताब पेड लगाअो से उन्हें जानने का मौका मिला. उनकी बाल रचनाअों व उनके काव्य की अभिव्यक्ति ने एक ही बार मे किताब पढने के लिए आग्रहित किया. अपनी बात कहने में कवि सक्षम है. बाल साहित्य के माध्यम से बच्चों की मनोदशा  को व्यक्त करना अासान नही होता है. किताब के माध्यम से  कवि ने बच्चों की मनोदशा को व्यक्त करने का सफल प्रयास किया है.  इसके लिये बच्चों की मनोदशा को समझना जरूरी है, जिसमे कवि राजकुमार जैन राजन जी सफल है.

रोबोट दिला दो राम, मत छीनो बचपन ...आदि  कविता के माध्यम से आज के संदर्भ में  बस्ते के बोझ तले दबे हुए नन्हें विधार्थी  की पीडा साफ नजर आती है. आज बस्ते के बोझ तले मासूम बचपन मुरझाने लगा है. आज बच्चों की वह खिलखिलाती हँसी नजर नहीं आती अपितु पीठ व कंधे का दर्द उनके चेहरे से छलकता है.

नही देखती जात पात जल बरसाती एक साथ, 1
रूको नही मंजिल से पहले / हमको सिखलाती रेल2
 प्यारी दुलारी लगती हरे पेड की छाँव   3
मौसम अच्छा नही अभी......पानी में यदि रहे भीगते..चढ जायेगा बुखार ...4
आदि  कविता के माध्यम से बच्चों को खेल खेल में  संस्कार व  ज्ञान  प्रदान किया गया  है. पढने के साथ बच्चों के खाने व दूसरों के टिफिन को देखकर ललचाने की नैसर्गिक आदत के साथ मचलने व माँ से अपनी बात मनवाने का  सुंदर प्रयास है


 मम्मी अब तो दया करो रूप लंच का नया करो...  के माध्यम से समय के साथ  लंच का बदलता स्वरूप बच्चों की कोमल मन के भाव को मासूमियत से व्यक्त करता है. फलों के राजा आम हो या अच्छी बात नही जैसी कवितायें बच्चों को सीख देती हुई सफल बाल कविताएं है.

जंगल दिवस मनाया,  कविता के द्वारा कवि ने जंगल का महत्व बच्चों को बहुत अच्छे से समझाया है . वहीं नंन्ही चीटीं के माध्यम से बच्चों को श्रम व इमानदारी का पाठ पढाया है.

फिर आअो बापू कविता के द्वारा कवि ने जहाँ आज की समसामायिक स्थिति पर खुला प्रहार किया है.  वहीं इससे बच्चों को  आज समाज में हो रहे प्रसंगो से भी जोडा हैं.

पढने 2व पुस्तक का महत्व समझाती बाल कविता के साथ कवि ने महावीर, एेसा काम  न करना ..आदि कविता के माध्यम से बच्चों को धर्म , संस्कार व संस्कृति का   ज्ञान  देकर उन्हे शिक्षा का पाठ है. वहीं नदी के माध्यम से बच्चों की जिज्ञासा व कल्पना को बखूबी साकार किया है . प्यारे गाँव नामक  कविता से बच्चों को गाँव की सौधीं खुशबू व पहचान से रूबरू कराकर उन्हें वहाँ की माटी से जोडा है, गाँव का सौंधापन शहरों में नही मिलता है. नीम के गुण, मीठी नींद, पेड बचाअो, पानी को सहेजे,आदि रचनाएं पर्यावरण से जोडती बच्चो को  ज्ञान  के साथ उन्हे सहेजने के लिए सजग करती है.

समय के साथ अाधुनिक तकनीको से जोडती रचनाएँ बाल कविता के माध्यम से बच्चों को कंप्यूटर भैया, इंटरनेट आदि की  जानकारी देकर उन्हे खेल खेल में सरलता से जिज्ञासा द्वारा जोडने का सफल प्रयास करती हैं. ।सर्दी, नानी का घर आदि कविता बच्चो के मनोविज्ञान को व्यक्त करती है .

इस संग्रह में मुझे एक कविता बेहद पंसद आई . इस कविता के माध्यम से खेल खेल में बच्चो को अक्षर  ज्ञान के साथ साथ पढाना व  नन्हें मस्तिष्क में ज्ञान का संचार करना बेहद आसान बना दिया है. अक्षर  ज्ञान  के साथ अच्छी सीख देती हुई कविता बच्चों में निसंदेह अच्छे संस्कार रोपित करेगी.
तूफानों के दीपक , जलते दीपक कविता बच्चों को विषम परिस्थिति में भी लडने व हौसला प्रदान करना सिखाते है.

कुल मिलाकर बालकों की मानसिक स्थिति को बखूबी उजागर किया गया है.  यह पुस्तक बाल मनोविगान के अनुरूप ही है व बालको को जोडने में सक्षम है. कवि बेहतर ढंग से बाल मनोविज्ञान  को  व्यक्त करने व बाल पाठकों के साथ बडों को जोडने में सफल रहा है. बस कही कही कविता के कला पक्ष में  यदि गीत के शिल्प व गेयता को नजर अंदाज किया जाए तो पेड लगाअो संग्रह   अपनी बात कहने में पूर्णत: सफल है.  आ. राजकुमार जैन राजन जी को सुंदर संग्रह हेतु बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएँ .

शशि पुरवार



Saturday, August 3, 2019

"धूप लिखेंगे छाँव लिखेंगे


"धूप लिखेंगे छाँव लिखेंगे " आ. रविन्द्र उपाध्याय जी के गीत गजलों का  संग्रह है, प्रथम  खंड में  गीत  व द्वितीय  खंड में गजलों का अतिविशिष्ट  संकलन है।  प्रथम गीत  खंड में ४४ गीतों का समावेश है,  गीत एक से बढ़कर एक अपनी विशेष रसानुभूतिविशिष्टता का  अहसास कराते हैं. सीप में बंद मोती जैसे अनुपम गीत, विचारों को झकझोरते है.  

आ. रविन्द्र उपाध्याय जी के संग्रह  "धूप लिखेंगे छाँव लिखेंगे "  में गीतों की सादगी, सहजतासरल अभिव्यक्तिअनूठे बिम्ब कथ्य का सम्प्रेषणस्वरों की तल्खीसच्चाई,शब्दों का संचयफक्कड़पन  गीतों की विशेषता हैं.  जैसा कि नाम से प्रतीत होता है धूप लिखेंगे छाँव लिखेंगेकवि ने जीवन की सभी संवेदनाओं को खूबसूरती से गीतों में समेटा है। संवेदनाओं की पृष्ठभूमि से जन्मे गीतसंघर्षों  व खुशियों के कोलाहल में दबी हुई आह को,  बेहद खूबसूरती  सम्प्रेषित करते हैं। गीतों में बिम्बशिल्प सहजता, सम्प्रेषण विलक्षण हैपाठकों से सार्थक संवाद करते हुए गीत मंजिल की तरफ बढ़ते कदमों का दिलकश निमंत्रण है.

      संग्रह के  शीर्षक गीत  में ही कवि ने अपनी मंशा को व्यक्त किया है खुशियों के मधुमास के अतिरिक्त जीवन के अंधेरोंउदासीनता, निष्क्रियता, संघर्ष  को भी लयात्मक स्वर प्रदान कियें हैं. कवि के गीतों में विशेष संकल्पधर्मी चेतना का स्वर है. यथास्थिति  से पलायन न करना, दृढ़ इक्छाशक्ति से परिस्थितियों के संग चलते हुए गतिशील रहने का आनंद ही कुछ और है.  पाठकों से सार्थक संवाद करते गीतों की कुछ  बानगी देखिये ---
 
धूप लिखेंगेछाँव लिखेंगे / मंजिल वाली राह लिखेंगे 
खुशियों के कोलाहल में जो / दबी -दबी हैआह लिखंगे 
हम विरुद्ध हर दमन -दम्भ के /होकर -बेपरवाह लिखंगे। 

 
शब्द को जब आचरण आचरण का बल मिलेगा /
अर्थ को विश्वास का सम्बल मिलेगा सामना सच का करेंगे /मुँह सिलेगा
हृदय से हुंकारिए -पर्वत हिलेगा 

  जीवन में कुछ कर दिखाने की ललक इंसान के भीतर होनी चाहिए, सकारात्मक ऊर्जा से भरती गीत की यह पंक्तियाँ जीवन को बिंदास, भय मुक्त जीने की तरफ प्रेरित करती हैं। 

 
फूँक कर चलने में /खतरे का नहीं है डरमगर 
तेज चलने का मजा कुछ और है। 
धधक कर जो जल गया /पा गया इतिहास में वह ठौर है.  


४ गा रहे झरने कहीं पर / कहीं मरुथल की तपन है
थकन है, गति की तृषा भी / लगी मंजिल की लगन है

समय के साथ सामाजिक मूल्य भी परिवर्तित हुए हैं. सलोनेपन, सहज कोमलता, भाव अभिव्यक्ति  की जगह कुटिलता मूल्यों पर हावी होने लगी है. संवादहीनता, बंधन, गति को बाध्य करते है. यह परिवर्तन कहीं न कहीं मूल्यों को खोखला कर रहा है. मानवीय प्रवृति है कि जितना मिलता है, उससे ज्यादा की कामना करते हैं, संघर्षों में खटते हुए छांछ भी बिलोते हैं तो नवनीत की चाह, हिलकोरे मारती है. सभ्य कहे जाने वाले समाज में बनावटीपन, विकृता व्याप्त है. विडम्बना है कि मजहब के नाम पर लोगों को दो दलों में विभाजित किया गया है. मुखड़े पर मुखौटे लगे हैं,  कलुषित विचारों से हद्रय के भाव जैसे तीत हो गयें है. आदमी धन से बड़ा हो गया किन्तु कद से छोटा ही रह गया है. सामाजिक विसंगतियों पर  करारा प्रहार करती हुई कवि की कलम विसंगतियों की परते उधेड़ती है. रिश्तों में मधुरता की जगह द्वेष की तपन व्याप्त है, ऐसे में कवि की संवेदना राग –विराग दोनों भावों को कुछ इस प्रकार व्यक्त करती है .
तपन भरा परिवेश, किस तरह /इसको शीत लिखूँ ?
जीवन गध हुआ है/ कहिये कैसे गीत लिखूँ ?
अपना साया भी छलिया /किसको फिर मीत लिखूँ ?
क्रुन्दन को किस तरह भला /सुमधुर संगीत लिखूँ ?
जीवन है उपहार ,इसे / मे कैसे क्रीत लिखूँ ?

रोक रोने परयहाँ हँसना मना है / कहाँ जाएँवर्जना  वर्जना  है 
ठोकरों में दर- ब -दर है भावना / आदमी के सिर चढ़ी है वर्जना.
ठोकरों में दर –बदर है भावना /आदमी के सिर चढ़ी है तर्कना
द्वेष मन में अधर पर शुभकामना है
ख्वाब सभी बुलबुले हुए/ हसरते भी हो गई हवा
पीर पार कर रही हदें / निगोड़ी कहाँ हुई दवा .
छाँछ को भी छ्छा रहे हम/ उनको नवनीत चाहिए.
किस मिजाज की चली हवा /बुरी तरह बंटे हुए लोग
भीतर है भेद भयानक / ऊपर से सटे हुए लोग .
मजहब को मलिन कर रहे / करुणा से कटे हुए लोग
जनहित का जाप कर रहे / थैलियों में बंटे हुए लोग .

बाहर से सब भरा भरा /अंतर्घट रीता का रीता
मुखड़े की जगह मुखौटा है / कद से आदमी छोटा है
सारे रिश्ते ज्यों लाल मिर्च /लाली ऊपर , भीतर तीता
कितना निष्फल ,कितना दारुण /जो समय अभी तक बीता .


सुर्खियाँ ढो रही वहशत / प्रीत खातिर हाशियें हैं
मेमनों के मुखौटे में / घूमते अब भेडिये हैं
गहन है पहचान संकट / हर तरफ बहरूपिये हैं .

६ माँगना न गीत अब गुलाब के /जिंदगी की हर तरफ बबूल
बैठ गए जिसके भी भरोसे / झोंक गया आँखों में धूल.
७ दरमियाँ दो दिलों के बहुत फासला / छू रही है शिखर छल कपट की कला .


 कई बादल सिर्फ गरजते है बरसते नहीं है, कुछ इसी तरह के लोग भी समाज में होते है जो राई का पहाड़ बनाते हैं, किन्तु कर्म – युग धर्मिता का निर्वाह नहीं करते हैं. धर्म और कर्म में युगों सा फासला प्रतीत होता है. ऐसे में स्वस्थ समाज की कामना कैसे की जा सकती है. कवि धर्म अपने मार्ग से विचलित नहीं होता है अपितु समाज को कर्म हेतु प्रेरित करता है. मानव जाति के हित के लिए कवि की चिंता महसूस की जा सकती है, तूफ़ान के भय से हार जाना बुजदिली है. कवि के स्वरों में आव्हान है, जो सदी के सुख की कामना करता है .

         किनारे ही बैठ केवल कुलबुलाना है / कि साथी ,पार जाना है
 रात काली नदी के पार सूरज है चमकता /अग्नि में ही स्नात हो औजार में लोहा बदलता
लू – लपट में गुलमुहर –सा खिलखिलाना है / हमें अब पार जाना है
मछलियों सा पुलिन पर ही छटपटाना है / कि साथी पार जाना है

 २
 चलों, कहीं बैठें, कुछ बात करें/ फुर्सत को मीठी सौगात करें
तितली –भौरा बन नाचें –गायें /चौकन्ने लोगों को चौकायें
एक चमत्कार अकस्मात करें
रुढियों के बंधन झकझोर चलें / कंचन दिन –कस्तूरी रात करें .
नेकियों के दिन बहुरे /बंद हो बदी
यह नई सदी बने /स्नेह की सदी
उत्सवों में अब न कभी / घुले त्रासदी
सुविधाओं की खातिर / बिके न खुदी .
घोर काली रात में, यह / एक दीपक जल रहा है
नींद में है लोग, पर यह / जागता प्रतिपल रहा है .
बस किताबों में लिखा सद्भाव पढ़िए
धर्म भाषा जाती का टकराव डरिये.

प्रेम एक शास्वत काव्यानुभूति है, प्रेम की कोमल अनुभूतियों को, शब्दों का, कोमल जामा पहनाना सरल नहीं होता है. प्रेम निवेदन, प्रणय भाव, प्रकृति सौन्दर्य, मधुमास, ऋतुराज का जादू , कवि का प्रकृति  प्रेम, ह्रदय का बच्चों सा मचलना, मौसमी रंगत की अनुपम छटा, भिन्न भिन्न रंग नवगीतों में अपनी ताजगी, कोमलता का अहसास कराते हुए सीधे ह्रदय में उतरते हैं. प्रकृति और प्रेम की सुगंध, सहज बिम्ब पाठकों को बरबस आकर्षित कर मन को प्रफुल्लित करती हैं .

१ हरसिंगार –टहनी पर चाँदी के फूल खिले / जाने किन सुधियों में औचक यह होंठ हिले
झड़ते हैं फूल खिले /मिट जाता रंग भले / ख़त्म नहीं होते पर खुशबु के सिलसिले

२ चन्दनगंधी हवा चली / मधुमास आ गया
वृन्त वृन्त में खिलने का / विश्वास आ गया 
कुसुमित हो गयी आज / सुधियों की क्यारी
भिगो रही मन, किसकी / आँखों की पिचकारी
स्मृति में परदेशी / कितने पास आ गया
सेमल के फूल लाल लाल /कितने लाल लाल
रंग दिए फागुन ने / मौसम के गाल
घोल रहा अमृत सा कोकिल स्वर / झूम रही बौर लदी डाल
बोल रहे ढोल कहीं तक धिन –तक /झनक रहे झील और ताल  
बतरस में भींग रहा है पनघट / लगाता ठहाके चौपाल


पतझरी मनहूसियत के दिन गए / हर नयन में उग रहे sapne नए
ठूंठ में भी पल्लवन की लालसा / अजब है ऋतुराज का जादू
शूल सहमे –से खिले इतने सुमन /हर तरफ हँसता हुआ है हरापन
उठा रहा है स्वर पिकी का गगन तक / छलकता है अनुराग हर सू .

प्रकृति के सानिध्य में, बरखा का मौसम हर वर्ग को रोमांचित करता है . ह्रदय में जैसे बचपन हिलोलता है, कुछ ऐसा ही कवि का ह्रदय, बच्चों सी कोमल चाहना करता है, कोमल बालपन में डूबी हुई सुधियाँ, शब्दों के माध्यम से कुछ यूँ छलकी हैं.

बादल भैया, बादल भैया – पानी दो
लू लपटों से व्याकुल धरती / इसको छाँव हिमानी दो
मेढक की मायूसी देखो / रिमझिम बरखा पानी दो
गर्जन तर्जन बहुत हो चुका / सुखदा सरस कहानी दो.
प्यासी धरती का आमंत्रण / बादल आये
मगन मयूरी का मधु नर्तन / बादल आये
भीगी भीगी यह पुरवाई /सुधियों ने फिर ली अंगडाई
बाहर यह तन भीग रहा है / भीगे भीतर मन का मधुबन /बादल आये. 
   
           इस संग्रह में गीतों की  भाषा, कथ्य की प्रस्तुति, अनूठे बिम्ब सहजता पाठकों को आकर्षित करते हैं. गीतों में कहीं भी उदासी का भाव नजर  नहीं आता हैं अपितु  गीतों के  सकारात्मक भाव उदासी को मधुरम बना रहें  हैं। नकारात्मकता को कुछ इस तरह सम्प्रेषित किया गया है कि वह विचारों को झकझोरकर, सकारात्मकता का मार्ग दिखाती है।   कवि ने जीवन की हर बारीकियों को संजीगदगी से बयां  है. यह कवि की दूरदर्शिता है कि गीत समय के साथ  चलते हुए समय के गीत प्रतीत होते हैं. जो अमिट  बन बड़े है. संग्रह का  एक -एक गीत  संवेदनाओं के अनुपम मोती हैं।  गीत पाठक को उसकी पृष्ठभमि से जोड़ते हैं, शब्दों का संचय इतना सुन्दर है कि  कहीं भी शब्द जबरन ठूंसे हुए प्रतीत नहीं होते हैं अपित गीतों की लयात्मकता, शिल्प , कसावट , गेयता पाठकों को बांधे रखती है. सहज रसानुभूति से लबरेज गीत स्पंदित करते हैं. शब्दों में आग है जो आशा की मशाल को जलाये रखने में सक्षम है. गीतों में  एक कशिश है, ताजगी है, जो इस संग्रह को विशिष्ट बनाती है . आ. रविन्द्र उपाध्याय जी के गीतों को जितनी बार पढ़ा जाये सहज रसानुभूति स्मृतियों में सहेजती है.  गीत के बारे में  जितना कहें कम प्रतीत  होता है, संग्रह जितने बार भी पढ़ा जाये ताजगी का अहसास देता है. बेहद उत्कृष्ट संग्रह है, आ. रवीन्द्र उपाध्याय जी को श्रेष्ठ संग्रह हेतु कोटि कोटि हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ।  
--- शशि पुरवार   

  


समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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