Saturday, April 4, 2020

जनता कर्फ्यू - स्वयं के संयम की परीक्षा


जनता कर्फ्यू - स्वयं के संयम की परीक्षा

देश विदेश में फैला हुअा कोरोना वायरस लाखों लोगों को काल बनकर निल गया है, देश में बढ़ते वायरस महामारी के संक्रमण से उत्पन्न होने वाली जटिल समस्या से निपटने के लिए सरकार के जनता कर्फ्यू के फैसले का स्वागत है.

साधार: मारी यह मानसिकता है कि स्वेच्छा से हम कुछ नहीं करेंगे और यदि जबरदस्ती किया जाय, तो सरकार को कोसने लगेंगे. पहले सँभलते नहीं है लेकिन जब परेशानी होती है तो सरकार को गालियां देना शुरू कर देंगे . करोड़ों की आबादी वाल भारत देश में शासन पूर्णत: तभी सफल होगा, जब जनता उसमें सहयोग करेंग.
यह कर्फ्यू नही है अपितु आपकी इस घड़ी में स्वयं पर संयम रखकर अपने लिए, अपनों के लिए व समाज हित के लिए सुरक्षा है. यदि हम स्वयं की रक्षा करेगें तो समाज सुरक्षित रहेगा. हम देश के जागरूक नागरिक है व नागरिक देश की इकाई होता है, संक्रमण को रोकने में हम महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकतें है.
कोरोना वायरस महामारी का कहर अन्य देशों में तीसरे व चौथे सप्ताह में तबाही मचा चुका है . महामारी धीरे-धीरे अपने पैर पसार रही है . भारत में आज 300 के करीब लोग संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं, 4 – 5 मौतें हो चुकी है .
चूंकि अब तीसरा सप्ताह शुरू होने वाला है इसीलिए जरूरी है कि आप अपना व अपने परिवार का ख्याल रखें. क्योंकि भारत देश में करोड़ों की आबादी में संक्रमण का तेजी से फैलना तबाही मचा सकता है. इसीलिए यह महामारी अपना भयानक रूप उससे पहले उसे रोकना अत्यंत आवश्यक है . देश के लगभग हर राज्य में धीरे धीरे लोक डाउन किया जा रहा है. लेकिन इस बात की गंभीरता को कितने लोग समझ रहे हैं ?. कितने लोग कोरोना वायरस को गंभीर समस्या के रूप में ले रहे हैं ? अभी भी लोग बिना मास्क बाहर निकल रहें है. मैंने कई लोगों से इस संदर्भ में भी बात की और उन्हें इस समस्या के बचने की सलाह दी, तो उन्होंने समस्या को ही धता बता कर गंभीरता का मखौल उड़ा दिया.

हाइ सोसाइटी में बुद्धिजीवी लोग अपना नियमित सैर सपाटा, जमावड़ा पार्टी को जारी रखे हुए है . उनके लिए यह समस्या नहीं अपितु घुमक्कड़ी का समय बना हुआ है . यह तो वही बात है कि स्वयं को बुद्धिजीवी घोषित करके हम स्वयं को मूर्ख बना रहे हैं . क्या आपने सोचा है यह महामारी जब विकराल रूप लेगी तो कितने अपनों की जान लेगी ? क्या हम ,अपनों को खोने के बाद चेतेगें ? इस समय देश संकट से गुजर रहा है. हमारे देश की आर्थिक अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ा है, समस्या गंभीर है .हमें गंभीरता से समस्या को बढ़ने से पहले उसका दमन कना होगा.

हमें समझना होगा कि जब अापके लिए जरूरी सेवाएं बहाल है तो अनावश्यक बाहर न जाएं. सामान भर कर स्वार्थी ना बनें. दिहाडी मजदूृर इस संकट में सबसे ज्यादा झूझ रहे हैं. हमसे ज्यादा उनके घरों मे समस्या है, वह महामारी के साथ अपनी भूख से भी झूझेंगे. अपने कदम उनकी मदद के लिए बढानें होगें, अपने घर में काम करने वाले लोगों हेल्परों की सहायता करनी होगी.

स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी, सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी और बड़ी संख्या में स्वच्छताकर्मी इस मिशन में अपनी जान जोखिम में डालकर जुटे हुए हैं। 130 करोड़ वाले जनसंख्या के देश में कोविड-19 के संक्रमण से जनता को बचाने के लिए केंद्र सरकार और सारी राज्य सरकारें अपनी पुरजोर कोशिश कर रही हैं। हमें उसमे अपना योगदान देना होगा. नही तो जब यह संक्रमण अपना विकराल रूप धारण कर लेगा, उस भयावह स्थिति को संभालना मुश्किल होगा हमारे देश की जितनी जनसंख्या के मुकाबले स्वास्थ सेंवाए कम पडेगी.

जनता कर्फ्यू माननीय प्रधानमंत्री जी ने अापके लिए, आपके नाम किया है, हम स्वयं के लिए अपनों के लिए इतना कर सकते हैं. सोशल दूरी बनाकर अपनों के करीब आएं. खुद को घर में कैद मत समझें , परिजनों के साथ पलों को जिए. घबराएं नहीं . थोडी सी सावधानी खुशियों भरी जिंदगी बन सकती है.

हम लोग भी तीसरे स्टेज पर पहुंचने वाले हैं इसीलिए जरूरी है कि आप अपना व अपने परिवार का ख्याल रखें. क्योंकि भारत देश में करोड़ों की आबादी में संक्रमण का तेजी से फैलना तबाही मचा सकता है क्योंकि स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं इतनी बहाल नहीं है जितनी आवश्यकता होगी . एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते कुछ बातों का धायन रखें , आपसे विनम्र निवेदन है कि

1 माननीय प्रधानमंत्री जी ने कई उपाय बताए हैं जिनका पालन करके छोटा सा सहयोग दे सकते हैं
2 सामान की जमाखोरी न करें है . अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम न होने दें।

3 कारण बाहर ना निकलें. स्वास्थ संबधी परेशानी या कोरोना के लक्षण दिखने पर घबराने की जगह सरकार द्वारा दिये गये हेल्प लाइन नंबर से मदद लें

4 कोविड-19 को हल्के में न लें। इसकी गंभीरता को समझें। व्हाट्सएप पर आने वाले अवैज्ञानिक और भ्रामक उपचारों का प्रचार-प्रसार न करें।

5 स्वच्छता का ध्यान रखें, सतर्कता बरतें, सरकार का साथ दें. बच्चों के हाथ भी साबुन/सैनिटाइजर से धुलवाते रहें.

जनता कर्फ्यू हमारे ही संयम की परीक्षा है, जनता का जनता के लिए स्वंय पर लगाया गया ‌कर्फ्यू समाज हित के लिए होगा. इस जंग को जीत जाना है हमें कोरोना को हराना है.
शि पुरवार



Sunday, March 29, 2020

21 दिन जिंदगी बचाने के लिए




यह २१दिन जिंदगी को बचाने की जद्दोजहद है जिसमें संयम के साथ घर पर रहकर हम जिंदगी को बचा सकते हैं, संक्रमण के साथ डर के भाव भी लंबे होते जा रहे हैं, देश विदेश में हुई तबाही के कारण लोगों के मन में डर बढ़ने लगा है कि कल क्या होगा ? लेकिन यह डरने का नहीं,  संभलकर जंग जीतने का समय है, घर में रहकर ही हम अपनों को बचा सकते है ।
एक तरह से देखा जाए तो वक्त का यह दौर आज पुराने दिनों की याद दिला रहा है। जब लोगों की महत्वाकांक्षाएं उन पर हावी नहीं थी, लोगों के पास एक दूसरे से मिलने के लिए समय था । मित्रों व परिजनों के साथ शामें व्यतीत हुअा करतीं थी। प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की मजबूत जड़ें फल फूल रहीं थी।  फिर समय के बदलते चक्र में जिंदगी दौड़ने लगी। वह अपनों से भी दूर होती गई । समय के साथ दौड़ती हुई जिंदगी के कदम आज कोरोना महामारी के कारण रूक से गये।
संपूर्ण विश्व, मानव जाति वायरस के प्रकोप से लड़ रही है। अर्थव्यवस्था धड़ाम से गिर पड़ी है। देशव्यापी लॉक डाउन है ।  विषम परिस्थितियाँ है । किसी ने नही सोचा होगा कि एक वायरस मानव के बढ़ते कदमों को रोक सकता है। समय के साथ इंसान मृगतृष्णा की दौड़ में इतना लिप्त हो गया कि रुके हुए कदम उसे बेचैन कर रहें हैं ।
हर वर्ग के लोगों की अपनी अलग समस्याएं  हैं। वर्ग का एक हिस्सा जिंदगी को बचाने के प्रयास में स्वयं की जान जोखिम में डालकर सेवारत है । वहीं कुछ लोग अभी भी समय की नजाकत को नहीं समझ रहे हैं । अपने फर्ज के कारण सेवारत कर्मचारियों को बाहर निकलना आवश्यक है ।  लेकिन कुछ लोग अभी भी की गंभीरता को हल्के से ले रहे हैं। जिसका परिणाम घातक हो सकता है।
रोज लाओ व रोज खाओ वाली संस्कृति के कारण आज घरों में राशन पानी की समस्या हो रही है । जरूरत के सामान बाजार में उपलब्ध होने के बावजूद लोग अकारण घर से बाहर निकल रहे हैं। सबसे ज्यादा निम्न वर्ग व दिहाडी मजदूृर प्रभावित हो रहा है । जिनके पास रहने के लिए छत नहीं है व खाने के लिए भोजन नहीं है। भूख से बड़ा संकट क्या हो सकता है ।
उनकी भूख ने महामारी के डर पर विजय पा ली है । लॉक डाउन के कारण कामकाज ठप्प है । ऐसे में यह वर्ग पलायन को ही उचित मार्ग समझ रहा है।  असुविधा व साधन की कमी की वजह से पलायन करना उनकी मजबूरी है और यह मजबूरी उनकी जान जोखिम में डाल रही है। सड़कों पर उंगली भी संक्रमण की साइकिल तोड़ने में नाकाम साबित होगी, समस्या बेहद गंभीर है। 
परम सत्य है कि पापी भूख से बड़ी कोई बीमारी नहीं होती है।  यह कदम उनकी जिंदगी को खतरे में डाल रही है व गांवों में भी संक्रमण फैल सकता है। जिंदगी की मार दोनों तरफ से है। लेकिन जिंदगी को बचाना ही बेहद जरूरी है। 
सरकार मदद करने का पूर्ण प्रयास कर रही है कि संक्रमण के कदम रोके जाएं व निम्न वर्ग की समस्या को दूर किया जाए।  बहुत सी समाज सेवी संस्थाएं भोजन उपलब्ध कराने के लिए आगे आई है ऐसे में हमारी भी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम भी उनका पूर्ण सहयोग करें। 
आने वाला समय सभी के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी है।  कोरोना वायरस तीसरे सप्ताह में पहुंचने वाला है । जहां से अन्य देशों में तबाही मची थी।  एक एक पल जिंदगी के लिए भारी होगा। 
ऐसे समय स्वयं को सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है यह संपूर्ण मानव जाति के अस्तित्व का सवाल है ।  21 दिन घर में रहना लोगों के लिए बहुत मुश्किल हो सकता है किंतु यह एक सुरक्षा कवच है, झेलना हमारे लिए हितकर है। 
इसे सकारात्मक नजरिए से देखें कि कोरोनावायरस के चक्र को उल्टा घुमाना शुरू कर दिया है।  आज अपनों के साथ समय व्यतीत करने का समय दिया है अपनों से जोड़ा है । जो कभी एक दूसरे का हाल-चाल पूछना भूल गए थे अाज अपनों से पुन: जुड़े हैं । यह कैद नहीं,  सुरक्षित भविष्य का संग्रहण है। 
भटकती हुई जिंदगी व मन को संयमित करके हम इन पलों को खुशहाल बना सकते हैं। जब तक आप घर में है आप सुरक्षित हैं और जो बेघर हैं उन्हें बचाने का प्रयास सरकार कर रही है । पैसा नहीं हमारा सहयोग ही हमें काल का ग्रास बनने से रोक सकता है। अपने डर पर काबू पाए ।  लोगों की भ्रामक बातों से बचें । सकारात्मकता का एक एक अंश जिंदगी को बचा सकता है। समाज के प्रति हमारी भी नैतिक जिम्मेदारी है कि जो सेवार्थ की भावना दिखा रहे हैं हम उनके काम में बाधा उत्पन्न करके उनकी समस्या को विकराल ना बनाएं।
प्रधानमंत्री राहत कोष में मदद के लिए कुछ संस्थाएं, बड़ी कंपनियां एवं उच्च वर्ग सामने आ रहा है।  राहत का यह पैसा तभी काम आएगा जब कोविड से लड़ने के लिए हम अपना घर पर रहकर उन्हें सहयोग दें। इस जैविक संक्रमण को रोकने के लिए घर पर रहना ही सबसे बड़ा हथियार होगा। 
इसलिए सकारात्मक रहे, सुरक्षित रहे , बेहद आवश्यक होने पर यदि बाहर जाते हैं तो लोगों से 2 मीटर का अंतर रखें। कोरोनावायरस को हराएं और जीवन को बचाएं ।  हमें जीवन को बचाने में अपना योगदान देना है। हमारी एक छोटी सी कोशिश महामारी को फैलने से रोक सकती है , जीवन को बचा सकती है।

 shashi purwar 

Friday, March 6, 2020

आखिर कब तक ...

 

आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियाँ
अपराधों के बढते साए
पन्नों सी बिखरती बेटियाँ

कौन बचाएगा बेटी को
भेड़ियों और खूंखार से
नराधर्म की उग्र क्रूरता
दरिंदों और हत्यारों से
भोग वासना, मन के कीड़े
कैंसर का उपचार करो
जो नारी की अस्मत लुटे
वह रावण संहार करो

दूजों की कुंठा का प्रतिफल
आपद से गुजरती बेटियाँ
आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियां

अदालतों में लंबित होती
तारीखों पर सुनवाई
दोषी मांगे दया याचिका
लड़े जीवन से तरुणाई
आज प्रकृति न्याय मांगती
सुरक्षा, अहम सवाल है
तत्व समाज व देश के लिए
बर्बरता, जन्य दीवाल है

खौफनाक आँखों में मंजर
पर, भय से सिहरती बेटियाँ
आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियाँ

लावारिस सडकों पर भटके
मिली न मुझको मानवता
कायरता के शिविर लगे है
अपराधों का फंदा कसता
चुप्पी तोडो, शोर मचाओ 
निज तूफानों को आने दो
दोषी का सर कलम करो
स्वर कोलाहल बन जाने दो

भय मुक्त आकाश बनाओ 
हिरनों सी विचरती बेटियाँ
आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियाँ
अपराधों के बढते साए
पन्नों सी बिखरती बेटियाँ

शशि पुरवार

Sunday, February 9, 2020

पनप रहा है प्यार

  फागुन आयो री सखी   फागुनी दिल


मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग
उत्सव वाले चंग, चटक गुलमोहर फूला
जीवन में आनंद, पड़ा वृक्षों पर झूला
कहती शशि यह सत्य, अनोखा मन में संगम
धरती का उन्माद, धरे मंगलघट मौसम
निखर गया है धूप में, झरा फूल कचनार
गुलमोहर की छाँव में, पनप रहा है प्यार
पनप रहा है प्यार, उमंगें तन मन जागी
नैनों भरा खुमार, हुआ दिल भी अनुरागी
कहती शशि यह सत्य, गंध जीवन में भर गया
खिला प्रेम का फूल, सलोना, मुख निखर गया
शशि पुरवार
(रचना मन के चौबारा संग्रह से )

Wednesday, February 5, 2020

करारी खुशबू

 अदद करारी खुशबू 

शर्मा जी अपने काम में मस्त  सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे ।  दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। अब खुशबु होती ही है ललचाने के लिए , फिर गरीब हो या अमीर खींचे चले आते है।   खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। खाने के शौक़ीन लोगों के मिजाज भी कुछ अलग ही होते हैं।   कुछ  गर्मागर्म पकवानों को खाते हैं कुछ करारे करारे नोटों को आजमाते हैं।  अब आप कहेंगे नोटों आजमाना यानि कि खाना। नोट आज की मौलिक जरुरत है।  प्रश्न उठा कि नोट  कौन खा सकता है। अजी बिलकुल खाते है , कोई ईमानदारी की सौंधी खुशबू का दीवाना होता है तो कोई भ्रष्टाचार की करारी खुशबू का।   हमने तो  बहुत लोगों को  इसके स्वाद का आनंद लेते हुए देखा है।  ऐसे लोगों को ढूंढने की जरुरत नहीं पड़ती अपितु ऐसे लोग आपके सामने स्वयं हाजिर हो जाते हैं। खाने वाला ही जानता है कि खुशबू  कहाँ से आ रही है। जरा सा  इर्द गिर्द नजर घुमाओ , नजरों को नजाकत से उठाओ कि  चलते फिरते पुर्जे नजर आ जायेंगे।  

   हमारे शर्मा जी के  दुकान के पकवान खूब प्रसिद्ध है।  बड़े प्रेम से लोगों  को प्रेम से खिलाकर अपने जलवे दिखाकर पकवान  परोसते हैं।  कोर्ट कचहरी के चक्कर उन्हें रास नहीं आते।  २-४ लोगों को हाथ में रखते है।  फ़ूड विभाग वालों का खुला हुआ मुँह भी रंग बिरंगे पकवानो से भर देते हैं।  आनंद ही आनंद व्याप्त है।  खाने वाले  भी जानते है कहाँ कितनी चाशनी मिलेगी। 

 फ़ूड विभाग के पनौती लाल को और क्या चाहिए।  गर्मागर्म पोहा जलेबी के साथ करारा स्वाद उनके पेट को गले तक भर देता है।  उन्हें  मालूम है  जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी।  पकवान की खुशबू  में मिली करारी खुशबू का स्वाद उनकी जीभ की तृषा  शांत करता है।  आजकल लोगों में  मातृ भक्त  ईमानदारी कण कण में बसी थी।  यह ईमानदारी करारी खुशबू के प्रति वायरल की तरह फैलती जा रही है।  आजकल के वायरस भी सशक्त है तेजी से संक्रमण करते है। संक्रमण की बीमारी ही ऐसी है जिससे कोई नहीं बच सकता है।  

   शर्मा जी के भाई  गुरु जी कॉलेज में प्रोफेसर है।  वैसे गुरु जी डाक्टर हैं किन्तु डाक्टरी अलग प्रकार से करते है।  उनकी डाक्टरी के किस्से कुछ अलग ही है।  अपने भाई पनौतीलाल से उन्होंने बहुत कुछ सीखा , उसमे सर्वप्रथम था करारी खुशबू का स्वाद लेना व स्वाद देना।  यह भी एक कला है जिसे करने के साधना करनी होगी।   

वह डाक्टरी जरूर बने पर मरीज की सेवा के अतिरिक्त सब काम करतें है।  कॉलेज में प्रोफेसर की कुर्सी हथिया ली।   किन्तु पढ़ाने के अतिरिक्त सब काम में महारत हासिल है  और बच्चे भी उनके कायल है।  मसलन एडमिशन करना , बच्चों को पास करना , कॉलेज के इंस्पेक्शन करवाना , कितनी सीटों से फायदा करवाना ...  जैसे अनगिनत काम दिनचर्या में शामिल है। जिसकी लिस्ट भी रजिस्टर में दर्ज न हो।   हर चीज के रेट फिक्स्ड है।  जब बाजार में इंस्टेंट  वस्तु उपलब्ध हो तो खुशबू कुछ ज्यादा  ही करारी हो जाती है।  ऐसे में बच्चे भी खुश हैं ;  वह भी नारे लगाते रहते है कि  हमारे प्रोफेसर साहब जिन्दावाद। गुरु ने ऐसा स्यापा फैलाया है कि कोई भी परेशानी उन तक नहीं पंहुच पाती।  विद्यार्थी का हुजूम उनके आगे - पीछे रहता है।  गुरु जी को नींद में करारे भोजन की आदत है। स्वप्न भी उन्हें सोने नहीं देते।  जिजीविषा कम नहीं होती।  नित नए तरीके ढूंढते रहते है। 

 उनका जलवा ऐसा कि नौकरी मांगने वाले मिठाई के डब्बे लेकर खड़े रहते है।  उनका डबल फायदा हो रहा था।  असली मिठाई पनौती लाल की दुकान में बेच कर मुनाफा कमाते व करारी मिठाई सीधे मर्तबान में चली जाती थी।  यानी पांचो उंगलिया घी में थी।  

 एक बार उन्होंने सोचा अपनी करीबी रिश्तेदार का भला कर दिया है।  रिश्तेदारी है तो कोई ज्यादा पूछेगा नहीं।  अपना भी फायदा उसका भी भला हो जायेगा।  भलाई की आग में चने सेंकना गुरु जी की फितरत थी। 

 अपनी  रिश्तेदार इमरती को काम दिलाने के लिए महान बने गुरु जी ने उसे अपने कॉलेज में स्थापित कर दिया। उसका  सिर्फ एक ही काम था कॉलेज में होने वाले इंस्पेक्शन व अन्य कार्यों के लिए  हस्ताक्षर करना और कुर्सी की शोभा बढ़ाना।  महीने की तय रकम की ५००० रूपए। 

  गुरु जी पान खाकर लाल जबान लिए घूमते थे।  बेचारी इमरती को देते थे ५००० रूपए और शेष २५००० अपनी जेब में।  यह गणित समझने वालों के लिए मुश्किल हो सकता है चलो हम आसान कर देते हैं।  गुरु जी अपने करारे कामों के लिए इतने मशहूर थे कि बच्चों से लेकर स्टाफ तक; उनकी जी हुजूरी करता है।  ऐसे में गुरु जी लोगों से ठेके की तरह काम लेते और  गऊ  बनकर सेवा धरम करते। रकम की बात दो दलों से करते स्वयं बिचौलिए बने रहते।   दूध की मलाई पूरी खाने के बाद ही दूध का वितरण करते थे ।  करारी खुशबू की अपनी एक अदा है।  जब वह आती है तो रोम रोम खिल उठता है जब जाती है तो जैसे बसंत रूठ गया हो। 

 दोनो भाई मिल जुलकर गर्मागर्म खाने के शौक़ीन  थे।  इधर कुछ दिनों से इमरती को मन के खटका होने लगा कि कम पगार के बाबजूद गुरु जी की  पांचो उँगलियाँ  घी में है और  वह स्वयं सूखी  रोटी खा रही है।  इंसान की फितरत होती है जब भी वह अपनी तुलना दूसरों से करता है उसका तीसरा नेत्र अपने आप खुल जाता है।  भगवान शिव के तीसरे नेत्रों में पूरी दुनिया समायी है , पर जब एक स्त्री अपना तीसरा नेत्र खोलती है तो  उससे कुछ  भी छुपाना नामुमकिन है। वह समझ गयी कि दाल में कुछ काला ही नहीं  पूरी दाल ही काली है।  खूब छानबीन करने के बाद गुरु जी क्रियाकर्म धीरे धीरे नजर आने लगे।  कैसे गुरु जी उसका फायदा उठाया है।  उसके नाम पर  लोगों से ४०००० लेते थे बदले में ५००० टिका देते है। शेष अपने मर्तबान में डालते थे। 

   इतने समय से काम करते हुए वह भी होशियार हो चली थी , रिश्तेदारी को अलग रखने का मन बनाकर अपना ब्रम्हास्त्र निकाला।  आने वाले परीक्षा के समय अपना बिगुल बजा दिया , काम के खिलाफ अपनी  संहिता लगा दी।  

" इमरती समझा करो , ऐसा मत करो "

" क्यों गुरु भाई आप तो हमें कुछ नहीं देते हैं फ़ोकट में काम करवा रहे हो  "

 " देता तो हूँ ज्यादा कहाँ मिलता है , बड़ी मुश्किल से पैसा निकलता है , चार चार महीने में बिल पास होता है "

" झूठ मत बोलो , मुझे सब पता चल गया है, आज से मै आपके लिए कोई काम नहीं करुँगी।  "

अब गुरु जी खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोच रहे थे।  सोचा था करीबी रिश्तेदार है।  कभी दिया कभी नहीं दिया तो भी फर्क नहीं पड़ेगा।  बहुत माल खाने में लगे हुए थे।  पर उन्हें क्या पता खुशबू सिर्फ उन्हें ही नहीं दूसरों तक भी पहुँचती है।  

इमरती की बगावत ने उनके होश उड़ा दिए , बात नौकरी पर आन पड़ी।  आला अफसर सिर्फ करारे काम ही देखना पसंद करते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि करारे व्यंजन में उपयोग होने वाली सामग्री कैसी है। यहाँ  हर किसी को अपनी दुकान चलानी है।   कहतें है जब मुंह को खून लग जाये तो उसकी प्यास बढ़ती रहती है। यही हाल जिब्हा का भी है।  तलब जाती ही नहीं। 

 इमरती के नेत्र क्या खुले गुरु जी की  जान निकलने  लगी।  गुरु जी इमरती को चूरन चटा रहे थे किन्तु यहाँ इमरती ने ही उन्हें चूरन चटा दिया।  कहते हैं न सात दिन सुनार के तो एक दिन लुहार का।  आज इमरती चैन की नींद सो रही थी।  कल का सूरज  नयी सुबह लेकर आने वाला था। सत्ता हमेशा एक सी नहीं चलती है। उसे एक दिन बदलना ही पड़ता है।      

  गुरु जी के होश उड़े हुए थे। उन्हें समझ में आ गया उनकी ही बिल्ली उन्ही से माउं कर रही है।  करारी खुशबू ने अब उनका जीना हराम कर रखा था।  खुशबू को कैद करना नामुमकिन है।  इमरती को आज गर्मागर्म करारी जलेबी का तोहफा दिया।  भाई होने की दुहाई दी।  रोजी रोटी का वास्ता दिया और चरणों में लोट गए।

  खुशबू जीत गयी थी।  अब मिल बांटकर खाने की आदत ने अपनी अपनी दुकान खोल ली  और अदद खुशबू का करारा साम्राज्य अपना विस्तार ईमानदारी से कर रहा था। जिससे बचना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। दो सौ मुल्कों की पुलिस भी उसे कैद करने असमर्थ है।  करारी खुशबू   का फलता फूलता हुआ साम्राज्य विकास व समाज को कौन सी  कौन दिशा में ले जायेगा।

    यह सब कांड देखकर शर्मा जी को हृदयाघात का ऐसा दौरा पड़ा कि  परलोक सिधार गए।  सुबह गाजे बाजे के साथ उनकी यात्रा निकाली गयी।  उनके करारे प्रेम को देखकर लोगों ने उन्हें नोटों की माला पहनाई।  नोटों से अर्थी सजाई। फूलों के साथ लोगों ने नोट चढ़ाये।  लेकिन आज यह नोट उनके किसी काम के नहीं थे।  उनकी अर्थी पर चढ़े हुए नोट जैसे आज मुँह चिढ़ा रहे थे। आज उनमे करारी खुशबू नदारत थी।  
   
शशि पुरवार 

Wednesday, December 25, 2019

संवेदनाएं जोगन ही तो हैं

*जोगिनी गंध*
*पुस्तक समीक्षा/ डॉ. शैलेंद्र दुबे*
*कवयित्री के शब्दों में संवेदनाएं जोगन ही तो हैं जो नित नए भावों के द्वार विचरण करती हैं. भावों के सुंदर फूलों की गंध में दीवानगी होती है, जो मदहोश करके मन को सुगंधित कर देती है. साहित्य के अतल सागर में अनगिनत मोती हैं, उसकी गहराई में जाने पर हाथ कभी खाली नहीं रहते.*
.........................
*मन को मोहित करती संवेदनाओं की जोगिनी गंध*
मनुष्य प्रकृति की अद्भुत रचना है. सरस अभिव्यक्ति की क्षमता तथा गुण ने उसे इस काबिल बनाया है कि वह स्वयं रचनाकार के रूप में समाज को श्रेष्ठ विचार एवं भाव दे सके. कल्पना और अभिव्यक्ति के मिलन से निर्मित साहित्य के क्षितिज पर विवेकी रचनाकार के उकेरे गए इंद्रधनुषी चित्र मानव मन को मानवीय सरोकार, संवेदना तथा अनुभूतियों के रंग में रंग देते हैं. कलम से कागज पर बनाए गए शब्दों के ताजमहल भाव, कल्पना तथा विचार के रूप में सदा के लिए मानस पटल पर अंकित हो जाते हैं. हिंदी साहित्य संसार में अपना विशिष्ट स्थान बनाने वाली ख्यातनाम कवयित्री श्रीमती शशि पुरवार का हाइकु संग्रह ‘जोगिनी गंध’ भी कोमल भावों के साथ सारगर्भित संदेश के रूप में न केवल मानस पटल पर अंकित होता है बल्कि सकारात्क प्रेरणा का संवाहक भी है.
हाइकु जापान की लोकप्रिय मुक्तक काव्य विधा है. हाइकु में गुंफित प्रत्येक पुष्प 5-7-5 शब्द क्रम की तीन पंक्तियों में बसी प्रेरणा एवं ऊर्जा से पल्लवित होता है. गागर में सागर की तर्ज पर उभरी इस विधा में शशि जी को महारथ हासिल है. यह काव्य संग्रह जोगिनी गंध, प्रकृति, जीवन के रंग, विविधा तथा हाइकु गीत रूपी पांच सर्ग में विभक्त है. पहले सर्ग जोगिनी गंध में कवयित्री ने प्रेम, मन, पीर, यादों तथा दीवानेपन को कोमल भावों के साथ शब्दों में पिरोया है. प्रेम को परिभाषित करती हुर्इं शशि जी कहती हैं-
'प्रेम भूगोल
सम्मोहित सांसें
दुनिया गोल'
‘सूखे हैं फूल
किताबों में मिलती
प्रेम की धूल’
‘नेह के गीत
आंखों की चौपाल में
मुस्काती प्रीत’
वास्तव में प्रेम का भूगोल यही है. प्रेम में पड़े मन की दुनिया प्रेमिका या प्रेमी के इर्द-गिर्द ही होती है. प्रेम ही हर प्रेमी की सांसों में समाया होता है. किताबों में मिलते सूखे फूल सदा ही प्रेम का उपमान बने हैं जिन्हें कवयित्री ने हाइकु के फूलदान में करीने से सजाया है.
प्रकृति के नित नए रंग मानव मन को अपने रंग में ढाल लेते हैं. प्रेम की शीतल बयार मन की उष्णता तथा कड़वाहट का लोप कर देती है. बर्फ से जमे अहसास पिघलने लगते हैं और शब्द रूप में अभिव्यक्त होते हैं. शशि जी दूसरे सर्ग में प्रकृति के शीत, ग्रीष्म, सावन, जल आदि विविध रंगों और बदलती छटाओं को बड़ी खूबसूरती के साथ मानव मन के कैनवास पर उकेरते हुए कहती हैं-
‘शीत प्रकोप
भेदती हैं हवाएं
उष्णता लोप’
‘बर्फ से जमे
भीगे से अहसास
शब्दों को थामे’
‘प्रकृति दंग
कैक्टस में खिलता
मृदुल अंग’
अभिव्यक्ति जब मानव मन के अंतस में जन्म लेती है तो उसका एक लक्ष्य होता है. शब्द रूपी भावों के कागज पर होते कदम-ताल में एक गंतव्य निहित होता है. शशि जी तीसरे सर्ग ‘जीवन के रंग’ में जीवन यात्रा, बसंती रंग, गांव और बचपन के अल्हड़पन के साथ मानवीय रिश्तों के गंतव्य की ओर कदम-ताल करती नजर आती हैं. इस सर्ग में जीवन की कई गूढ़ बातों पर रौशनी डाली गई है. मानवीय रिश्तों को खूबसूरत बिंबों के माध्यम से उकेरा गया है.
‘शब्दों का मोल
बदली परिभाषा’
थोथे हैं बोल’
‘मन के काले
मुख पर मुखौटा
मुंह उजाले’
‘उड़े गुलाल
प्रेम भरी बौछार
गुलाबी गाल’
काव्य संग्रह के चौथे सर्ग विविधा में दीपावली, राखी, नववर्ष के माध्यम से अनेकता में एकता के सूत्र को पिरोया गया है. पांचवा सर्ग हाइकु गीतों के शिल्प सौंदर्य से ओत-प्रोत है. ‘नेह की पाती’, ‘देव नहीं मैं’, ‘गौधुली बेला में’ जैसे हाइकु गीत रिश्तों के अनुबंधों को नया रंग देते नजर आते हैं. शशि जी का यह संग्रह तमाम विषयों को मानव मन के अंतस तक ले जाने में सक्षम है. सीमित शब्दों में भाव तथा बिम्बों को समाहित कर अपनी बात कह पाना निश्चित ही दुरूह कार्य है जिसे शशि जी ने बड़ी कुशलता से पूर्ण किया है. उनके हाइकू जहां अपनी बात सरलता से कह देते हैं, वहीं अर्थ घनत्व की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं. शब्द रूपी फूलों की इस माला में पिरोए गए हर भाव से पाठक स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है. यह विशेषता कवयित्री के काव्यगत कुशलता की परिचायक है.
144 पृष्ठों वाली, 200 रु. मूल्य की इस किताब का प्रकाशन लखनऊ के लोकोदय प्रकाशन ने किया है.

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Tuesday, December 3, 2019

"जोगिनी गंध" के हाइकु



अर्थ घनत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं "जोगिनी गंध" के हाइकु 
- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

वर्तमान युग परिवर्तन का युग है और परिवर्तन की यह प्रक्रिया जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है। साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि बदलते परिवेश में मानव के पास समयाभाव हुआ है और यान्त्रिकता के बाहुपाश में समाये मनुष्य के पास अब इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि वह साहित्य को अधिक समय दे सके। ऐसे में निश्चित रुप से साहित्यकारों को ही अधिक प्रयास करने होंगे। कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्ति भरनी पड़ेगी। ऐसे में यह युग लघुकविता या सूक्ष्मकविता का अधिक है। सूक्ष्म कविताओं में हाइकु कविता का अपना विशिष्ट स्थान है। हाइकु 5/7/5 अक्षर-क्रम में एक त्रिपदीय छन्द है। यह छन्द मात्र सत्रह अक्षरों की सूक्ष्मता में विराट् को समाहित करने की अपार क्षमता रखता है। यह छन्द जापान से भारत आया और हिन्दी सहित अनेक भाषाओं ने इसके शिल्प को आत्मसात् कर लिया। वर्तमान में हिन्दी हाइकु के अनेक संकलन एवं संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। इन्हीं में से एक है- "जोगिनी गंध"। इस हाइकु-संग्रह की सर्जक हैं- चर्चित कवयित्री भारत की सौ अचीवर्स में से एक- शशि पुरवार।

विभिन्न विधाओं के माध्यम से लेखन में सक्रिय शशि पुरवार जी एक शानदार हाइकु कवयित्री हैं। कम शब्दों में बड़ी बात कह लेने का हुनर एक अच्छे हाइकु कवि की पहली विशेषता है। 5/7/5 अक्षर विन्यास के क्रम में कुल तीन पंक्तियों, यानी कि सत्रह अक्षर में सागर की गहराई माप लेने की क्षमता का कौशल हाइकु की अपनी विशिष्टता है। जापान से आयातित यह छन्द अब हिन्दी का दुलारा छन्द बन गया है। प्रकृति तक सीमित हाइकु को हिन्दी ने जीवन के प्रत्येक रंग से भर दिया है।

जोगिनी गंध के माध्यम से हाइकु कवयित्री शशि पुरवार जी ने हिन्दी हाइकु साहित्य के विस्तार में अपना योगदान भी सुनिश्चित किया है। आपके हाइकु जहाँ अपनी बात बहुत सरलता से कह देते हैं, वहीं अर्थ घनत्व की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। विभिन्न विषयों के अन्तर्गत पाँच भागों में विभक्त और लगभग पाँच सौ हाइकुओं से सुसज्जित यह हाइकु-संग्रह स्वयं में विशिष्ट है। 

देखें उनके कुछ हाइकु-
* छूटे संवाद/दीवारों पे लटके/वाद-विवाद। 
* धूप सुहानी/दबे पाँव लिखती/छन्द रूमानी।
* प्रीत पुरानी/सूखे गुलाब बाँचे/प्रेम कहानी।
* जोगिनी गंध/फूलों की घाटी में/शोध प्रबन्ध।
* रीता ये मन/ कोख का सूनापन/अतृप्त आत्मा।

प्रेम के बिना संसार गतिहीन है। प्रेम की अनुभूति शाश्वत है। प्रेम की सम्पदा अपार है। कवयित्री ने हाइकु के माध्यम से प्रेम के शाश्वत स्वरूप को रूमानी शैली में अभिव्यक्त किया है-
* नेह के गीत/आँखों की चौपाल में/मुस्काती प्रीत।
* प्रेम अगन/रेत-सी प्यास लिये/मन-आँगन।
* आँखों में देखा/छलकता पैमाना/सुखसागर।

मन की थाह पाना सम्भव नहीं है। मन पर शशि जी का यह हाइकु विशेष लगा-
* अनुगमन/कसैला हुआ मन/आत्मचिन्तन। 

इसी आत्मचिन्तन से पीड़ा की छाया में स्मृतियाँ कोलाहल करती हैं-
* दर्द की नदी/लिख रही कहानी/ये नयी सदी।

हाइकु का मुख्य विषय प्रकृति-चित्रण है। प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से प्रेम करता है और जब वह प्रकृति के अनुपम सानिध्य में रहता है तो वह एक नयी ऊर्जा से भर जाता है। यह प्रकृति की निश्छलता और अपनापन ही है। प्रकृति का अंश मनुष्य अपनी प्रत्येक आवश्यकता के लिए प्रकृति पर निर्भर है। ऐसे में शशि पुरवार जी ने पुस्तक का एक भाग प्रकृति को ही समर्पित किया है, जहाँ पर कई अच्छे हाइकु पढ़ने को मिलते हैं-
* हिम-से जमे/हृदय के जज़्बात/किससे कहूँ।
* मन प्रांगण/यादों की चिनगारी/महकी चंपा 
* सघन वन/व्योम तले अँधेरा/क्षीण किरण 
* झरते पत्ते/बेजान होता तन/ठूँठ-सा वन।
* कम्पित धरा/विषैली पॉलिथीन/मानवी भूल।

हिन्दी हाइकु के वर्तमान स्वरूप के अन्तर्गत पुरवार जी ने जीवन का हर रंग भरने का सफल प्रयास किया है। यह प्रयास हाइकु के स्वरूप को स्पष्ट करता है। इस सन्दर्भ में कुछ और हाइकु-
* सूखे हैं पत्ते/बदला हुआ वक़्त/पड़ाव-अन्त।
* नहीं है भीड़/चहकती बगिया/महका नीड़।
* दिया औ' बाती/अटूट है बन्धन/तम का साथी
* कलम रचे/संवेदना के अंग/जल तरंग।
* अधूरापन/ज्ञान के खिले फूल/खिला पलाश।

जोगिनी गंध के अन्तर्गत जापानी काव्य विधा के दो और मोती ताँका (5/7/5/7/7) और सेदोका (5/7/7/5/7/7) भी संग्रह में सम्मिलित किये गये हैं। पुस्तक में चालीस ताँका और बीस सेदोका सम्मिलित हैं। जोगिनी गंध से यह ताँका देखें-
"चंचल हवा/मदमाती-सी फिरे/सुन री सखी!/महका है बसंत/पिय का आगमन!" इसी क्रम में यह सेदोका भी उल्लेखनीय है- "मेरा ही अंश/मुझसे ही कहता/मैं हूँ तेरी छाया/जीवन भर/मैं तो प्रीत निभाऊँ/क्षणभंगुर माया।"

'जोगिनी गंध' कवयित्री शशि पुरवार जी का हिन्दी हाइकु-साहित्य को समृद्ध करने का सत्संकल्प है। वे आगे भी अपनी सर्जना से हिन्दी हाइकु को अभिनव आयाम एवं विस्तार देती रहेंगी, मुझे पूर्ण विश्वास है। अनन्त शुभकामनाएँ!
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कृति- जोगिनी गंध
(हाइकु संग्रह)
हाइकुकार- शशि पुरवार
ISBN: 978-93-88839-30-3
पृष्ठ-144
मूल्य- ₹ 200
प्रकाशक- लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ 
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सम्पर्क: डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर', 24/18, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)- 212601
मो.- 9839942005
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समीक्षा -- है न -

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