Wednesday, September 13, 2023

समीक्षा -- है न -

 





शशि पुरवार 

Shashipurwar@gmail.com

समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा 




है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रंग बड़ी ख़ूबसूरती से समेटे हुए है 


मुकेश कुमार सिन्हा बेहद संवेदनशील कवि है।वे विज्ञान के विद्यार्थी रहे है उन्होंने प्रेम  के अनेक रूपों को गणितीय अंदाज़ में प्रस्तुत करके एक नया प्रयोग किया है.


प्रेम की कोमल संवेदनशीलता,   प्रेम का अपवर्तनांक नामक कविता  , प्रेम के हर त्रिकोण व  समय को रेखांकित कर रही है।रेखाओं का गमन,  रसायन विज्ञान का आकर्षण, अपरिवर्तित किरण या  दो कप चाय की उष्णता में प्रेम का क्रिस्पी होना, ह्रदय की धड़कनो का बढ़ना .,,  व चाय की पत्ती सा उबलता मन … सारे पैरामीटर  को नज़रों के सम्मुख प्रस्तुत करता है.


 मुकेश सिन्हा की कविताओं का कहन सहजता व सरलता से लब्ध है।यह अंदाज  ह्रदय पाठकों के अंतस को छूने में सक्षम है।


“सुनो न “  कोमल शब्दों में पुकारती प्रेम आवाज , एक अंतहीन सफर पर ले जाती है।  प्रेम कब कहाँ कैसे हो जाये कह नहीं सकते लेकिन उस प्रेम को विविध रूपों में अभिव्यक्त करके मुकेश ने प्रेम व विज्ञानं को का रासायनिक मिश्रण तैयार किया है जो अतुकांत कविता में नए आयाम स्थापित करता है।  


प्रेम युद्ध ही तो है.। सुनो ना ये ही इंतज़ार ख़त्म नहीं होता। तुम देर से आए और मैं बन गया मील  का पत्थर । सुनो ना ह्रदय  के जज्बात को खगोलीय पिंडों से जोड़ना और उसके चक्कर लगाना बिम्बो का अप्रतिम उदाहरण है।कितबी बातों को प्रेमिका के साथ करने के बाद मुकेश ने उसे अपनी कविता के ढाला है जैसे उस प्रेम को हृदय तल से जी रहें हो। 


 सुन भी लिया करो, मेरी लोड स्टार सुन रही हो न। .।इतनी नज़ाकत से उलाहना व मिठास का रंग कविता में भरा है जैसे ह्रदय को चीर कर रख दिया है।  


थिरकते  तारों की आग़ोश में।  बर्फ़ हो चुका सीना । मेरे तोंद को  उंगली में दबाकर ,,, मोटे  हो जैसे शब्दों का प्रयोग व  बेशक मत मानो प्रेम है तुमसे ।  किसी फ़िल्मी चरित्र को चरितार्थ करता है स्टील आय लव हर .। प्रेम की पराकाष्ठा के विविध आयाम है। 


देह की यात्रा भी नायिका के लिए गुलाब की पंखुड़ी भरा प्रेम प्रणय निवेदन, वहीँ  नायिका का  बातों को पूर्ण विराम लगाकर रोकना नजाकत से प्रेम की अभिव्यक्ति और कल्पना की पराकाष्ठा ,  एक कोमल दुनिया में प्रवेश करती है.



प्रेम की भूल भुलैया।  चश्मे की डंडिया । प्रेम के विविध रूप अभिव्यक्ति की कोमल संवेदनाएं हैं। 


यदि मुकेश को प्रेम का गणितीय गुरु कहे  विस्मय न होगा।  उन्होंने कविता में  गणित, विज्ञान ,रसायन फिजिक्स ,जूलॉजी के अनगिनत शब्दों को कविता में डाल कर नया सुंदर प्रयोग किया है। जो अपने अलग बिम्ब प्रस्तुत करता है शायद ऐसा पहली बार हुआ है.


मुकेश कुमार सिंह की कविताएँ जितनी कोमल है उतनी ही विज्ञान की गणितीय एक्वेशन  को सॉल्व करके नए आयाम भी स्थापित करती है।  भाषा और शैली की सहज सरल अभिव्यक्ति पाठकों को बाँधने में सक्षम है


बोसा, पिघलता कोलेस्ट्रोल , एहसासों का आवेग , असहमति , ब्यूटी लाई इन बिहोल्डर्स आइज  प्रेम की नयी परिभाषा को व्यक्त करती है.


पीड़ा और दर्द खींचकर भी उम्मीद का अभिमन्यु , स्मृतियों को जीवित करना । स्पर्श करके  की प्रेम के भूगोल को समझना, स्किपिंग रोप से प्रेम का ग्रैंड ट्रंक रोड बनाना और प्रेम की उम्मीदों को अनंत तक ले जाने में कविताएँ सक्षम है। 


गोल्ड फ्लैग किंग साइज़ की कश की बात  हो या उम्रदराज़ प्रेम की अभिव्यक्ति। हमें  सोचने पर विवश करती है आख़िर मुकेश कितनी बारीकियों से  इन्हे अपनी रचनाओं में रेखांकित करते हैं। प्रेम उम्र से परे होता है और उसे बेहद ख़ूबसूरती से बयां किया गया है। मुकेश सिन्हा की एक खासियत है कि वे वे गहन कथित को हल्के फुल्के अंदाज़ में इस तरह कह जाते हैं कि वो हृदय में चुभते नहीं अपितु धड़कनों को धड़कने पर मजबूर करते है।  


प्रेम रोग ,ब्लड प्रेशर गोली  एम्लो डोपिंग ,कॉकटेल, एंजियोप्लास्टी, एंटीबायोटिक, पाईथोगोरस प्रमेय  शब्दों का प्रयोग,टू हॉट टू हैंडल , समकोण त्रिभूज अनगिनत शब्द  का कविता में प्रयोग  सफलतापूर्वक नए आयाम और स्थापित करता है।  यह हमारी कल्पना से परे हैं कि विज्ञान के ये शब्द हम कविता में प्रेम के प्रतीक के।  रूप में उपयोग करेंगे।  प्रेम और गणितीय अंदाज़ का प्रेमी  मुकेश ही ऐसी कविता लिख सकतें हैं 


पहला खंड प्रेम स्पेशल संग्रह  “ है ना “ प्रेम  कवितायेँ ,  बर्फ़ होती सवेदना की विस्फोट पंखुरी  खुशबु  पाठकों को बाँधने में सक्षम है। दूसरे खंड कोई अन्य कविताएँ विस्थापन उम्र के पड़ाव।  पिता  व बेटे  की उम्मीदें अपने  ख़ास अंदाज़ में बहुत कुछ कहती है। अमीबा हो गयी मरती हुई संवेदनाएं, प्रोटोप्लाज़्म के  ढेर में सिमटी हुई ज़िंदगी,  अनगिनत  छोटी i कविताएँ बेहद ख़ूबसूरती से प्रेम के विविध रंगों को पाठकों  के समक्ष प्रस्तुत कर रही है। 


कुल मिलाकर संग्रह है ना  बहुत ही  कोमल प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति है।उनके इस संग्रह में विज्ञान के समीकरण व शब्दावली का यह रूप बेहद पसंद आया। जहाँ बच्चे  विज्ञान और गणित , रसायन को लेकर भयभीत होते हैं वहीं मुकेश की रचनाएँ बेहद प्यारे रंग घोलकर हमें आकर्षित करती है विज्ञान कठिन कहाँ  है वह तो सहज  प्रेम की  अभिव्यक्ति है।  


मुकेश कुमार सिन्हा को उनके संग्रह है न के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं।  यूँ नये नये रंग अपनी रचनाओं में बिखेरते रहे।  मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ है। 

शशि पुरवार 








Monday, May 29, 2023

न झुकाऒ तुम निगाहे कहीं रात ढल न जाये .....










यूँ  न मुझसे रूठ  जाओ  मेरी जाँ निकल न जाये 
तेरे इश्क का जखीरा मेरा दिल पिघल न जाये

मेरी नज्म में गड़े है तेरे प्यार के कसीदे
मै जुबाँ पे कैसे लाऊं कहीं राज खुल न जाये

मेरी खिड़की से निकलता  मेरा चाँद सबसे प्यारा
न झुकाओ तुम निगाहे  कहीं रात ढल न जाये


तेरी आबरू पे कोई  कहीं दाग लग न पाये
मै अधर को बंद कर लूं  कहीं अल निकल न जाये

ये तो शेर जिंदगी के मेरी साँस से जुड़े है 
मेरे इश्क की कहानी ये जुबाँ फिसल  न जाये 

ये सवाल है जहाँ से  तूने कौम क्यूँ बनायीं

ये तो जग बड़ा है जालिम कहीं खंग चल न जाये
      ---- शशि पुरवार 




Monday, March 13, 2023

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो



जय शंकर प्रसाद


"फूलों की कोमल पंखुडियाँ
बिखरें जिसके अभिनंदन में।
मकरंद मिलाती हों अपना
स्वागत के कुंकुम चंदन में।

कोमल किसलय मर्मर-रव-से
जिसका जयघोष सुनाते हों।
जिसमें दुख-सुख मिलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों।

उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं।


मैं उसी चपल की धात्री हूँ
गौरव महिमा हूँ सिखलाती।
ठोकर जो लगने वाली है
उसको धीरे से समझाती।

मैं देव-सृष्टि की रति-रानी
निज पंचबाण से वंचित हो।
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना
अपनी अतृप्ति-सी संचित हो।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में
अपनी अतीत असफलता-सी।
लीला विलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दलिता-सी।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ
मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुंदरता पग में
नूपुर सी लिपट मनाती हूँ।

लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लगती।
कुंचित अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जगती।

चंचल किशोर सुंदरता की
मैं करती रहती रखवाली।
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
जो बनती कानों की लाली।"

"हाँ, ठीक, परंतु बताओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है?
इस निविड़ निशा में संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है?

यह आज समझ तो पाई हूँ
मैं दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयव की सुंदर कोमलता
लेकर मैं सबसे हारी हूँ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपना ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है?

सर्वस्व-समर्पण करने की
विश्वास-महा-तरू-छाया में।
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में?

छायापथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु-लीला।
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीहता श्रम-शीला?

निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में।
चाहती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में।


नारी जीवन का चित्र यही, क्या?
विकल रंग भर देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो।

रूकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच-विचार न कर सकती।
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती।

मैं जब भी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ।
भुजलता फँसा कर नर-तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ।


इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता है।
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता है।"

"क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।

देवों की विजय, दानवों की
हारों का होता-युद्ध रहा।
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित
रह नित्य-विरूद्ध रहा।

आँसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा।

Saturday, March 11, 2023

हाय, मानवी रही न नारी

 सुमित्रा नंदन पंत


हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंठित,

वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित!

युग युग की वंदिनी, देह की कारा में निज सीमित,

वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित!


सदाचार की सीमा उसके तन से है निर्धारित,

पूत योनि वह: मूल्य चर्म पर केवल उसका अंकित;

अंग अंग उसका नर के वासना चिह्न से मुद्रित,

वह नर की छाया, इंगित संचालित, चिर पद लुंठित!


वह समाज की नहीं इकाई,--शून्य समान अनिश्चित,

उसका जीवन मान मान पर नर के है अवलंबित।

मुक्त हृदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,

दृष्टि, स्पर्श संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित!


योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,

उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।

द्वन्द्व क्षुधित मानव समाज पशु जग से भी है गर्हित,

नर नारी के सहज स्नेह से सूक्ष्म वृत्ति हों विकसित।


आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित

नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित।

सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,

नर नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत।


Thursday, March 9, 2023

मैं नीर भरी दुख की बदली!

महादेवी वर्मा 

मैं नीर भरी दुख की बदली!


स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा

क्रन्दन में आहत विश्व हँसा

नयनों में दीपक से जलते,

पलकों में निर्झारिणी मचली!


मेरा पग-पग संगीत भरा

श्वासों से स्वप्न-पराग झरा

नभ के नव रंग बुनते दुकूल

छाया में मलय-बयार पली।


मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल

चिन्ता का भार बनी अविरल

रज-कण पर जल-कण हो बरसी,

नव जीवन-अंकुर बन निकली!


पथ को न मलिन करता आना

पथ-चिह्न न दे जाता जाना;

सुधि मेरे आँगन की जग में

सुख की सिहरन हो अन्त खिली!


विस्तृत नभ का कोई कोना

मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना, इतिहास यही-

उमड़ी कल थी, मिट आज चली!


Wednesday, March 8, 2023

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

नमस्कार दोस्तों 

आज आपके लिए सोहन लाल द्विवेदी जी का गीत प्रस्तुत कर रही हूँ ,   समय कैसा भी हो लेकिन कोशिशें जारी रहनी चाहिए।  

अब हाजिर हूँ नित नए रंग के साथ। .. आपकी मित्र शशि पुरवार  


सोहन लाल द्विवेदी 


लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है

चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है

मन का विश्वास रगों में साहस भरता है

चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है

आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है

जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो

क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो

जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम

संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम

कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


 सोहन लाल द्विवेदी