Friday, June 19, 2015

बाँसुरी अधरों छुई





बाँसुरी अधरों छुई
बंशी बजाना आ गया 
बांसवन में गीत गूँजे, राग
अंतस छा गया 

चाँदनी झरती वनों में 
बाँस से लिपटी रही 
लोकधुन  के नग्म गाती 
बाँसुरी, मन आग्रही 

रात्रि की बेला  सुहानी 
मस्त मौसम भा गया. 

गाँठ मन पर थी पड़ी, यह 
बांस  सा  तन  खोखला 
बाँस की हर बस्तियाँ , फिर 
रच रही थीं श्रृंखला 

पॉंव धरती में धँसे 
सोना हरा फलता गया . 

लुप्त होती जा रही है 
बाँस की अनुपम छटा 
वन घनेरे हैं नहीं अब 
धूप की बिखरी जटा 

संतुलन बिगड़ा धरा का,
जेठ,सावन आ गया  
----- शशि पुरवार