बाँसुरी अधरों छुई
बंशी बजाना आ गया
बांसवन में गीत गूँजे, राग
अंतस छा गया
चाँदनी झरती वनों में
बाँस से लिपटी रही
लोकधुन के नग्म गाती
बाँसुरी, मन आग्रही
रात्रि की बेला सुहानी
मस्त मौसम भा गया.
गाँठ मन पर थी पड़ी, यह
बांस सा तन खोखला
बाँस की हर बस्तियाँ , फिर
रच रही थीं श्रृंखला
पॉंव धरती में धँसे
सोना हरा फलता गया .
लुप्त होती जा रही है
बाँस की अनुपम छटा
वन घनेरे हैं नहीं अब
धूप की बिखरी जटा
संतुलन बिगड़ा धरा का,
जेठ,सावन आ गया
----- शशि पुरवार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20-06-2015) को "समय के इस दौर में रमज़ान मुबारक हो" {चर्चा - 2012} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कदुआ की सब्जी - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteगाँठ मन पर थी पड़ी, यह
ReplyDeleteबांस सा तन खोखला
बाँस की हर बस्तियाँ , फिर
रच रही थीं श्रृंखला
...वाह...शब्दों और भावों का अद्भुत संयोजन...बहुत सार्थक और सुन्दर अभिव्यक्ति...
सुंदर ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDeleteसरस सार्थक नवगीत.
ReplyDeleteजड़ जमीं में जमाये हम
रहे औरों हित खड़े
बाँसवत देकर सहारा
बाँस पर चढ़ चल पड़े
गले बाबुल से मिला
अंतर 'सलिल' मिटाता गया
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति सखी ..बधाई !
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजा मनभावन नव गीत ... बधाई ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नवगीत।
ReplyDeleteपहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ पर सार्थक रहा .सुदर शब्दों से सजा एक अच्छा गीत
ReplyDelete