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Tuesday, August 18, 2015

मन प्रांगण बेला महका। .

मन, प्रांगण बेला महका
याद तुम्हारी आई 
इस दिल के कोने में बैठी 
प्रीति, हँसी-मुस्काई।

नोक झोंक में बीती रतियाँ 
गुनती रहीं तराना 
दो हंसो का जोड़ा बैठा 
मौसम लगे सुहाना

रात चाँदनी, उतरी जल में 
कुछ सिमटी, सकुचाई।

शीतल मंद, पवन हौले से 
बेला को सहलाए 
पाँख पाँख, कस्तूरी महकी  
साँसों में घुल जाए। 

कली कली सपनों की बेकल 
भरने लगी लुनाई 

निस  दिन झरते, पुष्प धरा पर 
चुन कर उसे उठाऊँ 
रिश्तों के यह अनगढ़ मोती 
श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ

रचे अल्पना, आँख शबनमी 
दुलहिन सी शरमाई।    
     --- शशि पुरवार