हिंदी काव्य की बहती धारा में जन जन ओत प्रोत है, हिंदी के बढ़ते चलन और योगदान के लिए सबका प्यारा फेसबुक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है. हिंदी की इतनी उपजाऊ धरती में कविताओं की लहलहाती फसल, हर उम्र के लोगों को आकर्षित कर रही है.किन्तु यह क्या देखते देखते यह लहलहाती फसल अचानक गाजर घास के जैसी फैलने लगी है. विद्वजन और साहित्यकार सभी चिंतित है, अचानक से इतने सारे रचनाकार कहाँ से आ गयें है. यह अच्छी बात है. फेसबुक एक शाला की तरह बन गया है. लिखना पढ़ना कोई बुरी आदत नहीं है, किन्तु यहाँ तो सभी ज्ञानी बड़े- बड़े कलमकारों को मात देने लेगे हैं. फेसबुकिया बुखार के चलते नौसिखिये वाह - वाही सुन -सुन कर स्वयं को ज्ञानी समझने लगें हैं, कोई भी रचनाकार क्यूँ न हो, रचना में नुक्स निकालना उनकी आदत में शुमार हो गया है, जो नौसिखिया हो, उसे सिखाओं भले ही आधा कचरा ज्ञान ही बाँटो, यदि कोई बड़ा साहित्यकार निकल जाये तो बत्तीसी दिखा कर खिसक लो. हाल ही में एक मजेदार किस्सा हुआ, हमारी रचना पर टिप्पणी के साथ साथ चाट बक्से में मीन मेख निकाली गयी -- शब्दों पर ज्ञान बाँटा गया, लय ताल की बारीकियाँ समझाई गयीं, खैर आदतन हमने विनम्र भाव से कहा --
हमें तो ठीक प्रतीत हो रहा है. हम अपने साहित्यिक मित्रों से चर्चा करेंगे. साथ ही यह भी कह दिया यह सभी प्रकाशित है, इस पर शोध किया गया है .फिर भी आपकी सलाह - शब्द पर विचार करेंगे .
जनाब गर्व में गुब्बारे की तरह फूल गए और सीना चौड़ा करके बोले -- मै बड़े बड़े रचनाकार और उस्तादों के साथ रहता हूँ आपको जरुर ज्ञान दूंगा .उनसे भी चर्चा करूँगा.
अगले दिन क्षमा के साथ हमें विजय घोषित कर दिया गया. जब हमने उन जनाब से पूछा आप क्या करतें है तो उत्तर मिला अभी २ रचना ही लिखी हैं. लिखना सीख रहें है. अब ऐसे ज्ञान पर हँसे या मूर्खता पर शोध करें पर ज्ञान दे. ऐसा भी क्या डींगे हाँकना कि स्वयं पर सवालिया निशान खड़े हो जाएँ .
फेसबुक कोई अलग दुनियाँ नहीं है, जग के सारे जालसाज लोग भी इसमें शामिल है. बड़े- बड़े रचनाकार ग़ालिब, गुलजार, नईम, जावेद अख्तर सभी यहाँ मौजूद है लेकिन दुःख की बात यह है कि इन सभी महान विभूतियों के साथ नए स्थापित रचनाकार की रचनाएँ किसी न किसी लम्पट लोगों द्वारा उनके नाम से फेसबुक पर प्रकाशित मिल जाएँगी. फेसबुक क्या अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी हुनर के यह गुर नजर आतें हैं , यानि चोरी भी और सीना जोरी भी. दुनिया गोल है प्राणी कहीं न कहीं टकरा ही जातें हैं. इसी प्रकार यह रचनाएँ जब उसके असली रचनाकार के सम्मुख किसी दूसरे के नाम से सामने दिखती है तो उसके दुःख की कोई सीमा नहीं होती है. फेसबुकी बुखार ने लोगों के होश उड़ा रखें हैं. ग्लैमर का नया क्षेत्र जहाँ आसमान भी है तो नए परिदों का आशियाँ भी बन गया है. दर्शन और प्रदर्शन सभी का बोल बाला है, ऊँची दूकान और फीके पकवान की तरह अब दर्शन खोटे वाला मामला अब व्यंगकारों ने दाखिल कर लिया है . आगे आगे देखतें है यह फेसबुकिया बुखार क्या क्या रंग दिखलाता है. इसी कड़ी में आपसे अगले महीने मिलूंगी तब तक के लिए हम इस आसमान की रंगीनी बारिश का आनंद लेने जातें हैं.
-- शशि पुरवार
अट्ठहास में प्रकाशित व्यंग साभार।
अट्ठहास में प्रकाशित व्यंग साभार।
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