Wednesday, December 2, 2015

समय छिछोरा












खाली खाली मन से रहते,
तन है जैसे टूटा लस्तक
जर्जर होती अलमारी में,
धूल फाँकती, बैठी पुस्तक।

समय छिछोरा,
कूटनीति की
कुंठित भाषा बोल रहा है
महापुरुषों की
अमृत वाणी
रद्दी में तौल रहा है
अर्थहीन, कटु कोलाहल
सुन सुन
घूम रहा है मस्तक।

शरम- लाज,
आँखों का पानी
सूख गयी है आँख नदी
गिरगिट जैसा
रंग बदलती
धुआं उड़ाती नयी सदी
अर्धनग्न कपड़ें को पहने
द्वार पश्चिमी गाये मुक्तक.

खून पसीना,
छद्म चाँदनी
निगल रही है  अर्थव्यवस्था
आदमखोर
हुई महंगाई
बोझ तले मरती हर इक्छा
यन्त्र चलित
हो गयी जिंदगी
यदा कदा खुशियों की दस्तक.
    -- शशि पुरवार

अंतर्राष्ट्रीय नवगीत महोत्सव की काव्य संध्या में प्रस्तुत किया गया यह नवगीत। 

2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 3 - 12 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2179 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

    ReplyDelete

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