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Sunday, December 24, 2017

नवपीढ़ी का इतिहास

    
नव पीढी ने रच दिया, यह कैसा इतिहास 
बूढी सॉंसें काटती, घर में ही वनवास १ 
  
दौलत का उन्माद है, मदहोशी में चूर 
रिशते आँखों में चुभे, ममता चकनाचूर २  

शहरों में खोने लगा, अपनेपन का भाव
जो अपना मीठा लगे, देता मन पर घाव ३  

बंद हृदय में खिल रहे, संवेदन के फूल 
छंद रचे मन बाबरा, शब्द शब्द माकूल ४ 

एक अजनबी से लगे,अंतर्मन जज्बात 
यादों की झप्पी मिली, मन, झरते परिजात ५ 


ऐसे पल भर में उड़े, मेरे होशहवास 
बदहवास सा दिन खड़ा, बेकल रातें पास ६ 
- शशि पुरवार 

 

Thursday, December 7, 2017

जोगन हुई सुगंध

 1 
जीवन भर करते रहे, सुख की खातिर काम 
साँसे पल में छल गयीं,  मौत हुई बदनाम 
 2 
माता के आँगन  खिला, महका हरसिंगार 
विगत क्षणों की याद में, मन काँचा कचनार। 
 3  
सुख सुविधा की दौड़ में, व्याकुल दिखते नैन 
मन में रहती लालसा, खोया दिल का चैन। 
 4 
कितने आभाषी हुए, नाते रिशतेदार 
मिले सामने तब दिखा, बंद हृदय का द्वार 
 5 
खुद को वह कहते रहे, प्रिय अंतरंग मित्र 
समय के कैनवास पर, स्वार्थ भरा चलचित्र 
 6 
सड़कों के दोनों तरफ, गंधों भरा चिराग 
गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग 
 7 
मन के आगे जीत हैं, तन के पीछे हार 
उम्र निगोड़ी छल रही, जतन हुए बेकार। 
 8 
मंदिर में होने लगा, कैसा कारोबार 
श्रद्धा के दीपक तले, पंडो का दरबार।


मंदिर में होने लगा , कैसा कारोबार 
श्रद्धा के दीपक तले, पंडो का दरबार। 

10 
गॉँवों में होने लगे, शहरों से अनुबंध
कंकरीट के देश में, जोगन हुई सुगंध
11
नैनों के दालान में, यादों के जजमान
गुलमोहर दिल में खिले, अधरों पर मुस्कान
12
रात चाँदनी मदभरी, तारें हैं जजमान 
नैनों की चौपाल में, यादें हैं महमान।
13  
बूँदों ने पाती लिखी, सौंधी सी मनुहार
मन चातक भी बावरा, रोम रोम झंकार 
14  
थर थर होतीं घाटियाँ, खूनी मंजर खेल 
सुख के पौधे खा रही, नफरत जन्मी बेल
15  
जीवन में खिलते सदा, सद्कर्मों से फूल 
बोया पेड़ बबूल का, चुभते इक दिन शूल 
16  
सावन भी रचने लगा, बूंदों वाले छंद 
हरियाली ऐसी खिली, छाया मन आनंद। 
शशि पुरवार
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