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Wednesday, June 8, 2022
तोड़ती पत्थर
तोड़ती पत्थर
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
निराला जी की ये रचना 1972 में बी ए में पढ़ी थी ।तब से ही मन में घर कर गयी थी । अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteये रचना कई कई बार पढ़ी ।हर बार मर्म को भेद गई।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग का लिंक
Jigyasakijigyasa.blogspot.com
बहुत शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteसभी रचनाएं पठनीय सुंदर।
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वाह! लाजवाब!!
ReplyDeleteबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
बहुत ही सुंदर लिंक धन्यवाद आपका
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वाह बहुत ही सुन्दर रचना ! आपने बहुत ही सुन्दर लिखा है। इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।रंगोली फोटो
ReplyDeleteसिंपल रंगोली फोटो