Thursday, July 12, 2012

अकेला आदमी

 
अधुनातन लम्हो में
स्वतः ही खनकती
हंसी को टटोलता
अकेला आदमी .

लोलुपता की चाह में
बिखर गए रिश्ते
छोड़ अपनी रहगुजर
फलक में
उड़ चला आदमी .

उपलब्धियो के
शीशमहल में
सुभिताओं से
लैस कोष्ठ में ,
खुद को छलता ,
दुनिया से
संपर्क करता ,
पर एक कांधे को
तरसता 
आदमी .

उतंग पर खड़ा ,
कल्पित अवहास
अभिवाद करता
अज्ञात मुखड़ो
को तकता ,
भीड़ में भी
इकलंत आदमी .
----- शशि पुरवार

7 comments:

  1. हर पथ पर अकेला सा वो आदमी .....क्या कहें....मन के भाव कुछ अलग से हैं ...आभार

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  2. शशि दीदी...मन को छूने वाली कविता, आँखों में कही आंसूँ ले आयी.

    खुद को ही तो छल रहा है आज हर इंसान....दूसरों से संपर्क तो कर रहा है लेकिन सिर्फ सतही. हर इंसान के मन के कोनों में उदासी तो रहती ही है. हर कोई भाग रहा है किसी चीज के पीछे, और छोड़ रहा है इस दौड़ में अपने मन का सुकून, अपने जीवन की शांति. कितना सही लिखा है आपने दीदी...मन को छू गया इस बार, मैं ऐसे ही शब्दों के इंतज़ार में थी. हर इंसान अपने शीशमहल में बैठ कर भी खुश नहीं, उसे चाह है की कोई उसे कहे, vaah क्या शीशमहल है तुम्हारा! क्या किसी के कहने से ही कुछ अच्छा बन पड़ता है...यह तो मन भी जानता है क्या अच्छा, क्या सच्चा और क्या बुरा!
    कितने ही झूठे , स्वार्थी शब्द मिल जाये, लेकिन क्या वह असली शहद है? नहीं, तभी तो जैसा की आपने कहा, अंत में तो अकेला ही है आदमी, तो फिर समय रहते क्यों नहीं ठीक होते सभी लोग?

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  3. निपट अकेला आदमी

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  4. बहुत सुन्दर शशि जी

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  5. बहुत सुन्दर और सार्थक रचना...

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