चपाती
चपाती कितनी तरसाती
गरीबो की थाली उसे
रास ही नहीं आती .
किसान बोये धान
और सबको दे मुस्कान
दो जून रोटी की खातिर
छोटे बड़े मिलकर
करते श्रमदान
पर लुटेरो को उनकी
पीड़ा नजर ही नहीं आती
छीन कर ले जाते निवाला
लोलुपता ही उन्हें नजर आती .
तन की भूख मिटाने को
बस मन में है लगन
आएगा कुछ धन तो
मिट जाएगी पेट की अगन
पर माथे की शिकन मिट
ही नहीं पाती , और
महँगी हो जाती चपाती .
श्रम का नहीं मिलता मोल
दुनिया भी पूरी गोल
थाली में आया सिर्फ भात ,
सूनी कर गरीबो की आस
पंच सितारा,होटलो
और बंगले में
इठला के चली गयी चपाती .
इतनी शान बान
अचंभित हर इंसान
चांदी के बर्तनो में
परोसी गयी चपाती
पर यह क्या, हाथ में रह
गए सिर्फ ड्रिंक ,और
चमचमाती थाली में
छूट गयी चपाती .
झूठन में फेककर
कचरे में मिलकर
पुनः जमीं पर आती
भूखे लाचार इंसानो
की भूख मिटाती,
नहीं तो वहीँ पे पड़ी -पड़ी
मिटटी में मिल जाती चपाती .
चपाती कितनी तरसाती
गरीबो की थाली उसे
रास ही नहीं आती ...........!
-------शशि पुरवार----------
शनिवार 28/07/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. आपके सुझावों का स्वागत है . धन्यवाद!
ReplyDeleteओह...
ReplyDeleteमार्मिक....
कड़वा सच है मगर...
अनु
उद्वेलित करती रचना
ReplyDeleteसादर
शशि जी बिलकुल उम्दा और जनवादी कविता के लिए बधाई |
ReplyDeleteजूठन
ReplyDeleteविवाह-समारोहों के समय नित्य प्रति कहीं न कहीं प्रीत भोज में शामिल होना पड़ता है,ऐसेही एक रिश्तेदार के यहाँ विवाह में शामिल होने के लिए मुझे ग्वालियर जाना पड़ा, मेहमान अधिक होने के कारण सारी व्यवस्था नगर के सुंदर से बड़े एक विवाह सदन में किया गया था, शादी की सारी व्यवस्था में आधुनिकता खुमार छाया था, मै भी बुफे पर खाने का आनंद लेरहा था,अचानक बाहर गेट पर किसी की जोरजोर से रोने की आवाज सुनाई पड़ी, कौतुहल बस मै गेट गया वहाँ मैंने देखाकि १०-१२वर्षीय बच्ची को तीन चार सूटधारी मिलकर मार रहेथे बच्ची के मुहसे खून निकल रहा था और वह डरके मारे थरथर काँप रही थी,उसके बहती आँखों में दया की भीख के भाव थे, मैंने पूछा,भाई ऐसी क्या बात हो गई है जिसके कारण इस बच्ची के साथ इतनी मार पीट कर रहे हो?उन सूटधारी सज्जनों में से कोई जबाब देता, उसके पूर्व ही बच्ची रोते-रोते जोर से बोली,'बाबूजी, ये मेरी बात ही नही सुनते है,बाबूजी,माँ की कसम,मैंने ये हलुए वाली कटोरी स्टाल से नही उठाई थी इन्ही साहबोंमें से किसीने बाहर मेरे सामने कचरे की बाल्टी में ये हलुए वाली कटोरी फेकदी थी,बस बाबूजी, मैंने वही उठा ली,
मुझे नहीं मालूम था बाबूजी,कि "जूठन" फेकने के लिए है, खाने के के लिए नहीं,
यह सुनते ही सूटधारियो की नजरें शर्म के मारे नीचे झुक गई,और मै सोच रहा था, कि जूठन फेकने के वाले सभ्य समाज के ठेकेदारों को सजा कौन देगा......
RECENT POST,,,इन्तजार,,,
नमस्कार धीरेन्द्र
Deleteबहुत ही कडवा सच है यह .............आपकी यह बात पढ़कर दिल और भी भारी हो गया ..हर जगह की यही कहानी है हर समारोह में लोगो को भारी थाली कचरे में फेकते देखा है .....आजकल मेरी कलम रूक गयी है समाज का गन्दा रूप देखकर ऐसा लगता है की भाव ही खो गए ....यही कारन है की आजकल मैंने सब बंद सा कर दिया पर रहा नहीं गया इस भाव को लिखना .......
आपका यह मार्मिक सच हमसे बाटने के लिए आभार ........और भी लोगो को इससे कुछ सबक लेना चाहिए .
शशि
tushar ji , anu ji , yashwant ji aapka bahut bahut abhar
ReplyDeleteसच है एक दुनिया पर कितना विरोधाभास..... प्रभावित करती रचना
ReplyDeleteप्रभावी रचना
ReplyDeleteकटु सत्य
ReplyDeleteसत्य को स्वर देती विचारोत्प्रेरक रचना...
ReplyDeleteसादर।
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति |
ReplyDeleteआशा
wah re chapaati
ReplyDeletetu dil ko hai bhati...
kya hai tarshati....
har din plate par kyon nahi aati....!!
बहुत सुंदर.. चार लाइन अपनी भी दे रहा हूं
ReplyDeleteभूख ने मजबूर कर दिया होगा,
आचरण बेच कर पेट भर लिया होगा,
अंतिम सांसो पर आ गया होगा संयम
बेबसी में कोई गुनाह कर लिया होगा
न मिले तो चपत है , मिल जाये तो चपाती |
ReplyDeleteसच की सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteरोटी का महत्त्व हमारे जीवन में क्या है सब जानते है पर इस विषय में इतनी सुंदर कविता.
ReplyDeleteबधाई इस सुंदर प्रस्तुति के लिये.