Tuesday, December 22, 2015

चैन लूटकर ले गया। .......


  
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                  फेसबुकी दुनिया के तिलिस्मी रिश्ते !   जी हाँ  यह प्यार भरी  यह प्यारी दुनियां - नैनों का तारा बन चुकी हैइसके पहले हम बात कर रहे थे दर्शन से प्रदर्शन तक।  इस बहती गंगा में न जाने कितने  संपादकों  का  क्या क्या गरम  हो रहा है।  किसी का माथा, किसी का बिस्तर , किसी की जेब। और भी न जाने क्या क्या !  यह अपने आप में स्वतंत्र शोध का विषय है। फेसबुकी रचनाकारों की फेसबुकी किताबें छप रही हैं।  जीवन की किताब अब डिजिटल किताब बन चुकी है। अब थूक लगाकर पन्ने नहीं पलटने पड़ते हैं  माउस से काम हो जाता है।  वर्षों पुराने रिश्ते जी उठे हैं।  आदमी आदमी का हो गया है।  फेंटेसी  सच्चाई बन गयी है।  पहले परिवार  का दायरा सिमित  थाअब अपरिमित है। फेसबुक पर ही जन्मदिन मन रहा है और वहीँ श्रद्धांजलि भी दे दी जा रही है।  परिवार का कौन सदस्य क्या कर रहा है, उसकी रूचि कुरुचि क्या है,  इसकी जानकारी भी अब फेसबुक से  मिलती है, कौन कहाँ जा रहा है कौन किसके साथ पार्टी मना रहा है, कौन घर आ रहा हैं,  कौन किसके फोटो लाइक कर रहा है, किसके टाँके किससे भिड़े है, यह फेसबुक पर  जासूसी हो रही है।  मगर अब कौन डरता है, जो जहाँ मरता है वह कहीं और भी मरता है - ये वाला जमाना आ गया है। 
                 
        कोई  बहती गंगा में हाथ धो रहा है कोई आँखों के समंदर में डूब रहा है। ये फेसबुक जो न कराये।  अजी आजकल कार्टून कौन देखता हैलोग स्वयं इसका हिस्सा बने हुए हैंइस चैनल की जगह फेसबुकी दुनियां ने ले ली है. फेसबुक पर एक से एक कार्टून भरे पड़े हैं. चाहे जिससे दिल लगाओ। 
                  
              कभी कभी मन में विचार आतें है कि  यदि यह  फेसबुक न होगा तो लोगों का क्या होगा?  यह फेसबुक किसी दिन नहीं रहेगा तो क्या होगा ? सारे लोग पगला जायेंगे।  पता नहीं कौन सा कदम उठा जायेंगे। कहाँ करेंगे लोग टाइम पास।  कहाँ लिखेगी भड़ास बहु, जब दुखी होगी सास ! कहाँ लेंगे कवि लोग चांस ! फेसबुक नहीं होगा तो सेल्फ़ी कहाँ लगाएंगे ? यह सेल्फ़ी का युग है।  हर आदमी सेल्फ़ी है।  दफ्तर से लेकर घर तक की सेल्फ़ी - सेल्फ़ी। सड़क से लेकर संसद तक।  कई लोग सेल्फ़ी खींचने के लिए ही कहीं आते -जाते हैं।  यह नया दौर है, नया नशा है। 

                 यह दुनियां अब शराब की ऐसी बोतल के समान है जिसका नशा उतरने का नाम  ही नहीं लेता हैऔर यह शराब नसों में घुलकर उन्माद की परिकाष्ठा तक पहुँचा रही हैहाय जब यह न होगा तो मजा कैसे आएगा।  किसे अपने किचन से बैडरूम तक की तस्वीरें दिखाएंगे ? क्या लाइक करेंगे ? कहाँ कमेंट्स करेंगे। यह लाइकबाजी और कमेंट्सबाजी का दौर है।  
               यहाँ हर रिश्ता जायज  है, रिश्ते को नाम न दो।  लोग खुलकर बोल रहे हैं।  खुलकर अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे हैं।  भावनाओं की चाँदी है और कामनाओं की भी।  प्रीत के तार ऐसे जुड़ें हैं कि टूटने का नाम ही नहीं लेते हैंनैन मटक्का अब चैन मटक्का बनता जा रहा हैकुछ नए रिश्ते गुदगुदा रहें है, कुछ प्रीत की डोर से बँधने के लिए तैयार बैठें हैं।  कुछ रिश्तें सेलिब्रिटी बनकर अपने जलवे दिखा रहें है.  चैन लूटकर ले गया बैचेन कर गया  ........ यहाँ हर आदमी बैचेन हैं।  कोई कुछ पाने के लिए कोई कुछ खोने को।  
                                                 .-- शशि पुरवार 

Friday, December 11, 2015

जिंदगी के इस सफर में भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ।


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जिंदगी के
इस सफर में
भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ
गीत हूँ मै,
इस सदी का
व्यंग का किस्सा नहीं हूँ.

शाख पर
बैठे परिंदे
प्यार से जब बोलतें है
गीत भी
अपने समय की
हर परत  को खोलतें हैं
भाव का
खिलता कँवल हूँ
मौन का भिस्सा नहीं हूँ।

शब्द उपमा
और रूपक
वेदना के स्वर बनें हैं
ये अमिट
धनवान हैं जो
छंद बन झर झर झरे हैं
प्रीति का मधुमास हूँ
खलियान का मिस्सा नहीं हूँ

अर्थ
बिम्बों में समेटे
राग रंजित मंत्र प्यारे
कंठ से
निकले हुए स्वर
कर्ण प्रिय
मधुरस नियारे
मील का
पत्थर बना हूँ
दरकता
सीसा नहीं हूँ।
-- शशि पुरवार 




Saturday, December 5, 2015

थका थका सा दिन




थका थका सा
दिन है बीता
दौड़ -भाग में बनी रसोई
थकन  रात
सिरहाने लेटी
नींद नहीं आँखों में सोई

रोज पकाऊ
दिनचर्या की
घिसी पिटी सी परिपाटी
नेह भरे
झरनों से वंचित
सम्बन्धो  की सूखी घाटी

कजरारी
बदली ने आकर
नर्म धूप की लटें भिगोई

साँस साँस पर
चढ़ी  उधारी
रहने का भी नहीं ठिकाना
संध्या के
होठों पर ठहरा
ठंडे संवादों का बाना

उमर निगोड़ी
नदी किनारे
जाने किन सपनों में खोई

नहीं आजकल
दिखते कागा
पाहुन का सन्देश सुनाते
स्वारथ के
इस अंधे युग में
कातिल धोखे मिलने आते

गन्ने की
बदली है सीरत
फाँखे भी है छोई छोई।
--- शशि पुरवार

Wednesday, December 2, 2015

समय छिछोरा












खाली खाली मन से रहते,
तन है जैसे टूटा लस्तक
जर्जर होती अलमारी में,
धूल फाँकती, बैठी पुस्तक।

समय छिछोरा,
कूटनीति की
कुंठित भाषा बोल रहा है
महापुरुषों की
अमृत वाणी
रद्दी में तौल रहा है
अर्थहीन, कटु कोलाहल
सुन सुन
घूम रहा है मस्तक।

शरम- लाज,
आँखों का पानी
सूख गयी है आँख नदी
गिरगिट जैसा
रंग बदलती
धुआं उड़ाती नयी सदी
अर्धनग्न कपड़ें को पहने
द्वार पश्चिमी गाये मुक्तक.

खून पसीना,
छद्म चाँदनी
निगल रही है  अर्थव्यवस्था
आदमखोर
हुई महंगाई
बोझ तले मरती हर इक्छा
यन्त्र चलित
हो गयी जिंदगी
यदा कदा खुशियों की दस्तक.
    -- शशि पुरवार

अंतर्राष्ट्रीय नवगीत महोत्सव की काव्य संध्या में प्रस्तुत किया गया यह नवगीत। 

Sunday, November 15, 2015

फेसबुकी दीपावली



 फेसबुकी दीपावली –
       फेक का अंग्रेजी अर्थ है धोखा व फेस याने चेहरादुनिया में आभाषी दुनिया का चमकता यह चेहरा एक मृगतृष्णा के समान है जो आज सभी को प्यारा मोहित कर चुका हैनित्य समाचार की तरह सुपरफास्ट खबरे यहाँ मिलती रहती है.कहीं हँसी के ठहाकेकहीं आत्ममुग्ध तस्वीरेंकहीं प्रेमकहीं शब्दों की बंदूकेंहर तरफ एक बड़े मौल का एहसासजैसे आज दुनियाँ हमारे पास हैसाथ हैजैसे दुनियाँ बस एक मुट्ठी में समां गयी है.
            देश में कुछ समय पहले सफाई अभियान शुरू किया गया थानेता जी की वाणी का ओज और झाड़ू का बोझदोनों का  करिश्मा ऐसा था कि देखने वाले भी हक्के बक्के हो गएवायरस की तरह कचरा अभियान की बीमारी ने पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया थाअब जिसे देखो वह अपनी तस्वीर और झाड़ू के साथ हर जगह मौजूद थाभले की वहां कचरा न फैला होकिन्तु झाड़ू को सफ़ेद झक्क पोशाधारक के साथ तस्वीरों में तबज्जो मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआकुछ लोगों ने स्वयं कचरा वहाँ फैलाया और सफाई अभियान का श्री गणेश कियाएक दिन ऐसे ही हमारे एक मित्र जिन्हें अंतर्जाल का रोग अभी तक नहीं लगा थाउन्हें जब हमने पूरे सम्मान के साथ इन तस्वीरों को दिखाया और उसकी महिमा का गुणगान कियाबेचारे हमारे सामने हाथ जोड़कर खड़े गए – बोले प्रभु हमें भी दूध मलाई का आनंद लेने दोयह पकवान देखकर हमारी भी नियत बिगड़ रही है.
           हमें हमारी काबलियत पर बड़ा गुरुर हुआखैर सबकी मनोकामना पूरी हो जाये और हमें भी कुछ पुण्य कमाने का मौका मिया हैअहो भाग्य हमारे इसे कैसे छोड़ सकते हैंआत्मशांति का कुछ प्रसाद मिल जाये तो कालजे में ठंडक पड़ेजब सफाई अभियान प्रारंभ हुआ तो फेसबुक भला इससे पृथक कहाँ हैदीपावली में लक्ष्मी के आगमन के पूर्व साफ़ सफाई की जाती हैघर को सजाया जाता हैकुछ लोगों द्वारा दीपावली की सफाई अभियान की तस्वीरें लोड की गयींतो बहुतेरे नींद से जागेदीपावली आ गयी अब तो जैसे सफाई की प्रतियोगिता प्रारंभ हो गयीहर किसी में होड़ लगी हुई थीकिस तरह उम्दा चमकती सफाई करके सितारे की भांति खुद को भी चमका लिया जायेभाई कचरा अभियान को जब मिडिया ने इतनी तवज्जो दी है तो फिर यह दीपवाली हैइसकी तुलना हम कैसे कर सकते हैं.
                सफाई का हर हर किसी के घर में देखने को मिलाअचानक घर में उठे तूफ़ान को शांति की सास समझ ही नहीं सकी कि क्या हुआरोज बहु को बिस्तर तोड़ने और मोबाइल मोड़ने से फुर्सत नहीं मिलती थीआज अचानक कौन सा चमत्कार हुआ कि बहुरानी झाड़ू लेकर नजर आ रही हैबेचारी शांति की सास को जैसे लकवा मार गयाहाय राम न जाने बहु के पीछे कोई भूत प्रेत न लग गया होखैर दिन भर शांति ने झाड़ू अभियान के साथसाथ तस्वीर अभियान भी शुरू कियाशाम को पति देव घर आये तो सास और पति के साथ विजयी तस्वीर ली गयी और अन्तत उसे विजेता घोषित करते हुएअपने फेसबुकी घर की वाल पर टांग दिया गया .. हजारो लाइकऔर अनंत टिप्पणीबधाई सन्देशका असर ऐसा हुआ कि लोगों ने शांति की सास को घर पर जाकर कुशल समझदार बहु मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआकहकर सम्मानित कियाफिर तो जाओ हो आभाषी संसार की इतनी अच्छी पाठशाला और कहीं नहीं हो सकती है..
             जगमगाते रिश्तेबिगडती बातेंकहीं बम के हथगोलेकहीं चमकती रंगीनियाँऐसी शानदार दीपावली दुनिया की एक ही छत की नीचे होती हैसफाई अभियान प्रारंभ है तो मित्रो का अभियान कैसे पीछे रह सकता हैदोस्तों को अमित्र करने का अभियान भी प्रारंभ हो चुका थाअनेक शब्द बम और फुलझड़ियों द्वारा मित्रों को अमित्र करने की प्यारी प्यारी चकरीऔर रोकेट छोड़े जा चुके थेनयी नयी लस्सी और मिठाई का रोज रोज आनंद लेने का  चस्का लोगों को ऐसा लगा कि जब तक पटाखे न छोड़े तब तक दीपावली कैसीअजी यहाँ महिला मित्र हो या पुरुष मित्रमनुहार की ऐसी बंदूके व मिठाई के अनार फूटते ही रहते हैंखैर यह तो है दिवाली का सफाई अभियान जो घर घर से लेकर फेसबुक तक कायम है,
            एक प्रश्न दिमाग में बिगड़े बल्ब की तरह बार बार बंद चालू हो रहा हैबम दिमाग में जैसे फटने को उतावले हो रहे थेक्या कभी किसी ने सोचा कि हम धरती के साथ साथ अम्बर में भी कितना कचरा जमा कर रहें हैआज धरती कचरे के बोझ तले मर रही हैनए नए गृह की खोज करने में नित्य मानव स्पेस में कचरा फेंकता हैचाहे यह अंतरजालफेसबुक हो या  ट्विटरआखिर इसका कचरा सेटेलाइट में इतना ज्यादा जमा हो रहा हैउसे कैसे साफ़ करेंगे ?ध्वनि प्रदुषणवायु प्रदुषण., खाद्य प्रदुषण.......वगैरह न जाने दुनिया में न जाने प्रदूषित कचरे के अनगिनत  ढेर लग चुके हैयह कचरा कौन सी ओज वाणी साफ़ करेगीयहाँ दीपावली कब मनाएंगेइस धरती को कब सजायेंगे. ----- यह फिरकी तेजी से हर जगह घर के दिमाग घूमे और अपना असर दिखाएजय हिन्द.      
                      ----------शशि पुरवार .


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Friday, November 13, 2015

दिवाली का दिवाला ....

  

            दीपावली का त्यौहार आने से पहले ही बाजार में रौनक और जगमगाहट अपने पूरे शबाब में थी रौशनी नजरों को चकाचौंध कर  रही थीलक्ष्मी पूजन की तैयारीघर में लक्ष्मी का आगमनहर्षौल्लास से मनाया जाता हैंबाजार की रौनक में दीपावली की खरीदारी जोर शोर से शुरू थीजहाँ देखों त्योहारों पर जैसे लूट होने लगी हैलक्ष्मी – गणेश का पूजन है तो,  भगवान के भाव हमारे  तुच्छ प्राणी ने बढ़ा दिए.  अजी ऐसे मौके फिर कहाँ मिलते है, कलयुग है हर कोई अपनी दुकान सजा कर बैठा है. लूटने  का  मौका  लूटो।   दिल के भर को सँभालते हुए हमने भी कुछ खरीदने का मन बनाया, सोचा कुछ तो लेना होगा,   तो सामने से आते हुए पुराने मित्र रमेश चन्द्र के नजरें चार हो गयीहमसे नजरे मिलाते ही उन्होंने जोर से पीठ पर धौल जमाकर अपना कर्तव्य पूरा कर दिया.क्या ख़रीदा बबलू दीपावली पर खाली हाथ , कुछ लिए नहीं काहे अकेले हो घर में  ?

           क्या रमेश अजी अब बुढ़ापा आ गया बबलू  काहे कहते हो भाई यहाँ महंगाई में हमारा पपलू सीधा कर दिया है। और क्या पीठ में दर्द का बम रख कर दिवाली का तोहफा दिया। 

        क्या करे हमारे देश में प्यार मोहब्बत जताने का यही तरीका अपनाया जाता है। हा हा क्या बात है हाथ खाली क्यों घूम रहे हो. कंजूसी न करो ,  माल वाल खर्च करो.

         क्या करे , राम जाने  अब दीपावली जैसे दिवाला निकाल देती है। पहले दीपावली की बात  और थीनए कपडेगहने मिठाईयां सभी लेकर  आते थेलक्ष्मी जी की पूजा करते थे तब लक्ष्मी जी वरदान बनकर घर में प्रवेश करती थीआज कलयुग है समय ने पलटवार किया है कि  लक्ष्मी जी तो  को घर बुलाने के लिए काफी मेहनत मस्सकत करनी पड़ती है।  आम आदमी अब स्वप्न में ही उनसे मिल सकता है.
सत्य कहते हो बबलूपहले ५०० रुपय बहुत होते थेपूरी दिवाली की तैयारी हो जाती थी.  घर भर का आनंद ख़रीदा जा सकता थाकिन्तु अब रूपये का टूटना और डालर का बढ़नादेश में महंगाई नाम की डायन को सदा मंदिर में स्थापित कर चुका है.

             हाँ भाई रमेश चन्द्र -- गरीब की कुटिया और गरीब हो गयीअमीरों के घर चाँद आकार बस गयाबेचारे मध्यमवर्गीय त्रिशंखू की भांति हवा में झूलने लगे हैं.पहले दीपावली में धन के नाम पर सोना ख़रीदे रहे,अब वह भी आसमान की  सैर करता हैघर प्रापर्टी हाथ से बाहर है ,ले देकर दीपावली के नाम पर रस्सी और फुलझड़ी से ही काम चला लेते हैं.

            हाँ सही है बबलूदिवाली में क्या खाए क्या जलायेसाहूकारों के मुँह फटें की फटे रहते  हैंजैसे पूरा पर्वत निगलकर भी भूखे शेर के जैसे  मुँह खोलकर बैठे हुए हैआज लम्पट लोगों ने भी नयी प्रथा को जन्म दे दिया है. जब भी कोई त्यौहार आये, उस त्यौहार में उपयोग होने वाली सभी वस्तुओं के दाम बढ़ा हो और एक ही नारे का टेप बजाओ --- महंगाई  डसती  जाए रे। 

      पहले की तरह अडोस – पड़ोस को बुलानामिठाई खिलानाठहाकों के पटाखेखुशियों की

 फुलझड़ियाँ
रिश्तों की मिठासप्रेम की लड़ियों का अपना ही आनंद  था,  

        हाँ , सत्य वचन भाई , आज तो झूठे मुँह दिखावे के लिए भी कोई नहीं कहत आओ अतिथि न आ जाये।
      आजकल अतिथि दूर हो जाये ऐसा जाप लोग मन ही मन करते हैंकौन इतनी मान मनुहार करता है।  
    हाँ वह तो है , लो छोडो कल की बातें यह बात है पुरानी .......... कहकर रमेशचन्द्र ने अपनी गाड़ी बढ़ा

ली।और धीरे से दबी  आवाज में में कह गए कभी घर आना
, समय  न मिले तो........ फ़ोन ही कर लेना।, राम राम 
            
        आजकल हर कोई उल्लू बनाने में लगा हुआ  है.  दोस्त अपना हो या न हो अपना न हो यादें तो

 अपनी  है
, चलो आज १५० के पटाखे ले ही लेते हैं, यह  लक्ष्मी जी कभी  तो अपनी कुटिया में आ

 ही जाएँगी। आज ईश्वर की कृपा से रिज़र्व बैंक को कुछ भेद  ज्ञान प्राप्त हुआ है
, इसके चलते कुछ ब्याज

 दर कम हुई है
, भाई हमारे नेता जी की जय हो, दीवाली में खुशिओं की बौझार भी हो जाये तो कुछ बम हम

  भी चला ले।  कब तक पड़ोस के बम देखते रहेंगे। दिवाली में दिवाला न निकले। हरी ओम। 
                               -- शशि पुरवार