shashi purwar writer

Saturday, October 20, 2018

दर्द तीखे हँस रहे

खेल है यह जिंदगी के 
टूटना मुझको नहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे  
हौसला भी कुछ वहीं है 

क्यों परीक्षा ले रहा रब 
हर कदम पर इम्तिहां है 
तोड़ती निष्ठुर हवाएं 
पास साहिल भी कहाँ है 

दूर तक जाना मुझे, पर 
रास्ता दुर्गम मही है 
बंद हों जब द्वार सारे 
हौसला भी कुछ वहीं है 

बेबसी मुझको सताती 
नाँव पथ में डगमगाती 
पंख मेरे कट रहें हैं 
जिंदगी भी लड़खड़ाती 

शूल पाँवों में चुभें, फिर 
नित संभलना भी यहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे 
हौसला भी कुछ वहीं है 

शब्द मन में उड़ रहें है 
भाव हिय में फँस रहें है 
तन शिथिल कैसे चलूँ मै 
दर्द तीखे हँस रहें है 

क्या खता मेरी बता दे 
बात दिल की अनकहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे 
हौसला भी कुछ वहीं है

खेल है यह जिंदगी के 
टूटना मुझको नहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे  

हौसला भी कुछ वहीं है

शशि पुरवार 
२० / ११/ २१०८ 



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