कुर्सी की आत्मकथा --
कुर्सी की माया ही निराली है. कुर्सी से बड़ा कोई ओहदा नहीं है , कुर्सी सिर्फ राजनीति की ही नहीं अपितु हर मालिक की शोभा बढाती है , चाहे व कुर्सी सरकारी दफ्तर में हो या प्राइवेट दफ्तर में। कुर्सी की अपनी पहचान है। कुर्सी पर बैठने वालों की होड़ लगी रहती है, जो कुर्सी पर विराजा, वह राजा और जो कुर्सी के पास भटक भी न सके वह बेचारा ! बेचारा कुर्सी का मारा ,चुपचाप उसे तिरछी नजर से देखा करता है . दिल में धधकते शोले, आँखों से नूर, हृदय की बेचैनी जीने ही नहीं देती है . बेचारी कुर्सी किसी कन्या की भांति डरी -डरी अपने जीवन के दिन काटती है, न जाने कब कौन सा साया उसके हाथ पैरों की मरम्मत कर दे. उसके जीवन में कब कोई शामत आये यह तो समय भी नहीं बता सकता है. किन्तु फिर भी कुर्सी की महिमा गजब की है. हर कोई कुर्सी के आगे नतमस्तक है, हर कोई स्वप्न सुंदरी की तरह कुर्सी के सपने देखता रहता है. किस्म - किस्म के लोग कुर्सी पर अपनी तशरीफ़ रखने के लिए बेताब रहतें है. अलग अलग वजनदार लोग अपने वजन से कुर्सी का काया कल्प करते रहतें हैं और बेचारी कुर्सी भार सहते- सहते बेदम होने लगती है. फिर भी कुर्सी चमक कम नहीं होती है. कुर्सी के दुश्मन कुर्सी पर बैठे लोगों की, भिन्न - भिन्न अजीब सी मुद्राओं व आकृतियों को देखते रहतें है. कुर्सी पर बैठा व्यक्ति खुद को बादशाह समझ कर फरमान जाहिर करता रहता है. आखिर कौन है जो उस कुर्सी की व्यथा को समझेगा. जिस कुर्सी ने ताज दिया है, वही कुर्सी अपने ताज की रक्षा करने में स्वयं असमर्थ है.
हल्का- दुबला- पतला शरीर या भारी- भरकम हाथी जैसा वज, भार तो बेचारी कुर्सी को ही सहना पड़ता है. जब भी कभी ऑफिस में कुर्सी के दिन फिरे हैं तो वह एसी की बंद दीवारी में कुछ पल ठंडी हवा का आनंद लेती है और यदि दिन न फिरे तो बॉस की लात खाती हुई कुर्सी, अपने बॉस का फिर भी दुलार करती है. अनेकों शरीर का भार ढोते- ढोते,पसीने में नहाई हुई कुर्सी जर्जर हो जाती है, पर मुँह से उफ्फ तक नहीं करती है .ऐसा कोई महान व्यक्ति भी नहीं है जिसने कभी कुर्सी की व्यथा समझने का प्रयत्न किया हो.
कुर्सी राजा होकर भी किसी चपरासी की चप्पल के समान जीवन भर घिसती रहती है, कोई कभी लात मारता है तो कोई हाथ तोड़ता है. कोई अपने दिल की सारी खुन्नस कुर्सी पर निकालता है तो कहीं कोई जन सभा होती है तब सबसे ज्यादा खतरे में कुर्सी होती है, खाकी वर्दी वाले कुर्सी को छोड़ नेताओं की आवभगत व रक्षा में लगे रहतें हैं. कब किसी के क्रोध की अग्नि में कुर्सी स्वाहा हो जाये, यक्ष प्रश्न है. कोई कुर्सी को उठाकर फेकता हैं, कोई हाथ- पैर तोड़कर दिल की ज्वाला को शांत करता है. बदहाल में कुर्सी होती है और न्यूज़ चैनल की चर्चा में हमारे नायक रहतें है. ऑफिसर, नौकरी समाप्त करके सेवानिवृत होतें है, किन्तु कुर्सी की सेवा उसके मरणोपरांत ही समाप्त होती है, कभी कभी तो बेचारी कुर्सी इलाज के बिना ही दम तोड़ देती है पुरानी जर्जर कुर्सी स्वामिभक्ति दिखाते हुए शहीद हो जाती है। कुर्सी की वफादारी का इनाम उसे स्टोर रूम में फेककर दिया जाता है. आजकल रंग बिरंगी तितलियों की तरह कुर्सीयोँ को भी अलग अलग रेक्जीन के रंगबिरंगे परिधान पहनाये जातें है, रंग रोगन करके किसी दुल्हन की तरह कुर्सी को सजाया जाता है, फिर भी कुर्सी का दुःख नहीं बदलता है। बदले जमाने की तरह रंग बिरंगी तितलियाँ अपने दम तोड़ देती है और सरकारी स्थानों पर लकड़ी व तार से बनी मजबूत कुर्सियां जन्मों जन्मों तक वफादारी के वचन निभाती हैं. यही वह कुर्सी है जिसे सरकारी कर्मचारी बदलना नहीं चाहतें अपितु बदलने के नाम पर जेब गीली करतें हैं।
कुर्सी की माया ही निराली है. कुर्सी से बड़ा कोई ओहदा नहीं है , कुर्सी सिर्फ राजनीति की ही नहीं अपितु हर मालिक की शोभा बढाती है , चाहे व कुर्सी सरकारी दफ्तर में हो या प्राइवेट दफ्तर में। कुर्सी की अपनी पहचान है। कुर्सी पर बैठने वालों की होड़ लगी रहती है, जो कुर्सी पर विराजा, वह राजा और जो कुर्सी के पास भटक भी न सके वह बेचारा ! बेचारा कुर्सी का मारा ,चुपचाप उसे तिरछी नजर से देखा करता है . दिल में धधकते शोले, आँखों से नूर, हृदय की बेचैनी जीने ही नहीं देती है . बेचारी कुर्सी किसी कन्या की भांति डरी -डरी अपने जीवन के दिन काटती है, न जाने कब कौन सा साया उसके हाथ पैरों की मरम्मत कर दे. उसके जीवन में कब कोई शामत आये यह तो समय भी नहीं बता सकता है. किन्तु फिर भी कुर्सी की महिमा गजब की है. हर कोई कुर्सी के आगे नतमस्तक है, हर कोई स्वप्न सुंदरी की तरह कुर्सी के सपने देखता रहता है. किस्म - किस्म के लोग कुर्सी पर अपनी तशरीफ़ रखने के लिए बेताब रहतें है. अलग अलग वजनदार लोग अपने वजन से कुर्सी का काया कल्प करते रहतें हैं और बेचारी कुर्सी भार सहते- सहते बेदम होने लगती है. फिर भी कुर्सी चमक कम नहीं होती है. कुर्सी के दुश्मन कुर्सी पर बैठे लोगों की, भिन्न - भिन्न अजीब सी मुद्राओं व आकृतियों को देखते रहतें है. कुर्सी पर बैठा व्यक्ति खुद को बादशाह समझ कर फरमान जाहिर करता रहता है. आखिर कौन है जो उस कुर्सी की व्यथा को समझेगा. जिस कुर्सी ने ताज दिया है, वही कुर्सी अपने ताज की रक्षा करने में स्वयं असमर्थ है.
हल्का- दुबला- पतला शरीर या भारी- भरकम हाथी जैसा वज, भार तो बेचारी कुर्सी को ही सहना पड़ता है. जब भी कभी ऑफिस में कुर्सी के दिन फिरे हैं तो वह एसी की बंद दीवारी में कुछ पल ठंडी हवा का आनंद लेती है और यदि दिन न फिरे तो बॉस की लात खाती हुई कुर्सी, अपने बॉस का फिर भी दुलार करती है. अनेकों शरीर का भार ढोते- ढोते,पसीने में नहाई हुई कुर्सी जर्जर हो जाती है, पर मुँह से उफ्फ तक नहीं करती है .ऐसा कोई महान व्यक्ति भी नहीं है जिसने कभी कुर्सी की व्यथा समझने का प्रयत्न किया हो.
कुर्सी राजा होकर भी किसी चपरासी की चप्पल के समान जीवन भर घिसती रहती है, कोई कभी लात मारता है तो कोई हाथ तोड़ता है. कोई अपने दिल की सारी खुन्नस कुर्सी पर निकालता है तो कहीं कोई जन सभा होती है तब सबसे ज्यादा खतरे में कुर्सी होती है, खाकी वर्दी वाले कुर्सी को छोड़ नेताओं की आवभगत व रक्षा में लगे रहतें हैं. कब किसी के क्रोध की अग्नि में कुर्सी स्वाहा हो जाये, यक्ष प्रश्न है. कोई कुर्सी को उठाकर फेकता हैं, कोई हाथ- पैर तोड़कर दिल की ज्वाला को शांत करता है. बदहाल में कुर्सी होती है और न्यूज़ चैनल की चर्चा में हमारे नायक रहतें है. ऑफिसर, नौकरी समाप्त करके सेवानिवृत होतें है, किन्तु कुर्सी की सेवा उसके मरणोपरांत ही समाप्त होती है, कभी कभी तो बेचारी कुर्सी इलाज के बिना ही दम तोड़ देती है पुरानी जर्जर कुर्सी स्वामिभक्ति दिखाते हुए शहीद हो जाती है। कुर्सी की वफादारी का इनाम उसे स्टोर रूम में फेककर दिया जाता है. आजकल रंग बिरंगी तितलियों की तरह कुर्सीयोँ को भी अलग अलग रेक्जीन के रंगबिरंगे परिधान पहनाये जातें है, रंग रोगन करके किसी दुल्हन की तरह कुर्सी को सजाया जाता है, फिर भी कुर्सी का दुःख नहीं बदलता है। बदले जमाने की तरह रंग बिरंगी तितलियाँ अपने दम तोड़ देती है और सरकारी स्थानों पर लकड़ी व तार से बनी मजबूत कुर्सियां जन्मों जन्मों तक वफादारी के वचन निभाती हैं. यही वह कुर्सी है जिसे सरकारी कर्मचारी बदलना नहीं चाहतें अपितु बदलने के नाम पर जेब गीली करतें हैं।
कई बार यह भी देखा गया है कि नोटों के हाथ लोग सेकतें हैं और बदनाम कुर्सी होती है. चाहे संसद की जमीं हो या न्याय की चौपाल, पुलिस चौकी हो या जेल की सलाखें, घर - आँगन या दफ्तर हर जगह सजी हुई रंग बिरंगी कुर्सियां धीरे धीरे खोखली हो जाती है. फिर भी उनकी खस्ताहाली पर कोई ध्यान नहीं देता है। यही कुर्सी जब अपने मालिक की कमर तोड़ती है तब अपने अंतिम पड़ाव में पल भर में पहुंच जाती है , न्याय के लिए तरसती इन कुर्सियों की व्यथा को न्याय कब मिलेगा....? बोझ तले मरती इन कुर्सियों का दर्द कौन समझेगा ? यह सभी प्रश्न, यक्ष के समान है. कुर्सियों को आजादी, बोझ मुक्त साँस लेने की प्रक्रिया के लिए वैज्ञानिकों को कुछ योगदान देना चाहिए. साँस लेने का अधिकार बेजान वस्तुओं को भी होता है. आशा है भविष्य में कोई तो होगा जो कुर्सी की रामकहानी किसी चैनल के माध्यम से जन जन तक पहुचायेगा. कभी तो बेचारी कुर्सी के दिन बदलेंगे ..... हम इस जिजीविषा कुर्सी के आगे नतमस्तक है.
--शशि पुरवार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-08-2017) को "चीनी सामान का बहिष्कार" (चर्चा अंक 2701) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
स्वतन्त्रता दिवस और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेचारी कुर्सी ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी व्यंग प्रस्तुति
बहुत सुन्दर और सटीक व्यंग ...
ReplyDeleteनाम वही, काम वही लेकिन हमारा पता बदल गया है। आदरणीय ब्लॉगर आपने अपने ब्लॉग पर iBlogger का सूची प्रदर्शक लगाया हुआ है कृपया उसे यहां दिए गये लिंक पर जाकर नया कोड लगा लें ताकि आप हमारे साथ जुड़ें रहे।
ReplyDeleteइस लिंक पर जाएं :::::
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