विकलांगता ख्याल आते ही
मन में सहानुभूति जन्म लेती है
कहीं वितृष्णा, कहीं लापरवाही
कहीं बेचारगी, कभी दुत्कार।
यह अपरिपक्व मन के विकार है
शरीर या मन का विकृत अंग जिसे
काट नहीं सकतें, सहला सकतें है
अपने नर्म हाथों से, प्रेम भरी बातों से।
जीवन की खूबसूरती पर
उनका भी हक है।
उनका भी हक है।
विकलांगता,
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है।
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है।
जो तन से परे मन को विक्षिप्त करता है।
जीवन लाचार नहीं, वरदान है।
भीख मत मांगो जिंदगी से ,
लड़ो अपने मन की अपंगता से।
बेचारगी तोड़ देगी सम्बल तुम्हारा
पर मत लड़ो खुद से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से,
गिर पड़े गर अपनी नजर में तो
फिर कैसे उठोगे ।
कुछ कर गुजरने की चाह गर दिल में है
तो छू लो आसमान को
पाँव तले होगी जमीं
पाँव तले होगी जमीं
तुम्हारे मजबूत इरादों की,
जीत लोगे जंग हालातों से
विकलांगता अभिशाप नहीं है। अपितु
प्रेम की नरम छुअन बदल देगी
किसी एक का जीवन
शशि पुरवार
किसी एक का जीवन
शशि पुरवार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-09-2018) को "गाओ भजन अनूप" (चर्चा अंक-3101) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन युगदृष्टा श्रीराम शर्मा आचार्य जी को सादर नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeletesuperb!!!!!!!!!
ReplyDeleteसच कहा है ... ये एक विकार है और खुद को इस से मुक्ति चाहिए होती है ...
ReplyDeleteजा पार कर लेता है वो रुकता नहीं ...
सुन्दर रचना है ...
तन की विकलांगता को बस प्यार की ज़रुरत है परन्तु मन विकलांग हो तो कोई उपाय नहीं. सार्थक रचना, बधाई.
ReplyDelete