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Monday, March 11, 2019

गुनगुनी सी धूप आँगन की - पुस्तक समीक्षा

मेरे दूसरे संग्रह की समीक्षा लिखी थी इंदौर से विजय सिंह चौहान जी ने और यह समीक्षा अंतर्जाल पर प्रतिलिपि , मातृभाषा , दिव्योथान एवं नवभारत समाचार पत्र सभी पोर्टल पर प्रकाशित है , आप भी यहाँ पढ़ सकतें हैं

आभार आ. विजय सिंह चौहान जी
गुनगुनी सी : धूप आंगन की

साहित्य यात्रा : धूप आंगन की , सात खण्ड में विभक्त एक ऐसा गुलदस्ता है

जिसमें साहित्यिक क्षेत्र की विभिन्न विधाअों के फूलों की गंध को एक साथ महसूस करके उसका आनन्द लिया जा सकता है । भारतवर्ष की ख्यात लेखिका श्रीमति शशि पुरवार ने इस गुलदस्ते को आकार दिया है। हिन्दी साहित्य जगत में श्रीमति शशि पुरवार एक सशक्त हस्ताक्षर है ।
इन्दौर में जन्मी शशि पुरवार ने यहीं के गुजराती साईंस कॉलेज से
विज्ञान की उपाधि प्राप्त की है तदन्तर एम् ए , एवं कंप्यूटर में होनेर्स डिप्लोमा किया है . मालवा की माटी में ही साहित्य का बीजारोपण हुआ जो आज एक वटवृक्ष के रूप में हमारे सम्मुख है. विसंगतियों के खिलाफ अपने प्रयासों के लिये शशि पुरवार को महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा 2016 में ‘भारत की 100 वूमन्स अचीवर ऑफ इण्डिया‘ नामक सम्मान से नवाजा गया है । आप गीत, आलेख, व्यंग्य, गजल, कविता, कहानी व अन्य विधाओं में अपनी संवेदना व्यक्त करती रही है ।
" धूप आंगन की " मुझे अपनी सी व सुहानी सी लगती है . कभी कोयल की कूक तो कभी पायल की रूनझून मन को गुदगुदाने लगती है । संवेदनाए भी जीवन की झर धूप में, नेह छांव की तलाश करती नजर आती है । गजल खण्ड में लगभग 24 गजलें धूप आंगन के ईद र्गिद मंडराती है , कभी इश्क का जखीरा पिघलता है, तो कभी आंगन में लगा नीम ढेरो उपहार देने के बाद भी मुरझाता सा प्रतीत होता है ।
मधुवन मे महकते हुए फूल हो या गजल के करिश्में , हर रचना में
रचनाकार की कोमल संवेदनाअों का उठता ज्वार, समुद्र से गहरे विचार को
दर्शाता है. बनावटी रिश्तों की कसक हर आंगन में होती है लेकिन इस आँगन
की धूप ने स्पष्ट किया है कि ‘हर नियत पाक नहीं होती‘ है व वक्त लुटेरा बनकर सबको लूटता है. ज्ञान का दीप भी धरूँ मन में,­ जिंदगी फिर गुलाब हो जाए जैसी गजलों के नाजुक शेर की यह पंक्तियाँ पूर्णत: गुलिस्तां की महक को समेटने में सफल रही है.
रचनाकार के मन में हिन्दी के प्रति जन्में अगाध श्रद्वा भाव ने हिन्दी को विभिन्न उपमा, अलंकार में श्रंृगारित करते हुए बेहद सुन्दर उद्गार प्रेषित किये है . यह प्रेम उनकी रचना मे नजर आता है. गजल के यह शेर देखें
कि सात सुरों का है ये संगम,
मीठा सा मधुपान है, हिन्दी ।
फिर वक्त की नजाकत, दिल की यादें, और सांसों में बसी हो क्या, यहां आते
आते धूप आंगन की; जाडों में गुनगुनी धूप का अहसास दिलाती है तथा संवेदनाअों की कोमल धूप थोडी देर अौर आंगन में बैठने के लिए मजबूर करती है । इस साहित्यिक यात्रा में जैसे जैसे धूप तेज होती है वैसे-वैसे गर्मी की ,उष्णता भी महसूस होने लगती है . ऐसी ही एक गजल है जिसके शेर
है
घर का बिखरा नजारा अौर है व
गिर गया आज फिर मनुज,
कितना नार को कोख में मिटा लाया‘
शेर पढकर धूप की चुभने का अहसास होता है . आहिस्ता-आहिस्ता गजल में
प्रेम की फुलवारी फिर से महकने लगती है कि हौसलों के गीत गुनगुनाअो ।
एक बात और कहना चाहूगा कि गजल खण्ड को पढते-पढते आखों कहीं नम होती है तो कहीं ह्रदय को मानिसक सुकुन मिलता है . संवेदनाएँ हमारे ही परिवेश को रेखांकन करती हुई अपने ही इर्द गिर्द होने का अहसास कराती है ।
संवेदनाअों की वाहिका, धूप आंगन से होते हुए ‘लघुकथा‘ खण्ड में प्रवेश करती है जहां सामाजिक ताना-बाना, रौशनी की किरण बनकर ; हर एक लघुकथा के माध्यम से दिव्य संदेश की वाहिका बनकर पाठकों तक पहुंचती है । लघुकथा खण्ड में समाज में हुए मानसिक पतन, जीवन का सच, गरीब कौन, दोहरा व्यक्तित्व तथा विकृत मानसिकता, स्वाहा और ममता आदि लघुकथाएँ समाज को सार्थक संदेश देती है । जीवन की तपिश में जाडो की नर्म धूप सा अहसास होता है . संग्रह के लघुकथा खण्ड में जब नया रास्ता, आईना दिखाता है तोअर्न्तमन का सुकून संवेदना के रूप में बाहर झलकता है । समाज में व्याप्तअंधविश्वास ,खोखले रिवाजों के बीच सलोनी के चेहरे पर आई मुस्कान पढ करअर्न्तमन तृप्त हो जाता है । बडी कहानी खण्ड में " नया आकाश " आम गृहणीकी मनोदशा का मार्मिक चित्रण हैं , यह कहानी हर किसी गृहणी को अपनी हीसंवेदनाओं का अहसास कराती है . कहानी के अंत में नारी सम्मान पर जीवनसाथी द्वारा दिये गये संदेश अपनी दिव्यता की महक छोडतें है कि "नारी
का काम सृजन करना ही है, मन में आत्मविश्वास हो तो नारी कुछ भी कर सकती है. हर नारी के अंदर कोई न कोई प्रतिभा होती है, जिसे बाहर लाना चाहिये‘ अपनी पत्नी पर गर्वीली आंखों में आई चमक का बख्ूाबी वर्णन किया है ।


विभिन्न विधाअों में किया गया लेखन; जब व्यंग्यता की ओर बढता है तोलगता है कि व्यंग्य का चुटीलापन रचनाकार के लेखन की हर विधा मे नजर आता है फिर चाहे वह लघुकथा हो, कविता हो या व्यंग्य; हर पल संवेदना के गहरे बादल मंडराते है।
बोझ वाली गली में टोकरे ही टोकरे‘ में साहित्य जगत का टोकरा व प्रकाशक वसंपादक के टोकरे में अलादीन का चिराग तथा स्वयं अपने काम के टोकरे सेपरेशानी को बेहद चुटीले अंदाज में पेश किया है । अडोस-पडोस का दर्द वविचारों में मिलावट, हिंदी की कुडंली में साढे साती के चलते हिंगलिश मेंथोडी सी विंग्लिश का नव प्रयोग को जहाँ समाज का आईना दिखाता है वहीं
समाज की विसंगतियों पर प्रहार करके सामाजिक खोखली मानसिकता को व्यक्तकरता है.

गजल, लघुकथा, बडी कहानी व व्यंग्य में गुनगुनाने के बाद जब साहित्ययात्रा आलेख के माध्यम से शिक्षित बन अधिकार जाने महिलाएँ , बाल शोषणसमाज का विकृत दर्पण, आत्महत्याओं पर विचारोत्तेजक आलेख, लेखक की विद्वता व संवेदनशीलता को परीलक्षित करते है ।

जीवन उस रेत के समान है जिसे मुटठी में जितना बाँधना चाहें वह उतना हीफिसलती जाती है । सकारात्मक जीवन जीने के लिए तथा बेहतर जीवन बनाने के लिये कर्मशील होना आवश्यक है और नकारत्मकता को सदैव दूर रखना चाहिए. खाली दिमाग शैतान का घर होता है ; अपना शौक को पूरा करें ये कुछ ऐसी नसीहते है जो सीधे सरल और सहज रूप से इन लेखों के माध्यम से कही गई है । जो आम आदमी को निराशा के गर्त से बाहर आने मे मददगार सिद्ध होती हैं .

सकारात्मक सोच को प्रवाहिर करते शशि पुरवार जी के लेख आज के दौर मेंज्यादा प्रासांगिक नजर आते है । साहित्यिक यात्रा के अगले चरण में डायरीके पन्नों से ; बाल काल की समेटी हुई कवितायें है . इन कविताओं कोपढकर महसूस होता है कि बालमन में ही संवेदनाए जन्म लेकर नव आकाश कानिर्माण करेगीं. देश के ख्यात कवियों की शैली की झलक मुझे इन रचनाअों नेनजर आई है। सर्वप्रथम लिखी हुई कविता " कहाँ हूँ मैं " ने ही लेखिका केमन मे जन्में भाव ने कवि ह्रदय की गहन संवेदनाओं के पंख पसारने तभी शुरू कर दिये थे .

इन पन्नों में नारी के अस्तित्व पर जहाँ सवाल उठें है वहीं छलनी हो रहे,आत्मा के तार, चित्कारता हदय करे पुकार है। कभी रूह तक कंपकंपाता दर्दहै तो कभी आशा की किरण भी समाहित है । झकझोरते हुए जज्बात हैं तो कहीं खारे पानी की सूखती नदी है. कभी शब्दों की छनकती गूँज है तो कभी सन्नाटे में पसरी आवाजे चहुं ओर बिखरी नजर आती है । इसी खण्ड में तलाश को तलाशते हुए रेखांकन बरबस ही नजरों में ठहर जाते हैं . अौर संवेदना के अतल सागर डूब कर अनुभूतियों में गोते लगाते है, तो कभी श्वासोच्छवास की दीर्ध ध्वनि व ह्रदय की धडकनों की पदचाप सुनाई पडती है।

काव्य की बात हो और चांद से संवाद न हो यह मुमकिन नहीं है . चांद से अकेले में संवाद करती हुई शशि पुरवार जी की बालपन की रचना में सौंदर्य व प्रेम की पराकाष्ठा नजर आती है . ह्रदय चाँद में डूबा हुआ विलिन होने के लिए मचलता है. प्रेम व संवेदना की कोमल वाहिका चांद के साथ साथ बेटियों पर भी अपना ममत्व न्यौछावर करती है। अनगिनत उपमा, अलंकार और श्रृंगार से श्रंृगारित काव्य खण्ड में मन रसमय होकर तल्लीन हो जाता है  . जब चिडियों सी चहकती , हिरनों सी मचलती बेटियां हमें खिलखिलाने के लिये मजबूर करती है।
इस खण्ड मे भूख , चपाती अकेला आदमी, सपने , जीवन की तस्वीर पढ कर जहाँ  मानसिक क्षुधा शांत होती है वहीं हिय में अनगिनत प्रश्न मन को विचलित  भी करतें है . संग्रह में लेखक ने रचनाअों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों व कोमल संवेदनाअों पर खुला प्रहार किया है. सभी मुद्दों को बेहद नजाकत के साथ प्रस्तुत किया है । कहतें है ना कि कडवी गोली खिला दी अौर
कडवाहट का अहसास भी नही हुआ. कुल मिलाकर 168 पृष्ठों में समाई धूप ऑंगन की : एक एेसी साहित्य यात्रा है जो विराम नहीं होती है अपितु सतत एक झरने की भांति अर्न्तमन में अनगिनत प्रश्नों को छोडकर बहती रहती है , वहीं कोमल धूप दिल दिमाग पर छाकर नेह सा अहसास भी कराती । एक लेखक की सार्थकता इसी बात से सिद्व हो जाती है कि उसकी रचना व्यक्ति के मन मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोडने में सक्षम है । किताब में रेखांकित रचनाएँ खण्ड के अनुरूप है जो अक्षर के साथ भावों को एकाकार करती है

बेहद सधे हाथों से किया रेखांकन कल्पना लोक की सैर कराता हुआ आम आदमी को उसकी पृष्ठभूमि से जोड़ता है . हर पृष्ठ पर चढती बेल का रेखंाकन पुस्तक में मूल रूप से समाहित आशावाद का प्रतीक है । इस पुस्तक में रचनाकार के साथ हर पृष्ठ पर भावों की नवीनता पाठकों में रूचि पैदा करती है । मुख
पृष्ठ से लेकर पुस्तक के मूल नाम " धूप आँगन की " के अनुरूप शशि पुरवार का यह संग्रह यथा नाम तथा गुण सूत्र को सार्थक करता है । दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा सुन्दर मुद्रण से धूप आंगन की साहित्य यात्रा को मुकम्मल मंजिल मिली । संक्षिप्त रूप में यह पुस्तक मील का पत्थर साबितहोगी। पुस्तक का मूल्य ३९५ ( हार्ड बाउंड ) व पेपर बैक का 
मूल्य १९५
है।
बे
हद सुन्दर संग्रह हेतु शशि पुरवार को कोटि कोटि बधाई। उनकी कलम यूँ ही 
अनवरत चलती रहे व समाज को लाभान्वित करें।

विजयसिंह चौहान




Saturday, February 2, 2019

धूप आँगन की

मस्कार मित्रों आपसे साझा करते हुए बेहद प्रसन्नता  हो रही है कि--

   शशि पुरवार का दूसरा संग्रह  * " धूप आँगन की " ** भी बाजार में उपलब्ध है।

धूप आँगन की " जैसे आँगन में चिंहुकती हुई नन्ही परी की अठखेलियां, कभी
ठुमकना तो कभी रूठ जाना,कभी नेह की गुनगुनी धूप में पिघलता हुआ मन है ,
कभी यथार्थ की कठोर धरातल पर पत्थरों सा धूप में सुलगता हुआ तन है . कभी
बंद पृष्ठों में महकते हुए मृदु एहसास हैं  तो कहीं मृगतृष्णा की सुलगती
हुई रेतीली प्यास है। कहीं स्वयं  के वजूद की तलाशती हुई धूप है तो  कहीं
विसंगतियों में सुलगती हुई  धूप की आग है ।  हमारे परिवेश में बिखरे हुए
संवेदना के कण है - धूप    का आँगन

क्यों न अपने स्नेह की नर्म धूप से सहला दें।  आओ इक सुन्दर सा आकाश बना ले।
हमारे प्रयास आपके दिलों ने इक छोटा सी जगह बना ले।  आंगन की धूप को आप
अपने हृदय से लगा ले. हम आपके प्यार को अपना आकाश बना ले। आंगन की धूप से
सुप्त कणों को जगा दे।

शशि पुरवार

Thursday, August 9, 2018

व्यंग्य की घुड़दौड़ संग्रह




व्यंग्य की घुड़दौड़’ सीधे शब्दों में ज़िन्दगी की घुड़दौड़ है। ठीक उसी तरह, जैसे बेतरतीब सड़कों पर थमे बिना चलते रहना, कड़कते तेल के छौंक की खुशबू का चिमनी में सिमटना, प्रेम की सौंधी खुशबू का जीवन से प्रस्थान करना, जिंदगी की आसमान को छूने की दौड़ या इक दूजे से आगे निकलने की होड़ में ख़ुद को भूल जाना, उड़ने की ख़्वाहिश में गुदगुदाते पलों का बिखरना, जीवन से कहकहों का रूठ कर सिमटना, एक अंतहीन प्यास की चाहत में ख़ुद से बेरुखी करना या समय के इस चक्र में खुद को मूर्ख बनाना, खुशफहमी का जामा पहनना, जिसका अहसास हमें ही स्वयं भी नहीं होता है, खुद को धोखा देकर आभासी पलों को जीना, ज़िन्दगी के हर, पल समय को हराने के लिए भागना। कहीं कुछ छूट रहा है कहीं दिल टूट रहा है। समय के पलटते पन्नों ने वर्तमान में जीवन की तस्वीर को बदल दिया है। सोशल मीडिया ने जहाँ दुनिया को आपस में जोड़ा है, वहीं जिंदादिली को मार कर अकेलेपन को भी जोड़ा है। कहीं हम अवसाद के घेरे में न आ जाएँ, आओ चलो कहकहों को चुराएँ। परिवेश से बिखरी हुई संवेदनाओं को समेटकर उसमें व्यंग्य का हल्का सा छौंक लगा दें। संजीदगी को फिर से ज़िन्दगी की घुड़दौड़ बना दें। आपके प्यार को हम अपना सिरमौर बना लें। व्यंग्य की घुड़दौड़ को अपने दिल से लगा लें।
शशि पुरवार 

Tuesday, February 16, 2016

समीक्षा - सागर मन - पुष्पा मेहरा

आ. पुष्पा मेहरा जी के हाइकु संग्रह सागर मन जैसा नाम से ही प्रतीत होता है, भावों का सागर जैसे उनके मन में हिलोरे लेता है।  पुष्पा जी के हाइकु  भाव की लोकरंजन भूमि पर जन्मे हुए संवेदना के अप्रतिम सितारें है।  हाइकु में प्रकृति का सौंदर्य उसकी पराकाष्ठा को कवयित्री ने सफलतापूर्वक सम्प्रेषित किया है. इंद्रधनुषी रंग सागर मन के एक एक कण में अपनी आभा बिखरते नजर आतें है. 

     भोर का संगीत हवाओं में घुलकर पात पात मुखर वाणी  को सफलतापूर्वक सम्प्रेषित  करता है  प्रकृति  के अप्रतिम सौन्दर्य को पुष्पा  जी ने बहुत शिद्दत से महसूस किया है. सकारात्मक उर्जा का सन्देश उनके हाइकु में समाहित है . कल्पना की उड़ान किसी उम्र की मोहताज नहीं होती है.  उनके द्वारा रचित सौन्दर्य की कुछ बानगी देखें .
सोन किरणें / हमें जगाने आईं / ले सात रंग
 नभ मोहल्ला / नक्षत्र दें पहरा / सोयी है रात

बसन्त में  अवनि का सौन्दर्य पूरे उन्माद पर रहता है. चहुँ ओर छैल छविली सी प्रकृति के मनमोहक रंग सुन्दर अल्पना रचाते  हैं. डाल –डाल, पात –पात फूलों का सौन्दर्य, हवा की अठखेलियाँ, हवा का उद्दंड होना, व  सुरभि का बिखरना मन को मोहित करता है. बसन्त के रंग धरा पर अपने पूरे सौन्दर्य को निहारते से प्रतीत होते हैं. फागुन में सौन्दर्य की लालिमा, लाल पीले रंग में खिले पलाश के गुच्छे, लदबद डाल दूर से आग जलने सा भ्रम पैदा करते हैं वहीँ दृष्टी को शीतलता भी  प्रदान करतें हैं. यहाँ कवयित्री ने बसंत की तुलना नार से भी की है, नारी और सौन्दर्य एक दूसरे के पूरक है उसी प्रकार पृकृति बसंत में अपने सुन्दर रंगों से धरती का श्रृंगार करती है . पुष्पा जी ने पृकृति के  इस  सौन्दर्य को बेहद सूक्ष्मता से आत्मसाध किया है जिसकी साधना के फलस्वरूप हाइकु में ये सारे रंग एकाकार होते नजर आते है. कुछ हाइकु की बानगी को देखिये
फुलों ने ओढ़ी / चुनरी बंधेज की / हवा मचली
प्रातः शर्मीली / नभ पट खोल के / मंद मुस्काई
हवा चपल/अंचल खींच उड़े / विस्मित नभ
फूलो का सत्र / करे प्रतियोगिता / हरेक क्यारी
प्रेम की पाती / ले बाँट रही हवा / मुग्ध हैं शाखें
झरे महुआ / धरा है पीत रंग / भरे सुगंध
धूम मचाती / रंग उड़ाती आई / नार छबीली
सरसराती/ हवा  चांटे मारती / हाथ न आती .
रूप सुहाग / भर लायी पृकृति / पुलके गात
फागुन आया / पलाश वन फूला / लगी है आग
 यही एक हाइकु पर मेरी नजर ठहर सी गयी है.फूलो की सुगंध सिर्फ पछियों व मानव को मोहित करने में समर्थ नहीं है अपितु फूलों के हमजोली काँटों पर भी उनका प्रभाव क्या होता है, यह पुष्पा जी की नजर से देखियें. कांटें सिर्फ चुभन के लिए नहीं होतें है उनका भी खास महत्व होता है . यह पुष्पा जी की नजर से देखे –
पी पी सुगंध / काँटे भी मदमस्त / शाखों पर सोये

    प्रकृति के सानिध्य में रचा गया यह हाइकु कुछ सामाजिक विसंगतियों की परतें भी उधेड़ता है. पुनः – पुनः इस हाइकु को पढ़कर मेरी दृष्टी हट ही नहीं रही है . पृकृति का अप्रतिम सौन्दर्य मानव जीवन से भी जुड़ा है. बिगड़े हुए लोग रंग रलियाँ मनातें है व्यसन  करतें हैं और मदमस्त होकर यूँ ही बेसुध पड़े रहतें है . इस हाइकु हेतु कवयित्री को विशेष वधाई देना चाहती हूँ . प्रकृति मानव विसंगतियों को मौन शब्दों में व्यक्त करती है यह देखने वालों की नजर ही है जो उसे आत्मसाध कर सकती है ..
पी पी सुगंध / काँटे भी मदमस्त / शाखों पर सोये-- अप्रतिम 


बसन्त में जहाँ पृकृति के रंग लुभाते हैं वहीँ ग्रीष्म का मौसम ताप उडेलता है .ऐसे मौसम में भी जीवन के सकारात्मक रंग का सन्देश हमें  प्रकृति द्वारा मिलता है, कवयित्री ने जहाँ बसंत के सलोने रूप  का व्याख्यान किया है, वहीँ ग्रीष्म की तपन, पंछियों की पीड़ा को भी महसूस किया है  तेज सोटें मारती ग्रीष्म से जहाँ प्रकृति बेरंग होती है वहीँ जनजीवन बहाल होता है . ग्रीष्म के ऐसे मौसम में भी निबोरी व आम जैसे फल कुछ ठंडक प्रदान करतें हैं. वहीं केक्टस  तेज आंधी तूफ़ान, तेज धूप में भी खड़ा मुस्कुराता है. जीवन को  सकारात्मकता का सन्देश देता है .कवयित्री की कलम ग्रीष्म काल में भी प्रकृति से छाया समेटती नजर आती है, सकारात्मक जीवन का सन्देश हर मौसम में प्रकृति द्वारा मिलता है , पुष्पा जी ने भाव  को  बेहद सशक्त शब्दों द्वारा ख़ूबसूरती से संप्रेषित किया है. ग्रीष्म की आग है तो रसीला स्वाद भी है , जलती पगडण्डी है तो शीतल छाया और रसभरीऔषधि निम्बोरी है. ग्रीष्म का हुबहू वर्णन हमें तपन का अहसास करता है. यह रंग भी पुष्पा जी के हाइकु में करीब से नजर आता है .तप्त दिवस  में शीतलता प्रदान करतें इन सुन्दर हाइकु को देखियें –

तप्त दिवस/ जहर रही निबौरी / औषधि – भरी
धधके धू –धू / जेठ दोपहरी / बेहाल तन
दिन गरम / नदी , नाद , नाहर /भूले नर्तन
तपते दिन / हाल हुआ बेहाल / रसीले आम
तीखी मिर्च / किरण सुनहरी / ताप धूप का
आंधी रेतीली / ताज ले कांटो –भरा / खड़ा कैक्टस
   ग्रीष्म की तपन के बाद वर्षा का अपना अलग ही आनंद व महत्व होता है. ग्रीष्म तन की तपन बढाता है वहीँ वर्षा मदमस्त करती है, बिजली का कड़कना, बूंदों का मचलना, बाढ़ का प्रकोप , सूखे की मार, बच्चों की मस्ती , मेढक की टर्र टर्र, कभी सूखे की मार तो कभी नभ का फटना, सभी रंग कवयित्री के हाइकु में नजर आतें है , साथ ही विज्ञान का पहलू भी हाइकु ने  नजर आता है. किस तरह वर्षा की बूंदें वाष्प बनकर नभ में जाती है और वही बाद में सिन्धु में मिलती है, ज्ञानवर्धक इस हाइकु का समावेश भी है. इस हाइकु के लिए कवयित्री की जितनी सराहना की जाये कम है, बच्चों को कम शब्दों में अर्थ समझाता यह हाइकु विशेष बन पड़ा है.
मेढकी बैठी / करती टर्र टर्र / पोखर तट
फेरता पानी / सरस उम्मीदों पे / विनाश- बीज
वर्षा –बहार /सपनों की हात में /खोया संसार
 बूंदें वर्षा की / उडाती सोंधी गंध / महकी धरा
आकाश ऊँचा / सूखा ही रह गया / नहा ली धरा
बूंदें थी नन्ही /मिली तो सिन्धु बनी / भाप हो उडी
करे ठिठोली /शरारती बिजली / भेदे गगन
भीगी धरती /लाल बीरबहूटी / मूंगे सी बिछी
 वर्षा के बाद शरद का मौसम गुलाबी ठंडक, दुधिया रात, मौसमी श्रृंगार एक शक्ति का आभास करातें है. आसमान पर सौन्दर्य पूरे उन्माद पर होता है .  शरद पूर्णिमा का चाँद मन में शीतलता का आभास करातें है . ठंडक भरे इन हाइकु को देखिये .
शरद चन्द्रिका / मधु घट ढालती / समोखे धरा
दूधों नहाई / लिपट गयी रात / माँ वसुधा से
आस करूँ / चाँदनी मन बसे / हारे तमिस्त्रा
शरद के बाद शीत का आगमन होता है, पृकृति के रंग जैसे कोहरे की चादर में सिमटने लगते हैं, सूर्य की लालिमा कम होती है. हर तरफ धुंध की सफ़ेद चादर जीवन को अस्त व्यस्त करती है वहीँ पृकृति का अध्बुध सौन्दर्य भी नजर आता है . ओस की बूंदे , गीली घास, ठन्डे अलाव , शीत का ज्यों की त्यों वर्णन सभी हाइकु में नजर आता है . समय, कर्म  की गति कम हो जाती है, शिराएँ जैसे जमने लगती है , शीत काल के कुछ हाइकु की बानगी को देखिये .
बेसुध नदी / शिराएँ जम रही / गति ही भूली
शीत धुनकी /फैलाती धरा पर / पाले की रुई
ठिठुरी धूप / चौखंडे पे उतरी / ओस के मोती
शीत नगरी / बिन अंगीठी आग / धुआं फैलाती
ओस की बबूंदे / बिजली के तारों पे /  पोत सी सजी
सूरज राजा / अलाव जला बैठे / धुंध से हारे
भीगी है घास /अलाव भी ठन्डे पड़े / सूनी चौपाल
दे दी शिकस्त / कोहरे ने सूर्य को /लौटा वो गॉंव
शीतकाल  के बाद पतझड़ का मौसम आता है, पतझड़ जहाँ पत्ते झर जातें है, वृक्ष अपने तन से पुराने आवरण त्याग देता है, धरा रंग विहीन होने लगती है,  मौसम में कुछ उदासी सी छाने लगती है लेकिन यह नए आगमन का सन्देश भी है.  सकारात्मक जीवन की नयी दिशा है एक विश्वास है जीवन पुनः गतिशील होगा, नयी सुबह का आगाज है.  
वृक्ष उतारे / श्रृंगारजो अपना / चीत्कारे हवा
पदाघातों से / कुचलते जा रहे / निश्चेष्ट पत्ते
बीती बहारें / लौट फिर आयेंगी / विश्वास घना
रिश्तों के वन / सूखते ही जा रहे / उडती धूल
प्रकृति के अतिरिक्त जीवन के हर रंग पर कवयित्री ने बेहद संजीदगी से अपनी कलम द्वारा बेहद सुन्दर मोती उकेरे हैं , भाई बहन रिश्ते  नाते , बेटियां, अम्मा , यादेँ आँसू , कांटें , दर्द, बाल श्रम जैसे विषयों पर बारीकी से महसूस कर सफलता पूर्वक संप्रेषित किया है. माँ की ममता का कोई मोल नहीं होता है , माँ जीवन में संबल प्रदान करती है, जीवन के हर रंग पुष्पा जी के हाइकु में उकेरे गए है.
सजी देहरी / गूँज उठा है घर / आई है बेटी
घूँघरू बाँध / बेटी जब नाचती / ममता गाती
अम्मा पकाती / रात हांडी में खीर / झरे अमृत
काँटा जो चुभा / माँ सपनो में आई / निकाल गयी
सागर पिता / बहती सहज ही / जल उर्मी माँ ----- विशेष   – यह हाइकु बेहद संजीदा है, कोटि कोटि बधाई देना चाहती हूँ .गागर में सागर समान यह हाइकु  माँ पिता के सम्पूर्ण सत्य को बेहद संजीदगी और खूबसूरती से उकेरता है
रिश्तें नातें , अहंकार यादेँ जीवन का अहम् हिस्सा है, दर्द आँसू सभी संवेदनाओं पर कवयित्री की कलम से बहद सुन्दर हाइकु संप्रेषित हुए है , एक एक हाइकु एक एक रत्न जडित मोती है, जिन्हें एक संवेदनशील रचनाकार ही रचित कर सकता है .
रिश्ते – चन्दन / करे मन शीतल / फिर भी न मिले
दंभ कटार / काट गयी रिश्तों की / सारी कड़ियाँ
याद चिरैया / ढूंढ ढूंढ लाती है / कोई सौगातें
वर्षा की बूँदें / मन चषक भरे / यादों के मोती
याद गुलाब / पंखुरी बन खिला / महका मन
मन महका / छिडक गयी इत्र / यादेँ ये गंधी
सोने न देती / सपनो की दुनियाँ / रातों जगाती
 आँखों ने सोखी / सारे जख्मो की लाली / न थी शराबी --- वाह बेहद सुन्दर हाइकु, दर्द जब आँखों में उतर जाता है तो बिन पिए उसका असर शराब की तरह आँखों में उतरता है, कई बार पेट की खातिर ऑंखें जल बहाने हेतु मजबूर भी होती है, जो दर्द से इतर मज़बूरी का रास्ता इख़्तियार कर लेतें है
इस  हाइकु को देखे ---
पेशेवर थी /दहाड़ मार रोई / रुदाली आँखें
पर्यावरण पर आज सम्पूर्ण जगत चिंतित है, आधुनिक जीवाब शैली ने पृकृति पर संहार किया है, प्रदूषण , घटता जलस्तर, वनों का कटना, पहाड़ों का दरकना, नदी का सिसकना, प्रकृति अपनी चीत्कार मौन रहकर जाहिर करती है.  भूकंप , ज्वालामुखी का फटना, मौसमी परिवर्तन जलस्तर का घटना सभी प्रज्रुती के सन्देश है जिन्हें मानव को समझना होगा. कवयित्री ने पर्यावरण पर अपनी चिंता भी जाहिर की है . यह उनके हाइकु में झलकती है.
रोष दिखाए / ये विद्रोही प्रकृति / करेविस्फोट
वृक्ष विहीन / प्यासे खड़े हैं वन / प्यासी धरणी
मौन हो वृक्ष / काँपे तो बहुत ही / करते रहे
फूल लापता / केक्टस चहुँ ओर / गढ़ रेत का
तोड़ता बांध / प्रताप नदियों का / रोके न रुका
काँटे भुला के / हरे पत्तों से झाँके / रक्त गुलाब
सूरज बांटे / उर्जा हर डगर / मांगे न मोल
दिशा ले चलो / दुःख –दंश भुला दो / सिख दे माटी
सूखे तो जले / धूल बनके उड़े / माटी ये काया .

पुष्पा जी बेहद संवेदनशील रचनाकारा है, प्रकृति हो या जीवन के हर रंग, उनकी कलम बेहद सं जीदगी से चलती है,वह बेहद उम्दा हाइकु कारा है. जिस तरह उनके संग्रह सागर – मन में हाइकु का समावेश है वह उनकी संजीदगी को बयां करता है, हाइकु जितने बार पढ़े जायें हर बार अपना नया रंग बिखेरते हैं, सभी हाइकु को हम यहाँ इंगित नहीं कर सकतें है, एक हाइकु न जाने कितने अर्थ का समावेश होता है हाइकु आज नए मुकाम पर आ पंहुचा है, पुष्पा जी को नमन करना चाहती हूँ उम्र के इस पड़ाव पर उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से एक नया मुकाम हासिल किया है और हाइकु जगत को बेहद उम्दा संग्रह प्रदान किया है .अल्प समय में बेहद उम्दा संग्रह निसंकोच यह सीप में बंद अनमोल मोती के समान है. जिसकी आभा सदैव हाइकु जगत में अपनी आभा बिखेरती रहेगी।  आ. पुष्पा जी कोटि कोटि बधाई और शुभकामनाएँ
शशि पुरवार





Thursday, January 14, 2016

समीक्षा - सदी को सुन रहा हूँ मै

जयकृष्ण राय तुषार के नवगीत संग्रह "सदी को सुन रहा हूँ मैं" की सहज अभिव्यक्ति और सरल शैली विशेष रसानुभूति का आभास कराती है।  पाठकों से संवाद स्थापित करते हुए गीत तरलता से दिलों में अपनी गेयता की पदचाप छोड़ते हैं।  और जन जन की मुखर वाणी बन नए उपमान प्रस्तुत करते हैं।  अनेक समसामयिक गीत जनमानस की समस्याओं को इंगित करते हुए अपना पाठक के साथ सीधा तादात्मय स्थापित करते हैं। 

आज के बोझिल व्यस्त वातावरण में जब मधुर संवाद धूमिल होने लगे हैं।  अपराधिक गतिविधियाँ बढ़ रही हैं, लोग दहशत के साये में जीने के लिए बाध्य हैं, संसार गरीबी और बेकारी से त्रस्त है और देश में फैली अराजकता और उथल पुथल हर किसी को व्याकुल कर रही है, गीतकार की संवेदना से निकली वाणी,  संवेदना के धरातल पर पाठक के अंतःस्थल को छूती है।  कवि का हृदय, संगम की पावन भूमि पर पड़ने वाले कदमों को शांति का सन्देश भी देता है और उनके सुख की कामना भी करता है।  संकलन  का प्रथम गीत ओ मेरे दिनमान एक ऐसा ही गीत है।

नए साल में नयी सुबह ले 
ओ मेरे दिनमान निकलना   
संगम पर आने से पहले  
मेलजोल की धारा पढना 
अनगढ़ पत्थर 
छेनी लेकर 
अकबर पन्त निराला गढ़ना 
सबकी किस्मत रहे दही गुड 
नहीं किसी की खोटी लाना 
बस्ती गाँव 
शहर के सारे 
मजलूमों को रोटी लाना 
फिर फिर राहू ग्रहण लायेगा 
साथ लिए किरपान निकलना 

गीतकार ने त्योहारों और ऋतुओं को अपनी कविता का प्रमुख विषय बनाया है। बसंती मौसम का केवल सौंदर्य-वर्णन ही नहीं किया है बल्कि उसके कल्याणकारी स्वरूप से त्रासदी झेल रहे लोगों के जीवन में सुख की याचना भी की है, गीत में मुखरित हुई इन मोहक पंक्तियों को देखिये-

अब की शाखों पर बसंत तुम 
फूल नहीं रोटियाँ लाना 
युगों युगों से प्यासे होठों को 
अपना मकरंद पिलाना  
साँझ ढले स्लम की देहरी पर  
उम्मीदों के दिए जलाना 

माँ का रिश्ता हर रिश्तों से पृथक और अनमोल रिश्ता होता है।  माँ की ममता का आकलन नहीं किया जा सकता है।  माँ खुद के अस्तिव को मिटाकर, बिना स्वार्थ, के सिर्फ स्नेह लुटाना जानती है। यहाँ माँ के पावन रूप को गीतकार ने गंगा नदी की उपमा प्रदान की है।  गंगा नदी और माँ निस्वार्थ बच्चों को अपने अंक में समेट कर रखती है, फिर भी मानव जाति उसकी क़द्र नहीं कर सकी है।  कवि के ह्रदय से निकली हुई इन सटीक  पंक्तियोँ को देखें जिनमें, माँ के प्रति असीम प्रेम भाव उमड़ पड़ा है-

मेरी ही यादों में खोयी
अक्सर तुम पागल होती हो 
माँ तुम गंगाजल होती हो

हम तो नहीं भागीरथ जैसे 
कैसे सर से कर्ज उतारें 
तुम तो खुद ही गंगाजल हो 
तुमको हम किस जल से तारें  

थककर बैठी हुई 
उम्र की इस ढलान पर 
कभी बहा करती थी
यह  गंगा उफान पर

प्रेम एक शास्वत काव्यात्मक अनुभूति है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है, इसमें कोमल अनुभूतियों के पनपने के लिए उपजाऊ भूमि आसानी से तैयार नहीं होती है।  विरोधी, चुभन भरी हवा अपना रंग जमाने के लिए लालायित रहती है।  इस संग्रह में प्रेम की लोकरंजक  अनुभूति  को नवगीत में सुन्दरता और कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।  बेटी, प्रेयसी, पत्नी रोजमर्रा के कार्यो में उलझी नारी के विविध रूपों, उनकी पीड़ा, समर्पण, सौन्दर्य  का गीतकार ने कलात्मक वर्णन किया है।  प्रेम के ये  बसंती रंग, जीवन की  परंपरा को आलोकित कर उसे जीवन के धरातल से जोड़तें हैं।   भिन्न भिन्न भावों की पृथक पृथक अभिव्यति की  बानगी देखें जो नयी ताजगी का अहसास कराते हुए सीधे दिल में उतरती है। 

साँझ चूल्हे के धुएँ में 
लग रहा चेहरा  तुम्हारा 
ज्यों घिरा हो बादलों में 
एक टुकड़ा चाँद प्यारा
रोटियों के शिल्प में है 
हीर राँझा की कहानी 
शाम हो या दोपहर हो 
हँसी, पीढ़ा और पानी 
याद रहता है तुम्हें सब 
कि कहाँ किसने पुकारा 

रंग- गुलालों वाला मौसम 
कोई मेरा गाल छू गया 
खुली चोंच से जैसे कोई
पंछी मीठा ताल छू गया 
जाने क्या हो गया चैत में 
लगी देह परछाई बोने 
पीले हाथ लजाती आँखें 
भरे दही-गुड, पत्तल-दोने 

सागर खोया था लहरों में 
एक अपरिचित पाल छू गया 

प्रेम गीत है, चिडिया है और सुगंध भी है, जयशंकर तुषार के नवगीतों में प्रेम के ये सहज बिम्बात्मक स्वर प्रकृति को अपने में समेटे हुए पाठक के मन को गुदगुदाते हैं। 

अक्षरों में खिले फूलों सी 
रोज साँसों में महकती है 
ख्वाब में आकर मुंडेरों पर 
एक चिड़िया सी चहकती है 

फिर गुलाबी धूप तीखे 
मोड़ पर मिलने लगी है 
यह  जरा सी बात पूरे 
शहर को खलने लगी है 
रेशमी जुड़े बिखरकर 
गाल पर सोने लगे हैं  
गुनगुने जल एडियों को 
रगड़कर धोने लगे हैं 

बिना माचिस के प्रणय की 
आग फिर जलने लगी है 
सुबह उठकर हलद चन्दन 
देह पर मलने लगी है 

तुषार जी के गीतों में राजनितिक और सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करते हुए यथार्थ में पाँव भी जले हैं।  इन गीतों की अभिव्यक्ति, लय, गेयता और शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है।  तुषार जी के लंबे गीत (जो कम से कम ४ अंतरे के हैं) भी अपनी बात ठीक से प्रेषित करते दिखाई देते हैं।  वे लम्बे होते हुए भी नीरस और उबाऊ होने से बचे रहे हैं।  राजनितिक और सामाजिक विसंगतियों के कठिन समय में गीतकार की कलम पलायनवादी, निराशावादी बनकर नहीं चली है अपितु विसंगतियों की परतें खोल रहीं है 
१ 
चुप्पी ओढ़ परिंदे सोये 
सारा जंगल राख हुआ 
वन-राजों का जुर्म हमेशा ही
जंगल में माफ़ हुआ 
२ 
तानाशाही झुक जाती जब 
जनता आगे आती है 
हथकड़ियों जेलों से कोई
क्रांति कहाँ रुक जाती है 
कहाँ अहिंसा से लड़ने की 
हिम्मत है तलवारों में 
३ 
रातें होतीं कोसोवी सी
दिन लगते हैं वियतनाम से 
सर लगता है अब प्रणाम से 
हवा बह रही अंगारे सी 
दैत्य सरीखे हँसते टापू
नंगी पीठ गठरियाँ उन पर 
नोनिहाल हो रहे कबाड़ी 
आप चलाते गाँव-गाँव में 
उम्मीदों की आँगनबाड़ी 
४ 
सोई है यह राज्यव्यवस्था 
मुँह पर पानी डालो 
खून हमारा बर्फ हो रहा 
कोई इसे उबालो 
५ 
कालिख पुते हुए हाथों में 
दिए दिवाली के 
कापालिक की कैद सभी 
मंतर खुशहाली के 
फूलों की घाटी में मौसम की 
हथेलियाँ रँगी खून से 

इस संग्रह के गीतो की भाषा मुहावरेदार हिंदी है।  बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अतिरिक्त आंचलिक शब्दों का प्रयोग पाठक को उसकी माटी से जोड़ता है।  दैनिक जीवन के प्रचलित कई शब्दों से गीत पाठक के आसपास ही घूमते मालूम होते हैं।  मकई पान, रोटी, किरपान, बौर आम, सरसों, गेहूँ, रथ, पल्लू, केसर, परदे, संवस्तर, मादल ,गंगाजल, लॉन कुर्सी, पुलोवर, शावर, डाकिया, रिसालों, चूड़ियाँ, मजदूर, गाझ, चिंगारी, तितली, हरियाली, गुलदस्ता, स्लम, दिया, तिथियाँ, गिरगिट, तालमखाना, पोखर, जूडे, चाय, दर्पण, अजनबी, मेंहंदी, निठल्ले, मोरपंख, स्कूल, कलम, गुस्ताख, कॉफ़ी, दालान, यज्ञ, अर्ध्य, भगवान् , कमीना, सफीना, वालमार्ट, जोंक, तिजोरी, मंहगी गैस, डीजल, टिफिन, कांजीवरम सिल्क, ब्रत ,आरती, पूजा, निर्जला, गोदरेज, टू जी, थ्री जी, दलाल, टोल टैक्स, लाल किला, शापिंग माल, नाख़ून, कैनवास, रिबन, रंगोली, राजमिस्त्री, अनशन, टापू, चाकू, गुर्दा, धमनी, कठपुतली, दफ्तर, कंकड़, यजमान, गारंटी, खनखनाती, फोन टॉस, पंडे, वेद, तुलसी ,सागरमाथा, गेंदा, गुडहल, लैम्पपोस्ट, न्याय सदन, दियासलाई, कालिख, बेताल, लैपटॉप, केलेंडर इत्यादि शब्दों का सहजता से उपयोग हुआ है।  यह शब्द कहीं भी जबरन ठूँसे हुए प्रतीत नहीं हुए हैं, न ही इन शब्दों से गीत की गेयता, शिल्प और लय पर कोई प्रभाव पड़ा है।  
   
युग्म शब्दों का भी नवगीत में बेहद सहजता से सुन्दर प्रयोग हुआ है । दही-गुड, मघई-पान, छेनी-पत्थर, हल्दी-उबटन, नीले-पीले, फूल- टहनियाँ, सुग्गा-दाना, कुशल-क्षेम, लय-गति, वंशी-मादल, घूसर मिटटी, लू-लपट, रिश्ते-नाते, घुटन-बेबसी, हँसते-गाते, बाप-मतारी, बीबी-बच्चे, गंध-कस्तूरी,  पल-छिन, खून-पसीना, भौंरे- फूल, काशी-मदीना, सिताब-दियारा, राग-दरबारी,  साँझ-चूल्हा, हीर-राँझा, राजा-रानी, आँधी-पानी, कूड़ा-कचरा, कोर्ट-कचहरी, सत्य-अहिंसा, दाना-पानी, मुखिया-परधानो, चिरई-चुनमुन, अपने-अपने, जंतर-मंतर,  भाग्य-विधाता, ओझा-सोखा, घर-आँगन, ढोल-मँजीरे, आँख-मिचोनी , पूजित पूजित, आन-बान, साँझ-सुबहो, दफ्तर-थकान, घर-गिरस्ती ,सौ-सौ, पूजा-हवन, कण कण, सँवरा-निखरा, चंपा-चंपा, चम्पई-उँगलियों, धुआँ- धुंध, चिहुंक-चिहुंक, यमुना-गंगा, जन-गन मन, दूध-मलाई, पान-सुपारी, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, चढ़ते-उतरते, साधू-सन्यासी, पल-भर, पक्ष-विपक्ष, सत्य-अहिंसा, लूट-डकैती, दया-धर्म, भूख-बेगारी, जाती-धरम कौवे-चील, हार-जीत, अनेक शब्द सामान्य परिवेश के आसपास घूमते हुए पाठक की बोली का अहसास कराते हैं।  सामान्य जन के आसपास घूमते हुए गीतों में बोल चाल के शब्दों का भरपूर प्रयोग हुआ है।  कुछ कुछ शब्दों  के बिम्ब बहुत सुन्दर प्रतीत हुए हैं । 
  
तुषार जी का यह संकलन एक बार पढ़कर रख देने वाला नहीं है अपितु गीतों की ताजगी का अहसास पाठक को बारम्बार महसूस होता है।  जहाँ गीतों में कसावट और गेयता पाठक को बाँधे रखने में सक्षम है। वहीं सहज रसानुभूति इन्हें स्मृतियों में सहेजती है।  इन्हें पढना सुखद अनुभूति है।  ताजगी से भरपूर इस संकलन हेतु तुषार जी को  हार्दिक बधाई।
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गीत- नवगीत संग्रह - सदी को सुन रहा हूँ मैं, रचनाकार- जयकृष्ण राय तुषार, प्रकाशक- साहित्य भण्डार ५० , चाहचन्द , इलाहबाद - २०११०३२, प्रथम संस्करण-२०१४, मूल्य- रूपये ५०, पृष्ठ १२६, ISBN- ९७८-८१-७७७९-३४३-७, परिचय- शशि पुरवार

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