भूख शब्द का नाम लेते ही आँखों के सामने अनगिनत पकवान तैरने लगते हैं। मुँह में पानी का सैलाब उमड़ने लगता है। भूख अच्छों - अच्छों को दिन में तारे दिखा देती है। जब तक जठर अग्नि शांत ना हो दिमाग का दही जमने लगता है। अब भूखे पेट भी कहीं भजन होते हैं। भूख और पेट के सम्बन्ध की गुत्थी सुलझाना, समझ से परे है। हम तो यहीं समझते हैं कि यह पेट न होता तो जीवन में कितना सुकून होता। न खाओ और न बनाओं। इन सभी पत्नियों का दर्द हम बखूबी समझ सकतें है बेचारी दिन - रात यही सोचती हैं अब भोजन में क्या बनाया जाय । यह पापी पेट, न जाने कितने जतन करवाता है।
दूसरा आदमी रोटी खाता है
और एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है
न ही रोटी खाता है बल्कि
रोटियों से खेलता है.
पिछले कई दिनों से एक नया रोग लग गया है। अब यह बात किसी को भी बताने में शर्म आती है। न न दिमागी घोड़े न दौड़ाएं, यह पापी पेट ही है जिसने हमें बैचेन कर रखा है। अजीब हाल है पेट की घंटी कभी भी बज उठती है, जी हाँ लोगों के पेट में चूहे दौड़ते हैं और हम सीधे भोजन पर हमला करतें है। खा खाकर अनाज ख़त्म होने लगा, लेकिन पर यह पापी भूख अपना विकराल रूप धारण करके तांडव नृत्य करवा रही है। यह कैसी भूख है जिसकी क्षुधा शांत नहीं होती है। जिधर देखों भोजन नजर आता है, जीभ रसवास करने हेतु तत्पर रहती है। आखिर आँतों को भी आराम चाहिए कि नहीं, अजीब कश्मकश है.
डाक्टर को दिखाया तो बोले - सुबह सुबह हम ही मिले थे, जाओ, खाओ, हमें मत सताओ ...!
पतिदेव से कहा तो बोले - "हे नारी मै तुम्हारे आगे नतमस्तक हूँ , तुम्हीं अन्नपूर्णा हो, तुम्हीं काली हो तुम्हीं जग माता हो। जाओ अपनी क्षुधा शांत करो देवी, हमें आराम करने दो "
अब पंक्ति समझ से परे थी , पतिदेव ने उपहास किया या तंज कसा , समझ नहीं सके। किन्तु पेट की घंटी बजना कम नहीं हुई. हमारी जबान आजकल भोजन पर फिसलने लगी उसमे किसी को कष्ट क्यों हो ? बनाने वाले भी हम खाने वाले भी हम. कहतें हैं हींग लगे न फिटकरी फिर भी रंग चौखा। निखरे भी हम बिखरे भी हम, तो क्यों न भूख पर अपनी कलम की क्षुधा शांत की जाए। संपादक हमें ललकारते रहते हैं - रचना जल्दी लिख कर भेजों और हम अपनी संवेदनाओं की भूख को तराशने लगते हैं. देखा जाये तो दुनियाँ में सभी भूखे हैं। नजर घुमाओ भूख के अनगिनत प्रकार नजर आ जायेंगे ,
भूख और राजनीति का क्या मेल?
मै तो सिर्फ अपने पेट की भूख से परेशान हूँ किन्तु पापी लोगों के पापी पेट भरने का नाम ही नहीं लेते हैं। किसी को तन की भूख है, किसी को धन की भूख है किसी को मोह - लोभ, सत्ता- कुर्सी की भूख है जो अंतहीन है। किसी को नाम की भूख है किसी को आस्था की भूख। यही भूख लोगों को विचलित कर चैन से सोने भी नहीं देती हैं। तन की भूख इंसान को दुष्कर्मी बनाती है. आस्था से अंधे लोग साधारण इंसान को भी मसीहा या देवी का दर्जा देकर उनकी पिपासा को शांत करतें है, सत्ताधारी सत्ता के मद में चूर लोगों का उपयोग करतें है। साम - दाम - दंड - भेद कलयुग के तेज औजार बन गएँ है। अच्छे दिन की चाह में लोग जीवन काट देतें हैं लेकिन अच्छे दिन नहीं आते। गरीब दो जून रोटी की खातिर सारे अन्याय हँस कर सहता है, धर्म के द्वार से पाखंडियों को स्वर्ग सा सुख देतें है। भिन्न - भिन्न प्रजाति की भूख, न जाने कितने पाखंडियों को जन्म देती है, ऐसी भूख अंदर ही अंदर समाज को खोखला कर रही है। भगवा वस्त्रों का मुखोटा पहने राक्षस रंगरलियां कर रहें है।
धूमिल की एक कविता याद आती है -
एक आदमी रोटी बेलता है
दूसरा आदमी रोटी खाता है
और एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है
न ही रोटी खाता है बल्कि
रोटियों से खेलता है.
मै पूछती हूँ वह आदमी कौन है ? मेरी देश की संसद मौन है ? यानि हर जगह भूख का राजनीतिकरण हो
रहा है। गरीब के पेट पर हर कोई रोटी सेंकने की फ़िराक में है। क्या वे भरे पेट वाले होते हैं जिनको चांद
रोटी जैसा दिखाई देता है. भूख पेट को गद्दार बना देती है इस वाक्य में देश भक्ति कम नही है पर गरीबी का
दर्द कहीं ज्यादा है। ऐसा प्रतीत होता है भूख का विकराल दानव ईमानदारी, सभ्यता, संस्कारों को निगल
गया है इंसान तत्वहीन होता जा रहा है। आस्तीन के साँप चहुँ ओर बिखरे पड़ें है। मृगतृष्णा की अंतहीन भूख, पृथक आचार - विचार लिए हमें भ्रमित करती रहती है। देश दुनियां में आज हर तरफ गिरती लाशें, न जाने कौन से धर्म - कर्म की प्यासी है यह कौन सी भूख है जो इंसानों को इंसानों के खून का प्यासा बना रही है। प्रेम और सदभावना की हवा का अस्तिव जैसे मिट गया है। इससे तो हमारी भूख अच्छी है , खाओ खाओ और टुनटुन बन जाओ। समाज, देश, समय में उपजी विकराल दूषित विचारों की भूख न जाने कौन से युग का निर्माण करेगी।
रहा है। गरीब के पेट पर हर कोई रोटी सेंकने की फ़िराक में है। क्या वे भरे पेट वाले होते हैं जिनको चांद
रोटी जैसा दिखाई देता है. भूख पेट को गद्दार बना देती है इस वाक्य में देश भक्ति कम नही है पर गरीबी का
दर्द कहीं ज्यादा है। ऐसा प्रतीत होता है भूख का विकराल दानव ईमानदारी, सभ्यता, संस्कारों को निगल
गया है इंसान तत्वहीन होता जा रहा है। आस्तीन के साँप चहुँ ओर बिखरे पड़ें है। मृगतृष्णा की अंतहीन भूख, पृथक आचार - विचार लिए हमें भ्रमित करती रहती है। देश दुनियां में आज हर तरफ गिरती लाशें, न जाने कौन से धर्म - कर्म की प्यासी है यह कौन सी भूख है जो इंसानों को इंसानों के खून का प्यासा बना रही है। प्रेम और सदभावना की हवा का अस्तिव जैसे मिट गया है। इससे तो हमारी भूख अच्छी है , खाओ खाओ और टुनटुन बन जाओ। समाज, देश, समय में उपजी विकराल दूषित विचारों की भूख न जाने कौन से युग का निर्माण करेगी।
- शशि पुरवार