शाख के पत्ते हरे कुछ
हो गए पीले किनारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।
मिट रहे इन जंगलों में
ठूँठ जैसी बस्तियाँ हैं
ईंट पत्थर और गारा
भेदती खामोशियाँ है
होंठ पपड़ाये धरा के
और पंछी बेसहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।
चमचमाती डामरों की
बिछ गयी चादर शहर में
लपलपाती सी हवा भी
मारती सोंटे पहर में
पेड़ बौने से घरों में,
धूप के ढूंढें सहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।
गॉँव उजड़े, शहर रचते
महक सौंधी खो गयी है
पंछियों के गीत मधुरम
धार जैसे सो गयी है.
रेत से खिरने लगे है
आज तिनके भी हमारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते है हमारे
------ शशि पुरवार
पर्यावरण संरक्षण हेतु चयनित हुआ नवगीत। पर्यावरण संगठन का आभार।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-04-2017) को
ReplyDelete"सूरज अनल बरसा रहा" (चर्चा अंक-2622)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आज के युग में प्रकृति की विद्रूपता देख कर पाँव के साथ-साथ मन भी तो जलने लगता है |सुंदर रचना हेतु बधाई |
ReplyDeleteपुष्पा मेहरा
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 23 अप्रैल 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteप्रकृति का संतुलन सभी प्राणियों एवं पेड़ -पौथों से बना है ,सभी महत्वपूर्ण हैं। सुन्दर रचना ,आभार
ReplyDeleteआप सभी माननीय सुधीजनों का हृदय से आभार, आपने अपना अनमोल समय देकर हमें कृतार्ध किया , हृदय से आभार स्नेह बना रहें
ReplyDeleteपर्यावरण पर हमारी फैशनेबल सोच ने निर्मित कर दिया है आज का विकृत ,उबाऊ परिवेश। चिपको आंदोलन के बाद पर्यावरण जागरूकता की कोई पहल अब तक हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं कर पाई है वजह है हमारा भौतिकता को ज़रूरत से ज़्यादा तरज़ीह देना।
ReplyDeleteआपकी रचना में समाया दर्द और सन्देश पूरी स्पष्टता के साथ मुखर हो उठा है। बधाई।
पर्यावरण पर हमारी फैशनेबल सोच ने निर्मित कर दिया है आज का विकृत ,उबाऊ परिवेश। चिपको आंदोलन के बाद पर्यावरण जागरूकता की कोई पहल अब तक हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं कर पाई है वजह है हमारा भौतिकता को ज़रूरत से ज़्यादा तरज़ीह देना।
ReplyDeleteआपकी रचना में समाया दर्द और सन्देश पूरी स्पष्टता के साथ मुखर हो उठा है। बधाई।
मार्मिक विषय,,, अति उत्तम
ReplyDeleteइसीलिये जीवन की सहज-सरसता समाप्त होती जा रही है.
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