दर वर्ष दर हम मूर्ख दिवस मनाते हैं, वैसे सोचने वाली बात है, आदमी खुद को ही मूर्ख बनाकर खुद ही आनंद लेना चाहता है, यह भी परमानंद है। हमारे संपादक साहब मीडिया इतना पसंद है कि वह हमें इससे भागने का कोई मौका नहीं देना चाहतें हैं। आजकल सोशल मीडिया हमारी दिन दुनियाँ बन गया है.
आदमी मूर्खता न करे तो क्या करे। मूर्ख बनना और बनाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। सोशल मीडिया पर इतने रंग बिखरे पड़ें है कि मूर्ख सम्मलेन आसानी से हो सकता है, पूरी दुनियाँ आपस जुडी हुई है। लोगों को मूर्ख बनाना जितना सरल है उतना ही खुद को मूर्ख बनने देना अति सरल है। उम्मीद पर दुनिया कायम है, हम सोचतें है सामने वाला कितना सीधा है हम उसे मूर्ख बना रहे हैं , लेकिन जनाब हमें क्या पता हम उसी का निशाना बने हुए हैं। कहते हैं न रंग लगे न फिटकरी रंग चौखा चौखा। .... वैसे मजेदार है, ना जान, ना पहचान फिर भी मैँ तेरा मेहमान। खुद भी मूर्ख बनो औरों को भी मूर्ख बनाओ। झाँक तांक करने की कला कारी दुनियाँ को दिखाओ। यह कला यहाँ बहुत काम आती है, चाहो या ना चाहो जिंदगी का हर पन्ना आपके सामने मुस्कुराता हुआ खुल जाता है। मजेदार चटपटे किस्से नित दिन चाट बनाकर परोसे जातें है।
यहाँ हर चीज बिकाऊ है, इंसान यहाँ खुद का विज्ञापन करके खुद को बेचने में लगा हुआ है। जितना मोहक विज्ञापन आप रटने बड़े सरताज। असल जिंदगी के कोई देखने ही नहीं आएगा कौन राजा कौन रंक. कुछ शब्द - विचार लिखो और खुद ही मसीहा बनो, एक तस्वीर लगाओ व किसी की स्वप्न सुंदरी या स्वप्न राजकुमार बनो. मुखड़े में कुछ ऐब हो तो ऐप से दूर करो, कलयुग है सब संभव है। मित्रों मूर्खो का खुला साम्राज्य आपका स्वागत करता है। आनंद ही आनंद व्याप्त है, आजकल सोशल मीडिया बड़ी खूबसूरती से लोगों का रोजगार फैलाने में बिचोलिया बना हुआ है जो चाहे वह बेचों, दुकान आपकी, सामान आपका, मुनाफा नफा उसका। भाई यहाँ सब बिकता है।
मस्त तीखा - मीखा रायता फैला हुआ है. खाने का मन नहीं हो तब भी खुशबु आपको बुला ही लेती है. कौन किसको कितना मूर्ख बनाता है. प्रतियोगिता बिना परिणाम के चलती रहती है. छुपकर मुस्कान का आनंद कोई अकेले बैठकर लेता है, एक मजेदार वाक्या हुआ , किसी महिला ने पुरुष मित्र के आत्मीयता से बातचीत क्या कर ली कि वह तो उसे अपनी पूंजी समझने लगा, यानी बात कुछ व उसका अर्थ कुछ और पहुँचा है. दोनों को लगता है दोनों एक - दूजे को चला रहें है वास्तव में दोनों ही मूर्ख बन रहें हैं।
एक किस्सा याद आया, हमारे शर्मा जी के यहाँ का चपरासी बहुत बन ठन कर रहता था, मजाल है कमीज को एक भी सिलवट भी आये. सोशल मीडिया में सरकारी ऑफिसर से अपनी प्रोफाइल बना रखी है। शानदार रौबदार तस्वीर, इतनी शान कि अच्छे अच्छे शरमा जाएँ। शर्मा जी दूसरे शहर से अभी अभी तबादला लेकर आये थे। दोनों सोशल मित्र थे, बातचीत भी अच्छी होती थी. निमंत्रण दिया, मित्र सपिरवार आएं, लेकिन जब खुद के ऑफिस में एक दूसरे को देखा, तब जाकर सातों खून माफ़ किये, लो जी कर लो तौबा और खाओ पानी - बताशे( फुलकी ), भाई मिर्ची न हो तो खाने का स्वाद कैसा।उसमे जरा लहसुन मिर्ची और मिलाओ तभी पानी - बताशे खाने में असली आनंद आएगा। जी हाँ यही जीवन का परम सत्यानंद है। पहले ज़माने में लोग सोचा करते थे, कैसे व किसे मूर्ख बनाये, वास्तव में आज सोचने की जरुरत ही नहीं है। अब कौन तो कौन कितना मूर्ख बनता है यह मूर्ख बनने वाला ही समझता है। जब तक जलेबी न खाओ और न खिलाओ जीवन में आनंद रस नहीं फैलने वाला है। वैसे सोचने वाली बात हैं सोशल मीडिया के दुष्परिणाम बहुत हैं लेकिन जीवन को आमरस की महकाने में यही कारगर सिद्ध हुआ है, कहीं किसी घर में किसी महिला - पुरुष की लाख अनबन हो वह यहाँ एक दूजे के बने हुए है। घर में रोज झगड़ते होंगे लेकिन सोशल हम तेरे बिन कहीं रह नही पाते। .... गाते हुए नजर आतें हैं। कोई कितनी भी साधारण शक्ल - सूरत का क्यों न हो यहाँ मिस / मिसेस / मिस्टर वर्ल्ड का ख़िताब जरूर पाता है। तो बेहतर है हम नित दिन खुद को भी मूर्ख बनाये और ख़ुशी से खून बढ़ाएं। खुद पर हँसे, खुद पर मुस्कुराएँ, तनाव को दूर भगायें, जिंदगी को सोशल बनायें आओ हम मिलकर मूर्ख दिवस बनाएं।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंजू बॉबी जॉर्ज और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteहा हा हा बहुत सही पकड़ा है..पर आखिर तो सब माया है न यह लीला भी क्या बिगाड़ लेगी
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