पैदा होने का सबूत
कई दिनों से विदेश घूमने की इच्छा प्रबल हो रही थी। बेटा विदेश में था। तो सोचा हम भी विदेशी गंगा नहा लें। सुना है विदेश जाने के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते हैं। तरह तरह के रंग बिरंगे कार्ड लगाकर टिकिट कटता है। पासपोर्ट - वीजा बनवाने के लिए हमने भी अपनी अर्जी लगा दी।
बेटे ने हाथ में लिस्ट थमा दी - बापू यह सब जमा करना होगा। पैन कार्ड, आधार कार्ड, आवास कार्ड, जन्म कार्ड, ......न जाने कितने कार्ड ?
जैसे इतने सारे कार्ड किसी विदेशी एटीम की कुंजी हो ? उसे लगाने के बाद इंसानी जमीन में आप कदम रख सकतें हैं।
हमने स्वयं अपने काम का बीड़ा उठाया। सब कुछ मिला लेकिन जन्म प्रमाण पत्र का दूर - दूर तक पता नहीं था। माँ - बापू ने भी कभी ऐसा कार्ड नहीं बनवाया। पहले यह सब कहाँ चलन में था। आज तक कहीं जन्म कार्ड का काम ही नहीं पड़ा. पहले के जमाने में बच्चे के जन्म पर मिठाईयाँ बाँटी जाती थी, तो तो गांँव भर को पता लग जाता था कि बच्चा हुआ है। हमने बहुत उत्साह से नगर निगम में अपनी अर्जी लगा दी। विदेश जाने की राह में कोई रोड़ा नहीं होना चाहिए।
प्रणाम चौबे बाबू - यह हमारी अर्जी है।
चौबे -- ठीक है राम लाल। फॉर्म भर दो। दो चार दिन में सर्टिफिकेट ले जाना।
दिल बल्ले बल्ले हो गया। नयी सरकार में तेजी से काम हो रहें हैं। लेकिन चार दिन बाद, मनो घड़ा पानी हमारे सर के ऊपर पड़ा।
चौबे - भाई राम लाला जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिल सकता है। यहाँ पुराने दस्तावेज जल चुके हैं।
हुआ यूँ कि एक बार शहर भर में दंगा हुआ ! दंगे में नगर निगम में भी आग लग गयी। गत कुछ वर्ष के दस्तावेज उस आग में स्वाहा हो गए। बदकिस्मती से हमरा जन्म भी उसी वर्ष में हुआ था। उन वर्षों के दस्तावेजों की राख हमें मुँह चिढ़ा रही थी। अब तो गयी भैंस पानी में ! आग दस्तावेजों को लगी और पानी मै पी रहा हूँ। विगत दो वर्षों से अपने जीवित होने का साक्ष्य ढूंढ रहा हूँ। १२ वी पास होने का पुख्ता सबूत लेकर नगर निगम की चौखट पर चप्पल घिस रहा हूँ। लेकिन बात नहीं बनी। फाइल एक टेबल से दूसरे टेबल घूम रही है। कभी साहब नहीं मिलते तो कभी फाइल नहीं मिलती। एक सर्टिफिकेट की वजह से विदेशी गंगा नहाने का काम खटाई में पड़ता नजर आ रहा था। लेकिन हम मुस्तैदी से अपने विकेट पर तैनात थे। कुछ भी हो सर्टिफिकेट बनवाना है। मन में कीड़ा लग गया कि जन्म प्रमाण पत्र के बिना, क्या हमारा अस्तित्व एक प्रश्न चिन्ह बन सकता है ?
सरकारी दस्तावेजों की बात ही निराली होती है। जो सामने है उसे सिरे से नकारते हैं। जो नहीं है उसे प्रेम से पुचकारते हैं। जब से सरकार नए नियम कायदे लेकर आयी है, कायदे भी होशियार हो गए हैं। जीता जागता इंसान नहीं दिख रहा। बेचारे को मुर्दा घोषित करने पर तुले हैं। लेकिन हम हार मानने वालों में से नहीं हैं। फिर पूरे जोश के साथ नगर निगम की चौखट पर पहुँच गए। लेकिन इस बार वकील को साथ लेकर गए।
आज कुर्सी पर चौबे जी मूँछो को ऐसे ताव दे रहें थे, जैसे ग्लू से चिपकी मूछ कहीं पोल न खोल दे। मुँख से टपकती धूर्तता, चेहरे का नूर बनकर अपनी आभा बिखेर रही थी। पान चबाने के दिन भी बीते। अब पान खिलाने का नया शऊर चल रहा है।
"चौबे जी नमस्कार "
" नमस्कार, भाई राम लाल कैसे हो ? "
"जिन्दा हैं और जिन्दा होने का सबूत ढूँढ रहें है "
"काहे मियां लाल - पीले हो रहे हो "
" का कहें, दो वर्ष बीतने आ गए हमारा जन्म प्रमाण पत्र रहें "
" भाई हमने ऊपर बात की है। कुछ जानकारी व दस्तावेज दिखाओ तब हम कार्ड बना देंगे। जैसे कहाँ जन्म हुआ ! माता - पिता जी की शादी के प्रमाण पत्र ! तुम्हारा जन्म किसने करवाया? कहाँ हुआ ? दायी ने जन्म करवाया या अस्पताल में ? माता -पिता कौन से घर में रहते थे! सभी जानकारी ....वैगेरह।
" अब यह जानकारी कहाँ से लाएं। जन्म प्रमाण पत्र हमें बनवाना है। दस्तावेज माता - पिता के मांगे जा रहे हैं। घोर अनर्थ है। दिमागी घोड़े जितना दौड़ें उतना भी कम है। माँ बाबू परलोक सिधार गए। किराये के घर में रहते थे। अब वह डाक्टर भी कहाँ हैं। दायी भी होगी तो मर गयी होगी। झूठ तो नहीं बोलेंगे। "
" देखिये यह सरकारी कार्यवाही है। हमें करनी पड़ती हैं।"
" चौबे बाबू काहे मजाक करत हो ! हमरी उम्र देखकर कुछ तो सोचो। अब सभी को परलोक के बुलाएँ का ? माँ बाबू की शादी का प्रमाण आपके सामने बैठा है और आप क्या उजुल बातें कर रहे हो। अरे साहब, हमारी मार्कशीट है। उसी को देखकर जन्म प्रमाण पत्र बनवा कर हमें कागजों में जिन्दा कर दें। हम जिन्दा होने का अहसास लेना चाहते हैं। वर्ना आत्मा यूँ ही भटकती रहेगी। "
"क्या करें राम लाल सरकारी खाना पूर्ति करनी होगी। कुछ कोशिश करेंगे, अब जरा कुछ पान भी खिला दो। "
"ससुरा, मन हो या न हो हथेली कभी भी खुजलाने लगती है। पिछले दो वर्ष से पान खा खाकर होंठ लाल हो गए लेकिन कागज पर दो अक्षर भी लाल नहीं हुए ... !"
खिन्न मन से जेब में हाथ डाला तो बेचारी ऐसी फटी कि जो कुछ फँसा हुआ था, वह भी बाहर छन्न करके गिर गया। उम्र के इस मोड़ पर खुद को जीवित देखना अब हमारी जिद्द बन गयी थी। बाहर जाने के लिए जाने कितने पापड़ बेलने शेष थे। इधर वकील साहब भी बस जलेबी खाकर खिसिया देते हैं। आजकल फ़ोन पर ही टरकाने लगे, हमारी नगर निगम में पहचान है। काम करवा देंगे, चार दिन बाद मिलना।
चार दिन जैसे चार बरस जैसे बीते। दस्तावेजों के अभाव में नगरनिगम ने प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया। साथ जी नॉन एक्सिस्टेंस सेर्टिफिकेट जारी कर दिया कि फलां फलां व्यक्ति फलां सन में पैदा हुआ जिसका ब्यौरा यहाँ मौजूद नहीं है।
अब हमें काटो तो खून नहीं। लोगों ने सलाह दी कोर्ट जाओ हिम्मत मत हारो। फिर नियति की मार के चलते कोर्ट में केस करने के बाद चप्पलें घिसघिस कर बदल गयी। लेकिन हम कागजों पर अजन्मे ही रहे। तारीखें बदलती रही। उम्र छलती रही। हम सीधे साधे बेचारे सरकारी दॉँव पेंच में ऐसे फंसे कि खुद को मुर्दा घोषित कर दिया। खुद को आईने में देखकर डरने लगे जैसे कोई भूत देख लिया हो। अजन्मे होने का ख्याल मन को खाने लगा है। दिल के दरवाजे पर जंग वाला ताला लग गया है।
राह चलते ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि मै वह भटकती आत्मा हूँ , जिसे इंसान प्रश्न वाचक निगाहों से देख रहें है। न घर का ! ना घाट का! मै वह बहता पानी हूँ जो न जाने कौन से दरिया में जाकर मिलेगा।
सरकारी दफ्तर में खुद को तलाशता हुआ अजन्मा प्राणी ! एक रुका हुआ फैसला। जिस फैसले के इन्तजार में कहीं फ्रेम न बन जाऊं। हाँ भाई, सरकारी दस्तावेजों के आभाव में मेरे जन्म को सिरे से नकार कर जैसे मुझे प्रेत योनि में भेज दिया हैं.
कहावत है - न सौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। राधा का पता नहीं, पर तेल की धार जरूर हवा का रुख देखकर बहने लगी हैं। तेल भी जब बाती के संग हो तब उसका जलना नियति है। बेटा तो पहले ही विदेश में मग्न था अब उसने भी तेल डालना बंद कर दिया।
मदद करना तो दूर की बात है। कहने लगा कि - बापू हिम्मत रख, सब अच्छा होगा।
अच्छे का तो पता नहीं। लेकिन वकील - कोर्ट और सरकारी दफ्तरों के बीच, मै जरूर घुन की तरह पीस रहा हूँ। कभी कभी ख्याल आता है कि जन्म प्रमाण पत्र नहीं है तब किसी को मेरा मृत्यु प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। जब कागजी जन्म नहीं हैं, तब कागजी मृत्यु कैसी?
हमारे पडोसी शर्मा जी के भाई को परलोक सिधारे हुए करीब एक वर्ष बीत गया। उनकी आत्मा मृत्यु प्रमाण पत्र हेतु भटक रही है क्यूंकि परिजन सरकारी अफसरों की जेब व दस्तावेजों की पूर्ति करने में असमर्थ थे।
उम्र के इस पड़ाव पर मैंने घुटने टेक दिए। अजन्मे होने साथ खुद की तस्वीर पर मृत्यु प्रणाम पत्र न लगाने की अंतिम ख्वाहिश भी चिपका दी। हृदय, भटकती रूह से भी नाता तोड़ने को बेक़रार है। विदेशी गंगा तो नहीं, हमने देशी गंगा नहाकर ही खुद को धन्य कर लिया। आप कभी हमसे मिलना चाहो तो हमारी रूह खुद को कागजों में तलाशती मिल जाएगी। अजन्मा होने की पीर, जन्में होने की पीड़ा से कहीं ज्यादा प्रबल है। कोई यदि हमसे मिलना चाहें तो हम वहीँ नगरनिगम की चौखट पर या सरकारी दस्तावेजों में खुद का वजूद ढूंढते मिल ही जायेंगे। सरकारी दस्तावेज में उलझकर मेरी आत्मा चीख चीख कर कह रही है, मै मुर्दा नहीं .......!
-- शशि पुरवार
Wow
ReplyDeleteWow
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (15-06-2017) को
ReplyDelete"असुरक्षा और आतंक की ज़मीन" (चर्चा अंक-2645)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक