एक स्त्री
अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती
एक स्त्री पुरुष के बिना कहे
उसकी हर छोटी ज़रूरतों
का ध्यान रखती है
वही स्त्री पुरुष द्वारा
हिरणी सी कुचली भी जाती है
एक स्त्री
माँ बनकर अपनी ममता लुटाती है
वही स्त्री
सभी रिश्तों की परिभाषा का
किरदार जीवन में निभाती है
पर वही स्त्री उस ममता का
कितना मोल पाती है ?
एक स्त्री
दो पल सुख की ख़ातिर
स्वयं के दर्द सहलाती है
एक स्त्री ही हर बंधन में
जकड़ी जाती है
एक स्त्री ही अपने घर में
पराई कहलाती है
टूट कर जीती है वह अपनो के लिए
क्या दो स्नेहिल शब्दों का मोल भी
कंठ लगाती है ?
हर पल लड़ती है अपनो के लिए
लेकिन क्या
ख़ुद के लिए इक कोना सजाती है
आवाज़ उठाए तो बग़ावत है
आवाज़ दब जाए तो
कुचली जाने के लिए तैयार है
जीवन के हर मोड़ पर
क्यूँ स्त्री ही छली जाती है
पुरुषों को जन्म देने वाली
स्त्री स्वयं पुरुषों द्वारा ही
कुचली जाती है
बचपन , जवानी या हो बुढ़ापा
स्त्री कभी निर्भया, कभी परितज्य
कभी अवसादों में स्वयं को
घिरा पाती है
एक स्त्री अपने ह्रदय के
तहखानो में
बंद अपने सपनो
अपनी अभिलाषाओं
अपने विचारों से
पल पल लड़ती है
लेकिन वही स्त्री
जीवन के हर मोड़ पर
चट्टानों से खड़ी
हर तूफ़ानों से
उन्ही अपनों के लिए
लड़ती नज़र आती है
स्त्री बिना कुछ कहे
अपने हर दर्द पर
मलहम लगाती है लेकिन
क्या स्त्री को मिलती है ?
जीवन की तपती ज़मीन पर
शीतल वृक्ष की छाँव
जहां वह निश्चल सी
खिलखिलाती है
गुनगुनाती है ?
शशि पुरवार