Thursday, February 8, 2018

बिन माँगी सलाह


बिन माँगी सलाह हमारे देश में कभी भी कहीं भी मिल जाती है। कौन से दो पैसे लगेंगे। वैसे भी लोगों को मुफ्तखोरी की आदत पड़ी हुई है।  मुफ्त की सलाह देने व लेने वालों की कमी नहीं है। कोई मक्खी मारने  बैठा है।  तो पौ बारह हो जातें है। 

जैसे बकरा हलाल करने का सुनहरा मौका मिल गया।  लो जी समय भी कट गया। दुःख - सुख भी बाँट दिए । सलाह पर अमल करना ना करना लोगों की मर्जी।  लोग सदा चिन्दियाँ 
उधेड़ने  के लिए तैयार है।  आखिर कुछ तो करना चाहिए। सबको उम्दा माल  दो टके में चाहिए 

होता है। कहीं भी सेल लगी भीड़ उमड़ने लगेगी। माल बेचने वाला भी खुश। लेने वाला भी खुश। 

वैसे भी हमारे  देश में सेल पढ़कर ही दिल बल्लियों सा उछलने लगता है। कमोवेश यही हाल बिन माँगी सलाह का भी है। हमारे एक परम मित्र है। बीमार हुए या कभी  कुछ हुआ तो डाक्टर को 
नहीं दिखाएंगे। झट इधर उधर दर्द का रोना रोयेंगे। मुफ्त के घरेलू नुक्से माँगेंगे।  चाहे व असर करे या ना करें। सहानुभूति और नुस्के अपना कितना असर दिखातें है वह व्यक्ति पर निर्भर करता है। 
   
        मिसेस शर्मा अक्सर परेशान रहती है।  कभी जी घबराना

पेट में दर्द या मन बैचेन रहना। अपना इलाज व स्वयं करती है। अडोसी - पडोसी से गप्पेबाजी और पंचायत से उनकी हर 

बीमारी उड़न छू हो जाती है। निगाहें किसी न किसी बकरे को 

हाकालाजी के लिए ढूँढती रहती  है। वह तो खुश है बेचारा कोई जबरन उनके हत्थे चढ़ जाए तो उसके बीमार होने की सम्भावना बढ़ सकती।  मुफ्त खोरी का भी अपना परम आनंद होता है। वैसे भी हमारे देश में  चलते फिरते सलाह देने वाले मिल जायेंगे। भले ही आप उनसे सलाह मांगे या ना मांगे। कुछ  लोगों की फितरत होती है आपको जबरजस्ती सलाह देंगे। 

        हाल ही हमरे  एक मित्र  ट्रैन  में सफर कर रहे थे।  पास की सीट पर  बैठे  एक सज्जन उनके पीछे हाथ क्या नहाधोकर  पीछे पढ़ गया।  भाईसाहब कैसे हो। भाईसाहब चेहरा देखकर लगता है बहुत काम करते हो। आपका परिवार अच्छा है। बेटी चेहरे से होशियार दिखती है।

 भाईसाहब ऐसा  करिए सुबह उठाकर ध्यान लगाया कीजिये। 

मन शांत रहेगा। ध्यान प्रभु शांति देता है। हमारे मित्रवर  को गुस्सा आ रहा था। जान न पहचान जबरन गले पड़ रहे हैं। 

फोन  पकड़ कर पतली गली से निकल लिए और वापिस आकर बर्थ पर सोने का जतन करने लगे। लेकिन उन सज्जन  शायद गुलबुलाहट हो रही थी। आखिर अपना प्रवचन किसे सुनाकर 

महान बनें।  तो जनाब ने हाथ मार कर हमारे मित्र को उठा 

दिया। भाईसाहब सुनिए।  यार हद हो गयी।  बात नहीं करनी है तब भी सुनो। फेविकोल  तरह महाशय चिपकने लगे। ऐसे सिरफिरे अक्सर मिलते रहतें है।  मित्रवर से कुछ कहते न बना।  बेचारा बकरा बिन कारण हलाल हो गया। 

             आजकल के बच्चों को फेसबुक मीडिया पर तस्वीरें  लोड करने की आदत है।  हर पल की खबर वहां न दो तो चैन नहीं मिलता। लेकिन साथ में  तारीफ के साथ मुफ्त की सलाह भी सुनो। हमारे एक परिचित थे। उनके रिश्तेदार की बेटी ने अपनी हवा में लहराती जुल्फों के साथ तस्वीर पोस्ट की। और जनाब ने बिन माँगी सलाह दे दी।  एकदम झल्ली लग रही हो। 

 दूसरा फोटो लगाओ।  ऐसा करो वैसा करो। हे राम। अब इन जनाब को सलाह देने के लिए किसने  कहा था।  जिसका जो मन होगा वह करेगा। चले आते हैं कैसे - कैसे लोग। यह तो 

सोशल मीडिया है जहाँ कुछ पसंद न आये तो ब्लॉक या डिलीट के ऑप्शन तैयार मिलते हैं। 

लेकिन हकीकत कड़वा करेला भी बन जाती है।  जो न निगल सकतें है न उगल सकतें है। दूसरों की क्या कहें। हम भी कभी लोगों को मुफ्त की सलाह देते रहते थे।  यह बात अलग है 

कि तजुर्बे ने हमें चुप रहना सीखा दिया।  बिन माँगी सलाह देना 

बहुतेरे लोगों की फितरत होती है। 

    आज सुबह सुबह हम बगीचे में शांति का आनंद ले रहे थे। 

 सीधे - साधे रास्तों पर भ्रमण कर रहे थे। कि अचानक पीठ पर पड़ी जोरदार धौल ने हमें ऊबड़खाबड़ रास्तों पर गिरने पर मजबूर कर दिया।  देखा तो धम्म से शर्मा जी टपक पड़े और सुबह की शांति का साइलेंसर बिगाड़ दिया।  

शर्मा -  क्या बात है मियां बहुत शांत खामोश लग रहे हो। 

  अरे कोई शांत रहना चाहता होगा तभी तो खामोश है। किन्तु जबरन होंठों पर ३२ इंच की मुस्कान चिपका बोले - नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।


 यह बत्तीस इंच की मुस्कान राजनितिक होती है।  सोच समझ
कर अपना दॉँव खेल जाती है। किसी को उसके भेद ज्ञात नहीं होतें है। बिन माँगे भी बहुत कुछ दूसरों को दे जाती है। सामने 

वाला चीत्त और वह पट। आज हमारी मुसीबत में काम आ गयी। 

 शर्मा  क्यों। भाभी नहीं है। क्या गरमा गर्मी हो गयी। बच्चे सब 

कुशल है। आजकल दुनियां में क्या - क्या नहीं हो रहा है। 

सुबह की हमारी शांति भंग करने शर्मा जी ने अपनी रामायण व 

महाभारत का पिटारा खोल लिया। जाने क्यों लोगों को किसी के फटे में टाँग अड़ाने की आदत होती है। आज हम सुनने के 

मूड में नहीं थे। मजबूरन उन्हें चुप करना पड़ा। 

 " शर्मा जी तबियत नासाज लग रही है। आराम करना चाहतें है "। 

 " अजी  मियां ! तो आराम करो।  किसने मना किया है। हम तो 

तुम्हारा मन बहला रहे थे। भैया देखो जब तुम्हरा जन्म हुआ था। वह दिन भी तय था।  समय चक्र ऐसा ही है।  नियत समय पर 

मृत्यु भी तय है। हर कार्य नियत समय पर होतें है। जीवन के 

चार चक्र होते है।"

 "
बस बस शर्मा जी, बुरा न मानो। भाई हमें हमारे हाल पर छोड़ 

दो। आपकी इन बातों में हमें कोई रूचि नहीं है। "

   बिना उनकी तरफ देखें हमने अपनी तशरीफ़ बढ़ा ली। उफ़

कितना दम घोटू माहौल  था। 

 एक तो हम बैचेन ऊपर से शर्मा हमें मारने पर तुले हुए थे।

 आज समझ  में आया बिन माँगी सलाह देना और सुनना कैसा लगता है।  हम भी तो कभी लोगों को  बिन माँगी सलाह क्या पूरा उपदेश ही दे देते थे। कुछ लोग कान पकड़ते हैं। तो कुछ 

लोग कान के साथ पूरा सर ही पकड़ लेते हैं। 

           मानवी प्रकृति ऐसी ही है। कोई अपना दुखड़ा रोता है।  

तो हम भी उसके दुःख में अपना दुःख ढूंढने लगते हैं। ऐसा दर्शाते है जैसे हम भी उसी दौर से गुजरें रहें  हैं। अति प्रेम भी जहर का कार्य करता है। कमोवेश वही हाल हमारा भी हुआ।  अदद घर बनाना चाहतें थे। जब भी कोई घर लेना चाहा। प्रिय मित्रों ने बिन मांगी सलाह की कुंडली मार दी। यह बहुत मँहगा है।  

यहाँ मत लो।  वहां मत लो। उम्र पड़ाव पर आ गए लेकिन घर नहीं मिला।  हम भी बिन मांगी सलाह के प्रेम भरी कुंडलियों में घूमते रहे और अमल भी करते रहे। एक कुटिया भी नहीं बना 

सके।  नए नए लेखक बने तो सीखा - लिखा - आगे बढे। किन्तु आज भी बिन माँगी सलाह की मक्खियाँ भिनभिनाती रहती है।

          अब सोचते हैं  कि लेखन वेखन छोड़कर एक 

सलाह  केंद्र खोल लें।  जहाँ सदैव बिन माँगी सलाह देने वालों का और सुनने वालों का स्वागत व समागम हो जाये।  इस नेक कार्य से समाज भी तरक्की करेगा।  चिंताएं ख़त्म होगीं सुखद सुहाने दिन आएंगे। आज मूड ख़राब था। लेकिन आपका सदैव स्वागत रहेगा। आप को जब भी हमारी सलाह की जरुरत महसूस हो।  हमारी संस्था तत्पर रहेगी। इसके लिए आपको कोई फ़ीस नहीं देनी है। आपका अनमोल समय हमारे लिए भी अनमोल होगा।  आप कभी भी संपर्क  कर सकतें है। हमारा पता है -  मुफ्त  सलाह केंद्र। हसोड़ वाली गली। व्यंग्यपुरी।  

शशि पुरवार 



Friday, January 26, 2018

हिंदी की चिन्दी



हिंदी दिवस की तैयारी पूरे जोश - खरोश के साथ की जा रही थी। आजकल हर वस्तु  छोटी होती जा रही है।  मिनी कपडे।  मिनी वस्तुएँ।  हर  वस्तु छोटी और मानव बड़ा।   मानव कद से या कर्म से कभी बड़ा हुआ है ? यह  शोध का विषय है। जब भाषा की बात आती है तो अपनी भाषा  अपनी है।  छेड़ छाड़ करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।  लोगों को  अपनी ही भाषाओँ के साथ छेड़छाड़ करके।  शब्दों को तोड़ मरोड़ कर जो विजेता सा अहसास होता है  वह आठवें अजूबे से कम नहीं है। आज कल लोग हिंदी की चिन्दी बनाकर हवा में लहरा रहें हैं। एक दुःस्वप्न की तरह हिंदी की चिन्दी रात भर हमें तड़पाती हैं।  जैसे वर्ष में एक दिन लोग  झंडा वंदन करके  दूसरे दिन उसे जमीन पर बिलखता छोड़ देते हैं, यह दुखद सत्य है।  उसी तरह हिंदी दिवस आते ही लोगों को उसकी महिमा का अहसास  होता है व लोग उसकी महिमा मंडल करने लगते हैं।

           पड़ोस में रहने वाले जैन साहब स्वयं को किसी पुरोधा से कम नहीं समझते हैं।  हिंदी तो माशा अल्लाह।  जो भी मिला उसे प्रेम से एक चिन्दी चिपका दी।  जो दूर से प्रणाम करें उसे भी चिन्दी के गोले फेंक ही देते हैं।
 
   आज की सुबह शर्मा जी के लिए शामत लेकर आयी।  हुआ यूँ  सुबह सुबह सैर को निकले शर्मा जी का रास्ता जैन साहब ने काट दिया और  बोले - तोंदू कहाँ चले !  लो जी मानवीय सभ्यता का  सुबह सुबह  क़त्ल  हो गया।
यह तो शर्मा जी का ह्रदय ही जानता है  कि कितना  तड़पा।  फिर भी  खोटी  मुस्कान के साथ बोले -- जय हो तोंदू के मित्र।
  जैन -- क्या हुआ शर्मा जी काहे बिलबिला रहे हो, गन्नू।
अब शर्मा जी गणेश से कब गन्नू बन गए , उन्हें  पता  ही नहीं चला।  नाम का कचूमर करना तो आम बात है।  हमारे चारों तरफ इस तरह के चलते फिरते पुर्जे नजर आते हैं। जिसे देखो वह अपनी अपनी चिन्दी की दुकान खोलकर बैठा है।  
               हिंदी के  लिए ऐसा कहना ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। आज  नेट पर अहिन्दी भाषी भी हिंदी सीखकर हिंदी के पुरोधा बन गए हैं।  जिसे देखो  हिंदी  की थाली  सजाकर कर परोस रहा है।  यह  अलग बात है  कि कर्ता - काल - अलंकार  थाली से गायब होते जा रहें है।  लोग इसी खुशफहमी में है कि हिंदी विश्व भाषा बनने की ओर  अग्रसर है। हिंदी के पुरोधा हिंदी की बढ़ती जनसँख्या देखकर हैरान हैं।   फिर भी हिंदी के लिए जी जान से जुटे हुए पुरोधाओं  की कमी नहीं हैं।  इसी कार्य हेतु वर्मा जी  को सम्मनित किया गया।
 कहतें हैं  ना ! दूर  के ढोल सुहावने।  जब से  वर्मा जी सम्मानित होकर आएं है हिंदी को छोड़ अंग्रेजी को मुँह से लगाए फिरते हैं।
                 हुआ यूँ कि  समारोह में हिंदी भाषा  में विशिष्ठ कार्य करने हेतु वर्मा जी शामिल हुए।  खालिस हिंदी के पुरोधा ने सोचा वहां भी अपना रंग जमाएंगे।  किन्तु वहां का  परिदृश्य कुछ इस तरह था।

       निर्णायक गण व अन्य कविराज भी आमंत्रित थे।  लंबा चौड़ा कार्यक्रम था।  सरकारी महकमे  कुर्सी की शोभा बढ़ा रहे थे। भव्य आयोजन था।  बहुत सी गोलाकार कुर्सियाँ सम्मानीय विद्वजनों हेतु सजाई गयी थी।  खाने - पीने  का खालिश इंतजाम था।  किन्तु  वर्मा जी मुँह खोलते उसके पहले विलायती मेम इंग्रेजी धड़धड़ाते हुए समारोह का आकर्षण बन चुकी थी। वर्मा जी अपनी शान में कुछ कहने की हिमाकत करते उन्हें एक चिन्दी चिपका दी गयी ---   भैया आराम करो, खुशीयाँ मनाओ।  हिंदी में कार्य करने हेतु  सम्मानित किया जा रहा है। शर्मा जी  शर्म से पानी पानी हो गए। हिंदी के तथाकथित पुरोधा हिंदी की जगह अंग्रेजी में गुटर गुं कर  रहे थे।  हिंदी  की चिंदिया हवा में उड़ रही थी।  अँग्रेजी मेम की गिट पिट शर्मा जी के मुँह में ताला लगा गयी। इसे कहतें हैं भैया रंग लगे न फिटकरी फिर भी रंग चौखा।  दूर के ढोल सुहावने ही लगते हैं।
-- शशि पुरवार

Friday, January 12, 2018

बदल गए हालात


अम्बर जितनी ख्वाहिशें,सागर तल सी प्यास
छोटी सी यह जिंदगी, न होती उपन्यास 1

पतझर में झरने लगे, ज्यों शाखों से पात
ममता जर्जर हो गयी , देह हुई संघात 2

अच्छे दिन की आस में, बदल गए हालात
फुटपाथों पर सो रही, बदहवास की रात 3

मनोरंजन के नाम पर, टीवी के परपंच
भूले - बिसरे हो गए, अपनेपन के मंच 4

जिनके दिल में चोर है, ना समझे वो मीत
रूखे रूखे बोल के , लिखते रहते गीत 5

बंद ह्रदय की खिड़कियाँ, बंद हृदय के द्वार
उनको छप्पन भोग भी, लगतें है बेकार 6

बैचेनी दिल में हुई , मन भी हुआ उदास
काटे से दिन ना कटा, रात गयी वनवास 7 
 
शशि पुरवार 
 
 

Thursday, January 4, 2018

साल नूतन


साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने
आस के उम्मीद के फिर
बन रहें हैं नव ठिकाने

भोर की पहली किरण भी
आस मन में है जगाती
एक कतरा धूप भी, लिखने
लगी नित एक पाती

पोछ कर मन का अँधेरा
ढूँढ खुशियों के खजाने
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

रात बीती, बात बीती
फिर कदम आगे बढ़ाना
छोड़कर बातें विगत की
लक्ष्य को तुम साध लाना

राह पथरीली भले ही
मंजिलों को फिर जगाने
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

हर पनीली आँख के सब
स्वप्न पूरे हों हमेशा
काल किसको मात देगा
जिंदगी का ठेठ पेशा

वक़्त को ऐसे जगाना
गीत बन जाये ज़माने
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने।
शशि पुरवार


आप सभी को नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ, वर्ष की शुरुआत है सभी मंगलमय हो यही कामना है - स्नेह बना रहे मित्रों सादर - शशि पुरवार


Related image








Sunday, December 24, 2017

नवपीढ़ी का इतिहास

    
नव पीढी ने रच दिया, यह कैसा इतिहास 
बूढी सॉंसें काटती, घर में ही वनवास १ 
  
दौलत का उन्माद है, मदहोशी में चूर 
रिशते आँखों में चुभे, ममता चकनाचूर २  

शहरों में खोने लगा, अपनेपन का भाव
जो अपना मीठा लगे, देता मन पर घाव ३  

बंद हृदय में खिल रहे, संवेदन के फूल 
छंद रचे मन बाबरा, शब्द शब्द माकूल ४ 

एक अजनबी से लगे,अंतर्मन जज्बात 
यादों की झप्पी मिली, मन, झरते परिजात ५ 


ऐसे पल भर में उड़े, मेरे होशहवास 
बदहवास सा दिन खड़ा, बेकल रातें पास ६ 
- शशि पुरवार 

 

Thursday, December 7, 2017

जोगन हुई सुगंध

 1 
जीवन भर करते रहे, सुख की खातिर काम 
साँसे पल में छल गयीं,  मौत हुई बदनाम 
 2 
माता के आँगन  खिला, महका हरसिंगार 
विगत क्षणों की याद में, मन काँचा कचनार। 
 3  
सुख सुविधा की दौड़ में, व्याकुल दिखते नैन 
मन में रहती लालसा, खोया दिल का चैन। 
 4 
कितने आभाषी हुए, नाते रिशतेदार 
मिले सामने तब दिखा, बंद हृदय का द्वार 
 5 
खुद को वह कहते रहे, प्रिय अंतरंग मित्र 
समय के कैनवास पर, स्वार्थ भरा चलचित्र 
 6 
सड़कों के दोनों तरफ, गंधों भरा चिराग 
गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग 
 7 
मन के आगे जीत हैं, तन के पीछे हार 
उम्र निगोड़ी छल रही, जतन हुए बेकार। 
 8 
मंदिर में होने लगा, कैसा कारोबार 
श्रद्धा के दीपक तले, पंडो का दरबार।


मंदिर में होने लगा , कैसा कारोबार 
श्रद्धा के दीपक तले, पंडो का दरबार। 

10 
गॉँवों में होने लगे, शहरों से अनुबंध
कंकरीट के देश में, जोगन हुई सुगंध
11
नैनों के दालान में, यादों के जजमान
गुलमोहर दिल में खिले, अधरों पर मुस्कान
12
रात चाँदनी मदभरी, तारें हैं जजमान 
नैनों की चौपाल में, यादें हैं महमान।
13  
बूँदों ने पाती लिखी, सौंधी सी मनुहार
मन चातक भी बावरा, रोम रोम झंकार 
14  
थर थर होतीं घाटियाँ, खूनी मंजर खेल 
सुख के पौधे खा रही, नफरत जन्मी बेल
15  
जीवन में खिलते सदा, सद्कर्मों से फूल 
बोया पेड़ बबूल का, चुभते इक दिन शूल 
16  
सावन भी रचने लगा, बूंदों वाले छंद 
हरियाली ऐसी खिली, छाया मन आनंद। 
शशि पुरवार
Related image

Monday, December 4, 2017

व्यंग्य की घुड़दौड़

   व्यंग्य  की घुड़दौड़ 

नया जमाना, छोड़े पुराना।  जी हाँ नित नयी तलाश हमें एक मुकाम पर लेकर जा रही है। नयी ज़माने की हवा, जो  आँधी की तरह  आती है और बाढ़ बनकर सब कुछ बहाकर ले जाती है। नयी हवा में पुराना अस्तिव कुछ इस तरह बिखरता है जैसे मुट्ठी से फिसलती रेत।  आज हर  कलमकार को  अपडेट रहने की आवश्यकता  है। व्यंग्य विधा में रोजमर्रा की उबाऊ बातों को भी व्यंग्य के चटकीले चुटीले परिधान पहना कर प्रस्तुत किया जाता है।  व्यंग्य हमारे जीवन में नमक  है।  जिसके बिना खाने का स्वाद अधूरा होता है।  सदियों से प्रचलित व्यंग्य कहीं मीठी छुरी हैं तो कहीं तलवार।  हम तो व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी वाकपटुता के कारण आ गए थे।  लेकिन जैसे - जैसे समय हाथों से फिसलने लगा, हमारे सामने  नया रेगिस्तान खड़ा था। जिसकी अंतहीन धरती भ्रम का आभाष करा रही थी।  नयी हवा की चौसड़ में हमारा क्या काम है। आजकल व्यंग्य लोगों के सर चढ़कर बोल रहा है।  जिसे देखो व्यंगावतार लेकर प्रगट हो रहा है। हवा में व्यंग्य की तलवार बाजी शुरू है। 
               हम तो परसाई जी को पढ़ते ही  रह गए।  लेकिन नए बच्चों ने जैसे व्यंग्य के आसमान पर पतंगबाजी करनी शुरू कर दी  है। हम भी उस पतंगबाजी के  पेंच देखने का आनंद लेने लगे। लोग हमें भले ही उस्ताद कहें लेकिन हम  सीखने हेतु तत्पर हैं। 
   इन्हीं विचारों के साथ नरेश बाबू , मित्र शर्मा जी के साथ गुफ्तगू कर रहे थे।  लम्बे समय से व्यंग्य की राहों पर उम्र गुजर गयी। आज की नयी हवा को पढ़ना जरुरी था। इसीलिए नए ज़माने के स्कूल सोशल मीडिया पर,  हम अपने लल्लन टॉप मोबाइल के साथ व्यंग्यकारों के नए अवतारों की गणना  करने लगे। 
    सोशल मीडिया पर अवतरित अनगिनत व्यंग्यकारों को देखकर जैसे हमारेपसीने  छूटने लगे। शनैः शनैः उनका व्यंग्य वाण हमें नश्तर चुभाने लगा। 

   शर्मा जी बोले -  का हुआ नरेश बाबू  ?

नरेश बाबू -   कुछ नहीं शर्मा जी,  जमाना तेजी से बदल गया।  हम परसाई को पढ़ते रह गए, यहाँ कौन सा व्यंग्य लिखा जा रहा है ! जे तो कभी हमने सीखा ही नहीं।  जलेबी और रबड़ी भी साथ में खाई है।  यह कौन सी मिठाई बाजार में आयी  है ?
  शर्मा जी - जाने दो नरेश बाबू , हम पुरानी हड्डी हैं।  आजकल भोजन नए - नए रूप में परोसा जाता है।  अब नयी हवा को बहने दो।  वह लीक से हटकर कुछ करती है।  जे हमारी पकड़ के बाहर है। 

नरेश बाबू - सही कहत हो यार शर्मा, मिठाई खाते खाते पता ही नहीं चला  इसके अंदर खिचड़ी भरी है।  चलो किसी हीरे तो ढूंढकर तरासा जाय। हमें भी अपनी विरासत नव पीढ़ी को  देकर आगे बढ़ानी हैं। 

      नए चेहरे तलाशते हुए कई तस्वीरों पर नजर ठहर गयी।  यह कल के शैतान बच्चे जो अशुद्ध भाषा में कवितायेँ लिखा करते थे आज के सफल व्यंग्यकार बन गए। कल तक जो मसखरी करते थे। आज आसमान का सितारा है। ऐसा कौन सा ज्ञान का सागर मिल गया है। जिसमे डुबकी लगाते ही  लोग गगन चुम्बी के सितारे बन जाते हैं।    
        आभासी दुनिया का व्यंग्य परिसर ऐसा था जिसमे  हर जगह व्यंग्य के झंडे फहरा रहे हैं।  देश तो १५ अगस्त को आजाद हुआ।  साहित्य जगत में सबको अपने विचारों को व्यक्त करने की आजादी है।  गणेश जी चूहे की सवारी करते हैं। लेकिन चूहा भी कुतरने में माहिर होता है। हमारी तलाश ऐसे कई चूहों पर जाकर ख़त्म हुई। जिन्होंने शब्दों की कुतरन को अपने नामों के साथ फहरा रखा था। सोशल मीडिया में आजकल व्यंग्य के कीड़े फैले हुए हैं।  जिसे देखो व्यंग्य का झंडा हाथों में लिए आजादी का जश्न मना रहा है।  देश को आजाद हुए कई वर्ष बीत गए किन्तु जोड़ो और तोड़ो की नीति,  अपने नए - नए अवतार में हमारे सामने अवतरित है। लोगों का व्यंग्य पढ़ते- पढ़ते आँखे बोझिल होने लगीं।  व्यंग्य तो नहीं मिला लेकिन अलीबाबा और चालीस चोरों के नए अवतार के दर्शन पाकर धन्य हो गए।   
  
      चाय का कप हाथों से चिपक गया।  मुँह का निवाला न गिटका गया  न थूका गया। हर तरफ वाहवाही थी।  इक दूजे को पछाड़ने की होड़ व्यंग्य की घुड़दौड़।  ऐसी घुड़दौड़ जिसमे व्यंग्य धूल में नहाकर चारों खाने चित्त पड़ा हुआ था। मगरूरता हर जगह व्याप्त थी।  ऐसे में अगर परसाई जी होते तो न जाने क्या करते।  
  
    चलो  यार शर्मा जी, तनिक चाय पकोड़े खाने बाहर चले।  हम पुरानी हड्डियों में वह बात कहाँ जो प्रदूषित हवा में साँस ले सके। 

  हाँ नरेश बाबू , जमाना वाकई बदल गया है। आज की यह घुड़दौड़  न जाने कहाँ जाकर ख़त्म होगी। व्यंग्य के घोड़ों को चिराग लेकर ढूँढना होगा।  हरिओम! 
शशि पुरवार 

Monday, October 23, 2017

भूख की घंटी = पेट की कश्मकश


     
                       भूख शब्द का नाम लेते ही आँखों के सामने अनगिनत पकवान तैरने लगते हैं। मुँह में पानी का सैलाब उमड़ने  लगता है। भूख अच्छों - अच्छों को दिन में तारे  दिखा देती है। जब तक जठर अग्नि शांत ना हो दिमाग का दही जमने लगता है। अब भूखे पेट भी कहीं भजन होते हैं।   भूख और पेट  के सम्बन्ध की  गुत्थी सुलझाना, समझ से परे है। हम तो यहीं समझते हैं कि  यह पेट न होता तो जीवन में कितना सुकून होता।  न खाओ और न बनाओं।  इन सभी पत्नियों का दर्द हम बखूबी समझ सकतें है बेचारी दिन - रात यही सोचती हैं अब भोजन में क्या बनाया जाय । यह  पापी पेट, न जाने कितने जतन करवाता है।
               पिछले कई दिनों से एक नया रोग लग गया है।   अब यह बात किसी को भी बताने में शर्म आती है। न न दिमागी घोड़े न दौड़ाएं, यह पापी पेट ही है जिसने हमें बैचेन कर रखा है।  अजीब हाल है पेट की घंटी कभी भी बज उठती है, जी हाँ लोगों के पेट में चूहे दौड़ते हैं  और हम सीधे भोजन पर हमला करतें है। खा खाकर अनाज ख़त्म होने लगा,  लेकिन पर यह पापी भूख अपना विकराल रूप धारण करके तांडव नृत्य करवा रही है। यह कैसी भूख है जिसकी क्षुधा शांत  नहीं होती है। जिधर देखों भोजन नजर आता है, जीभ रसवास करने हेतु तत्पर रहती है। आखिर आँतों को भी आराम चाहिए कि नहीं, अजीब कश्मकश है. 

        डाक्टर को दिखाया तो बोले - सुबह सुबह हम ही मिले थे, जाओ, खाओ, हमें मत सताओ ...! 

               पतिदेव से कहा तो बोले - "हे नारी मै तुम्हारे आगे नतमस्तक हूँ , तुम्हीं  अन्नपूर्णा हो, तुम्हीं  काली हो तुम्हीं जग माता हो। जाओ अपनी क्षुधा शांत करो देवी, हमें आराम करने दो  " 

                       अब पंक्ति समझ से परे थी , पतिदेव ने उपहास किया या तंज कसा , समझ नहीं सके।  किन्तु पेट की घंटी बजना कम  नहीं हुई.  हमारी जबान आजकल भोजन पर फिसलने लगी उसमे  किसी को कष्ट क्यों हो ?  बनाने वाले भी हम खाने वाले भी हम.  कहतें हैं हींग लगे न फिटकरी फिर  भी रंग चौखा।  निखरे भी हम बिखरे भी हम,  तो क्यों न  भूख पर  अपनी कलम की क्षुधा शांत की जाए। संपादक हमें ललकारते रहते हैं -   रचना जल्दी लिख कर भेजों और हम अपनी संवेदनाओं की भूख को तराशने लगते हैं. देखा जाये तो दुनियाँ में सभी भूखे हैं। नजर घुमाओ भूख के अनगिनत प्रकार नजर आ जायेंगे ,  
      
  भूख और राजनीति का क्या मेल? 
   मै तो सिर्फ अपने पेट की भूख से परेशान हूँ  किन्तु पापी लोगों के पापी पेट भरने का नाम ही नहीं लेते हैं। किसी को तन की भूख है, किसी को धन की भूख है   किसी को  मोह - लोभ, सत्ता-  कुर्सी की भूख है जो अंतहीन है। किसी को नाम की भूख है किसी को आस्था की भूख।  यही भूख लोगों को विचलित कर चैन से सोने  भी नहीं देती हैं। तन की भूख इंसान को दुष्कर्मी बनाती है.  आस्था से अंधे लोग साधारण इंसान को भी मसीहा या देवी का दर्जा देकर उनकी पिपासा को शांत करतें है, सत्ताधारी सत्ता के मद में चूर  लोगों का उपयोग करतें है।  साम - दाम - दंड - भेद  कलयुग के तेज औजार बन गएँ है।  अच्छे दिन की  चाह में लोग जीवन काट देतें हैं लेकिन अच्छे दिन  नहीं आते।  गरीब दो जून रोटी की खातिर सारे अन्याय हँस कर सहता है, धर्म के द्वार से पाखंडियों को स्वर्ग सा सुख देतें  है।  भिन्न - भिन्न प्रजाति की भूख, न जाने कितने पाखंडियों को जन्म देती है, ऐसी भूख अंदर ही अंदर  समाज को खोखला कर रही है।   भगवा वस्त्रों का मुखोटा पहने  राक्षस रंगरलियां कर रहें है।  
 धूमिल की एक कविता याद आती है - 
क आदमी रोटी बेलता है

दूसरा आदमी रोटी खाता है
और एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है
न ही रोटी खाता है बल्कि
रोटियों से खेलता है.

मै पूछती हूँ वह आदमी कौन है ? मेरी देश की संसद मौन है ? यानि हर जगह भूख का राजनीतिकरण हो 

रहा है। गरीब के पेट पर हर कोई रोटी सेंकने की फ़िराक में है। क्या वे भरे पेट वाले होते हैं जिनको चांद 

रोटी जैसा दिखाई देता है. भूख पेट को गद्दार बना देती है इस वाक्य में देश भक्ति कम नही है पर गरीबी का 

दर्द कहीं ज्यादा है। ऐसा प्रतीत होता है भूख का विकराल दानव ईमानदारी, सभ्यता, संस्कारों को निगल 

गया है इंसान तत्वहीन होता जा रहा है। आस्तीन के साँप चहुँ ओर बिखरे पड़ें है।       मृगतृष्णा की  अंतहीन भूख,  पृथक आचार - विचार लिए हमें भ्रमित करती रहती है। देश दुनियां में आज हर तरफ गिरती लाशें,  न जाने कौन से धर्म - कर्म की प्यासी है यह कौन सी भूख है जो इंसानों को इंसानों के खून का प्यासा बना रही है।  प्रेम और सदभावना की हवा का अस्तिव जैसे मिट गया है।   इससे तो हमारी भूख अच्छी है , खाओ खाओ और टुनटुन बन जाओ। समाज, देश, समय में उपजी विकराल दूषित विचारों की भूख न जाने कौन से युग का निर्माण करेगी।
            - शशि पुरवार 

Thursday, September 7, 2017

व्यंग्य के तत्पुरुष

व्यंग्य के तत्पुरुष 
व्यंग्य के नीले आकाश में चमकते हुए सितारे संज्ञा, समास, संधि, विशेषण का विश्लेषण करते हुए नवरस की नयी व्याख्या लिख रहे हैं। परसाई जी के व्यंग्यों में विसंगतियों के तत्पुरुष थे।  वर्तमान में व्यंग्य की दशा कुछ पंगु सी होने लगी है।  हास्य और व्यंग्य की लकीर मिटाते - मिटाते व्यंग्य की दशा - दिशा दोनों ही नवगृह का निर्माण कर रहें हैं। व्यंग्य लिखते - लिखते हमारी क्या दशा हो गई है।  व्यंग्य को खाते - पीते , पहनते - ओढ़ते, व्यंग्य के नवरस डूबे हम जैसे स्वयं की परिभाषा को भूलने लगे है।  कई दिनों से  जहन में यह ख्याल आ रहा  है कि कई वरिष्ठ व आसमान पर चमकते सितारे व्यंग्य की रसधार में डूबे हुए व्यंग्य के तत्पुरुष बन गए है। उनकी हर अदा में व्यंग्य हैं।  चाहे वह शब्दों का झरना हो या मुख मुद्रा की भावभंगिमा, आकृतियां। 

              जैसा कि विदित है व्यंग्य को कोई नमक की संज्ञा देता है।  कोई शक्कर की उपमा प्रदान करता है।  लेकिन हर वक़्त हम नमक या इतनी मिठास का सेवन नहीं कर सकतें है। अगर शरबत बनाया जाए तो एक निश्चित अनुपात के बाद जल में शक्कर घुलना बंद हो जाती है। एक ऊब सी आने लगती है कमोवेश यही हाल व्यंग्य का भी है। क्या कोई हर वक़्त अपने पिता से - भाई से - पत्नी से व्यंगात्मक शैली में वार्तालाप कर सकता है?  पति /पत्नी या माता पिता से  जरा व्यंग्य वाणों का प्रयोग करें !दिन में ही तारे नजर आने लगेंगे।  धक्के मारकर नया रास्ता दिखाया जायेगा। 

    हमारे परमपूज्य मित्र क , , , घ चारों का गहन याराना था ।  सभी व्यंग्यकार धीरे धीरे व्यंग्य के तत्पुरुष बन गए। चारों ने अपने - अपने भक्तों को समेटना प्रारम्भ कर दिया है। जोड़ो तोड़ो की नीति चरम पर है। लोगों ने गुरु बनना व बनाना प्रारम्भ कर दिया है।  पहले सिद्ध व्यंग्यकार ढूंढकर गुरु  बनाये जाते थे।  लेकिन आज लोग व्यंग्य के मसीहा / भगवान् बनने पर आमादा हैं।  वयंग्य में भाई भतीजावाद होने लगा है।  क , , , घ अपने नए नामों से अपने झंडे फहरा रहें हैं।  कोई मामा / मामी, कोई काका - काकी, कोई  दादा बन गया।  कोई नया रिश्ता तलाश रहा है।  क , , , घ जैसे तत्पुरुष अपनी गद्दी छोड़ना नहीं चाहतें हैं। गुरु जैसे महान पद  पर आसीन यह  लोग नयी पीढ़ी को क्या दे रहें है ? आजकल ऐसे तत्पुरुषों ने नवपीढ़ी को जुगाड़ करने का तरीका दे दिया है।  अपने रिश्ते बनाओं।  दल बनाओं। और छपास करो। हर जगह राजनीति होने लगी है।  पहले कार्य करने हेतु सम्मान दिया जाता था।  आजकल सम्मान की भी जुगाड़ होने लगी है।  हर जगह  धोखधड़ी का व्यवसाय फलने फूलने लगा है। नयी पीढ़ी को सम्मान खरीदने का लालच देकर कौन सा नव निर्माण हो रहा है ? सम्मान देने हेतु वाकायदा संस्थाएं बन गयी हैं।  सबसे रूपए जमा करो और उसी से सम्मान का तमगा पहना दो।  भाषा संस्कार का क, ,  , घ न जानने वालों को भी सम्मान बाटें जा रहे हैं।  आजकल पुनः जातिवाद भी  अपना रंग दिखाने लगा है।  लोग अपनों को सम्मान दिलाकर ही गौरान्वित हो रहें है।


      रिश्ते तलाशते हुए सपाटवानी करना अच्छा नहीं है। व्यंग्य की अपनी एक गरिमा है।  रचनाकार का भी रचनाधर्म होता है।   आभाषी दुनियाँ में व्यंग्य की इतनी नदिया बह रही है जिसमे गोता लगाओ तो भी हम उसी रंगो में रंगते नजर आते हैं। चोर भी चोरी करके सीना ताने फिर रहें हैं। आत्मग्लानि शब्द जैसे इनके शब्दकोष में ही नहीं है।  सोशल मीडिया पर हर कोई रिश्ते बनाकर सीढ़ी चढ़ना चाहता है।  आज व्यंग्य व व्यंग्यकारों का मखौल बन गया है।  रस, लय और गति जहाँ नहीं है वहां रोचकता कैसे होगी। ऐसे लोगों को यदि मंच दे दिया जाये तो कौन कितनी देर ठहरेगा ज्ञात नहीं है।   
शशि पुरवार 

Friday, August 18, 2017

कुर्सी की आत्मकथा

कुर्सी की आत्मकथा --    
           कुर्सी की माया ही निराली हैकुर्सी से बड़ा कोई ओहदा नहीं है कुर्सी सिर्फ राजनीति की ही नहीं अपितु हर मालिक की शोभा बढाती है चाहे व कुर्सी सरकारी दफ्तर में हो या प्राइवेट दफ्तर में।  कुर्सी की अपनी पहचान है।   कुर्सी पर बैठने वालों की होड़ लगी रहती हैजो कुर्सी पर विराजावह राजा और जो  कुर्सी  के पास भटक भी न सके वह बेचारा बेचारा कुर्सी का मारा ,चुपचाप  उसे  तिरछी नजर से  देखा करता है दिल में धधकते शोलेआँखों से नूरहृदय की बेचैनी जीने ही नहीं देती है बेचारी कुर्सी किसी कन्या की भांति डरी -डरी अपने जीवन के दिन काटती है,  न जाने कब कौन सा साया उसके हाथ पैरों की मरम्मत कर देउसके जीवन में कब कोई शामत आये यह तो समय भी नहीं बता सकता हैकिन्तु  फिर भी कुर्सी की महिमा गजब की हैहर कोई कुर्सी के आगे नतमस्तक हैहर कोई  स्वप्न सुंदरी की तरह कुर्सी के सपने देखता रहता हैकिस्म किस्म के लोग कुर्सी पर अपनी तशरीफ़ रखने के लिए बेताब रहतें हैअलग अलग वजनदार लोग अपने वजन से कुर्सी का काया कल्प करते रहतें हैं और बेचारी कुर्सी  भार सहतेसहते बेदम होने लगती हैफिर भी  कुर्सी  चमक कम नहीं होती हैकुर्सी के दुश्मन कुर्सी पर बैठे लोगों कीभिन्न भिन्न अजीब सी  मुद्राओं व आकृतियों  को देखते रहतें हैकुर्सी पर बैठा व्यक्ति खुद को बादशाह समझ कर फरमान जाहिर करता रहता हैआखिर कौन है जो उस कुर्सी की व्यथा को समझेगाजिस कुर्सी ने ताज दिया हैवही कुर्सी अपने ताज की रक्षा करने में स्वयं असमर्थ है.
    हल्कादुबलापतला शरीर या भारीभरकम हाथी जैसा वजभार  तो बेचारी कुर्सी को ही सहना  पड़ता  हैजब भी कभी ऑफिस में कुर्सी के दिन फिरे हैं तो वह एसी की बंद दीवारी में कुछ पल ठंडी हवा का आनंद लेती है  और यदि दिन न फिरे तो  बॉस की लात  खाती हुई कुर्सीअपने बॉस  का फिर  भी दुलार करती हैअनेकों शरीर का भार ढोतेढोते,पसीने में नहाई हुई कुर्सी   जर्जर हो जाती हैपर मुँह से उफ्फ तक नहीं करती है .ऐसा कोई  महान व्यक्ति भी नहीं है जिसने कभी कुर्सी की व्यथा समझने का प्रयत्न किया हो.
    कुर्सी राजा होकर भी किसी चपरासी की चप्पल के समान  जीवन भर घिसती रहती हैकोई कभी  लात मारता है तो कोई हाथ तोड़ता हैकोई अपने दिल की सारी खुन्नस कुर्सी पर निकालता है तो  कहीं कोई जन सभा होती है तब सबसे ज्यादा खतरे में कुर्सी होती हैखाकी वर्दी वाले कुर्सी को छोड़ नेताओं की आवभगत व रक्षा में लगे रहतें हैंकब किसी के क्रोध की अग्नि में कुर्सी स्वाहा हो जायेयक्ष प्रश्न हैकोई  कुर्सी को उठाकर फेकता हैंकोई हाथपैर तोड़कर दिल की ज्वाला को शांत करता हैबदहाल में कुर्सी होती है और न्यूज़ चैनल की चर्चा में हमारे नायक रहतें हैऑफिसर,  नौकरी समाप्त करके  सेवानिवृत होतें हैकिन्तु कुर्सी की सेवा उसके मरणोपरांत ही समाप्त होती हैकभी कभी तो बेचारी कुर्सी इलाज के बिना ही दम तोड़ देती है  पुरानी जर्जर कुर्सी स्वामिभक्ति दिखाते हुए शहीद हो जाती है।  कुर्सी की वफादारी का इनाम उसे स्टोर रूम में फेककर दिया जाता हैआजकल रंग बिरंगी तितलियों की तरह कुर्सीयोँ  को भी अलग अलग रेक्जीन के रंगबिरंगे परिधान पहनाये जातें हैरंग रोगन करके किसी दुल्हन की तरह कुर्सी को सजाया जाता हैफिर भी कुर्सी का दुःख नहीं बदलता है।  बदले जमाने की तरह रंग बिरंगी तितलियाँ अपने दम तोड़ देती है और सरकारी स्थानों पर  लकड़ी व तार से बनी मजबूत कुर्सियां   जन्मों जन्मों तक वफादारी के वचन निभाती  हैंयही वह कुर्सी है जिसे सरकारी कर्मचारी बदलना नहीं चाहतें अपितु बदलने के नाम पर  जेब  गीली करतें हैं। 

                
कई  बार यह भी देखा गया है कि नोटों के हाथ लोग सेकतें  हैं और  बदनाम कुर्सी होती हैचाहे संसद की जमीं हो या न्याय की चौपालपुलिस चौकी हो या जेल की सलाखेंघर आँगन या दफ्तर हर जगह सजी हुई रंग बिरंगी कुर्सियां धीरे धीरे खोखली हो जाती हैफिर भी उनकी खस्ताहाली पर कोई ध्यान नहीं देता है।  यही कुर्सी जब अपने मालिक की कमर तोड़ती है तब अपने अंतिम पड़ाव में पल भर में पहुंच जाती है न्याय के लिए तरसती इन कुर्सियों की व्यथा को  न्याय कब  मिलेगा....?   बोझ तले मरती इन कुर्सियों का दर्द कौन समझेगा यह सभी प्रश्नयक्ष के समान हैकुर्सियों को आजादी,  बोझ मुक्त साँस लेने की प्रक्रिया  के लिए वैज्ञानिकों को कुछ योगदान देना चाहिएसाँस लेने का अधिकार बेजान वस्तुओं को भी होता हैआशा है भविष्य में  कोई तो होगा जो कुर्सी की रामकहानी किसी चैनल  के माध्यम से जन जन तक पहुचायेगाकभी तो बेचारी कुर्सी के दिन बदलेंगे ..... हम  इस जिजीविषा  कुर्सी के आगे  नतमस्तक  है.
 --शशि पुरवार


समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

https://sapne-shashi.blogspot.com/

linkwith

http://sapne-shashi.blogspot.com