हस्ताक्षर
की
कही
कहानी
चुपके से गलियारों ने
मिर्च मसाला, बनती खबरे
छपी सुबह अखबारों में.
चुपके से गलियारों ने
मिर्च मसाला, बनती खबरे
छपी सुबह अखबारों में.
राजमहल
में बसी रौशनी
भारी भरकम खर्चा है
महँगाई ने बाँह मरोड़ी
झोपड़ियों की चर्चा है
भारी भरकम खर्चा है
महँगाई ने बाँह मरोड़ी
झोपड़ियों की चर्चा है
रक्षक भक्षक
बन
बैठे
है
खुले आम दरबारों में.
खुले आम दरबारों में.
अपनेपन
की
नदियाँ
सूखी,
सूखा खून शिराओं में
रूखे रूखे आखर झरते
कंकर फँसा निगाहों में
बनावटी है मीठी वाणी
उदासीन व्यवहारों में.
सूखा खून शिराओं में
रूखे रूखे आखर झरते
कंकर फँसा निगाहों में
बनावटी है मीठी वाणी
उदासीन व्यवहारों में.
किस
पतंग
की
डोर कटी
है
किसने पेंच लडाये है
दांव पेंच के बनते जाले
सभ्यता पर घिर आये है
किसने पेंच लडाये है
दांव पेंच के बनते जाले
सभ्यता पर घिर आये है
आँखे
गड़ी
हुई
खिड़की
पर
होंठ नये आकारों. में.
होंठ नये आकारों. में.
------ शशि पुरवार
बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteअप्रतिम गीत
ReplyDeleteसुप्रभात।
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवार के - चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteयथार्थ में प्रचलित परम्पराओं को बड़ी खूबसूरत अभिव्यक्ति दी है शशि जी ! बहुत ही सुन्दर रचना !
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना बुधवार 26 नवम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteअतिसुन्दर रचना
ReplyDeleteआर एस डी वैब पर स्वागत हैँ पधारै
geet-navgeet kee dehari par saras sartah rachna.
ReplyDeleteवाह ... सामयिक रचना ... आज के हालात का जायजा लेती हुयी भावपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteबहुत सार्थक और प्रवाहमयी रचना...लाज़वाब.
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteअपनेपन की नदियाँ सूखी,
ReplyDeleteसूखा खून शिराओं में
रूखे रूखे आखर झरते
कंकर फँसा निगाहों में
सुन्दर मनोहर