मगन है सब जिंदगी में
बस सहारा हर लिया है।
गॉंव में रहती अकेली
गॉंव में रहती अकेली
धुंध सी छायी हुई है
नेह, रिशतों के दरमियाँ
गर्म साँसें ढूंढती है
यह हिम बनी खामोशियाँदिन भयावह बन डराते
शब करेली हो गई है
टूटकर बिखरी नहीं वो
इक पहेली हो गई है
----- शशि पुरवार इक पहेली हो गई है
अतिसुन्दर स्वागत हैँ पधारै
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है -
ReplyDeleteलड़कियाँ समझती हैं बहुएँ ऑब्ज़र्व करती है ,उनमें वह लगाव क्यों नहीं होता !
आपकी लिखी रचना शनिवार 22 दिसंबर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteक्षमा याचना...आपकी लिखी रचना शनिवार 13 दिसंबर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी और भावपूर्ण गीत...बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-12-2014) को "धर्म के रक्षको! मानवता के रक्षक बनो" (चर्चा-1826) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मन को छूती मर्मस्पर्शी गीत
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया है रचना शशि जी ,दिल को छू गई ....
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना।
ReplyDeletemarmsparshi rachna...
ReplyDeleteमन को छूते हुए शब्द ... मर्म्स्पर्शीय ...
ReplyDeleteदिल तक को छूती हुई सुन्दर शब्द
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteआप सभी सुधिजनों का तहे दिल से आभार
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना।
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