आ. पुष्पा मेहरा जी के हाइकु संग्रह सागर मन जैसा नाम से ही प्रतीत होता है, भावों का सागर जैसे उनके मन में हिलोरे लेता है। पुष्पा जी के हाइकु भाव की लोकरंजन भूमि पर जन्मे हुए संवेदना के अप्रतिम सितारें है। हाइकु में प्रकृति का सौंदर्य उसकी पराकाष्ठा को कवयित्री ने सफलतापूर्वक सम्प्रेषित किया है. इंद्रधनुषी रंग सागर मन के एक एक कण में अपनी आभा बिखरते नजर आतें है.
भोर का संगीत हवाओं में घुलकर पात पात मुखर वाणी को सफलतापूर्वक सम्प्रेषित करता है प्रकृति के अप्रतिम सौन्दर्य को पुष्पा जी ने बहुत शिद्दत से महसूस किया है. सकारात्मक उर्जा का सन्देश उनके हाइकु में समाहित है . कल्पना की उड़ान किसी उम्र की मोहताज नहीं होती है. उनके द्वारा रचित सौन्दर्य की कुछ बानगी देखें .
सोन किरणें / हमें जगाने आईं / ले सात रंग
नभ मोहल्ला / नक्षत्र दें पहरा / सोयी है रात
बसन्त में अवनि का सौन्दर्य पूरे उन्माद पर रहता है. चहुँ ओर छैल छविली सी प्रकृति के मनमोहक रंग सुन्दर अल्पना रचाते हैं. डाल –डाल, पात –पात फूलों का सौन्दर्य, हवा की अठखेलियाँ, हवा का उद्दंड होना, व सुरभि का बिखरना मन को मोहित करता है. बसन्त के रंग धरा पर अपने पूरे सौन्दर्य को निहारते से प्रतीत होते हैं. फागुन में सौन्दर्य की लालिमा, लाल पीले रंग में खिले पलाश के गुच्छे, लदबद डाल दूर से आग जलने सा भ्रम पैदा करते हैं वहीँ दृष्टी को शीतलता भी प्रदान करतें हैं. यहाँ कवयित्री ने बसंत की तुलना नार से भी की है, नारी और सौन्दर्य एक दूसरे के पूरक है उसी प्रकार पृकृति बसंत में अपने सुन्दर रंगों से धरती का श्रृंगार करती है . पुष्पा जी ने पृकृति के इस सौन्दर्य को बेहद सूक्ष्मता से आत्मसाध किया है जिसकी साधना के फलस्वरूप हाइकु में ये सारे रंग एकाकार होते नजर आते है. कुछ हाइकु की बानगी को देखिये
फुलों ने ओढ़ी / चुनरी बंधेज की / हवा मचली
प्रातः शर्मीली / नभ पट खोल के / मंद मुस्काई
हवा चपल/अंचल खींच उड़े / विस्मित नभ
फूलो का सत्र / करे प्रतियोगिता / हरेक क्यारी
प्रेम की पाती / ले बाँट रही हवा / मुग्ध हैं शाखें
झरे महुआ / धरा है पीत रंग / भरे सुगंध
धूम मचाती / रंग उड़ाती आई / नार छबीली
सरसराती/ हवा चांटे मारती / हाथ न आती .
रूप सुहाग / भर लायी पृकृति / पुलके गात
रूप सुहाग / भर लायी पृकृति / पुलके गात
फागुन आया / पलाश वन फूला / लगी है आग
यही एक हाइकु पर मेरी नजर ठहर सी गयी है.फूलो की सुगंध सिर्फ पछियों व मानव को मोहित करने में समर्थ नहीं है अपितु फूलों के हमजोली काँटों पर भी उनका प्रभाव क्या होता है, यह पुष्पा जी की नजर से देखियें. कांटें सिर्फ चुभन के लिए नहीं होतें है उनका भी खास महत्व होता है . यह पुष्पा जी की नजर से देखे –
पी पी सुगंध / काँटे भी मदमस्त / शाखों पर सोये
प्रकृति के सानिध्य में रचा गया यह हाइकु कुछ सामाजिक विसंगतियों की परतें भी उधेड़ता है. पुनः – पुनः इस हाइकु को पढ़कर मेरी दृष्टी हट ही नहीं रही है . पृकृति का अप्रतिम सौन्दर्य मानव जीवन से भी जुड़ा है. बिगड़े हुए लोग रंग रलियाँ मनातें है व्यसन करतें हैं और मदमस्त होकर यूँ ही बेसुध पड़े रहतें है . इस हाइकु हेतु कवयित्री को विशेष वधाई देना चाहती हूँ . प्रकृति मानव विसंगतियों को मौन शब्दों में व्यक्त करती है यह देखने वालों की नजर ही है जो उसे आत्मसाध कर सकती है ..
पी पी सुगंध / काँटे भी मदमस्त / शाखों पर सोये-- अप्रतिम
बसन्त में जहाँ पृकृति के रंग लुभाते हैं वहीँ ग्रीष्म का मौसम ताप उडेलता है .ऐसे मौसम में भी जीवन के सकारात्मक रंग का सन्देश हमें प्रकृति द्वारा मिलता है, कवयित्री ने जहाँ बसंत के सलोने रूप का व्याख्यान किया है, वहीँ ग्रीष्म की तपन, पंछियों की पीड़ा को भी महसूस किया है तेज सोटें मारती ग्रीष्म से जहाँ प्रकृति बेरंग होती है वहीँ जनजीवन बहाल होता है . ग्रीष्म के ऐसे मौसम में भी निबोरी व आम जैसे फल कुछ ठंडक प्रदान करतें हैं. वहीं केक्टस तेज आंधी तूफ़ान, तेज धूप में भी खड़ा मुस्कुराता है. जीवन को सकारात्मकता का सन्देश देता है .कवयित्री की कलम ग्रीष्म काल में भी प्रकृति से छाया समेटती नजर आती है, सकारात्मक जीवन का सन्देश हर मौसम में प्रकृति द्वारा मिलता है , पुष्पा जी ने भाव को बेहद सशक्त शब्दों द्वारा ख़ूबसूरती से संप्रेषित किया है. ग्रीष्म की आग है तो रसीला स्वाद भी है , जलती पगडण्डी है तो शीतल छाया और रसभरीऔषधि निम्बोरी है. ग्रीष्म का हुबहू वर्णन हमें तपन का अहसास करता है. यह रंग भी पुष्पा जी के हाइकु में करीब से नजर आता है .तप्त दिवस में शीतलता प्रदान करतें इन सुन्दर हाइकु को देखियें –
तप्त दिवस/ जहर रही निबौरी / औषधि – भरी
धधके धू –धू / जेठ दोपहरी / बेहाल तन
दिन गरम / नदी , नाद , नाहर /भूले नर्तन
तपते दिन / हाल हुआ बेहाल / रसीले आम
तीखी मिर्च / किरण सुनहरी / ताप धूप का
आंधी रेतीली / ताज ले कांटो –भरा / खड़ा कैक्टस
ग्रीष्म की तपन के बाद वर्षा का अपना अलग ही आनंद व महत्व होता है. ग्रीष्म तन की तपन बढाता है वहीँ वर्षा मदमस्त करती है, बिजली का कड़कना, बूंदों का मचलना, बाढ़ का प्रकोप , सूखे की मार, बच्चों की मस्ती , मेढक की टर्र टर्र, कभी सूखे की मार तो कभी नभ का फटना, सभी रंग कवयित्री के हाइकु में नजर आतें है , साथ ही विज्ञान का पहलू भी हाइकु ने नजर आता है. किस तरह वर्षा की बूंदें वाष्प बनकर नभ में जाती है और वही बाद में सिन्धु में मिलती है, ज्ञानवर्धक इस हाइकु का समावेश भी है. इस हाइकु के लिए कवयित्री की जितनी सराहना की जाये कम है, बच्चों को कम शब्दों में अर्थ समझाता यह हाइकु विशेष बन पड़ा है.
मेढकी बैठी / करती टर्र टर्र / पोखर तट
फेरता पानी / सरस उम्मीदों पे / विनाश- बीज
वर्षा –बहार /सपनों की हात में /खोया संसार
बूंदें वर्षा की / उडाती सोंधी गंध / महकी धरा
आकाश ऊँचा / सूखा ही रह गया / नहा ली धरा
बूंदें थी नन्ही /मिली तो सिन्धु बनी / भाप हो उडी
करे ठिठोली /शरारती बिजली / भेदे गगन
भीगी धरती /लाल बीरबहूटी / मूंगे सी बिछी
वर्षा के बाद शरद का मौसम गुलाबी ठंडक, दुधिया रात, मौसमी श्रृंगार एक शक्ति का आभास करातें है. आसमान पर सौन्दर्य पूरे उन्माद पर होता है . शरद पूर्णिमा का चाँद मन में शीतलता का आभास करातें है . ठंडक भरे इन हाइकु को देखिये .
शरद चन्द्रिका / मधु घट ढालती / समोखे धरा
दूधों नहाई / लिपट गयी रात / माँ वसुधा से
आस करूँ / चाँदनी मन बसे / हारे तमिस्त्रा
शरद के बाद शीत का आगमन होता है, पृकृति के रंग जैसे कोहरे की चादर में सिमटने लगते हैं, सूर्य की लालिमा कम होती है. हर तरफ धुंध की सफ़ेद चादर जीवन को अस्त व्यस्त करती है वहीँ पृकृति का अध्बुध सौन्दर्य भी नजर आता है . ओस की बूंदे , गीली घास, ठन्डे अलाव , शीत का ज्यों की त्यों वर्णन सभी हाइकु में नजर आता है . समय, कर्म की गति कम हो जाती है, शिराएँ जैसे जमने लगती है , शीत काल के कुछ हाइकु की बानगी को देखिये .
बेसुध नदी / शिराएँ जम रही / गति ही भूली
शीत धुनकी /फैलाती धरा पर / पाले की रुई
ठिठुरी धूप / चौखंडे पे उतरी / ओस के मोती
शीत नगरी / बिन अंगीठी आग / धुआं फैलाती
ओस की बबूंदे / बिजली के तारों पे / पोत सी सजी
सूरज राजा / अलाव जला बैठे / धुंध से हारे
भीगी है घास /अलाव भी ठन्डे पड़े / सूनी चौपाल
दे दी शिकस्त / कोहरे ने सूर्य को /लौटा वो गॉंव
शीतकाल के बाद पतझड़ का मौसम आता है, पतझड़ जहाँ पत्ते झर जातें है, वृक्ष अपने तन से पुराने आवरण त्याग देता है, धरा रंग विहीन होने लगती है, मौसम में कुछ उदासी सी छाने लगती है लेकिन यह नए आगमन का सन्देश भी है. सकारात्मक जीवन की नयी दिशा है एक विश्वास है जीवन पुनः गतिशील होगा, नयी सुबह का आगाज है.
वृक्ष उतारे / श्रृंगारजो अपना / चीत्कारे हवा
पदाघातों से / कुचलते जा रहे / निश्चेष्ट पत्ते
बीती बहारें / लौट फिर आयेंगी / विश्वास घना
रिश्तों के वन / सूखते ही जा रहे / उडती धूल
प्रकृति के अतिरिक्त जीवन के हर रंग पर कवयित्री ने बेहद संजीदगी से अपनी कलम द्वारा बेहद सुन्दर मोती उकेरे हैं , भाई बहन रिश्ते नाते , बेटियां, अम्मा , यादेँ आँसू , कांटें , दर्द, बाल श्रम जैसे विषयों पर बारीकी से महसूस कर सफलता पूर्वक संप्रेषित किया है. माँ की ममता का कोई मोल नहीं होता है , माँ जीवन में संबल प्रदान करती है, जीवन के हर रंग पुष्पा जी के हाइकु में उकेरे गए है.
सजी देहरी / गूँज उठा है घर / आई है बेटी
घूँघरू बाँध / बेटी जब नाचती / ममता गाती
अम्मा पकाती / रात हांडी में खीर / झरे अमृत
काँटा जो चुभा / माँ सपनो में आई / निकाल गयी
सागर पिता / बहती सहज ही / जल उर्मी माँ ----- विशेष – यह हाइकु बेहद संजीदा है, कोटि कोटि बधाई देना चाहती हूँ .गागर में सागर समान यह हाइकु माँ पिता के सम्पूर्ण सत्य को बेहद संजीदगी और खूबसूरती से उकेरता है
रिश्तें नातें , अहंकार यादेँ जीवन का अहम् हिस्सा है, दर्द आँसू सभी संवेदनाओं पर कवयित्री की कलम से बहद सुन्दर हाइकु संप्रेषित हुए है , एक एक हाइकु एक एक रत्न जडित मोती है, जिन्हें एक संवेदनशील रचनाकार ही रचित कर सकता है .
रिश्ते – चन्दन / करे मन शीतल / फिर भी न मिले
दंभ कटार / काट गयी रिश्तों की / सारी कड़ियाँ
याद चिरैया / ढूंढ ढूंढ लाती है / कोई सौगातें
वर्षा की बूँदें / मन चषक भरे / यादों के मोती
याद गुलाब / पंखुरी बन खिला / महका मन
मन महका / छिडक गयी इत्र / यादेँ ये गंधी
सोने न देती / सपनो की दुनियाँ / रातों जगाती
आँखों ने सोखी / सारे जख्मो की लाली / न थी शराबी --- वाह बेहद सुन्दर हाइकु, दर्द जब आँखों में उतर जाता है तो बिन पिए उसका असर शराब की तरह आँखों में उतरता है, कई बार पेट की खातिर ऑंखें जल बहाने हेतु मजबूर भी होती है, जो दर्द से इतर मज़बूरी का रास्ता इख़्तियार कर लेतें है
इस हाइकु को देखे ---
पेशेवर थी /दहाड़ मार रोई / रुदाली आँखें
पर्यावरण पर आज सम्पूर्ण जगत चिंतित है, आधुनिक जीवाब शैली ने पृकृति पर संहार किया है, प्रदूषण , घटता जलस्तर, वनों का कटना, पहाड़ों का दरकना, नदी का सिसकना, प्रकृति अपनी चीत्कार मौन रहकर जाहिर करती है. भूकंप , ज्वालामुखी का फटना, मौसमी परिवर्तन जलस्तर का घटना सभी प्रज्रुती के सन्देश है जिन्हें मानव को समझना होगा. कवयित्री ने पर्यावरण पर अपनी चिंता भी जाहिर की है . यह उनके हाइकु में झलकती है.
रोष दिखाए / ये विद्रोही प्रकृति / करेविस्फोट
वृक्ष विहीन / प्यासे खड़े हैं वन / प्यासी धरणी
मौन हो वृक्ष / काँपे तो बहुत ही / करते रहे
फूल लापता / केक्टस चहुँ ओर / गढ़ रेत का
तोड़ता बांध / प्रताप नदियों का / रोके न रुका
काँटे भुला के / हरे पत्तों से झाँके / रक्त गुलाब
सूरज बांटे / उर्जा हर डगर / मांगे न मोल
दिशा ले चलो / दुःख –दंश भुला दो / सिख दे माटी
सूखे तो जले / धूल बनके उड़े / माटी ये काया .
पुष्पा जी बेहद संवेदनशील रचनाकारा है, प्रकृति हो या जीवन के हर रंग, उनकी कलम बेहद सं जीदगी से चलती है,वह बेहद उम्दा हाइकु कारा है. जिस तरह उनके संग्रह सागर – मन में हाइकु का समावेश है वह उनकी संजीदगी को बयां करता है, हाइकु जितने बार पढ़े जायें हर बार अपना नया रंग बिखेरते हैं, सभी हाइकु को हम यहाँ इंगित नहीं कर सकतें है, एक हाइकु न जाने कितने अर्थ का समावेश होता है हाइकु आज नए मुकाम पर आ पंहुचा है, पुष्पा जी को नमन करना चाहती हूँ उम्र के इस पड़ाव पर उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से एक नया मुकाम हासिल किया है और हाइकु जगत को बेहद उम्दा संग्रह प्रदान किया है .अल्प समय में बेहद उम्दा संग्रह निसंकोच यह सीप में बंद अनमोल मोती के समान है. जिसकी आभा सदैव हाइकु जगत में अपनी आभा बिखेरती रहेगी। आ. पुष्पा जी कोटि कोटि बधाई और शुभकामनाएँ
शशि पुरवार
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " जनहित मे प्रेमपत्र का पुनर्चक्रण - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteवाह ... कितने गजब के हाइकू हैं ... सटीक ...
ReplyDelete'जनहित में प्रेमपत्र का पुनर्चक्रण- ब्लॉग बुलेटिन' में 'सागर मन' की समीक्षा को स्थान देने हेतु आपका बहुत आभार ,साथ ही शशि जी का भी आभार की उन्होंने अपने ब्लॉग में समीक्षा का प्रकाशन किया |
ReplyDeleteपुष्पा मेहरा
सच में अनमोल मोती है ।
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