Tuesday, August 18, 2015

मन प्रांगण बेला महका। .

मन, प्रांगण बेला महका
याद तुम्हारी आई 
इस दिल के कोने में बैठी 
प्रीति, हँसी-मुस्काई।

नोक झोंक में बीती रतियाँ 
गुनती रहीं तराना 
दो हंसो का जोड़ा बैठा 
मौसम लगे सुहाना

रात चाँदनी, उतरी जल में 
कुछ सिमटी, सकुचाई।

शीतल मंद, पवन हौले से 
बेला को सहलाए 
पाँख पाँख, कस्तूरी महकी  
साँसों में घुल जाए। 

कली कली सपनों की बेकल 
भरने लगी लुनाई 

निस  दिन झरते, पुष्प धरा पर 
चुन कर उसे उठाऊँ 
रिश्तों के यह अनगढ़ मोती 
श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ

रचे अल्पना, आँख शबनमी 
दुलहिन सी शरमाई।    
     --- शशि पुरवार 

11 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सबकी पहचान है , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 21 अगस्त 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  3. गीत रम्य है - बहुत अच्छा लगा। बधाई शशि जी।

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    Replies
    1. dada pranam abhar aapki tippni se lekhan sarthak ho gaya

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  4. निस दिन झरते, पुष्प धरा पर
    चुन कर उसे उठाऊँ ,
    रिश्तों के यह अनगढ़ मोती
    श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ ।

    भावों और शब्दों का अनूठा समन्वय । संगीतबद्ध करने लायक गीत ।

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  5. सुन्दर .. प्रेम के रस में डूब के लिखा नव गीत ...
    अभाव जैसे शब्द खोल रहे हैं ...

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    Replies
    1. hardik dhnyavad naswa ji
      aap sabhi mitron ka bhi hardik abhar

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  6. बहुत ही सुन्दर रचना .....

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