आज सरकारी आवास पर बड़े साहब रंग जमाए बैठे थे. वैसे तो साहब दिल के बड़े गरम मिजाज है, लेकिन आज बर्फ़ीला पानी पीकर, सर को ठंडा करने में लगे हुए है। सौंदर्य बनाम क्रोध की जंग छिड़ी हुई है। आज महिला और पुरुष समान रूप से जागरूक है. यही एक बात है जिसपर मतभेद नहीं होते है। कोई आरक्षण नहीं है ? कोई द्वन्द नहीं है, हर कोई अपनी काया को सोने का पानी चढाने में लगा हुआ है। ऐसे में साहब कैसे पीछे रह सकते हैं. हर कोई सपने में खुद को ऐश्वर्या राय और अमिताभ बच्चन के रूप में देखता है। साहब इस दौड़ में प्रथम आने के लिए बेक़रार है। बालों में बनावटी यौवन टपक रहा हैं,
किन्तु बेचारे पेट का क्या करे ? ऐसा लगता है जैसे शर्ट फाड़कर बाहर निकलने को तैयार बैठा हो. कुश्ती जोरदार है। चेहरेकी लकीरें घिस घिस कर चमकाने के प्रयास में चमड़ी दर्द से तिलमिला कर अपने रंग दिखा गयी है।
भाई इस उम्र में अगर अक्ल न झलके तो क्या करे। अक्ल ने भी भेदभाव समाप्त करके घुटने में अपना साम्राज्य स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया है। बेचारा घुटना दर्द की अपनी दास्तां का राग गाता रहता है।
अब क्या करे साहब का गुस्सा तो बस बिन बुलाया मेहमान है, जब मर्जी नाक से उड़ कर मधुमक्खी की तरह अपना डंक मारकर लहूलुहान करता है। शब्द भी इस डंक की भाँति अंत तक टीसते रहते है। वैसे गुस्से में शब्द कौन से कहाँ गिरे, ज्ञात ही नहीं होता है, बेचारे शब्दों को, बाद में दिमाग की बत्ती जलाकर ढूँढ़ना पड़ता है। अब शब्दों की जाँच नहीं हो सकती कि ज्ञात हो कौन से पितृ शब्द से जन्मा है। भाषा क्रोध में अपना रंग रूप बदल लेती है। क्रोध में कौन सा शब्द तीर निकलेगा, योद्धा को भी पता नहीं होता। आज के अखबार में सौंदर्य और क्रोध के तालमेल के बारे में सुन्दर लेख उपाय के संग दुखी हारी लोगों की प्रेरणा बना हुआ था। ख़बरें पढ़ते पढ़ते शर्मा जी ने साहब को सारे टिप्स चाशनी में लपेटकर सुना दिए.
साहब -- जवां रहने का असली राज है गुस्से को वनवास भेजना, गुस्सा आदमी को खूँखार बना देता है। आदमी को ज्ञात नहीं होता वह वह कब पशु बन गया है।
गुस्से में उभरी हुई आकृति को यदि बेचारा खुद आईने में देख ले, तो डर जाये। टेढ़ी भौहें, अग्नि उगलती से आँखे, शरीर का कम्पन के साथ तांडव नृत्य, ऐसी भावभंगिमा कि जैसे ४२० का करंट पूरे शरीर में फैला देती हैं. सौम्य मधुरता मुखमण्डल को पहचानने से भी इंकार कर देती है।
क्रोध के कम्पन से एक बात समझ आ गयी कोई दूसरा क्रोध करे या न करें हम उसके तेवर में आने से पहले ही काँपने लगते है। अगले को काहे मौका दें कि वह हम पर अपना कोई तीर छोड़े।
क्रोध की महिमा जानकार साहब क्रोध को ऐसे गायब करने का प्रयास कर रहे हैं जैसे गधे से सिर से सींग. सारे सहकर्मी पूरे शबाब पर थे। एक दो पिछलग्गू भी लगा लिए और साहब की चम्पी कर डाली।भगवान् जाने ऐसा मौका मिले न मिले। अन्य सहकर्मी -- साहब योग करो, . व्यायाम करो.........
साहब ने बीच में ही कैंची चला दी और थोड़ा शब्दों को गम्भीरता से चबाते हुए बोले -- क्या व्यायाम करें।बस आड़े टेढ़े मुँह बनाओ, शरीर को रबर की तरह जैसा चाहो वैसा घुमा कर आकार बनो लो। लो भाई क्या उससे हरियाली आ जाएगी।
फिर खिसियाते हुए जबरन हे हे हे करने लगे, अब क्रोध तो नहीं कर सकते तो उसे दबाने के लिए शब्दों को चबा लिया, जबरजस्ती होठों - गालो को तकलीफ देकर हास्य मुद्रा बनाने का असफल प्रयास किया। बहते पानी को कब तक बाँधा जा सकता है ऐसा ही कुछ साहब के साथ हो रहा था। आँखों में बिजली ऐसी कड़की कि आसपास का वातावरण और पत्ते पल में साफ़ हो गए।
क्रोध के अलग अलग अंदाज होते है , मौन धर्मी क्रोध जिसमे मुँह कुप्पे की फूला रहता है। कभी आँखे अपनी कारगुजारी दिखाने हेतु तैयार रहती है , कभी कभी मुँह फूलने की जगह पिचक जाता है तो आँखों से दरिया अपने आप बहने लगता है. कभी कभी क्रोध की आंधी ह्रदय की सुख धरनी को दुःख धरनी बना देती है। चहलकदमी की सम्भावनाएं बढ़ जाती है, सुख चैन लूटकर पाँव गतिशील हो जाते हैं व कमरे या सड़क की लम्बाई ऐसे नापते है कि मीटर भी क्या नापेगा। शरीर की चर्बी अपने आप गलनशील हो जाती है , तो क्रोध एक रामवाण इलाज है, मोटापे को दूर करने का? यह भी किसी योग से कम नहीं है ।
एक ऐसी दवा जो बहुत असरकारक होती है , मितभाषी खूब बोलने लगते है और अतिभशी मौन हो जाते है या अति विध्वंशकारी हो जाते है। कोई गला फाड़कर चिल्लाता है तो कोई चिल्लाते हुए गंगा जमुना बनाता है। कोई शब्दों को पीता है तो उसे चबाकर नयी भाषा का जन्म देता है।
आज साहब को क्रोध का महत्व समझ आया, सोचने लगे --- वैसे गुस्से से बड़ा कोई बम नहीं है। गुस्सा करके हम तर्कों से बच सकते है. विचारों को नजर अंदाज कर सकते है। कुछ न आये तो क्रोध की आंधी सारे अंग को हिलाकर गतिशील बना देती है। सौंदर्य योग हेतु यह योग कोई बुरा नहीं है अभी इसका महत्व लोगों को समझ नहीं आया जल्दी शोध होने और नया क्रोध पत्र बनेगा।
सोच रहा हूँ मैं भी क्रोध बाबा के नाम से अपना पंडाल शुरू कर देता हूँ। तब अपने दिन भी चल निकालेंगे, फिलहाल १०० करोड़ की माया को माटी में मिलने से बचाने के लिए संजीवनी ढूंढनी होगी , हास्य संजीवनी। अब क्रोध का बखान आधा ही हुआ है कहीं आपको तो गुस्सा नहीं आ रहा है ?
-- शशि पुरवार
बहुत ही खूबसूरत व्यंग्य |बधाई
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 06/09/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-09-2016) को "आदिदेव कर दीजिए बेड़ा भव से पार"; चर्चा मंच 2457 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को नमन।
शिक्षक दिवस और गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत सुंदर व्यंग्य , वैसे ये यथार्थ भी है कि व्यक्ति की सोच उसके चेहरे पर परिलक्षित होती है ।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "भूली-बिसरी सी गलियाँ - 10 “ , मे आप के ब्लॉग को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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