भीड़ भरे शहरों में जीना
मुश्किल लगता है
धूल धुआँ भी खुली हवा में
शामिल लगता है
कोलाहल की इस बस्ती में
झूठी सब कसमें
अस्त व्यस्त जीवन जीने की
निभा रहे रसमें
सपनों की अंधी नगरी में
सपनों की अंधी नगरी में
धूमिल लगता है
सुबह दोपहर, साँझ, ढले तक
कलरव गीत नहीं
कहने को सब संगी साथी
पर मनमीत नहीं
एकाकीपन ही जीवन में
हासिल लगता है
हर चौखट से बाहर आती
राम कहानी है
कातर नज़रों से बहता, क्या
गंदा पानी है
मदिरा में डूबे रहना ही
महफ़िल लगता है
शशि पुरवार
दिनांक 28/03/2017 को...
ReplyDeleteआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंदhttps://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-03-2017) को
ReplyDelete"राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद" (चर्चा अंक-2611)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
विक्रमी सम्वत् 2074 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-03-2017) को
ReplyDelete"राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद" (चर्चा अंक-2611)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
विक्रमी सम्वत् 2074 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत ख़ूब "शशि जी" चंद पंक्तियाँ मेरी भी गौर फरमाईयेगा
ReplyDeleteआज़ फिर वही,बोतल पे सिर रखकर रोना
आज़ फिर वही,अपने होशों-हवाश खोना,
आज़ फिर कहीं,गलियों के नालों पर बेसुध पड़ा होना
आज़ फिर वही,किसी अज़नबी का सहारा लेना,
आज़ फिर वही,अंधेरे कमरे में पड़े-पड़े उनकी याद में रोना
आज़ फिर वही,अकेले रोते-रोते सोना
ज़ारी है,आज़ भी
कल भी
ज़ारी रहेगा अंतिम साँसों तक। बस तेरी याद में......
धन्यवाद।
बहुत ख़ूब ... मदिरा में डूबे रहने से भी कहाँ काम चल पाता है ... सुंदर रचना ...
ReplyDeleteअब तो हमे ऐसे हालातों में जीने की आदत सी हो गई हैं...........
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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