shashi purwar writer

Monday, July 31, 2017

नेह की संयोजना

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हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
घेर लेती हैं हजारों 
अनछुई संवेदनाएँ। 

ज्वार सा हिय में उठा, जब 
शब्द उथले हो गए थे 
रेत पर उभरे हुए शब्द 
संग लहर के खो गए थे 

मैं किनारे पर खड़ी थी 
छेड़ती नटखट हवाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चलकर मिल न पाएँ 

स्वप्न भी सोने न देते 
प्रश्न भी हैं कुछ अनुत्तर  
आँख में तिरता रहा जल 
पर नदी सी प्यास भीतर।

रास्ते कंटक बहुत हैं 
बाँचते पत्थर कथाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 

हिमशिखर, सागर, नदी सी 
नेह की संयोजना है 
देह गंधो से परे, मन, 
आत्मा को खोजना है.

बंद पलकों से झरी, उस   
हर गजल को गुनगुनाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
    -- शशि पुरवार 

Thursday, July 27, 2017

गुलाबी खत

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दिल, अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी

संग सखियों के पुराने   
दिन सुहाने याद करना। 
और छत पर बैठकर  
चाँद से संवाद करना। 

डाकिया आता नहीं अब, 
ना महकतें खत जबाबी।
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी। 

सुर्ख मुखड़े पर ख़ुशी की   
चाँदनी जब झिलमिलाई।
गंध गीली याद की, हिय  
प्राण, अंतस में समाई। 

सुबह, दुपहर, साँझ, साँसे 
गीत गाती हैं खिताबी। 
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी। 

मौसमी नव रंग सारे  
प्रकृति में कुछ यूँ समाये  
नेह के आँचल तले, हर 
एक दीपक मुस्कुराये। 

छाँव बरगद की नहीं, माँ 
बात लगती हैं किताबी। 
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी।
   -- शशि पुरवार 

Friday, July 14, 2017

रात सुरमई




 चाँदी की थाली सजी,  तारों की सौगात
 अंबर से मिलने लगी, प्रीत सहेली रात। 
 २  
रात सुरमई मनचली, तारों लिखी किताब
चंदा को तकते रहे, नैना भये गुलाब।
 ३ 
आँचल में गोटे जड़े, तारों की बारात

अंबर से चाँदी झरी, रात बनी परिजात। 

  ४ 
रात शबनमी झर रही, शीतल चली बयार 
चंदा उतरा झील में, मन कोमल कचनार। 

 ५ 
सरसों फूली खेत में, हल्दी भरा प्रसंग
पुरवाई से संग उडी, दिल की प्रीत पतंग 
 ६  
हल्दी के थापे लगे, मन की उडी पतंग। 
सखी सहेली कर रहीं, कनबतियाँ रसवंत
७  
कल्पवृक्ष वन वाटिका, महका हरसिंगार
वन में बिखरी चाँदनी, रात करें श्रृंगार।
 ८  
तिनका तिनका जोड़कर, बना अधूरा नीड़

फूल खिले सुन्दर लगे, काँटों की है भीड़।  

 ९  
 गुल्ली-डंडा,चंग पौ, लट्टू और गुलेल
लँगड़ी,कंचे,कौड़ियाँ, दौड़ी मन की रेल

१०
भक्ति भाव में खो गए, मन में हरि का नाम
 प्रेम रंग से भर गया वृंदावन सुख धाम 
११
धूं धूं कर लकड़ी जले, तन में जलती पीर 
रूप रंग फिर मिट गया, राजा हुआ फ़क़ीर। 
१२  
 अपनों ने ही खींच दी, आँगन पड़ी लकीर 
  आँखों से झरता रहा, दुख नदिया का नीर  .
 १३  
धरती भी तपने लगी, अम्बर बरसी आग 
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़ 
१४  
चटक नशीले मन भरे, गुलमोहर में  रंग 
घने वृक्ष की छाँव में, मनवा मस्त मलंग।
 १५ 
सूरज भी चटका रहा, गुलमोहर में आग  
भवरों को होने लगा, फूलों से अनुराग 
 शशि पुरवार 

Monday, July 10, 2017

सहज युगबोध


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भीड़ में, गुम हो रही हैं 
भागती परछाइयाँ.
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

वक़्त की इन तकलियों पर 
धूप सी है जिंदगी 
इक ख़ुशी की चाह में, हर 
रात मावस की बदी. 

रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ 
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

प्यार का हर रंग बदला 
पत दरकने भी लगा 
यह सहज युगबोध है या 
फिर उजाले ने ठगा। 

स्वार्थ की आँधी चली, मन 
पर जमी हैं काइयाँ  
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

रास्ते अब एक हैं, पर  
फासले भी दरमियाँ 
दर्प की दीवार अंधी  
तोड़ दो खामोशियाँ 

मौन भी रचने लगे फिर 
प्रेम की रुबाइयाँ।
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ। 
 शशि पुरवार 

Tuesday, July 4, 2017

व्यर्थ के संवाद

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भीड़ में, गुम हो गई हैं
भागती परछाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं 
खामोश सी तनहाइयाँ। 

वक़्त की इन तकलियों पर
धूप सी है जिंदगी
इक ख़ुशी की चाह में, हर
रात मावस की बदी.

रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ

प्यार का हर रंग बदला
पत दरकने भी लगा
यह सहज युगबोध है या
फिर उजाले ने ठगा।
स्वार्थ की आँधी चली, मन
पर जमी हैं काइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ 

रास्ते अब एक हैं, पर
फासले भी दरमियाँ
दर्प की दीवार अंधी
तोड़ दो खामोशियाँ 




 मौन भी रचने लगे फिर
प्रेम की रुबाइयाँ।
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ।
 शशि पुरवार

सामाजिक मीम पर व्यंग्य कहानी अदद करारी खुश्बू

 अदद करारी खुशबू  शर्मा जी अपने काम में मस्त   सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे ।  दुकान में बनते गरमा गरम...

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