भीड़ में, गुम हो गई हैं
भागती परछाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ।
भागती परछाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ।
वक़्त की इन तकलियों पर
धूप सी है जिंदगी
इक ख़ुशी की चाह में, हर
रात मावस की बदी.
रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ
प्यार का हर रंग बदला
पत दरकने भी लगा
यह सहज युगबोध है या
फिर उजाले ने ठगा।
धूप सी है जिंदगी
इक ख़ुशी की चाह में, हर
रात मावस की बदी.
रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ
प्यार का हर रंग बदला
पत दरकने भी लगा
यह सहज युगबोध है या
फिर उजाले ने ठगा।
स्वार्थ की आँधी चली, मन
पर जमी हैं काइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ
पर जमी हैं काइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ
रास्ते अब एक हैं, पर
फासले भी दरमियाँ
दर्प की दीवार अंधी
तोड़ दो खामोशियाँ
फासले भी दरमियाँ
दर्प की दीवार अंधी
तोड़ दो खामोशियाँ
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (05-07-2017) को "गोल-गोल है दुनिया सारी" (चर्चा अंक-2656) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत शानदार रचना.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
प्रेम की रची हुई सुंदर रुबाई के लिए बधाई ।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना जीवंत करती हैं हृदय को आभार। "एकलव्य"
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