Thursday, April 16, 2020

'जोगिनी गंध' -



'जोगिनी गंध' - त्रिपदिक हाइकु प्रवहित निर्बंध  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
 









  हिंदी की उदीयमान रचनाकार शशि पुरवार के  हाइकु संकलन ''जोगिनी गंध'' को पढ़ने से पूर्व यह जान लें कि शशि जी जापानी ''उच्चार'' को हिंदी में ''वर्ण'' में बदल लेनेवाली पद्धति से हाइकु रचती हैं। शशि जी सुशिक्षित, संभ्रांत, शालीन व्यक्तित्व की धनी होने के साथ-साथ शब्द संपदा और अभिव्यक्ति सामर्थ्य की धनी हैं। वे जीवन और सृष्टि को खुली आँखों से देखते हुए चैतन्य मस्तिष्क से दृश्य का विवेचन कर हिंदी के त्रिपदिक वर्णिक छंद हाइकु की रचना ५-७-५ वर्ण संख्या को आधार बनाकर करती हैं। स्वलिखित भूमिका में शशि जी ने हाइकु की उद्भव और रचना प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कुछ हाइकुकारों के हाइकुओं का उल्लेख किया है। संभवत: अनावश्यक विस्तार भय से उन्होंने लगभग ३ दशक पूर्व से हिंदी में मेरे द्वारा रचित हाइकु मुक्तकों, ग़ज़लों, गीतों, समीक्षाओं आदि का उल्लेख नहीं किया तथापि स्वलिखित हाइकु गीत,  हाइकु चोका गीत प्रस्तुत कर इस परंपरा को आगे बढ़ाया है। 

'जोगिनी गंध' में शशि जी के हाइकु जोगनी गंध (प्रेम, मन, पीर, यादें/दीवानापन), प्रकृति (शीत, ग्रीष्म व फूल पत्ती-लताएं, पलाश, हरसिंगार, चंपा, सावन, रात-झील में चंदा, पहाड़, धूप सोनल, ठूँठ, जल, गंगा, पंछी, हाइगा), जीवन के रंग (जीवन यात्रा, तीखी हवाएँ, बंसती रंग, दही हांडी, गाँव, नंन्हे कदम-अल्डहपन, लिख्खे तूफान, कलम संगिनी) तथा विविधा (हिंद की रोली, अनेकता में एकता,  ताज,  दीपावली, राखी, नूतन वर्ष, हाइकु गीत,  हाइकु चोका गीत, नेह की पाती, देव नहीं मैं, गौधुली बेला में, यह जीवन, रिश्तों में खास, तांका, सदोका, डाॅ. भगवती शरण अग्रवाल के मराठी में, मेरे द्वारा अनुवादित कुछ हाइकु) शीर्षकों-उपशीर्षकों में वर्गीकृत हैं। शशि जी ने प्रेम को अपने हाइकू में  अभिनव दृष्टि से अंकित किया है - सूखें हैं फूल / किताबों में मिलती / प्रेम की धूल।

प्रेम की सुकोमल प्रतीति की अनुभूति और अभिव्यक्ति करने में शशि जी के नारी मन ने अनेक मनोरम शब्द-चित्र उकेरे हैं। एक झलक देखें - 

छेड़ो न तार / रचती सरगम / हिय-झंकार।



तन्हा पलों में / चुपके से छेडती / यादें तुम्हारी।

शशि जी  हाइकु रचना में केवल प्रकृति दृश्यों को नहीं उकेरतीं। वे कल्पना, आशा-आकांक्षा, सुख-दुःख आदि मानवीय अनुभूतियों को हाइकु का विषय बना पाती हैं-

सुख की धारा / रेत के पन्नों पर / पवन लिखे।

दुःख की धारा / अंकित पन्नों पर / जल में डूबी।

बनूँ कभी मैं / बहती जल धारा / प्यास बुझाऊँ।

हाइकु के शैल्पिक पक्ष की चर्चा करें तो शशि जी ने हिंदी छंदों की पदान्तता को हाइकू से जोड़ा है। कही पहली-दूसरी पंक्ति में तुक साम्य  है, कहीं पहली तीसरी पंक्ति में, कहीं दूसरी-तीसरी पंक्ति में, कहीं तीनों पंक्तियों में  किन्तु कहीं -कहीं तुकांत मुक्त हाइकु भी हैं- 

प्यासा है मन / साहित्य की अगन / ज्ञान पिपासा।

दिल दीवाना / छलकाते नयन / प्रेम पैमाना।

अँधेरी रात / मन की उतरन / अकेलापन।

अनुगमन / कसैला हुआ मन / आत्मचिंतन।

तेरे आने की / हवा ने दी दस्तक / धडके दिल।

शशि जी के ये हाइकु  प्रकृति और पर्यावरण से अभिन्न हैं। स्वाभाविक है कि इनमें प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण हो। 

स्नेह-बंधन / फूलों से महकते / हर सिंगार। 

हरसिंगार / महकता जीवन / मन प्रसन्न।

पत्रों पे बैठे / बारिश के मनके / जड़ा है हीरा।

ले अंगडाई / बीजों से निकलते / नव पत्रक।

काली घटाएँ / सूरज को छुपाए / आँख मिचोली।

प्रकृति के विविध रूपों का हाइकुकरण करते समय बिम्बों, प्रतीकों और मानवीकरण करते समय कृत्रिमता अथवा पुनरावृत्ति का खतरा होता है।  शशि के हाइकु इस दोष से मुक्त ही नहीं विविधता और मौलिकता से संपन्न भी हैं। 

सिंधु गरजे / विध्वंश के निशान / अस्तित्व मिटा।

नभ ने भेजी / वसुंधरा को पाती / बूँदों ने बाँची।

राग-बैरागी / सुर गाए मल्हार / छिड़ी झंकार ।

धरा-अम्बर / तारों की चूनर का / सौम्य शृंगार।

हाइकू के माध्यम से नवाशा और नवाचार को स्पर्श  करने का सफल प्रयास करती हैं शशि- 

हौसले साथ / जब बढे़ कदम / छू लो आसमां ।

हरे भरे से / रचे नया संसार / धरा का स्नेह।

संग खेलते / ऊँचे होते पादप / छू ले आंसमा।

शशि का शब्द भंडार समृद्ध है। तत्सम-तद्भव शव्दों के साथ वे आवश्यक  अंग्रेजी या अरबी शब्दों का सटीक प्रयोग करती हैं -

रूई सा फाहा / नजरो में समाया / उतरी मिस्ट।

जमता खून / हुई कठिन साँसे / फर्ज-इन्तिहाँ।

हिम-से जमे / हृदय के ज़ज़्बात / किससे कहूँ?

करूँ रास का काव्य से गहरा नाता है। कविता का उत्स मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का बहेलिया द्वारा वध करने पर क्रौंची के चीत्कार को सुनकर आदिकवि वाल्मीकि के मुख से नि:सृत श्लोक से हुआ है। शशि के हाइकु करुण रस से भी संपृक्त हैं। 

उड़ता पंछी / पिंजरे में जकड़ा / है परकटा। 

दरख्तों को / जड़ से उखडती / तूफानी हवा।

शशि परंपरा का अनुकरण ही  करतीं, आवश्यकता होने पर उसे तोड़ती भी हैं।  उन्होंने  ६-७-५  वर्ण लेकर भी हाइकु लिखा है -

शूलों-सी चुभन / दर्द भरा जीवन / मौन रुदन।

हाइकु के लघु कलेवर में मनोभावों को शब्दित कर पाना आसान नहीं होता। शशि ने इस चुनौती को स्वीकार कर मनोभाव केंद्रित हाइकु रचे हैं -

अवचेतन / लोलुपता की प्यास / ठूँठ बदन।

सूखी पत्तियाँ / बेजार होता तन / अंतिम क्षण।

वर्तमान समय का  संकट सबसे बड़ा पर्यावरण का असंतुलन है। शशि का हाइकुकार इस संकट से जूझने के लिए सन्नद्ध है-

कम्पित धरा / विषैली पोलिथिन / मानवी भूल।

जगजननी / धरती की पुकार / वृक्षारोपण।

पर्वत पुत्री / धरती पे जा बसी / सलोना गाँव। 

मानुष काटे / धरा का हर अंग / मिटते गाँव।

केदारनाथ / बेबस जगन्नाथ / वन हैं कटे। 

सामाजिक टकराव और पारिवारिक बिखराव भी  चिंता का अंग हैं - 

बेहाल प्रजा / खुशहाल है नेता / खूब घोटाले।

चिंता का नाग / फन जब फैलाये / नष्ट जीवन।

पति-पत्नी में / वार्तालाप सीमित / अटूट रिश्ता।

जोगिनी गंध में नागर और ग्रामीण, वैयक्तिक और सामूहिक, सांसारिक और आध्यात्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक अर्थात परस्पर विरोध और भिन्न पहलुओं को समेटा गया है।  गागर में सागर की तरह शशि का हाइकुकार त्रिपदियों और सत्रह वर्णों में अकथनीय भी कह सका है। प्रथम हाइकु संग्रह अगले संकलनों के प्रतिउत्सुकता जाग्रत करता है। पाठकों को यह संकलन निश्चय भायेगा और  ख्याति दिलाएगा। 
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संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१  अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष - ७९९९५५९६१८, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com 

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