१
धीरे धीरे धुल गया ,
मन मंदिर का राग
इक चिंगारी प्रेम की ,
सुलगी ठंडी आग
धीरे धीरे धुल गया ,
मन मंदिर का राग
इक चिंगारी प्रेम की ,
सुलगी ठंडी आग
२
खोलो मन की खिड़कियाँ,
उसमें भरो उजास
धूप ठुमकती सी लिखे,
मत हो हवा उदास
खोलो मन की खिड़कियाँ,
उसमें भरो उजास
धूप ठुमकती सी लिखे,
मत हो हवा उदास
३
नैनों की इस झील में,
खूब सहेजे ख्वाब
दूर हो गई मछलियाँ,
सूख रहा तालाब
नैनों की इस झील में,
खूब सहेजे ख्वाब
दूर हो गई मछलियाँ,
सूख रहा तालाब
४
जाति धर्म को भूल जा,
मत कर यहाँ विमर्श
मानवता का धर्म है ,
अपना भारत वर्ष
जाति धर्म को भूल जा,
मत कर यहाँ विमर्श
मानवता का धर्म है ,
अपना भारत वर्ष
५
शहरों से जाने लगे,
बेबस बोझिल पॉंव
पगडण्डी चुभती रही ,
लौटे अपने गॉंव
--
शशि पुरवार
शहरों से जाने लगे,
बेबस बोझिल पॉंव
पगडण्डी चुभती रही ,
लौटे अपने गॉंव
--
शशि पुरवार
प्रकृति के एक एक तत्व के श्रृंगार से ओत प्रोत पंक्तियाँ शशि जी। बहुत मोहक पोस्ट
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-04-2020) को "रोटियों से बस्तियाँ आबाद हैं" (चर्चा अंक-3686) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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कोरोना को घर में लॉकडाउन होकर ही हराया जा सकता है इसलिए आप सब लोग अपने और अपनों के लिए घर में ही रहें। आशा की जाती है कि अगले सप्ताह से कोरोना मुक्त जिलों में लॉकडाउन खत्म हो सकता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया
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