Sunday, July 20, 2014

एक प्रश्न

सोच - विचार इसके बारे में क्या कहूं . कुछ लोंगो  की सोच आजाद पंछी की तरह खुले आसमान में विचरण करती है तो वहीँ  कुछ लोगो की सोच उनके ही ताने बानो से बने हुए शिकंजो में कैद होकर रह जाती है है .कुछ दिन पहले कार्यालय में एक सज्जन और उनकी सहकर्मी  महिला से मुलाक़ात हुई. उन्होंने सहज प्रश्न किया आप क्या करती है ?
मैंने कहा - लेखिका हूँ। 
महिला  रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोली -  "हा हा क्या लिखती है ?" 

" सभी  तरह की रचनाएँ, सब कुछ कविताएँ ....!आगे कुछ कह पाती 
महिला ने बात काटकर हँसते हुए कहा - 

"  जी यह भी कोई काम है।  कविता सविता, लेखन  तो बेकार के लोग करते है , जिन्हें कोई काम नहीं होता है . कवि घर नहीं चला सकते,  वैसे भी दुखी लोग कवी बनते हैं !"

   अब मुस्कुराने की बारी मेरी थी। ऐसी विचारधारा में संगम करने से अच्छा है हम राह बदल लें।  मैने जबाब में मुस्कुरा कर कहा - अपनी अपनी सोच है , एक रचनाकार समाज का आईना होता है।  आप लोग जो पत्र पत्रिकाएं पढ़ते हैं उसमे लेखक की मेहनत की रचनाएँ होती है।आप लोग हर पत्रिका में कविता कहानी , लेखन का आनंद लेते है पर लेखक उनकी नजर में कुछ नहीं ?

  मै तो  यही कहूँगी कि लेखक ही  समाज का आइना होता है, जो हर  अनुभूति, परिस्थिति, और समय को शब्दों का जामा पहनाकर उसे स्वर्णिम अक्षरों में उकेरता है .और यह सभी कृतियाँ  अमिट  होती है . यह कोई आसान कार्य नहीं है जिसे हर कोई  कर सकता है.
 घंटो .......विचारों के मंथन के बाद ही कोई रचना जन्म लेकर आकार  में ढलकर जन जन के समक्ष प्रस्तुत होती है. बिना मेहनत ने कोई कार्य नहीं किया जाता है, इसलिए उस कार्य को  बेकार कहना कहाँ की समझदारी है, यह तो उसका अस्तिव ही नकारना है .
एक रचनाकार की पीड़ा सिर्फ एक रचनाकार ही समझ सकता है

                                          --- शशि पुरवार

Sunday, July 13, 2014

कुण्डलियाँ-- थोडा हँस लो जिंदगी



१ 
थोडा हँस लो जिंदगी, थोडा कर लो प्यार
समय चक्र थमता नहीं, दिन जीवन के चार
दिन जीवन के चार, भरी  काँटों  से राहें
हिम्मत कभी न हार, मिलेंगी सुख की बाहें
संयम मन में घोल, प्रेम से नाता जोड़ा
खुशियाँ चारों ओर, भरे घट थोडा थोडा.

२ 
फैला है अब हर तरफ, धोखे का बाजार
अपनों ने भी खींच ली, नफरत की दीवार
नफरत की दीवार, झुके है बूढ़े काँधे
टेडी मेढ़ी चाल, दुःख की गठरी बांधे
अहंकार का बीज, करे मन को मटमैला
खोल ह्रदय के द्वार, प्रेम जीवन मे फैला .

         --- शशि पुरवार

Tuesday, July 8, 2014

पीपल वाली छाँव जहाँ ...

 ,

बिछड़ गये है सारे अपने
संग-साथ है नहीं यहाँ,
ढूँढ रहा मन पीपल छैंयाँ
ठंडी होती छाँव जहाँ.

छोड़ गाँव को, शहर आ गया
अपनी ही मनमानी से,
चकाचौंध में डूब गया था
छला गया, नादानी से
मृगतृष्णा की अंधी गलियाँ
कपट द्वेष का भाव यहाँ
दर्प दिखाती, तेज धूप में
झुलस गये है पाँव यहाँ,

सुबह-साँझ, एकाकी जीवन
पास नहीं है, हमजोली
छूट गए चौपालों के दिन
अपनों की मीठी बोली
भीड़ भरे, इस कठिन शहर में
खुली हवा की बाँह कहाँ

ढूंढ़ रहा मन फिर भी शीतल
पीपल वाली छाँव यहाँ।
--- २  जून - २०१४ 

Saturday, May 31, 2014

दो बाल कवितायेँ --

 
१ 
चंदा मामा --
चंदा  मामा
तुम जल्दी से आ जाना
हाँ  प्यारे प्यारे सपने
मेरी इन आँखों में लाना
मामा  तुम जब आते हो
मन को  बहुत लुभाते हो
सभी मुझे , यह कहते है
कितना हमें सताते हो।

चंदा मामा 
तुम जल्दी से आ जाना। .......... !

मामा जब तुम आते हो 
तो ,माँ भी आ जाती है 
प्यारी प्यारी नई  कथा
हमको रोज सुनाती  है  

चंदा मामा ,
तुम जल्दी से आ जाना  ………।  

मामा जब तुम आते हो 
माँ लोरी भी गाती  है 
हाथो से थपकी देकर 
मीठी नींद सुलाती है 
वह प्यार से सुलाती है 
चंदा मामा , 
तुम  जल्दी  से आ आ जाना   . 

 --- शशि पुरवार

----------------------
२  नाना - नानी

नाना - नानी सबसे प्यारे
हमको  लाड लड़ाते है
जब भी हमसे मिलने आते
खेल खिलौने लाते है
 
रोज पार्क में सुबह सवेरे  
हमको सैर करते है 
खूब खेलते साथ हमारे 
हँसकर मन बहलाते  है
मम्मी -पापा के गुस्से से
हमको रोज  बचाते है
 
लड्डू ,पेड़े, रसगुल्ले भी
ये हमको दिलावाते है
हमसे गलती हो जाती जब
खूब हमें समझाते है

नयी नयी बातें सिखलाते
कथा -कहानियाँ सुनाते है
नयी नयी बाते सिखलाकर 
मन सबका  बहलाते है. 

--- शशि पुरवार
 
उदंती पत्रिका मई २०१४ में प्रकाशित मेरी दोनों रचनाये , सम्पादकीय टीम का आभार।

Wednesday, April 9, 2014

गजल -- मेरी साँसों में तुम बसी हो क्या।



मेरी साँसों  में तुम बसी हो क्या
पूजता हूँ जिसे वही  हो क्या

थक गया, ढूंढता रहा तुमको
नम हुई आँख की नमी हो क्या

धूप सी तुम खिली रही मन में
इश्क में मोम सी जली हो क्या

राज दिल का,कहो, जरा खुलकर
मौन संवाद की धनी हो क्या

आज खामोश हो गयी कितनी
मुझसे मिलकर  भी अनमनी हो क्या

लोग कहते है बंदगी मेरी 
प्रेम ,पूजा,अदायगी  हो क्या

दर्द बहने लगा नदी बनकर
पार सागर बनी खड़ी हो क्या

जिंदगी, जादुई इबारत हो
राग शब्दो भरी गनी हो क्या

गंध बनकर सजा हुआ माथे
पाक चन्दन में भी ढली हो क्या
-------- शशि पुरवार

Saturday, April 5, 2014

अंतर्मन






 अंतर्मन एक ऐसा बंद  घर
जिसके अन्दर रहती है 
संघर्ष करती हुई जिजीविषा,
कुछ ना कर पाने की कसक 
घुटन भरी साँसे 
कसमसाते विचार और
खुद से झुझते हुए सवाल ।
झरोखे की झिरी से आती हुई 
प्रफुल्लित रौशनी में नहाकर
आतंरिक पीड़ा तोड़ देना चाहती है 
इन दबी हुई सिसकती 
बेड़ियों  के बंधन को ,
 सुलगती हुई तड़प
 लावा बनकर फूटना चाहती है 
बदलना चाहती है,उस 
बंजर पीड़ा की धरती को,
जहाँ सिर्फ खारे पानी की 
सूखती नदी है 
वहाँ हर बार वह रोप देती है 
आशा के कुछ बिरबे ,
सिर्फ इसी आस में
कि कभी तो  बंद  दरवाजे के भीतर
ठंडी हवा का ऐसा झोखा आएगा
जो साँसों में ताजगी भरकर 
तड़प को खुले
आसमान में छोड़ आएगा 
और अंतर्मन के घर में होंगी 
झूमती मुस्कुराती हुई खुशियां 
नए शब्दों की महकती व्यंजना 
नए विचारो का आगमन
एवं कलुषित विकारो का प्रस्थान।
एक नए अंतर्मन की स्थापना 
यही तो है अंतर्मन की विडम्बना . 
शशि पुरवार 
२५ /मार्च २०१४

Monday, March 24, 2014

मुस्कुराती कलियाँ--

1
शूल बेरंग
मुस्कुराती कलियाँ
विजय रंग
2
बीहड़ रास्ते
हिम्मत न हारना
जीने के वास्ते।
3
तीखी हवाएँ
नश्तर सी चुभती
शोर मचाएं
4
तुम्हारा साथ
शीतल है चांदनी
जानकीनाथ  …

सारस आये
बनावटी चमक
जग को भाये
6
बहती नदी
पथरीला है पथ
तोड़े पत्थर
7
खिले सुमन
बगुला क्या जाने
नाजुक मन
8
मौन संवाद
कह गए कहानी
नया अंदाज.
9
मासूम हंसी
ह्रदय की  सादगी
जी का जंजाल
 10 
स्वरों में तल्खी
हिय में सुलगते
भीगे जज्बात।
 11
सुख की ठाँव
जीवन के दो रंग
धूप औ छाँव
12
भ्रष्ट अमीरी
डोल गया ईमान
तंग गरीबी
13
शब्दो  का मोल
बदली परिभाषा
थोथे  है  बोल
14
मन के काले
धूर्तता आवरण
सफेदपोश

-- शशि पुरवार

Friday, March 21, 2014

नवगीत -- अब्बा बदले नहीं




अब्बा बदले नहीं
न बदली है उनकी चौपाल

अब्बा की आवाज गूँजती
घर आँगन  थर्राते है
मारे भय के चुनियाँ मुनियाँ
दाँतों , अँगुली चबाते है

ऐनक लगा कर आँखों पर
पढ़ लेते है मन का हाल

पूँजी नियम- कायदों की हाँ
नित प्रातः ही मिल जाती है
टूट गया यदि  नियम , क्रोध से
दीवारे हिल जाती है

अम्मा ने आँसू पोंछे गर
मचता  तुरत  बबाल

पूरे  वक़्त रसोईघर  में
अम्मा खटती रहती है
अब्बा के संभाषण अपने
कानों सुनती रहती है

हँसना  भूल गयी है
खुद से करती यही सवाल
--  शशि पुरवार
 २१ /१०/१३


अनुभूति में प्रकाशित  गीत  -----

 अनुभूति में शशि पुरवार की रचनाएँ -
 



Monday, March 17, 2014

होली के रंग छंदो के संग ----





छन्न पकैया  छन्न पकैया, ऋतु बसंत है आयी
फिर कोयल कूके बागों में ,झूम  रही अमराई

२ 
छन्न पकैया छन्न पकैया, उमर हुई है बाली
होली खेलें जीजा - साली, बीबी देती गाली


छन्न पकैया छन्न पकैया ,दिन गर्मी के आये
ठंडा मौसम , ठंडा पानी, होली मनवा भाये।


छन्न पकैया छन्न पकैया ,होली है मनरंगी
कैसे कैसे नखरे करते ,खेले साथी संगी .
५ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,नेट  बड़ा है पापी
थोडा थोडा लिखने आती , होती आपाधापी। 
  ६
छन्न पकैया छन्न पकैया ,मजा फाग का आया
दीवानो की टोली घूमे , रंग गुलाल लगाया
  ७
छन्न पकैया छन्न पकैया ,गाँवो का है  दर्जा
पर्चे  बाँटे  महंगाई ने ,लील रहा है  कर्जा
 ८
छन्न पकैया छन्न पकैया ,गुझिया मन को भायी
भंग मिला कर  पकवानो में , होली खूब मनायी
 ९
छन्न पकैया छन्न पकैया ,रंगा रंग भयी  होली
छंदो के रस में भीगी है , सबकी मीठी बोली
१० 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,छंदो का क्या कहना
एक है हीरा  दूजा मोती, बने कलम का गहना
११ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,राग हुआ है  कैसा
प्रेम रंग की होली खेलो ,दोन टके का पैसा
१२ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,रंग भरी पिचकारी
बुरा न मानो होली है ,कह ,खेले दुनिया सारी
१३ 
छन्न पकैया छन्न पकैया , होली खूब मनाये
बीती बाते बिसरा दे ,तो , प्रेम निति अपनाये
१४ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,दुनिया है सतरंगी
क्या झूठा है क्या सच्चा है, मुखड़े है दो रंगी
१५ 
छन्न पकैया छन्न पकैया , बजे हाथ से ताली
छेड़े जीजा साली भागे ,मेरी ,आधी घरवाली .
१६ 
छन्न पकैया छन्न पकैया , सासू जी मुस्कायी
देवर - भाभी होली खेले , सैयां पे बन आयी।
१७ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,प्यारी प्यारी सखियाँ
दूर दूर से मिलने आय़ी ,करती प्यारी बतियाँ
    -- शशि पुरवार 
१६ मार्च २०१४ 

कुछ माहिया
ऐ ,री, सखि तुम आओ
रंगो की मस्ती
मेले में खो जाओ .
भंग चढ़ी है ऐसी
झूम रहे सजना
यह होली है देसी
फिर मुखड़ा लाल हुआ
नयनों  में सजना
मन आज गुलाल हुआ।
पकवानो में होड़ लगी
गुझिया ही जीती
शीरे में  खूब पगी
मनभावन यह होली
दो पल में भूले
वैरी अपनी बोली
रंग भरी पिचकारी
छेड़  रहे सजना
सजनी , आज नहीं हारी।

मित्रो हम जरा देर से आये। … :) पर धमाल हो जाये ,समस्त ब्लोगर परिवार को होली की हार्दिक रंग भरी शुभकामनायें। होली के सभी रंग आपके जीवन में भी उमंग भर दे -- हार्दिक शुभकामनायो सहित -- शशि पुरवार

Sunday, February 16, 2014

राग रंग का रोला .... !

सपन सलोने,
नैनो में

जिया, भ्रमर सा डोला है
छटा गुलाबी, गालो को
होले -हौले  सहलाये
सुर्ख मेंहदी हाथो की
प्रियतम की याद दिलाये

बिना  कहे,
हाल जिया का
दो अँखियो ने, खोला है

हँसी ठिठोली, मंगल-गीत
गूँज  रहे है घर, अँगना
हल्दी,उबटन,तेल हिना
खनके हांथो का कंगना

खिला शगुन के
चंदन  से
चंचल मुखड़ा भोला है

छेड़े सखियाँ, थिरक रही
फिर, पैरों की पैंजनियां
बालो में गजरा महके
माथे झूमर ओढ़नियाँ

खुसुर फुसुर की
बतियों ने
कानो में रस घोला है

सखी- सहेली छूट  रही
कल पिय के घर है जाना
फिर ,रंग भरे सपनो  को
स्नेह उमंगो से सजाना

मधुर,
तरानो से बिखरा
राग रंग का रोला है।
-- शशि पुरवार
३० /१ / २०१४

चित्र -  गूगल से आभार 

Wednesday, February 5, 2014

बासंती रंग



1
सपने पाखी
इन्द्रधनुषी रंग
होरी के संग
2
रंग अबीर
फिजा में लहराते
प्रेम के रंग
3
सपने हँसे
उड़ चले गगन
बासंती रंग
4
दहके टेसू
बौराई अमराई
फागुन डोले
5
अनुरक्त मन
गीत फागुनी गाये
रंगों की धुन .

23.03.13
शशि पुरवार
---------------------------------
सदोका ----
1हवा  उडाती
अमराई की जुल्फे
टेसू हुए आवारा
हिय का पंछी 
उड़ने को बेताब
रंगों का समां प्यारा .

2
  डोले मनवा
 ये  पागल जियरा
 गीत गाये बसंती
 हर डाली  पे
खिल गए पलाश
भीगी ऋतू सुगंधी .

3
 झूमे बगिया
दहके है  पलाश
भौरों को ललचाये
कोयल कूके
कुंज गलियन में
पाहुन क्यूँ न आये .

4
झूम रहे है
हर गुलशन में
नए नवेले फूल
हँस रही है
डोलती पुरवाई
रंगों की उड़े धूल .

5
 लचकी डाल
यह कैसा  कमाल
मधुऋतू है आई
 सुर्ख पलाश
मदमाए फागुन
कैरी खूब मुस्काई .

6
जोश औ जश्न
मन  में  है उमंग 
गीत होरी  के गाओ
भूलो मलाल
उमंगो का त्यौहार
झूमो जश्न मनाओ .
24.03.13
शशि पुरवार

Sunday, January 26, 2014

भारत सुख रंजित हो



भारत को कहते थे
सोने की चिड़िया
सुख से हम रहते थे। 
गोरों को भाया था
माता का आंचल
वह ठगने आया था

याद हमें कुर्बानी 
वीरो की गाथा
वो जोश भरी बानी .
कैसी आजादी थी
भू का बँटवारा
माँ की बरबादी थी .

ये प्रेम भरी बोली
वैरी क्या जाने
खेले खूनी होली
.
सरहद पे रहते है
दुख उनका पूछो
वो क्या क्या सहते है

घर की याद सताती 
प्रेम भरी पाती
उन तक पँहुच न पाती .
८ 
बतलाऊँ कैसे मैं
सबकी चिंता है
घर आऊँ कैसे मैं?

हैं घात भरी रातें
बैरी करते हैं
गोली  से बरसातें।
१०
पीर हुई गहरी सी
सैनिक घायल है
ये सरहद ठहरी सी।
११
आजादी मन भाये
कितनी बहनों के
पति लौट नहीं पाये।
१२
है शयनरत ज़माना
सुरक्षा की खातिर
सैनिक फर्ज निभाना।
१३
एकता से सब मोड़ो
राष्ट्र की धारा
आतंकी को तोड़ो .
१४
स्वर सारे गुंजित हो
गूंजे जन -गन - मन
भारत सुख रंजित हो

-- शशि पुरवार


आप सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ -- जय हिन्द जय भारत-- 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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